Friday, October 21, 2022

दाल रोटी चल जाती है



नेपाल के संस्मरण लिखने के चलते लोकल किससे पिछड़ रहे। मेक इन इंडिया के जमाने में यह अच्छी बात नहीं। इसलिए बीच-बीच में कानपुरिया किससे भी चलते रहने चाहिए।
बाज़ार जाते हैं तो लोगों से बातचीत में बहुत कुछ पता चलता है। इतवार को एक ताला ख़रीदने गये। दुकान के बाहर अंदर पहनने वाले कपड़े झालर की तरह लटके थे। हमको पता था कि ये ताले भी रखते हैं। ताला माँगा तो पूजा करना स्थगित करके ताले दिखाए। दिए। इसके बाद धूप बत्ती जलाई। हमने कहा -‘पूजा कर लिए होते पहले।’
बोले -‘फिर आपको इंतज़ार करना पड़ता।’
कोई और बात हुई तो वो अपने घर के बारे में बताने लगे। पत्नी बीमार हैं। उनकी भी देखभाल करनी होती है दुकान के साथ। न्यूरो की समस्या है।
बड़े होने के साथ लोगों की मानसिक समस्यायें बढ़ते देख रहे हैं। तनाव, अकेलापन और दीगर बवाल तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
‘उनको भी ले आया करो दुकान साथ में। अच्छा लगेगा।’ -हमने बिना माँगी सलाह उछाल दी।’
‘सही कह रहे आप। एक दिन लाए थे। दिन भर रहीं दुकान पर। खुश रहीं। लेकिन फिर बाद में आईं नहीं।’- दुकान वाले ने बताया।
‘बच्चियों की शादी हो गई। मियाँ-बीबी हैं। अब ऐसे ही कट रही है ज़िंदगी।’- कहते हुए कई तरह के ताले दिखाए। कुछ में साफ़ लिखा था -‘मेड इन चाइना।’
देशभक्ति के चलते हमने चीनी ताले नकार के देशी ताले लिए। ब्रांडेड। चले आये।
शाम को सब्ज़ी ख़रीदने गये। लौटे तो गज़क, लैया-पट्टी का ठेला दिखा। ग़ज़क ली। बतियाये।
पता चला दो महीना यही बेंचते हैं। बाक़ी दिन पानी के बतासे। पानी के बतासे में कमाई अच्छी होती है। लेकिन जाड़े में बिक्री नहीं होती उसकी। इसलिए जाड़े का मौसम गज़क ,लैया-पट्टी के नाम।
कमाई की बात पर बोले-‘दाल रोटी चल जाती है।’
आवाज़ में आस्था है। किसी तरह ज़िंदगी गुजरने का भाव। अभाव है लेकिन शिकायत नहीं। बच्चे पढ़ रहे हैं।
देश की क्या दुनिया की बहुत बड़ी आबादी तमाम अभावों के बावजूद इसी आस्था और विश्वास के भाव से जी रही है। -‘गुजर रही है। कट रही है किसी तरह।’
चलते समय गुड और मूँगफली की पट्टी के दाम पूछे। दाम बताने के पहले ही मन में तय किया कि लेना नहीं है। गज़क बहुत है।
दाम बताते हुए यह भी कहा कि ले जाइए। अच्छी है। साठ रुपये का पैकेट था।
दाम ज़्यादा नहीं था लेकिन हम पहले ही न ख़रीदने के निर्णय पर अमल करते हुए चल दिये। भुगतान नक़द ही हुआ। गूगल पे के झाँसे में अभी तक नहीं आए थे ठेलिया वाले।
चल तो दिए लेकिन आगे बढ़ते हुए ठेलिया वाले की बात पीछा करती रही -‘ले जाइए। अच्छी है।’
आवाज़ ने क़रीब सौ मीटर तक पीछा किया। धीमी होती गई। और धीमी हो इसके पहले हम पलट लिए। गुड की पट्टी ख़रीदी। वापस आये। घर में आकर उस दिन दूध के साथ गुड की जगह गुड पट्टी खाई। अच्छा लगा।
दो दिन हुए इस बात को। अभी भी उनका लहजा याद आता है कहने का -‘दाल रोटी चल जाती है।’

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