पहले का किस्सा इधर पढ़ें :
बात ईद के मेले की हो रही थी। जब तक हम ईदगाह पहुंचे, ईद की नमाज पढ़ी जा चुकी थी। ईदगाह के बाहर गेट के पास एक मोटरसाइकिल दरबान की तरह टेढ़ी खड़ी थी। हम बगलिया के आगे गए। अंदर का मंजर देखा। जगह-जगह पानी के डब्बे रखे थे, शायद नमाज पढ़ने वालों के लिए। थोड़ी देर पहले जहां हज्जारों लोग रहे होंगे, करोड़ों- अरबों आक्सीजन के अणुओं की खपत हो रही होगी , उतनी ही कार्बन डाई आक्सीजन निकल रही होगी वह इलाका खाली था।
ईदगाह के सामने मैदान में तमाम लोग आते-जाते दिखे। पता चला कब्रिस्तान है। लगभग हर कब्र पर कुछ फूल , अधिकतर गुलाब के चढ़े दिखे। कुछ कब्रों के पास खड़े लोग दुआ मुद्रा में थे। वहां मौजूद लोगो ने बताया कि अपने घर-परिवार के गुजर गए लोगों की कब्रों के पास आकर लोग उनकी याद करते हैं। फातिहा पढ़ते हैं। दुआएं भी मांगते हैं। इसी बिछुड़ गए लोगों से जुड़ी यादें ताजा करते हैं। कहते हैं :
“तुम पर सलाम ऐ कब्रोंवालों ! तुम हमसे पहले चले गए और हम तुम्हारे पीछे आने वाले हैं और अगर अल्लाह तआला ने चाहा तो हम जरूर तुम्हारे साथ मिलने वाले हैं।“
एक जगह फातिहा पढ़ने आए लोगों ने बताया कि उनके पिता 30 साल पहले नहीं रहे थे। बाद में परिवार के और लोग भी नहीं रहे। सबकी कब्रें आस-पास हैं। जगह की कमी के चलते कच्ची कब्रें बनवाई जाती हैं। कुछ कब्रें पक्की भी दिखीं। हमने पूछा तो उन्होंने कहा –‘क्या कहें इस बारे में।‘
फूल चढ़ाते, अगरबत्ती सुलगाते लोगों से बातचीत के दौरान उन्होंने हमको पहचान लिया। बताया –‘आप अयूब भाई को अस्पताल में देखने आए थे।‘ अपने बारे में बताया, काम-धाम के बारे में। अपना कार्ड भी दिया। दुनियावी सिलसिला हर जगह मौजूद रहता है।
इसी दौरान कब्रिस्तान के एक हिस्से में आग और गहरा धूँआ दिखा। किसी अगरबत्ती की चिंगारी से आग लग गई होगी। घास सूखी थी, आग अफवाह की तरह फैल गई। एक झाड़ी से आग दूसरी झाड़ी तक पसरती गई जैसे अफ़वाही संदेशे एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल में गुजरते हुए पलक झपकते सब तरफ फैल जाते हैं। गनीमत रही कि हवा तेज नहीं थी और झाड़ियाँ दूर-दूर थीं इसलिए आग अपने-आप कुछ देर में बुझ गई। धूँआ अलबत्ता काफी देर तक पसरा रहा। अफवाहों के साथ भी ऐसा ही होता है। उनके खत्म हो जाने के बाद भी उनकी स्याह तस्वीर देर तक समाज के जेहन में बनी रहती है। जाते-जाते ही जाती है।
कब्रिस्तान से बाहर आकार फिर मेले की तरफ आए। जगह-जगह दुकाने गुलजार थीं। मेले लोगों के मिलन-जुलन, रोजगार-कमाई का जरिया होते हैं। स्थानीय सुपर मार्केट, मॉल। हर तरह के सामान और हुनर की मौजूदगी रहती है मेलों में। आजकल के शापिंग मॉल मेल संस्कृति की फूहड़ लेकिन चमकदार नकल हैं।
मॉल में केवल चमकदार चीजों और नजारों के बिकने और दाखिलों की गुंजाइश होती है, जबके मेला-मदार सबके लिए खुले होते हैं। चमकदार, चटकीले, रंग-बिरंगे नजारों की अहमियत के साथ धूसर और कम चमकीले रंगों को खिलने की भी बराबर अनुमति होती है। शापिंग मॉल में जगर-मगर, चमक-दमक की तानाशाही होती है तो मेलों में हर तरह के नजारे को खिलने की आजादी। मॉल किसी समर्थ के घर खिला बगीचा जैसे होता है जिसमें केवल चुनिंदा फूल खिलते हैं। जबकि मेले एक बड़ा जंगल जिसमें हर तरह के , हर रंग के , हर तरह की खुशबू के फूल खिलने के बारबार मौके होते हैं। मेले समाज में बराबरी की मुनादी करते हैं, जबकि मॉल गैर बराबरी का भोंपू बजाते रहते हैं।
आगे एक मैदान में तरह-तरह के झूले दिखे। कुछ में लोग झूल रहे थे। बाकी झूले शायद शाम को गुलजार हों। एक जगह बच्चे कूदने वाले झूले पर कूद रहे थे। गोल घेरे में कसे कपड़े पर बच्चे उछल रहे थे। बच्चों की सुरक्षा के लिए कपड़े के घेरे पर जाली लगी थी, उसी में बने खिड़की नुमा जगह से बच्चे अंदर जाकर उछल रहे थे।
झूलों का इंतजाम देखने वाले शख्स फैक्ट्री से ही रिटायर हुए हैं। देखते ही मिले। बताया पहले भुसावल में थे। बताया रामलीला में उनके ही झूले लगते हैं। दो साल हुई नहीं रामलीला। कोरोना लीला देखते हुए निकल गए दो साल। इस बार आशा और इंतजार है कि रामलीला होगी, मेला लगेगा, झूले भी।
झूले का इंतजाम भी बड़ा टेढ़ा है। सारी जिम्मेदारी मेला लगवाने वाले की। कोई दुर्घटना घट जाए तो बवाल। जितने दिन मेला चलता रहता है,मेला लगवाने वाले के धुकुर-पुकुर होती रहती है, कोई अनहोनी न हो जाए।
लोग दुनिया को भी बड़ा मेला बताते हैं। चल रहा है न जाने कब से ,अबाध गति से। दुनिया का मेले का इंतजाम देखने वाले को कितनी धुकुर-पुकुर होती होगी, इसका अंदाज ही लगाया जा सकता है। आजकल तो दुनिया के हर इलाके में हल्ला-गुल्ला मचा है। दुनिया के मेले का इंतजाम देखने वाले कारसाज का बीपी उचकता-कूदता होगा। क्या पता कोई बढिया दवा खाते हों बीपी कंट्रोल के लिए।
एक जगह बड़े मोमिया के घेरे में पानी भरकर छोटी-छोटी पैडल वोट चलाने का इंतजाम भी था। सुबह पानी कम था। नाव लगभग जमीन पर। शाम को शायद थोड़ा पानी और भरकर उसको मिनी तालाब का रूप दे दिया जाए। तालाब से अनुपम मिश्र जी की किताब याद आई -'आज भी खरे हैं तालाब।'
वहीं तमाम दुकानों के बीच जय माँ दुर्गे की कई दुकानें भी दिखीं। एक जगह लिखा था -'पुरानी -असली'। नए जमाने में भी पुराने का ही बोलबाला है।
एक जगह दुकान दिखी -'भारत ऑटोमैटिक भूत बंगला'। कुछ अटपटा नाम। भारत शायद दुकान वाले का नाम होगा। लेकिन नाम से यह अर्थ भी निकलता है -भारत अपने आप बहुत बंगला। कैसे-कैसे नाम। वहाँ बाइस्कोप की तर्ज पर लोग शायद वीडियो देख रहे थे।
मेले से वापस लौटते हुए कई लोग मिले। एक साथी अपने बच्चों के साथ जा रहे थे। प्यारे बच्चे। नमस्ते किया तो उतरकर मिले। प्यारे बच्चे। बिटिया का नाम वान्या। वान्या, तान्या जैसे नाम रूसी होते हैं। लेकिन हमारे मुंह से निकला -अमेरिकन नाम। बिटिया ने मुझे टोंका -'अमेरिकन नहीं रूसी।' हमको एहसास हुआ कि दिमाग और मुंह का तालमेल गड़बड़ाया हुआ है। बाद में देखा तो पता चला कि वान्या तो हिंदी नाम भी होता है। वान्या मतलब वन की देवी।
वापस आते हुए मन किया कि जाकिर हुसैन से मिल लिया जाए। बहुत दिन हुए मुलाकात के। पिछले शाहजहांपुर प्रवास के दौरान बहुत दिन हमारे दफ्तर में साथ रहे। शेरो-शायरी का भी शौक। नफीस उर्दू जबान। चिन्ता तो हमेशा करते लेकिन अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है।
जाकिर हुसैन के घर जाते हुए तमाम लोग जगह-जगह ईद मिलते दिखे। कुछ बच्चे मुलाकात के सेल्फी लेते हुए भी दिखे।
एक जगह दो छोटे बच्चे मंझे का चौवा करते हुए नजर आए। चौवा करने के बाद वे मंझे को आपस में लड़ाते दिखे। मुझे लगा कि पतंग बाजी की जगह बच्चे हाथ से मंझा लड़ा रहे हैं। छतें रहीं नहीं, मैदान -पार्क सिकुड़ गये, बच्चे और क्या करें? हाथ से ही मंझा लड़ा रहे हैं।
जाकिर हुसैन से मुलाकात हुई। फैक्टरी की यादें। बोले-'13000 आदमी काम करते थे। फैक्ट्री छूटती थी तो आधे घण्टे सड़क जाम हो जाती थी। लगता था न जाने कहाँ-कहाँ से आदमी उड़ेल दिया गया है सड़क पर। अब वहाँ तो जैसे कौवे बोलते हैं।'
ईद पर जबरियन मिठाई और नमकीन खिलाया यह कहते हुए थोड़ा-थोड़ा तो सब कुछ लेना पड़ेगा। लेना पड़ता है। मुलाकात पर शेर भी सुनाया:
'जेब-ओ-जीनत का क्या तस्किरा,
सादगी है मताये खुलश-ओ-वफ़ा,
आप आएं तो आंखे बिछा दूंगा मैं,
आइएगा कभी घूमते-घूमते।'
(खूबसूरती का जिक्र क्या करें, हमारी सादगी और वफादारी ही हमारी दौलत है। आप आएंगे तो आपके सम्मान में आंखे बिछा देंगे, आप कभी आइये तो सही घूमते-घूमते)
जाकिर हुसैन जी के यहां से निकले तो बगल में रहने वाले इकबाल अपने घर ले गए जबरियन। उनके यहां से निकले तो उनके बगल वाले बोले -हमारे यहां भी चलिए। मुश्किल से उनसे फिर आने की बात कहकर निकले। अगला पड़ाव अख्तर साहब के यहां।
अख्तर साहब मतलब अख्तर शाहजहाँपुरी। उर्दू के नफीस शायर। सादा जबान में, ऊंची बात। कई किताबें। जब तक रहे फैक्ट्री के मुशायरे उनके ही जिम्में रहे। मिलने पर अपनी कई किताबें दिखाईं। उनके बारे में उर्दू अदब के नामदार अदीबों ने उनकी शायरी के बारे में जो लिखा है वो पढ़कर सुनाया। उनको सुनते हुए एक बार फिर अब तक उर्दू न सीखने का अफसोस हुआ। साथ ही यह मन भी बनाया कि फौरन सीखना शुरू करना है। लेकिन हमेशा की तरह शुरुआत अभी हुई नहीं।
अख्तर साहब की पोती मेरी फैन है , ऐसा अख्तर साहब ने बताया। उसने अपनी छोटी बहन के इंस्टाग्राम पर बनाये कई वीडियो दिखाए। देखकर लगा कि कितने हुनरमंद और काबिल बच्चे हैं।
अख़्तर साहब के यहाँ वापस लौटते हुए तमाम लोगों से मिले, फोनपर बात की। कुछ के घर भी गए। हाजी अनीस, परवेज बद्र, शाहिद रजा, अबुल हसन, नसीब सबके यहां पांव फिराए। न ,न करते हुए भी जमकर सेवईं, मिठाई, नमकीन खाई। जितनी मिठाई पिछले तीन महीने में नहीं खाई होगी उससे ज्यादा एक अकेले ईद के दिन खा गए।
मिलने वालों में पंकज भी शामिल रहे। बढिया चाय पिलाई। जबरदस्ती करने के बावजूद पैसे नहीं लिए। गाना भी सुनाया- "प्यार करते हैं हम तुम्हें इतना।"
पंकज ने मसाला छोड़ देने का वादा भी किया। दुकान पर खड़े हुये ही सामने के मकान में फैक्ट्री से रिटायर्ड शुक्ला जी दिखे जो खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन लोगों को पिलाते थे। उन्होंने इशारे से बताया कि नहाने जा रहे हैं।
कुल मिलाकर बहुत खुशनुमा दिन गुजरा। ऐसे ही दिन सबके गुजरें।
https://www.facebook.com/share/p/7jhUewCAZ8ihh9oL/
No comments:
Post a Comment