Wednesday, October 23, 2024

अदालती फ़ैसले

 प्रसिद्ध कथाकार हृदयेश जी शाहजहांपुर की अदालत में काम करते थे। अदालत के अनुभव के आधार पर उनका लिखा उपन्यास 'सफ़ेद घोड़ा काला सवार' भारतीय न्याय व्यवस्था पर लिखा और उसकी पोलपट्टी खोलने वाला अद्भुत उपन्यास है। इस उपन्यास में छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से अपने देश की अदालतों में हो रहे न्याय के प्रहसन पर सटीक कटाक्ष किए गए हैं।

भारतीय न्याय व्यवस्था का परिचय पाने के लिए यह उपन्यास पढ़ना बहुत सहयोगी है। बहुत रोचक उपन्यास है यह।
उपन्यास के एक अंश में एक जज साहब का क़िस्सा मज़ेदार है। जज साहब को ऊँचा सुनाई देता था। वे सुनने की मशीन (हियरिंग एड) का उपयोग करके अदालती कार्यवाही करते थे। दलीलें सुनते थे। फ़ैसला देते थे।
एक बार एक मुक़दमे की फ़ाइनल सुनवाई के दिन उनकी सुनने की मशीन की बैटरी कमजोर हो गयी या शायद तार हिल गया। उनके सुनने में व्यवधान हुआ। कभी सुनाई देता, कभी घरघराहट होती और कभी एकदम सुनाई देना बंद हो जाता। जज साहब किसी को ज़ाहिर नहीं होने देते कि उनको ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है। वे पूरा मुक़दमा बिना ठीक से सुने अपने हिसाब से फ़ैसला सुना देते हैं। शायद में सिक्का उछाला होगा। शायद अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर फ़ैसला दिया हो।
बहुत दिन पढ़े इस उपन्यास का यह हिस्सा कल अचानक याद आया जब भारत के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने ज़िक्र किया कि बाबरी मस्जिद वाला फ़ैसला करने के लिए वे भगवान की शरण में गए।
इससे यह भी अंदाज़ा लगा कि चाहे अदालत चाहे छोटी हो या बड़ी , न्यायमूर्तियों के फ़ैसले लेने के अन्दाज़ एक जैसे होते हैं।
इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज जस्टिस काटजू की राय टिप्प्पणी में।

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