सुबह टहलना एक मजेदार अनुभव होता है। तमाम तरह के नजारे दिखते हैं। फिर उन पर लिखना भी रोचक। लिखाई तो एक तरह से घुमाई की डायरी सी होती है। जैसे मीटिंग के बाद 'मिनट्स ऑफ मीटिंग' बनते हैं वैसे ही 'मिनट्स ऑफ टहलाई'। जबलपुर में रहने के दौरान शुरू हुआ यह सिलसिला। कभी देर हो जाती लिखने में तो Surendra Mohan Sharma जी फोन करके पूछते -'आपका रोजनामचा नहीं आया अब तक।'
कल रास्ते में एक साइकिल की दुकान दिखी। मिस्त्री साइकल का पंचर बना रहा था। साइकिल के हैंडल और कैरियर पर सामान लदा था। साइकिल को मय सामान सड़क पर लिटा कर पंचर बनाया जा रहा था। ऐसे जैसे साईकिल सड़क की ऑपरेशन टेबल पर लेटी हो। मन किया फोटो लें लेकिन फिर ठीक नहीं लगा। साइकिल की निजता खंडित होती। उसको बुरा लगता।
चौराहे पर एक लड़का साइकिल से आ रहा था। न जाने क्या हुआ वह सड़क पर गिर गया। पीछे ट्रक आ रहा था। ट्रक रुक गया। बच्चा फौरन उठ गया। हम एकदम पास थे। उठे हुए बच्चे को सहारा देकर किनारे लाये। पूछा -'कहीं चोट तो नहीं लगी?बच्चा चुप रहा। लगी नहीं थी उसके। साइकिल भी सलामत थी।
बच्चा आगे जाता तब तक पीछे स्कूटर पर एक आदमी दो बच्चों को बिठाए आया और बच्चे को धीमी लेकिन सख्त आवाज में, स्कूटर पर बैठे-बैठे हड़काने लगा -'बहुत हीरो बनते हो।' वह शायद उसका पिता था।
बच्चा चुप था। चोट से ज्यादा शायद पिता की डांट से सहमा था। बाप के मुंह पान मसाले से भरा था इसलिए आवाज तेज नहीं थी लेकिन कड़क बाप वाली तो थी ही।
बच्चा कुछ बोला नहीं। चुपचाप सर झुकाये खड़ा रहा। स्कूटर पर सवार भाई-बहन उससे भी छोटे थे। वे अपने बड़े भाई को गिरने के बाद हड़काये जाते देख रहे थे। जैसे किसी अधिकारी को उसके मातहतों के सामने हड़काया जाए उसी तरह का सीन था।
हमने स्कूटर सवार को समझाया -'अभी बच्चा गिरा है। बाद में हड़काना।'
बाप बोला -'अरे, समझाएंगे नहीं तो अक्ल कैसे आएगी।'
हमने कहा-'अक्ल आ जायेगी बाद में। अभी तो उससे प्यार से
बात करो। सहम हुआ है बच्चा।'
(मन तो किया कहने का कि अभी तुममें नहीं आई अक्ल तो उसमें कहाँ से आ जायेगी। लेकिन ऐन टाइम पर अक्ल आ गई। नहीं कहा।)
बाप ने हड़काना स्थगित किया। लेकिन आंखों की सर्चलाइट से बच्चे को सेंकता रहा देर तक। बाद में सब लोग चले गए। हम भी आगे बढ़ गए।
फुटपाथ पर दो लोग ग्लास में रंगीन पदार्थ लिए आचमन कर रहे थे। सुबह-सुबह ग्रीन टी पी रहें हों शायद। लेकिन उनके अंदाज से लगा कि दारु ही है। हमको जैसे चाय की लत वैसे उनको दारू की।
आगे हीरपैलेस की बिल्डिंग दिखी। चारों तरफ खपच्चियों का पलास्टर। ऐसा लगा जैसे बिल्डिंग की पसलियां टूट गईं हों और उनको बांस की खपच्चियों के सहारे ठीक करने के लिए बांध दिया गया हो। कभी शहर के सबसे शानदार सिनेमा हाल के यह हाल देखकर लगा -'सब दिन जात न एक समान।'
सामने मट्ठे का ठेला लगाए आदमी ने बताया -'माल बनेगा यहां। अजय देवगन ने खरीदी है बिल्डिंग। उसका माल बनेगा।'
आज दुनिया पूरी तरह एक बाजार में तब्दील हो गयी है। हर शानदार इमारत एक मॉल में बदल रही है। राजाओं के महल बड़े होटलों में बदल गए हैं। सारे हुक्मरान मल्टीनेशनल कंपनियों के सेल्समैन की तरह काम कर रहे हैं। बाजार ने पूरी दुनिया पर कब्जा कर रखा है।
पार्क के बाहर दुपहिया वाहन लाइन से खड़े थे। पार्क के सामने पार्किंग शुल्क दस रुपये था। जमीन पर गाड़ी करने के पैसे पड़ने तो बहुत पहले शुरू हो गए। बड़ी बात नहीं कल को धूप और छाया पर खड़े होने की भी फीस पड़ने लगे।
आगे एक बन्दर परिवार मजे में धूप में बैठा विटामिन डी ले रहा था। बंदरिया अपने बच्चों को सहला रही थी। बच्चे मस्त धूप में लोटपोट हो रहे थे। बन्दर परिवार आने जाने वाले लोगों से बेपरवाह धूप के मजे ले रहा था। उनके हाथ में कोई मोबाइल, स्मार्टफोन भी नहीं था। हमको उनकी निश्चिन्तता से जलन हुई।
लेकिन जलन क्यों। कोई हमसे पूछे -'बन्दर बनोगे?' हम फौरन कहेंगे न। हमारी यही जिंदगी बढिया।
है कि नहीं?
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