सुबह खिड़की खोली तो देखा सूरज पेड़ के ऊपर विराजमान थे। गुलदस्ते के फूल की तरह खिले हुए। सर्दियों की आमद से उनकी खूबसूरती बढ़ गयी थी। हमने गुडमार्निंग कहा तो और चमक गए।
खिड़की के नीचे सड़क जाग गयी थी। जग क्या गयी लोगों ने जगा दिया। उसके ऊपर से लोग गुजरेंगे तो सोएगी कैसे बेचारी।
एक आदमी सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। कूड़े को झाड़ू से धकेलकर सड़क से दूर कर रहा था। कुछ कूड़ा बदमाश बार-बार वापस सड़क पर आ जा रहा था। बदमाश कूड़ा न हुआ कोई नेता हो गया जो चुनाव के मौके पर वापस पार्टी में आ जाता है।
झाड़ू लगाता आदमी सर पर टोपी लगाये हुए है। जब झाड़ू थोड़ी लगा लेता है तो झाड़ू को ऐसे लेकर चलता है जैसे उत्सव फायरिंग के बाद लोग बंदूक लेकर चलते हैं। झाड़ू उसकी बन्दूक ही तो है।
होटल की छत पर लगे झंडे थोड़ा हिलडुल से रहे थे। कुछ तेजी से फहरा रहे थे। बाकी गुमसुम से थे। उन तक हवा पहुंच नहीं रही थी। जिन तक हवा पहुंच गई थी वे तेजी से हिल रहे थे। हवा भी सरकारी ग्रांट की तरह होती है। कहीं पहुंचती है तो खूब पहुंचती है। कहीं नहीं पहुंचती है तो बिल्कुल नहीं पहुंचती।
सड़क पर कई गाड़ियां किनारे खड़ी हैं। एक दूसरे की विपरीत दिशा में। आपस में बोलचाल भी नहीं रही हैं। किसी दफ्तर सा माहौल बना रखा है जिसमें अगल की सीट वाला बगल वाले से नहीं बतियाता। एक ही शहर में रहने वाले साहित्यकारों की तरह आपस में अबोला खिंचा हुआ है गाड़ियों में। एकदम आदमी टाइप हरकतें। संगत का बहुत असर होता है भाई।
छत पर एक बैगनी रंग की पतंग पेट के बल लेटी है। धूप उसकी पीठ चादर की तरह बिछी है। उसकी डोर कहीं दिख नहीं रही। क्या पता कल तक आसमान छू रही हो। आज रिटायर्ड कर्मचारी की तरह पुराने दिन याद कर रही हो।
कुछ देर बाद पतंग करवट बदलकर थोड़ी दूर जाकर दूसरी करवट लेट गयी। जैसे एक गुट से निकला असन्तुष्ट दूसरे गुट में चला जाता है।
सड़क पर खड़े एक ट्रक पर ड्राइवर लपककर चढ़ा। स्टार्ट करने के लिए चाभी घुमाई। लेकिन ट्रक का इंजन हिलडुल कर खड़ा ही रहा। थोड़ी आवाज भी की दिखाने के लिए कि वह कोशिश कर रहा है स्टार्ट होने के लिए। लेकिन हिल के नहीं दिया। ड्राईवर को नखरे पता होंगे ट्रक के। वह चाबी घुसेड़े रहा और घुमाते रहा। आखिरकार ट्रक को स्टार्ट होना पड़ा। चल भी दिया। पहले अनमने ढंग से मानो कोई पियक्कड़ चल रहा हो जिसकी रात की पी हुई अभी उतरी न हो। लेकिन बीच सड़क पर आते ही राजा बेटा की तरह चलने लगा। इससे लगा कि शुरआती अड़चनों से कोई काम छोड़ना नहीं चाहिए। लगे रहने से काम हो ही जाता है।
दिल्ली भले राजधानी हो, स्मार्ट शहर। लेकिन सड़क किनारे गन्दगी भी तसल्ली से रहती है। बैलगाड़ी और खड़खड़ा एक संग चलते हैं ऑटो सहित। ई रिक्शा यहां भी खूब चलने लगे हैं।
तीन गधे दुलकी चाल से चलते हुए सड़क पर जा रहे हैं। दो गदहों पर सवारी के रूप में लड़के बैठे हैं। तीसरा खाली पीठ जा रहा है। गदहों की दुनिया का पता नहीं मुझे। तीसरे गधे को बेरोजगार कहा जायेगा जिसको अभी बोझा नहीं मिला या फिर 'गधा प्रतिनिधि' गधा कहेंगे उसको जिसकी कमाई बाकी दो गदहों के पसीने से निकलती है।
खिड़की खोली तो सारी सूरज भाई किरणों सहित घुस आए। चेहरे , हाथ और जो भी जगह मिली विटामिन डी को गुलाल की तरह मलने लगे। घण्टे भर में जितनी धूप हमने ग्रहण कर ली खिड़की के पास बैठे हुए, उतनी पहले महीनों में नहीं हासिल की थी। किरणें भी मेज, फर्श, दीवार पर कबड्डी सरीखी खेलने लगीं। कुछ किरणें कप की आड़ में छिप कर छुपन-छुपाई खेलने लगीं। सूरज भाई बहुत दिन बाद मिले थे। गर्मजोशी से। साथ चाय पीते हुए तमाम पुरानी यादें ताजा करते रहे।
हमने सूरज भाई की तारीफ करते हुए कहा -' भाई जी, आपने तो कोहरे और धुन्ध की ऐसी तैसी कर दी। किरण चार्ज करके सबको तितर बितर कर दिया।जलवे हैं आपके तो। '
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -' ये तो तुम साहित्यकारों और व्यंग्यकारों की तरह हरकतें करने लगे जो एक दूसरे को फूटी क्या सजी आंख भी देखना नहीं चाहते लेकिन मिलने पर ऐसे गले मिलते हैं कि कपड़ों की सारी क्रीज तक खराब कर लेते हैं। तुम तो ऐसे न थे।'
हमने कहा अरे न भाई जी। हम दिल से कह रहे हैं। इस पर सूरज भाई शरारतन मुस्कराए और बोले : सच्ची ?
हमने कहा : मुच्ची।
हमने कहा : मुच्ची।
सूरज भाई और तेज मुस्कराए और चाय पीकर चलते बने। उनको पूरे जहां को चमकाना है। वो कोई हमारी तरह निठल्ले थोड़ी हैं।
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