शाम को गंगापुल से पैदल वापस लौट रहे थे। सामने से टेम्पो, मोटरसाइकिल धड़धड़ाते चले आ रहे थे। लगता कि बस चले तो हमारे ऊपर से निकल जाएं। पुल पर बत्तियां गोल। अंधेरा। खम्भे पर बल्ब लगे थे लेकिन फ्यूज।
पुल भी तो पुराना है। बड़ी गाडियों के लिए बंद हो गया है। बुज़ुर्गों पर पैसा नहीं लगाया जाता अब। बुजुर्ग पुल के भी वही हाल।
कोई कोई गाड़ी इत्ती बगलिया के निकलती, लगता कि रेलिंग को खिसका कर बाहर निकलेगी और ओवरटेक करके फिर सड़क पर आ जाएगी। क्या पता कल को कोई ऐसी तकनीक आ ही जाए जिसमें गाड़ी वाला अपने पास से दस-बीस मीटर सड़क निकालकर और बिछाकर आगे निकल जाए।
कभी-कभी जब भीड़ में फँसते हैं और आगे कोई धीमे जाता दिखता है तो मन करता है अब्ब्भी के अब्ब्ब्भी एक ठो ओवरब्रिज तान दें आगे वाले के ऊपर और फांदते हुए निकल जाएं। लेकिन पुल-सुल मन की गति से थोड़ी बनते हैं। पुल के बनने की अपनी रफ्तार होती है। सीओडी के पास का पुल बनते दस साल से सुन-देख रहे हैं। घर से निकलते ही अधबना पुल रोज देखते हुए लगता है इत्ता ही बने रहने इसकी नियति है।
पुल वैसे विकास का पैमाना हैं। जित्ते ज्यादा पुल उत्त्ता ज्यादा विकास। इस लिहाज से देखा जाए तो हमारे यहां विकास ठहरा हुआ है। घिघ्घी बंधी हुई है विकास बबुआ की। किसी ने स्टेच्यू बोल दिया है विकास को। हो तो यह भी सकता है कि विकास सरपट गति से चल रहा हो और किसी जगह राष्ट्रगान शुरू हो गया हो और विकास जहां का तहां ठहर गया हो। 52 सेकेंड पूरा होने के बाद दुबारा न्यूटन के जड़त्व नियम की इज्जत के चपेटे में आ गया हो।
लेकिन लोग कहते हैं विकास हो रहा है, धड़ल्ले से हो रहा है। सेंसेक्स उचक रहा है। उछल-कूद रहा है। सेंसेक्स विकास की ईसीजी हो गया है। सेंसेक्स खुशहाल है, समझो विकास धमाल है। लोग जैसे मन आये वैसे जियें बस सेंसेक्स सलामत रहे। लोगों के मरने जीने से न सेंसेक्स को फर्क न पड़ता है, न विकास को।
पुल पर होते हुए सही सलामत घर लौट आये। रास्ते में रिक्शे पर सोते रिक्शेवाले को देखकर लगा शायद यह भी विकास का इंतजार करते-करते सो गया हो।
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