Sunday, October 16, 2022

इंसान को अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा परोपकार में लगाना चाहिए



आज सुबह देर से निकले टहलने। असल में निकलने के पहले नक्शा बनाते रहे दिमाग में कि किधर चला जाएगा आज। इसी चक्कर में निकलते-निकलते साढ़े सात बज गए। दो घंटा प्लान रास्ता तय करने में खर्च करने की बात पर नूर साहब का शेर याद आ गया:
मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
रास्ते में एक हरा पेड़ गिरा पड़ा था। जैसे किसी अच्छे-भले जवान की अचानक मौत हो जाए वैसे ही एकदम नौजवान पेड़ की डाल टूटकर सड़क पर गिरी थी। किसी पेड़ के अचानक टूट कर गिर जाने को उनके बीच पता नहीं क्या कहा जाता हो? शायद हार्ट फेल की तर्ज पर ‘डाल फेल’, ‘तना अरेस्ट’ जैसी कुछ कहा जाता हो। पेड़ के गिरने के मातम में आसपास के पेड़ शांत खड़े थे, चिड़ियाँ चुप थीं। पेड़ का तना दीवार को तोड़ता हुआ सड़क पर निढाल पड़ा था।
नदी के ऊपर सूरज भाई अपना जलवा बिखेरे हुए थे। किरणें गंगा स्नान करके चमक रहीं थी। पानी में डुबकी लगाने से नदी का पानी भी चमक रहा था। नदी में नहाने के एवज में पूरी नदी को विटामिन डी की सप्लाई कर रहे थे सूरज भाई। नदी के पानी में भँवरे, लहरें, बुलबुले उठ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि नदी डकार ले रही हो उसके चलते पानी उछाल मार रहा हो। एक चटाई नदी के बीच की रेत में फंसी पानी में डूब-उतरा रही थी। नदी का पानी चटाई को अनदेखा करते हुए उसके बगल से बहता जा रहा था।
एक आदमी बासी रोटी के दुकड़े करते हुए बड़ी के पानी में डाल रहा था। बासी रोटी से याद आया कि मीना कुमारी को बासी रोटी खाना पसंद थीं। रोटी खत्म होने के बाद उसने अपने झोले से लईया का पैकेट निकाला। पुल की रेलिंग पर रगड़कर पैकेट फाड़ा। फुटपाथ पर लईया फैला दी। इसके बाद आटे की लोई निकाली और उसके छोटी-छोटी गोली बनाकर नदी में डालने लगा। पहले रोटी और फिर आटे की गोलियां डालते हुए उसके चेहरे पर निर्लिप्त संतोष के भाव थे।
बातचीत से पता चला कि वह आदमी पेशे से हलवाई का काम करता है। फिलहाल बुधसेन मिष्ठान भंडार में काम करता है। 20 दिन का दीवाली के मौके का ठेका है काम का। सुबह 9 बजे से शाम 9 बजे तक काम। रोज के एक हजार रूपये मिलते हैं। दीवाली के बाद खुद का काम करेंगे। सहालग में हलवाई का काम। बताया कि मिठाई सब बनानी आती हैं। अच्छी सोनपापड़ी लगती है। दोपहर का खाना दुकान पर शाम का खाना घर पर खाते हैं।
मछलियों को रोटी, आटे की गोली डालने का काम कब से कर रहे हैं पूछने पर बताया-“ बहुत दिन से कर रहे हैं। इंसान को अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा परोपकार में लगाना चाहिए। न जाने किसकी सहायता से किसका भला हो जाए। मेहनत करना चाहिए। अमीरी-गरीबी का हिसाब तो चलता रहता है।“
अपने पास का सारा दाना-पानी नदी में डालने के बाद पीछे हटाते हुए चप्पल उतारी। नदी को प्रणाम किया और साइकिल स्टार्ट करके काम पर चल दिए।
पुल पर दो लड़के और एक लड़की मोटरसाईकिल से आए। देर तक वहाँ खड़े होकर नदी को देखते रहे। फ़ोटो खींचे। कुछ देर में तीनों लोग मोटरसाइकल पर बैठकर चले गए।
एक आदमी के साइकिल के स्टैंड से सड़क पर कपड़ा बड़ी दूर तक सरकता चला गया। दोनों में एक दूसरे के प्रति सहज आकर्षण सा हो गया होगा। मोहब्बत पनप गई होगी। लेकिन दुनिया को मोहब्बत बर्दाश्त कहाँ होती है? पीछे से किसी ने साइकिल वाले को ध्यान दिलाया तो उसने साइकिल पर बैठे-बैठे स्टैंड को सीधा किया। कपड़ा वहीं ठहर गया। कपड़े और साइकिल स्टैंड की प्रेम कथा अचानक खत्म हो गई।
पुल पर से जय हो फ्रेंड्स ग्रुप के लोग बच्चों को पढ़ाते दिखे। एक महिला उनको देखकर रुक गई। पुल पर पान मसाले की दुकान लगाए आदमी से पूछा-“ ये लोग यहाँ क्या करते हैं?” मसाले वाले ने बताया कि ये लोग बच्चों को मुफ़्त पढ़ाते हैं। महिला ने कहा-“ मैं देखती थी। पहले यहाँ लोग जूडो-कराटे सिखाते थे। पढ़ाते भी हैं। बहुत अच्छा काम करते हैं।“
पुल की रेलिंग के सहारे खड़े होकर नदी को देखते रहे कुछ देर। फिर सड़क पर आते-जाते लोगों को देखा। अलग-अलग अंदाज में गुजरते दिखे लोग। कोई सर झुकाए उदास सा जाता दिखा, कोई फुर्ती से लपकता हुआ, कोई मुस्कराता हुआ बतियाता हुआ। साइकिल वाले खरामा-खरामा जाते दिखे, आटो वाले फर्राटा मारते। बगल के पुल से रेलगाड़ी गुजर रही थी। रेलगाड़ी से कुछ लोग हाथ उचकाकर नदी में सिक्के फेंक रहे थे।
नीचे एक परिवार बैठा दिखा। दो बच्चे ठेलिया पर बैठे-लेटे खेल रहे थे। एक बुजुर्ग महिला, एक जवान आदमी-औरत आपस में गपिया रहे थे। हमने ऐसे ही बात शुरू करने की गरज से बच्चों से पूछा-“आज पढ़ने नहीं गए?” बुजुर्ग महिला ने बताया-“ हाँ, आज नहीं गए।“ पास जाकर बातचीत करने पर बच्चों ने बताया –‘ये एलकेजी में पढ़ता है, हम क्लास टू में पढ़ते हैं।‘ इतना बताकर वे फिर खेलने में मशगूल हो गए।
ठेलिया में कागज की कतरन जमा थी। सेव लगाते हैं शाम को बताया महिला ने। नौजवान कुछ बोल नहीं रहा था। चुपचाप औरत की तरफ देखता बैठा था। सामने बैठी औरत हाथ में मेंहदी लगाए बैठी मुंह फुलाये सी बैठी थी। उनके बीच का पसरा सन्नाटा बता रहा था कि मामला तनावपूर्ण है। हम आगे बढ़ लिए।
आगे दुकान पर लिखा ‘बदरका’ वालों की दुकान। बर्तन की दुकान था। बालटी पोंछ रहे रहे बच्चे ने बताया –‘बीस मील दूर है बदरका यहाँ से। बदरका अमर शहीद चनद्रशेखर’ आजाद’ की जन्मस्थली/पैत्रक निवास है। जाएंगे कभी देखने।
आगे टेम्पो स्टैंड पर तमाम टेम्पो, ई-रिक्शा दिखे। कोई स्टेशन जा रहा था , कोई बड़ा चौराहा। हम स्टेशन जाने वाले ई-रिक्शा पर बैठ गए। हमारे साथ बैठे दो लोग स्टेशन से मिट्टी के दिए लेने जा रहे थे। थोक में बिकते हैं वहाँ। डेढ़ और रुपए के सौ के हिसाब से मिलते हैं थोक में। आपस में बतियाते हुए घंटाघर पहुंचे। किराया पूछा तो बोला –“पंदा रुपया।“ 4.1 किलोमीटर की दूरी के 15 रुपए। मतलब तीन रुपया छाछट पैसा प्रति किलोमीटर।
किराया देकर हम उतर गए। ई-रिक्शा वाला जरीब चौकी की तरफ चला गया।

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