बेंच पर बैठे लोग |
सबेरे सड़क हाउसफुल लगती है। कुछ लोग सड़क पर इतनीं तेजी से टहलते हैं गोया उनके मन में डर हो कि कहीं सड़क खत्म न हो जाये। मानो सड़क न हुई कोई कुछ देरी की वैलिडिटी वाला ओटीपी हो जिसका उपयोग न होने पर वह खल्लास हो जाएगा।
सरकारें चुनाव के पहले ताबड़तोड़ लोकलुभावन फैसले लेती है उसी तर्ज पर लोग घर पहुंचने से पहले ताबड़तोड़ टहल लेना चाहते हैं।
कुछ लोग आहिस्ते-आहिस्ते भी टहल रहे हैं। कोई हड़बड़ी नहीं। कोई उतावली नहीं। उनको विश्वास है कि सड़क कहीं भागी नहीं जा रही। यहीं रहना है सड़क को। सड़क भी उनकी ही तरह आलसी है। इसलिए जबरियन हड़बड़ाने का कोई मतलब नहीं।
मोड़ पर कुछ लोग 'राम गिनती' कर रहे हैं। 'राम-राम-राम-59', 'राम-राम-राम-60' । उनको देखकर लगा कि राम शिक्षा का माध्यम भी हो सकते हैं। गिनती गिनते हुए लोग ताली भी बजाते जा रहे हैं। ताली से कोरोना ताली याद आई। खूब ताली-थाली बजाई हम लोगों ने। लेकिन कोरोना गया नहीं। बेहया है। नठिया कहीं का। निठल्ला बैठ गया है घुटने टिकाकर। कोई भला आदमी होता तो एक बार कहने पर निकल गया होता। लेकिन इस बेशर्म को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। वो तो कहो सुशांत, प्रशांत जैसे लोगों ने टीवी पर इसका आतंक कुछ कम किया वरना इसी करम जले को देखना-सुनना पड़ता टीवी पर।
आगे बेंचों पर काटें रखे हुए हैं। ताकि लोग बैठें न उनपर। बेंचपर कांटे देखकर लगा कि हर बैठने की जगह कांटो भरी होती है। इसीलिए आजकल सरकारें जल्दी-जल्दी बदल जाती हैं। तबादले तेजी से होते हैं। कांटे हर बैठने की जगह पर होते हैं इसीलिए शायद कुदरत ने इंसान के पिछवाड़े की खाली मोटी बनाई है।
लोग फुटपाथ पर बैठे कसरत कर रहे हैं। कोई कपालभाती कर रहा है, कोई अनुलोम विलोम। कपालभाती करते लोग हवा को इतनी जोर से अंदर दबाते हैं कि हवा बेचारी का दिन घुट जाता होगा। क्या पता हवा के कुछ हिस्से दमतोड़ देते हों। टीवी वाले अगर इसे देख पाते तो मार कवरेज के कपालभाती करने वाले को रिया चक्रवर्ती बना देते।
'अनुलोम', 'विलोम' तो एक बड़े दफ्तर के दो फाटक से घुसने-निकलने जैसा है। गेट दो हैं, दरबान एक ही। हवा को एक गेट से घुसा दिया, दूसरे से निकाल दिया। मजाल कि जिस गेट से घुसे उसी से निकल जाए हवा। लेकिन यह बड़े की बात कि कोरोना काल में थर्मल स्कैनिंग न 'अनुलोम' गेट पर हो रही है न 'विलोम' गेट पर। इसीलिए लफड़े वाली हवा भी शरीफ हवा के साथ अंदर घुसकर गड़बड़ करती है।
बगीचे में कुछ पक्षी मार्निंग वॉक कर रहे हैं। बराबर दूरी बनाए हुए। लगता है उनके यहां भी कोरोना मुनादी हो गयी है। लेकिन कोई पक्षी मास्क नहीं लगाए है। दो कुत्ते भी भागते हुए आये। लेकिन भागते हुए भी 2 गज की दूरी बनाए हुए हैं। एक कुत्ता भागते हुए ठहर गया। किनारे गए। टांग उठाकर पेड़ के तने पर 'शंका निवृत्त' हुआ। निवृत्ति के बाद उसके चेहरे पर जिस तसल्ली के भाव दिखे शायद उसी को विद्वान लोगों ने परमानन्द की संज्ञा प्रदान की है।
पता नहीं कुत्तों के यहां शौचालयों के क्या हाल हैं। शायद बाजार की तरह उनको भी लगता हो, जहाँ खाली जगह देखो निपट- निपटा लो। पूरी दुनिया ही उनके लिए शौचालय है। जहां मन आये, गन्दगी फैलाओ।
पता नहीं कुत्तों के समाज में क्या राजनीतिक व्यवस्था है। जो भी हो, कुत्तातन्त्र, लोकतंत्र से अलग कुछ व्यवस्था होती होगी। लोकतंत्र होता तो जगह-जगह कुत्ते भीड़ इकट्ठा करके भाषण देते। शायद सुअरों की मदद से सभाएं करते। लोकलुभावन वायदे करते।जीतने पर गन्दगी दूर करने की कसम खाते। जीत जाने पर सुअरों से इशारे पर नीतियां बनाते। सुअरों के पनपने के लिए गन्दगी फैलाते। चुनाव में मदद का एहसान उतारते।
ऊपर तारपर एक कबूतर अकेला बैठा है। लगता है 'सेल्फ आइसोलेशन' मोड में है। किसी कोरोना कबूतर के सम्पर्क में आ गया होगा। 'वर्क फ्रॉम वायर' के मजे ले रहा है। चोंच से पीठ सहला रहा है। पंख फुला रहा है। फड़फड़ा रहा है।
उधर सूरज भी अपने बहुरंगे परिधान में आसमान के सिंहासन पर विराजे हुए हैं। वहां कोई कांटे नहीं दिख रहे। उनके जलवे के आगे सब कुछ फीका लग रहा है। उनके जलवे पूरी कायनात के जलकुकड़े लोगों की आंखों में कांटे की तरह चुभ रहे हैं। सुबह हो गयी है। यह कोरोना-काल की सुबह है।
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