सबको पता है कि मेलों का आयोजन मिलने-जुलने, जरूरत का सामान खरीदने-बेचने के अलावा मनोरंजन के लिये होता था। फ़िल्मों के जुड़वां भाई बिछुड़ने के लिये मेले ही आते थे। खरीद-बिक्री, मनोरंजन और मिलने-जुलने का काम आजकल मॉल्स में होने लगा है। इस लिहाज से मेले, मॉल्स के पूर्वज हैं। संयुक्त परिवार टूटने के बाद एकल परिवार की तर्ज पर मेलों की जगह अब मॉल्स ने ले ली है। मॉल्स की चहारदीवारी और मोबाइल के बढ़ते चलन के चलते मॉल्स में जुड़वां भाइयों का बिछुड़ना बन्द सा हो गया है।
पुस्तक मेला में किताबें बिकने के आती हैं। प्रकाशक बड़ी रकम खर्च करके दुकान लगाते हैं। जैसे महिलायें ट्रायल के नाम पर कपड़े पहनकर फ़ोटो खींचकर दुकान से निकल लेती हैं वैसे ही लेखक मेले में आकर किताबें उलटते-पलटते हैं। किताबों के साथ फ़ोटो खिंचाकर वापस रख देते हैं। इसके बाद अपनी किताबों की कम होती बिक्री पर चिंता करते हुये सेमिनार करते हैं।
पुस्तक मेले में प्रकाशक किताबें बेंचने के लिये तरह-तरह के फ़ंडे अपनाते हैं। किताबों के दाम दोगुने से भी अधिक करके आधे से भी कम दाम पर बेंचते हैं। मेला खत्म होते-होते छूट का प्रतिशत बढता जाता है। मेले में लाई हुई किताबें प्रकाशकों के लिये जवान बेटियों सरीखी होती हैं जिनको वह अपने पास से जल्दी से जल्दी विदा कर देना चाहता है।
लेखक भी प्रकाशकों का मुफ़्त का बिक्री एजेंट बन जाता है। मुफ़्त में या फ़िर चाय-नाश्ते के बदले दिन भर अपने जान-पहचान के लोगों को पकड़-पकड़कर किताब खरीदवाता है। किताबों पर ऑटोग्राफ़ देने की खुशी हासिल करने के लिये कई लेखक तो पाठकों को किताब अपनी तरफ़ से सप्रेम भेंट करने से भी नहीं चूकते। अधिकतर प्रकाशक बेचारे उस बंदर की तरह होते हैं जिनके हिस्से लेखक और पाठक रूपी बिल्लियों के हिस्से की रोटियी ही बदी होती हैं।
जैसे शहरों में उचक्के, जेबकतरे मोहल्ले के थाने के आस-पास ही पाये जाते हैं वैसे ही पुस्तक मेले में लेखक भी अपने प्रकाशक की दुकान के आसपास ही मंडराता मिलता है। उसको लगता है पता नहीं कब कौन ऑटोग्राफ़ लेने आ जाये।
जिन लेखकों ने पैसे देकर किताबें छपवाई होती हैं वे बेचारे दुकान के पास ही अपनी किताब की बिक्री की दुआ करते रहते हैं। उनको डर सा लगा रहता है कि दुकान से दूर होने पर दुआ कहीं कबूल न हुई तो कहीं प्रकाशक किताब की छपाई के और पैसे न मांग ले। पैसे देकर किताब छपवाने वाले लेखक के हाल उस मजूर जैसे होते हैं जिनको उनका ठेकेदार बिना मजदूरी के दिहाड़ी पर काम करवाने के बाद उनसे इस बात का कमीशन ऐंठ लेता है कि इस मजदूरी के प्रमाणपत्र के आधार पर तुमको सरकारी नौकरी के पात्र हो जाओगे।
किताबों के धंधे एकमात्र विलेन के रूप में कुख्यात प्रकाशक के लिये हर नया लेखक आशा-आशंका अनिश्चित कोलाज सरीखा होता है। उसके लिये यह अंदाज लगाना मुश्किल होता है कि लेखक उसके लिये हिट साबित होता या फ़्लॉप। इसीलिये प्रकाशक किसी अनजान लेखक पर दांव लगाने में हिचकते हैं। कुछ लोग किताब की बीमा के पैसे के रूप में छपाई का पैसा लेखक से धरवा लेते हैं।
लेखक से किताब छापने के पैसे वसूलकर प्रकाशक मीडिया को बताता है कि सस्ते दाम में पुस्तकें छापकर वह समाज और साहित्य की सेवा कर रहा है। लेखक बेचारा प्रकाशक को अपने पैसे से साहित्य सेवा का श्रेय लूटते देखता रहता है। उसको आशा रहती है कि शायद इस किताब के छपने के बाद वह सफ़ल लेखकों की गिनती में शामिल हो जाये और उसकी अगली किताब बिन पैसे छपे।
मेले में किताबों के लोकार्पण की धूम मची रहती है। पहले दिन से बिकने लगी किताबों का लोकार्पण मेले के पांचवे दिन होता है। यह कुछ ऐसे ही है जैसे ससुराल में तीन महीने रह चुकी किसी कन्या के फ़ेरे मंडप(लेखक मंच), दूल्हा (लेखक) और पंडित (विमोचनकर्ता) उपलब्ध होते ही करा दिये जायें।
पुस्तक मेले में लोकार्पण की संक्रमण इतना तगड़ा होता है कि मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशक अपनी पत्रिकाओं के विमोचन करवाते हैं। किसी भी विमोचन समारोह में सर्जिकल मुद्रा में घुसकर अपनी पत्रिका को झंडे की तरह फ़हराते हुये विमोचन करा देते हैं। पुस्तक मेला शुरु होते-होते अगर ग्यारह न बजते होते तो शायद दैनिक समाचार पत्र रोज अपने अखबार का विमोचन कराने के बाद ही हॉकर को अखबार वितरण के लिये सौंपते।
मेले में लोकार्पण करने वाले लेखकों की पूछ भी बढ जाती है। मार्गदर्शक मंडल की स्थिति को प्राप्त लेखक की स्थिति-’बूढे भारत में आई फ़िर से नई जवानी थी’ वाली हो जाती है। वह एक स्टॉल से दूसरे स्टॉल लोकार्पण करता घूमता है। प्रकाशक लोकार्पण के मौके पर चाय पीने आई भीड़ को देखते हुये किताब की बिक्री के प्रति थोड़ा आशावान हो जाता है, लेखक भावविभोर होता है। ऐसे में किताबों के कई सुधी पाठक विमोचन के बाद लेखक को बधाई देते हैं। सामने धरी किताबों में से एक को हाथ में लेकर विमोचन मुद्रा में लेखक के साथ फ़ोटो खिंचवाते हैं। किताब के बारे में बात करते हुये चाय-चुश्कियाते हैं। इसके बाद विमोचन स्थल से तड़ीपार हो जाते हैं। किताबों की चोरी चोरी नहीं कहलाती’ सूत्र वाक्य उसकी हौसला आफ़जाई करता रहता है।
समाज में किताबें पढने की कम होती आदत के बावजूद किताबों की होती बिक्री इस बात का परिचायक है कि किताबों को पसंद करने वाले पाठक अभी भी समाज में हैं। ये पाठक भले ही किताब पढे न लेकिन किताबों को खरीदकर अपने पास रखते हैं। जैसे पुराने जमाने में राजा लोग कहीं भी दौरे पर जाते थे तो वहां से निशानी के तौर पर एक नई रानी उठा लाते थे। लाकर अपने रनिवास में डाल देते थे। किताबों से प्रेम करने वाले पाठक पुस्तक मेला से किताबों खरीदकर लाते रहते हैं। अपनी आलमारियां भरते रहते हैं। किताबें भी अपने पढे जाने के इन्तजार का इन्तजार करती रहती हैं जैसे पुराने जमाने में रनिवासों में राजकाज में डूबे राजा के रनिवास में पधारने के इन्तजार में अपने बाल सफ़ेद करती रहती थीं।
आप गये कि नहीं पुस्तक मेला? कोई किताब खरीदी कि नहीं? बताइये अपने अनुभव किताबों के बारे में।
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