राजोल से बचकर रहना कहने के मुस्कराहट बिखेरते पंकज बाजपेयी |
बहुत दिन से गंगा दर्शन नहीं हुये थे। मन किया देखा जाये। निकल लिये। पैदल। पुल के बगल से गुजरते हुये। नुक्कड़ तक पहुंचते-पहुंचते बारिश के पानी और मिट्टी के गठबंधन से सड़क पर कीचड़ ही कीचड़ हो रखा था।
कीचड़ पतला था। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तरह मरगिल्ला सा और अस्थाई भी। शायद इसीलिये उसमें कोई कमल नहीं खिला था। कमल खिलने के लिये भी काम भर का कीचड़ चाहिये होता है। कम कीचड़ में नहीं खिलता। खिलता होता तो अनगिनत अभावग्रस्त कीचड़ाई आंखों में कमल खिल रहे होते। उनकी जिंदगी से अंधेरा छंट गया होता।
कमल भले न खिला हो लेकिन अपन के चरण कमल तो थे ही। कीचड देखते ही चिपकने के लिये लपका। वो तो कहो ’पच्चल’ पहने थे वर्ना चिपक ही गया होता। लेकिन लाख बचाव के बावजूद कीचड की कुछ महत्वाकांक्षी बूंदे चप्पल के पीछे से होत हुई पांव, घुटन्ने, कमीज तक पहुंच ही गईं।
सड़क पर सवारियों की सबसे पहले निकलने की मारामारी थी। इस चक्कर में सबके निकलने में देर हो रही थी। कोई किसी को बगलियाकर निकला भी तो आगे फ़ंस गया। उसको फ़ंसा देखकर पीछे रह गयी सवारी के चेहरे के संतोष का वर्णन करने की क्षमता नहीं है अपने में। आप बस समझ लीजिये।
सड़क थोड़ी साफ़ हुई तो कुछ बच्चे सुट्टा लगाते दिखे। एक बच्चा सुट्टा लगाकर धुंआ दूसरे के मुंह पर फ़ेंक रहा था। सिगरेट के धुंये से अगले के गाल गरम करम करने के पीछे शायद उसकी मंशा ऊर्जा के अधिकतम संभावित उपयोग की रही होगी।
एक लड़की सर झुकाये चुपचाप सड़क पर चली जा रही थी। सड़क के अराजक माहौल से बचे रहने के लिये सर झुकाकर चुपचाप नामालूम तरीके से गुजर जाना ही समझदारी है आजकल के समय। समाज में जो अराजक नही है वे इसी तरह चुपचाप गुजरते हुये जी रहे हैं। मेरे बगल से गुजरते हुये लड़की ने अपनी मुट्ठी में दबाई हुई गुटका की पुडिया से कुछ मसाला निकालकर मुंह में रखा और शांति से आगे निकल गयी। पुडिया कसकर मुट्टी में दबा ली। शायद उसको डर हो कि कोई देखकर मांगने न लगे।
आगे सुरेश के रिक्शे के अड्डे पर राधा और सुरेश कुछ और लोगों के साथ बैठे थे। पता चला राधा कुछ दिनों से बीमार हैं। झटक गयी हैं। सुरेश दवा लाये हैं। प्राइवेट डॉक्टर से। अब कुछ फ़ायदा है। सुरेश की बात से एहसास हुआ कि आजकल किसी को सरकारी डाक्टर की दवा का भरोसा नहीं। प्राइवेट डाक्टर से इलाज नहीं कराया तो क्या कराया?
गंगा बढी हुई हैं। दोनों तरफ़ के पाट तक पानी ही पानी। अंधेरे में पानी और खतरनाक सा दिख रहा था। नाव वाले ने बताया कि अभी भी नाव चलती है। दो दिन पहले एक लड़का और एक लड़की पुल से कूद गये। लड़की को नाव वालों ने बचा लिया, लड़का डूब गया। फ़ूलने पर ही ऊपर आ पाया। पता नहीं अमूल्य जीवन को बरबाद करने का हौसला और मन कैसे बना पाते हैं लोग।
लौटते हुये एक झोपड़ी के बाहर रखे एक तख्त पर एक बच्ची गीले आटे की बहुत छोटी गोल लोई सी बनाकर एक लाइन में धर रही थी। दोनों हथेलियों के बीच रगड़कर आटे की गोलियां बनाती हुई बच्ची की उमर चार साल की है। स्कूल नहीं जाती अभी। पता नहीं आगे भी जायेगी क्या?
एक ठेलिया पर चना बेचते दुकानदार से बतियाता हुआ रिक्शावाला चना-चबेना बंधवाकर रिक्शे की गद्दी के नीचे धर रहा है। दोनों प्राणी सीतापुर के पास के हैं। इसीलिये सौदेबाजी के बाद भी बतिया रहे हैं। बतियाने में कोई पैसा थोड़ी लगता है। यहां ज्यादातर रिक्शेवाली, अस्थाई दुकानदार सीतापुर के हैं। भुजिया की दुकानपर एक बच्ची तख्त पर ठोडी सटाये सबकी बातचीत सुन रही है। पता चलता है कि १४-१५ की बच्ची की पढाई घर वालों ने तीसरी के बाद छुड़ा दी। स्कूल भेजना बन्द कर दिया, इत्ता खर्चा कहां से करें। लौंडा जा रहा है स्कूल। हम बताते हैं कि पास के सरकारी स्कूल में मुफ़्त में पढाई होती है, वहां क्यों नहीं भेजते? वो कई तर्क देते हुये हमारी बात इधर-उधर कर देते हैं। बच्ची मुस्कराते हुये हमारी बात सुनती है। उसकी मुस्कान से लगता है मानो वह कह रही हो- ’आप नहीं समझ पाओगे यह सब बात।’
बच्ची की आंखे देखकर अनायास नंदन जी की कविता याद आई:
आंखों में रंगीन नजारे,
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
इस कविता का बच्ची के चेहरे के भाव से कोई साम्य नहीं। वह पता नहीं क्या कुछ सोच रही हो। उसके सोच से एकदम अलग हमको यह कविता पंक्ति याद आ रही थी। हम अपने अनुभव संसार, याद गिरोह की जकड़ से बाहर भी कहां निकल आते पाते हैं।
रिक्शेवाला लंबा, स्वस्थ और घनी मूंछो वाला है। बताता है कि वो किसानी करते हैं। कुछ दिन रिक्शा चलाते हैं। हजार-बारह सौ जहां जमा हुए वापस लौट जाते हैं। आजकल नये रिक्शे का किराया ६० रुपये, पुराने का ४० है। रिक्शे वाले मालिक के कोई बीमारी है। हज्जारों फ़ूंक दिये लेकिन ठीक नहीं हो पाये।
सुबह पंकज बाजपेयी से भी मिले। दोपहर बाद। बोले –’माल कहां है?’ माल मतलब पालीथीन मतलब जलेबी, दही। हमने कहा आज देर हुई इसलिये नहीं लाये। अगले इतवार को लायेंगे।
फ़िर शिकायत कि मिठाई वाले ने मिठाई नहीं दी। दिलवाई। चाय पी गयी। चाय पीते हुये किसी को देखकर उसकी तरफ़ लपके। शायद उसने पैसे दिये। सटककर जेब में धर लिये। हमने पूछा –क्या है? बोले –’नोट जलाने को दिये हैं।’
हमने बताया कि हमको इनाम मिला है। बोले- ’बैंक में धरना पैसा। हम खाता खुलवा देंगे। रजोल को न बताना। मर्डरर है वह। तुम चिंता न करना। हम उसको देख लेंगे।’
चलते हुये बोले-’ सिक्का देते जाओ।’
हमने कहा-’ तुमको अभी वो पैसे दे गया है। सिक्का क्या करोगे?’
बोले –’ वो तो नोट दिया है जलाने को।’
दस रुपये का सिक्का देकर चलने लगे तो बोले- ’अबकी बार माल जरूर लाना। पालीथीन वाला।’ आंख नचाते हुये कहा-’ वहां की जलेबी बढिया रहती हैं। मालदार है।’
विदा होते समय हाथ त्रिशूल की तरह पैतालीस डिग्री झुकाते हुये बोले –भाभी को चरण छूना कहना।
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