कल शहर गए। कुछ काम से। वैसे शहर जाना भी के बड़ा काम है आजकल। चलने से पहले सोचना पड़ता है -किधर से जाएँ? सड़क पर वाहनों की भीड़। कारें ही कारें, आटो ही आटो, ई रिक्शे ही ई रिक्शे। हर सवारी दूसरी से हलकान। कार वाले ई रिक्शों से परेशान कि कहीं भी घुसे चले जाते हैं। बड़ी-बड़ी कारें, आटो और ई रिक्शों से अपने शील की रक्षा करते हुए चलती हैं। उनको डर है कोई रिक्शा उनको 'बैड टच' करते हुए न निकल जाए। पुरानी गाड़ियाँ अलबत्ता बिंदास चलती हैं। वे राणा सांगा हो गयी हैं -' जहां इत्ते लगे हैं वहाँ एक घाव और सही।'
ई रिक्शे वाले सोचते होंगे -इत्ती बड़ी गाड़ी में अकेला इंसान जा रहा है। इससे अच्छा तो हमारे साथ ही चलता। हमको सवारी मिलती। उसके पैसे बचते।
आज के दिन शहर में सड़क पर चलना भी एक युद्द में भाग लेने जैसा है। न जाने कौन गली में जाम मिल जाए। न जाने कौन सड़क पर ट्रैफ़िक डायवर्जन मिल जाए। कल तक आने-जाने वाली सड़क एकल मार्ग हो जाए। कुछ कहना मुश्किल।
बड़े शहरों में आज ट्रैफ़िक के हाल हैं उसको देखते हुए बड़ी बात नहीं कि आने वाले दिनों में घर से निकलते हुए लोगों की आरती करके, टीका लगाकर विदा करने लगे जैसे पुराने जमाने में युद्ध पर जाने वाले योद्धाओं को लोग घर वाले विदा करते थे। सड़क पर चलना युद्ध लड़ने से कम जोखिम का काम नहीं है।
रास्ते में पंकज बाजपेयी के ठीहे के पास से निकले। पहली बार जब मिले थे पंकज तो सड़क के बीच डिवाइडर पर बैठे मिले थे। ऐसे जैसे देशी कमोड पर बैठे हों। आते-जाते कई दिन देखने के बाद उत्सुकता हुई। बातचीत शुरू हुई। उनके बारे में किस्से सुने। अब तो कई वर्षों की दोस्ती हो चुकी है। फिर भी हर मुलाक़ात में कोई न कोई नयी बात पता चलती है।
इस बीच सड़क के डिवाइडर भी डिवाइड हो गया है। बीच में लोहे के सरियों की जाली लग गयी है। अब डिवाइडर पर बैठना सम्भव नहीं। पंकज बाजपेयी का बैठने का ठीहा छिन गया है। अब पंकज बाजपेयी राजनीति में तो है नहीं जो इसके ख़िलाफ़ आंदोलन करने लगें। वो कोई वोटबैंक तो है नहीं। अकेले की कौन सुनता है।
सड़क के डिवाइडर पर लोहे की सरियों और सड़क किनारे लोहे की चद्दरों की खड़ी दीवार देखकर मुझे लगता है यह किसी लोहे के व्यापारी का माल खपाने के लिहाज़ से किया गया काम है। सड़क किनारे लोहे की चद्दर से सड़क आजकल के राजनीतिज्ञों की तरह सिकुड़ गयी है।
जाते समय तो पंकज दिखे नहीं अलबत्ता लौटते समय अपने ठीहे के पास सड़क किनारे खड़े दिखे। उनके बग़ल में गाड़ी खड़ी करके आवाज़ लगाई तो लपककर आए और हाथ तिरछे करके चरण स्पर्श का इशारा किया। बात और शिकायत एक साथ शुरू हो गयी। पंकज की बातचीत एकदम स्वतःस्फूर्त , बेसिरपैर की रहती है। एक वाक्य का दूसरे से कोई सम्बंध नहीं। ईरान के फ़ौरन बाद तूरान, आयें के फ़ौरन बाद दाएँ मुड़ जाती है उनकी बतकही। उनकी बात सुनकर उसका मतलब निकालना मुश्किल रहता है। ऐसे लगता है उनके मुँह में कोई रिकार्डर फ़िट है जो उलजलूल बातें उगलता रहता है। ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। ऐसे जैसे सामने लाखों का हुजूम हो और उसको सम्बोधित कर रहे हों। मज़े की बात उनको इस बेसिर पैर की हांकने के लिए किसी माइक या टेलिप्रामप्टर की ज़रूरत नहीं होती।
कल उनके डायलाग जो मुझे याद रह गए वो इस तरह हैं:
-गवाही देनी है खन्ना के केस में। दिल्ली चले जाना।
-कोहली भाग गया। उसका मर्ड़र केस ख़त्म हो गया। जिस लड़की के साथ उसने ग़लत काम किया था उसकी शादी हो गयी।
-मम्मी जी के पास चले जाना। उनसे बात हो गयी है।
-जलाने के लिए नोट दे जाना आज। हम तुमको सर्टिफिकेट दे देंगे।
-गाड़ी में परफ़्यूम लगवा लेना। बढ़िया ख़ुशबू आती है।
-कचहरी में मुक़दमा चल रहा है रामलाल का। उसको सजा हो जाएगी अगले हफ़्ते।
इसी तरह की और भी एक के बाद दूसरी बात। लेकिन पंकज की बात में हिंदू-मुसलमान नहीं आता। किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। दिमाग़ फिर गया है लोग पागल कहते हैं लेकिन किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। कोई कह सकता है -'पागल है इसीलिए किसी के किसी के प्रति कोई घृणा नहीं है। आज तो बिना घृणा के काम ही नहीं चलता समाज का।'
आगे बात करते हुए उन्होंने पूछा -'माल नहीं लाए इस बार भी?'
'माल' मतलब -'जलेबी, दही, समोसा।'
हमने कहा -'घर से नहीं लाए। लेकिन यहीं दिला देंगे।'
वो बोले -'देता नहीं है नीरज। तुम पिछली बार कह गए थे फिर भी नहीं दिया।'
नीरज वहीं पंकज के ठीहे के सामने, अनवरगंज की तरफ़ जाने वाली सड़क के नुक्कड़ की मिठाई की दुकान पर काम करने वाले लड़के का नाम है। हमने उससे पूछा तो हंसते हुए बताया उसने -'अपने लिए लेते हैं रहते हैं पंकज सामान। रोज़ सौ-दो सौ रुपए खर्च करते हैं।'
ये सौ-दो सौ रुपए पंकज से मिलने वाले लोग देते उनको देते रहते हैं। हमारी मुलाक़ात तो अब कभी-कभी ही होती है। लेकिन कई नियमित मिलने वाले हैं जो उनको 'जेबखर्च' टाइप देते रहते हैं। 'जेबखर्च' टाइप इसलिए कि पंकज आम लोगों से माँगते नहीं। उन लोगों से जो उनसे बात करते हैं हक़ से लेते हैं। लपककर मिलते हैं। पैसे लेते हैं लेकिन रिरियाते नहीं। दैन्य भाव नहीं है। इठलाहट है उनके माँगने में। ठुनककर माँगते हैं -' सौ रुपए देना अबकी बार। नहीं सौ ही लेंगे। पचास नहीं। बीस नहीं।'
नीरज की शिकायत की तो मैंने नीरज को कुछ पैसे दिए। कहा -'जो मिठाई ये कहें दे देना।'
पंकज ने मिठाई की दुकान के काउंटर पर रखी एक मिठाई की तरफ़ इशारा करते हुए कहा -'ये लेंगे।' इसके अलावा एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल 'माउंटेन ड़्यु' की फ़रमाइश की। हमने कहा -'ले लेना। पैसे हमने दे दिए हैं नीरज को।'
इसके बाद चाय पीने के इसरार किया पंकज ने। हम गए चाय की दुकान पर। मामा की चाय की दुकान। वहाँ से चाय लेकर फिर मिठाई की दुकान के सामने आ गए सड़क पर। बात करने लगे।
हमने कहा -'पंकज तुम चलो हमारे साथ। हमारे घर रहो चलकर।'
बोले -'हम कानपुर में नहीं रहेंगे। यहाँ पालूशन बहुत है।'
हमने पूछा -'फिर कहाँ रहोगे ?'
बोले -'बम्बई में। वहाँ हमारा घर है। तुमको भी ले चलेगें। चलना।'
हमने कहा ठीक। अब चलते हैं। पंकज ने फिर पैसे की ज़िद की। कुछ देर इत्ते नहीं इत्ते वाली तकरार होती रही। पंकज बच्चों की तरह ठुनकने भी लगे। उनके ऐसा करते हुए साथ साल के इंसान के चेहरे पर एक छोटा बच्चा सवारी करता दिखा। आख़िर में उनकी बात मान कर उनको जेब खर्च दिया।
पैसे मिलने के बाद पंकज हमको फ़ौरन विदा करने वाले अन्दाज़ में आ गए। बोले -'सेफ़्टी बेल्ट लगा लेना। सड़क पर भीड़ बहुत है। जल्दी जाओ। खाना खा लेना। गंदी चीज़ मत खाना।'
पहले हम सोचते थे कि पंकज का इलाज करवाया जाना चाहिए। अब सोचते हैं -'ये ऐसे ही ठीक हैं। कम से कम ज़िंदगी बसर तो कर रहे हैं। इलाज के बाद कहीं ठीक हो गए तो जिएँगे कैसे ?'
आपका क्या सोचना है इस बारे में ?
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