Friday, July 04, 2025

टहलते हुए मास्टर स्ट्रोक

 टहलने निकलते समय हर बार ज़ेहन में सवाल उठता है -'किधर चलें?' हर बार की तरह आज भी उठा यह सवाल। पहले हमने  पार्क में जाकर टहलने की सोची। चल भी दिए उस तरफ़। लेकिन  पार्क की तरफ़ जाने वाले गेट तक पहुंचकर अचानक दूसरी तरफ़ मुड़ गए और सड़क पर आकर टहलने लगे। 


पार्क जाने की जगह सड़क पर आ जाना एक सामान्य इंसान के लिए  सामान्य घटना है। लेकिन किसी असामान्य इंसान के साथ यह घटना होती तो उसके भक्त लोग इसे उसका 'मास्टर स्ट्रोक' बताते। क्या 'मास्टर स्ट्रोक' मारा है कहते हुए उसकी वंदना के स्वरों में अपना सुर मिलाने के आह्वान करते। जो न मानता उसे सामान्य नागरिक के पद  से बर्खास्त करके विधर्मी, देशद्रोही के खाते में डाल देते। 


श्रीलाल शुक्ल जी अपने उपन्यास 'रागदरबारी ' में लिखते हैं : "उत्तम कोटि का सरकारी आदमी, कार्य के अधीन दौरा नहीं करता। वह जिधर निकल जाता है उधर ही उसका दौरा हो जाता है।" इसी तर्ज पर बड़े लोगों से  जो भी काम हो जाता  वह उनका 'मास्टर स्ट्रोक' होता हैं।बड़े लोग किसी के सामने मुर्गा बनते हुए घिघियाते भी हैं तो उनके भक्त लोग कहते हैं -"वाह, क्या मास्टर स्ट्रोक मारा है। अगले के सामने मुर्गा बनकर दिखा दिया और उसकी हिम्मत नहीं हुई कुछ बोल सके। 


सड़क पर लोग आने-जाने लगे थे। बच्चे स्कूल जा रहे थे, बड़े लोग काम पर। हम न स्कूल जाने वालों में, न काम पर जाने वालों में बेमतलब सड़क पर टहल रहे थे। 

पहले ही मोड़ पर नुक्कड़ पर एक पंचर वाले की दुकान पर पंचर के रेट लिखे थे। 'मशरूम पंचर'  दाम   300 रुपए लिखे थे। हमें मशरूम के बारे में पता था, पंचर के बारे में पता था लेकिन  'मशरूम पंचर' के बारे में नहीं पता था। दुकान बंद थी वरना पूछ लेते। अगली बार पूछेंगे अगर याद रहा। 

लेकिन यहाँ 'मशरूम पंचर' रिपेयर रेट  बताकर मुझे डर लग रहा है कि कहीं कोई अगले चुनाव में देश की महँगाई का ठीकरा पंचर बनाने वालों पर न फोड़ दे। कहे -"भाइयों और बहनों, ये पंचर बनाने वाले लोग 300 रुपये में पंचर बनाते हैं। मंहगाई बढ़ने का कारण ये पंचर बनाने वाले हैं।"

सड़क के सामने से जिला अस्पताल का बोर्ड दिख रहा था। 'अस्पताल' के बोर्ड से 'स्प' ग़ायब था। हालांकि यह कोई बड़ी बात नहीं  अस्पताल जब बिना जरूरी दवाओं और मेडिकल स्टाफ के काम कर सकते हैं तो बोर्ड में  डेढ़ अक्षर न होना कोई बड़ी बात नहीं। 

सामने सड़क अभी चलने को काफ़ी उपलब्ध थी लेकिन हम अचानक बिना हाथ दिए बायीं तरफ़ मुड़ गई। इससे एक बार फिर तय हुआ कि आदतें दूर तक पीछा करती हैं।  गाड़ी चलाते अक्सर बिना हाथ/इंडीकेटर  दिए मुड़ जाने वाली आदत पैदल चलते समय भी हावी है। गाड़ी चलाते समय तो अक्सर मुड़ने के बाद हाथ दे देते हैं लेकिन पैदल चलते हुए वह ज़हमत भी नहीं उठाई हमने। मुड़ गए तो मुड़ गए। जो होगा देखा जाएगा। 

आगे एक सीवर सफाई गाड़ी नाली के पानी में पाइप डाले उसको साफ़ कर रही थी। गाड़ी के पीछे रोमन में लिखा था -चकाचक।  हमसे कोई हालचाल पूछता है तो बिना सोचे आदतन कहते हैं -'चकाचक।' हमको लगा कि हमारी बातचीत सुनकर गाड़ी वाले ने नक़ल कर ली है। 

तिराहे पर कबूतर दाना चुगकर शायद अपने-अपने ठीहे पर जा चुके थे। कोई किसी दफ़्तर के मुंडेर पर, कोई किसी धार्मिक स्थल पर, कोई वीराने में, कोई कहीं बाग-बगीचे में। अब कबूतरों की दुनिया का मुझे पता नहीं लेकिन क्या पता वहाँ भी कोई वर्गीकरण होता हो। दफ़्तरों के कोटरों में बैठने वाले कबूतर कामकाजी कबूतर कहलाते होने,  बाग-बग़ीचों , वीरानों में घूमने वाले कबूतर आवारा/ बेरोजगार/मजनू कबूतर, धर्मस्थलों में घूमने वाले धार्मिक कबूतर। और भी तमाम  श्रेणियाँ होंगी। 

क्या पता कबूतरों के यहाँ भी चुनाव होते हों, उनके भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति होते हों, उनका भी  कोई 'गुटरगूँ मीडिया' होता हो जो अपने नायक के कसीदे काढ़ता हो, उसके हर स्ट्रोक को 'मास्टर स्ट्रोक' बताता हो। उनके यहाँ भी कबूतरों के दो गुटों में लड़ाई होती हो जिसके रुकने पर कोई तीसरा  कबूतर कहता हो -"हमने सीज फायर करवा दिया।"

आगे और भी तमाम बातें सोचीं कबूतरों के बारे में लेकिन यह सोचकर नहीं लिख रहे कि न जाने कौन कबूतर बुरा मान जाए और मान मानहानि का मुकदमा कर दे। पापुलर मेरठी का शेर भी या आ गया :

"अजब नहीं जो तुक्का भी तीर हो जाए, फटे जो दूध तो पनीर हो जाए

मवालियों को  देखो हिकारत से, न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए।"

तुक्का-तीर, दूध-पनीर वाली बातें तो न जाने कब से होती आई हैं। लेकिन गुंडों के वजीर बनने वाली बात जो पहले अपवाद होती थीं अब वे आम होती हैं। हमें डर है कि कहीं इसके लिए भी पापुलर मेरठी साहब को दोषी न ठहरा दिया जाये। 


कबूतर कथा को पीछे छोड़कर आगे बढ़े तो फुटपाथ पर ही गुजारा करने कुछ महिलाएं, बच्चे, पुरुष दिखे। एक महिला अपने बच्चे को सड़क किनारे बैठाये पेशाब करा रहा थी, दूसरी महिला अपने बच्चे की सड़क पर की हुई टट्टी को सड़क पर पड़ी एक पालीथीन से पोंछते हुए साफ़ कर रही थी। उनसे कुछ दूरी पर बना गुलाबी शौचालय (Pink Toilet) शायद उनके लिए नहीं था। आज के समय में  कोई सुविधा   होना लेकिन सबके लिए न होना सभ्य समाज की निशानी हैं। बुनियादी सुविधाएं भी इससे अलग नहीं है।

उन लोगों में से कुछ बच्चे और कुछ बड़े एक बोतल से कोई पेय निकालकर ग्लास में डालकर चुस्की लेते हुए पी रहे थे। पास से गुजरते हुए देखा बोतल पर स्प्राइट लिखा था। कोई इसे भी अपने समाज की संपन्नता से जोड़कर देख सकता है -"हमारे यहाँ बेघर और फुटपाथ पर रहने वाले तक स्प्राइट पीते हैं।" 

स्प्राइट पीने वालों से थोड़ा दूर एक कोने में बैठी बच्ची सर झुकाये एक आम से कुश्ती सी लड़ती हुई आम से गूदा निकालकर खा रही थी। गुठली चूस रही थी। सौ रुपए किलो से ऊपर का आम बच्ची को चूसते देखकर मुझे लगा कि कोई इसके ख़िलाफ़ केस न कर दे कि यह आम बच्ची के पास आया कैसे? पाँच किलो राशन में फल तो शामिल नहीं हैं।

घूमते हुए उसी पार्क की तरफ़ आ गए जहाँ टहलने के लिए जाने की बात हमने सबसे सोची थी। हम पार्क में घुसकर टहलने लगे। टहलते हुए सोचा कि कोई देखेगा तो इसे हमारा यू टर्न बताएगा। कहेगा जहाँ न जाने को हम अपना 'मास्टर स्ट्रोक' बता रहे थे अब उसी जगह पर आकर टहल रहे हैं। लेकिन किसी के कहने से क्या? हमारा 'मास्टर स्ट्रोक' हम तय करेंगे। किसी दूसरे को क्या हक कि हमारा मास्टर स्ट्रोक तय करे? 

यह निर्णय पर पहुंचते ही हमें लगा -"अरे यार यह तो एक और 'मास्टर स्ट्रोक' हो गया।" सुबह-सुबह टहलते हुए तीन मास्टर स्ट्रोक हो जायें इससे ज़्यादा और किसी को क्या चाहिए?  है कि नहीं? 







Saturday, June 14, 2025

मरता गरीब इंसान ही है

 आज सुबह टहलने निकले। सोसाइटी की तमाम कारों के वाइपर झंडे के डंडे की तरह सलामी मुद्रा में उठे थे। । कार की सफ़ाई करने वाले सामने का शीशा साफ़ करके वाइपर उठा देते हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि कार साफ़ की जा चुकी है ।

मेन गेट पर नेकचंद मिले। हाल ही में उनकी पत्नी का निधन हुआ है। पीलिया से। देर में पता लगा इसलिए गंभीर हो गया रोग। बहुत इलाज कराया। देखभाल के लिए बेटे ने नौकरी भी छोड़  दी।इलाज में खर्चे के लिए कर्ज लिया , खेत गिरवी रखें।  लेकिन बची नहीं। बेटे की शादी अगले महीने होने वाली थे। पत्नी के न रहने पर स्थगित हो गई। 

पारिवारिक स्थिति बयान करते हुए नेकचंद ने बताया -"चार बिटिया हतीं। सबकों निकार दओ। बेटा बचो है, उसऊ कि शादी हती  अगले महीना। लेकिन बे रहीं नहीं। आख़िर तक कहती रहीं , बहुरिया क मुँह नाईं देख पाए।" (चार बेटियां थीं। सबकी शादी कर दी। बेटा है , उसकी भी शादी थी अगले महीने। लेकिन वे (पत्नी)  रही नहीं। आख़िरी तक कहती रहीं , बहू का मुँह नहीं देख पाये)। समाज के बड़े वर्ग में अभी भी बेटियों-बेटों की शादी करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना जाता है। बेटियों की शादी मतलब उनको घर से निकालना , समाज में लड़कियों के हाल बयान करता है।

22 साल का बेटा अभी घर पर ही रहता है। नौकरी दुबारा मिली नहीं है ।  वह खाना-वाना, चाय तक नहीं बना पता। नेकचंद ही उल्टा-सीधा बनाते हैं। चार बहनों के बीच अकेला भाई वैसे भी दुलारा होता है। कुछ सिखाया नहीं जाता उसको। 

नेकचंद से विदा लेकर आगे बढ़े। सड़क किनारे के झोपड़ियों की दुकानें लगने लगीं थीं। सड़क के दोनों तरफ़ सोसाइटियों की कतार है। एक स्कूल में समर कैंप लगा है। कारों से उतरे बच्चे नेकर-बनियाईन में बेफिक्री से स्कूल की तरफ़ जा रहे हैं। कुछ के माता-पिता भी साथ में हैं। 

सामने से इस्कान संकीर्तन रथ आते दिखा। रथ के साथ कुछ लोगों का जुलूस राम-राम , हरे - हरे  बोलते हुए चल रहा था। सड़क पर आते-जाते लोगों को प्रसाद वितरित करते जा रहे थे। हमें भी ज़बरियन थमा दिया प्रसाद।  रवा का हलवा था प्रसाद में। पीला प्रसाद दोने में । पहले मन किया कि खा लें। लेकिन मीठे से परहेज सोचकर प्रसाद को इज्जत के साथ हाथ में थामे आगे बढ़ गए। सोचा किसी को दे देंगे। 

आगे बढ़ने पर याद आया कि सड़क पर कुत्ता टहलाते हुए एक बच्चा अपने कुत्ते को दोना चटा रहा था। शायद इस्कान समूह के लोगों के द्वारा मिला प्रसाद ही उसने कुत्ते को खिला दिया होगा। इस्कान समूह के बड़े-बड़े मंदिर और सम्पति है दुनिया भर में। तमाम कल्याणकारी काम करते रहते हैं। लेकिन उनके मंदिर और संस्थान संपन्न इलाक़ों में ही मिलते हैं। गरीब बस्तियों में नहीं मिलते इस्कान के मंदिर। 

आगे कई पार्क दिखे। शहरों में जब पार्क ग़ायब होते जा रहे हैं , तब नोयडा में आसपास अच्छे, मेंटेन पार्क देखकर अच्छा लगा। एक जगह सामने से नेकचंद  आते दिखे। अपनी ड्यूटी पूरी करके वे घर वापस जा रहे थे। इस्कान वालों का प्रसाद उनको दे दिया। उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी ले भी लिया। प्रसाद मुक्त होकर हम  टहलते हुए सोसाइटी के पीछे वाले पार्क में पहुँच गए। टहलना शुरू कर दिया। 

पार्क में बने ट्रैक में तमाम लोग टहलते दिखे। कुछ लोग पार्क कसरत करते , बतियाते, गपियाते दिखे। बच्चे उछल-कूद करते  , झूला झूलते दिखे। 

ट्रैक पर  टहलते हुए सामने से एक रोआबदार चेहरे वाले बुजुर्ग फुर्ती से आते दिखे। हमारे बगल से गुजरते हुए उन्होंने अपना  हाथ, जिसमें उन्होंने मोबाइल पकड़ा  था, हमसे दूर कर लिया। शायद उनको लगा होगा , हमारे बगल से गुज़रते हुए कहीं उनके मोबाइल को हमारा मोबाइल छेड़ न दे। 

आगे पार्क में बैठी दो लड़कियां पार्क के पेड़ पर ढेला मारकर कुछ तोड़ते दिखीं। अपने असफल प्रयास पर खिलखिलाते हुए वापस बेंच पर बैठ गयीं। 

चक्कर पूरा होने पर सामने से फिर वही मोबाइल धारी रोआब वाले बुजुर्ग दिखे। इस बार उन्होंने अपना मोबाइल वाला हाथ दूर नहीं किया। शायद इतनी देर में वे आश्वस्त हो गए होंगे कि हमारा मोबाइल शरीफ मोबाइल है। छेड़छाड़ में विश्वास नहीं उसका। 

तीसरे चक्कर में बुजुर्ग के हाथ में मोबाइल की जगह उनका रुमाल था। मोबाइल शायद उन्होंने जेब में रख लिया था। बगल से गुजरते हुए उन्होंने रुमाल वाला हाथ हमसे दूर कर लिया। अब  शायद उनको अपने रुमाल के छेड़ने की चिंता हो रही हो। मुझे लगा अगले चक्कर में शायद वे रूमाल वाले हाथ को हमसे दूर न करें। लेकिन अगले चक्कर में वे दिखे नहीं। शायद अपना टहलने का कोटा पूरा करके घर चले गए हों। 

बगल से गुजरते हुए हाथ दूर कर लेने की बात से लेव टालस्टाय  के संबंध में वर्णित किसी का संस्मरण याद आया । जीने से उतरते हुए सामने से आते किसी को देखकर वे किनारे होकर रुक गए जबकि सीढ़ियों में दोनों के गुजरने की पर्याप्त जगह थी। लेव उस समय 'अन्ना कारनिना' उपन्यास लिख रहे थे। अपने पात्रों के बारे में सोचते रहते। सीढ़ियों से उतरते हुए उनको लगता अन्ना उनके साथ में हैं। दोनों के साथ चलते हुए सामने से आते हुए को रुककर रास्ता दे देते। 

टहलते हुए हमको भी अपना उर्दू का क़ायदा याद आ गया। हम मन ही मन उर्दू के हर्फ़ दोहराते हुए टहलते रहे। 

पार्क में एक आदमी हाथ में चाकू लिए पेड़ के पास टहलता दिखा। मुझे लगा शायद किसी पेड़ की  छाल ले जाने के लिए चाकू लाए हैं। लेकिन थोड़ी देर में  देखा कि वे अपने पास के डब्बे से आटा  चाकू से निकालकर पेड़ों के जड़ों के पास डाल रहे हैं। चाकू को वे चम्मच के तरह प्रयोग कर रहे थे।  आटा चीटियों के लिए डाल रहे थे। याद आया कुछ देर पहले वे कबूतरों के लिए दाना भी डाल रहे थे। 

बुजुर्ग इंसान द्वारा कबूतरों और चीटियों के लिए भोजन का इंतजाम करते देखकर मुझे   इजरायल, गाजा, ईरान, रूस, यूक्रेन में छिड़ी लड़ाइयों के याद आ गई। एक तरफ़ इंसान जानवरों के लिए भोजन का इंतजाम कर रहा है। दूसरी तरफ़ इंसान अपनी ही प्रजाति के लोगों को बर्बाद करने पर आमादा है। दुनिया के बड़े-बड़े देशों के कर्णधार गली-मोहल्ले के लोगों गुंडों की तरह टपोरी टाइप भाषा बोलते हुए गुण्डागिरी पर आमादा हैं। दुनिया एक बड़े शर्मनाक दौर से गुज़र रही है। 

पार्क के  बाहर जूस बेचता  दुकानदार जूस पेरता हुआ अपने ग्राहक से बतियाता हुआ कह रहा था -"लड़ाई कहीं हो लेकिन मरता  गरीब इंसान ही है।"

 एक आदमी चाय की  दुकान पर बैठा अपने मोबाइल को मुँह के आगे ऐसे लगाए था मानों उससे निकलने वाली किसी चीज को पी रहा हो। फिर याद आया मोबाइल का आवाज वाला हिस्सा है वह जिसे मुँह में लगाए हुए वह बात कर रहा था। आगे एक नाला साफ़ करते हुए दो आदमी नाले का कूड़ा निकाल रहे थे। सामने से मोटर साइकिल से पास आकर बोला -"अब शेर और चीता लग गए तो साफ़ ही होकर रहेगा नाला।" हमें लगा बताओ , शेर और चीते अब नाले साफ़ करने में लगे हैं। वैसे कोई बड़ी बात नहीं। ऐसा देश में तमाम जगह हो रहा है। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी शेर  राजनीति  से जुड़े सियारों की शादी में बैंड बजाते घूम रहे हैं। 

आगे हमारी सोसाइटी का गेट आ गया। गेट में घुसकर हम अपने घर आ गए। घर  दुनिया में सबसे सुकून की जगह होती है। 











Tuesday, June 03, 2025

साइकिल दिवस

 आज साइकिल दिवस है। साइकिल से जुड़ी तमाम यादें हैं। बचपन में साइकिल तब सीखी जब चौथी-पाँचवीं में पढ़ते थे। घर के पास स्कूल के सामने रहने वाले दोस्त श्रीकृष्ण के पास साइकिल से पहले कैंची चलानी सीखे फिर उचक-उचक कर गद्दी पर बैठ कर चलाना सीखा। 

बचपन से अब तक कई साइकिलें रही साथ में। एक साइकिल में ब्रेक एक ही तरफ़ था। दूसरा ग़ायब। हमारे नाना जी हैलट अस्पताल में भर्ती थे। उनको खाना देने जाते थे। गांधीनगर से हैलट। करीब तीन किलोमीटर की दूरी बहुत लगती थे उन दिनों। एक बार की याद है जब बारिश में गए थे अस्पताल। ब्रेक लग नहीं रहे थे। आहिस्ते-आहिस्ते गए। 

हाईस्कूल तक पैदल ही जाते रहे स्कूल। इंटर में दोस्तों के साथ जाते थे। लक्ष्मी बाजपेयी के साथ जाने की याद सबसे ज़्यादा है। इंटर के बाद इलाहाबाद चले गए इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। वहाँ किराए की साइकिल से घूमते रहे। तीस पैसे घंटे के हिसाब से मिलती थी साइकिल। कमरा नंबर नोट करा कर ले जाते। घूमते । वापस जमा करा देते। 

इंजीनियरिंग के दूसरे साल के इम्तहान के बाद साइकिल से भारत यात्रा के लिए गए। हीरो साइकिल वालों को लिखा तो उन्होंने

275/-  प्रति साइकिल रुपए के हिसाब से दी। अब याद नहीं कितने रुपए की छूट दी थी। तीन महीनों के यात्रा में एक टायर खराब हुआ था। करीब सात-आठ  हज़ार किलोमीटर चलाने के बाद। कालेज के बाद ध्यान नहीं वह साइकिल कहाँ चली गई। 

कालेज के बाद नौकरी के दौरान कुछ दिन साइकिल चलाई। मुझे याद है आर्डनेंस फैक्ट्री की नौकरी ज्वाइन करने साइकिल से गए थे। इसके बाद साइकिल का साथ बहुत दिन छूटा रहा। करीब तीस साल। तीस साल बाद जब जबलपुर पोस्टिंग हुई तब फिर साइकिल की सवारी शुरू हुई। जबलपुर रहने के दौरान खूब साइकिल चलाई। इसके बाद कानपुर , शाहजहांपुर फिर कानपुर में साइकिल का साथ बना रहा। 

शाहजहांपुर रहने के दौरान हमारे और श्रीमती जी के लिए एक नयी साइकिल का जोड़ा बच्चों ने भेंट किया। हमारी श्रीमती जी के लिए तो ठीक थे साइकिल। लेकिन हमारे  क़द से काफ़ी छोटी थी। नतीजतन एक साइकिल अभी खुली तक नहीं है। हम पुरानी साइकिल ही चलाते रहे कानपुर वापस आने तक। 

कानपुर में हमारी जबलपुर वाली साइकिल पर हमारे आउटहाउस में रहने वालों का क़ब्ज़ा हो गया। वो आने -जाने के काम में हमारी साइकिल का प्रयोग करने लगे।  हम अपने घर में रखी साइकिल चलाने को तरस गए। 

हम पर तरस खाकर हमारे बेटे ने हमारे जन्मदिन पर नयी साइकिल कसवाई। बढ़िया , मोटे टायर वाली साइकिल जिसमें  पानी के बोतल रखने का स्टैंड , बत्ती और बिजली वाली घंटी थी। हम चलाते रहे साइकिल कानपुर में लेकिन साइकिल कुछ ज़्यादा जमी नहीं । हमको पुरानी साइकिल ही बढ़िया लगती रही। 

बाद में साइकिल से चलना कम हो गया। पैदल चलना बढ़ गया। फ़िलहाल तो साइकिल लखनऊ के घर में इंतजार कर रही है हमारा है। हम भी उस पर सवारी करने का इंतजार कर रहे हैं। 

साइकिल से जुड़े अनगिनत किससे हैं यादों में । काफ़ी पहले हमारे पास प्रसिद्ध  इतालवी उपन्यास 'साइकिल चोर' का हिंदी अनुवाद  था । आधा पढ़ा था । फिर ग़ायब हो गया। आज अभी देखा किताब का अंग्रेजी अनुवाद नेट पर उपलब्ध है। पूरा पढ़ेंगे अब इसे । 

साइकिल से कई यात्राएँ भी प्लान की थीं। एक साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करना भी प्लान में था। और भी कई प्लान थे लेकिन अमल में कोई नहीं आ पाया अभी तक। क्या पता आगे कभी किसी प्लान पर अमल हो जाये। 

एक सर्वे के अनुसार देश की आधी आबादी के पास साइकिल है। लेकिन साइकिल  चलाने वाले कम  होते जा रहे हैं। बाइक और कार का चालान बढ़ रहा है। 

साइकिल सेहत और पर्यावरण के लिहाज से सबसे अच्छी सवारी है। क्या पता आने वाले समय में जब ऊर्जा के किल्लत बढ़े तब शायद दुनिया में फिर से साइकिल का जलवा क़ायम हो। 

 आपको साइकिल दिवस की  बधाई।





Wednesday, January 22, 2025

व्हाट्सएप स्टार्ट न हुआ




आज सुबह मोबाइल आन करते ही कुछ नोटोफ़िकेशन दिखे । उनमें कुछ व्हॉट्सएप के भी थे। अधिकतर गुडमार्निंग वाले। संदेश देखने के लिए व्हाट्सएप देखने के क्लिक किया तो खुला नहीं। क्लिक करते ही बाहर हो जा रहा था। कई बार कोशिश की लेकिन मेसेज दिखे नहीं।
मोबाइल को रिस्टार्ट करके भी देखा। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। एकाध लोगों से पूछा। किसी ने कहा व्हाट्सएप फिर से इंस्टॉल करो, किसी ने कुछ और सुझाव दिए। मैंने व्हॉट्सप डिलीट किया। फिर से डाउनलोड किया। पहली बार में बिजनेस वाला हुआ। उसने कुछ और विवरण पूछे तो लगा गड़बड़ है। फिर से दूसरा बातचीत वाला डाउनलोड किया।
व्हाट्सएप शुरू करते हुए उसने पूछा चैट और डाटा रिस्टोर करना है ? हमको लगा कि बाद में व्हाट्सएप अलग से भी पूछेगा तब हाँ कहेंगे। बिना डाटा रिस्टोर किए आगे बढ़ गए। व्हाट्सएप फौरन शुरू हो गया।
शुरू तो हो गया लेकिन सारा डाटा ग़ायब हो गया। मोबाइल की पूरी मेमोरी का आधे से अधिक हिस्सा इसी डाटा का था। मेसेज, फ़ोटो, वीडियो सब गायब। व्हाट्सएप एकदम नए पैदा हुए बच्चे सरीखा एकदम साफ़ सुथरा दिख रहा था। ढाई सौ जीबी से ऊपर की मेमोरी पर झाड़ू लग चुका था। पूरा व्हाट्सएप किसी नए चिकने फर्श की तरह चमक रहा था।
महीनों से जमा डाटा, चैट, फ़ोटो, वीडियो ग़ायब हो गए। अपने में अफ़सोस करने लायक बात। लेकिन याद करने पर ऐसा कोई डाटा याद नहीं आया जिसके डिलीट हो जाने का शिद्दत से अफ़सोस हुआ हो। कुछ निमंत्रण पत्र थे उनके से जो याद थे वो दुबारा मंगा लिए कुछ मंगा लेंगे। इसी बहाने तमाम ग्रुप देखे जिनके हम सदस्य थे। महीनों से कोई हलचल नहीं थी उनमें। सबसे बाहर आए। अभी तक बीस-पच्चीस से बाहर आए। आगे और से निकलेंगे।
आज के समय दुनिया में करीब तीन अरब व्हाट्सएप खाते हैं। मतलब दुनिया की आधी-आबादी के बराबर। हमारा खाता खत्म हुआ। पुराने का सारा नाम-ओ-निशान कम से कम हमारे लिए खत्म हो गया। हमारे खाते का पुनर्जन्म हुआ आज। हमारा खाता कह रहा होगा , फिर से इसी नाशुक्रे के नंबर पर आना था। हमको भी पुराने खाते की याद कुछ दिन में बिसरा जाएगी।
दुनिया में इंसान के साथ भी कुछ ऐसा ही होता होगा। दुनिया में कुछ साल , सदी बिताने के बाद अपने-अपने हिसाब से इंसान डिलीट हो जाता होगा। उससे जुड़ी यादें कुछ लोगों को कुछ समय तक कुछ लोगों के ज़ेहन में रहती होंगी। कोई अच्छा कहता होगा, कोई बुरा। कोई बहुत अच्छा, कोई बहुत बुरा। इतना बुरा भी नहीं था, इतना भला भी नहीं था कहते हुए याद रखने वाले लोग भी होंगे। तमाम लोगों की सही तस्वीर लोगों तक पहुँचती भी नहीं होगी और वे लोग दुनिया से विदा हो जाते होंगे। दुनिया के मोबाइल से उनका खाता डिलीट हो जाता होगा। Alok Puranik जी के लेख और इसी नाम से किताब पापा रीस्टार्ट न हुए’ की तरह।
हम सब भी ऐसे ही जी रहे हैं। एक क्लिक में खत्म हो जाने और किसी और रूप में रीइंस्टाल हो जाने वाले। हाहा, हुती जलवे और चुपचाप, निस्पंद जीने वाले सभी के हाल कमोबेश एक जैसे ही होने हैं। कोई गाजे-बाजे के साथ डिलीट होगा , कोई चुपचाप बिना किसी को डिस्टर्ब किए ओ हेनरी की कहानी ‘आख़िरी पत्ती’ के नायक की तरह।
यह लिखते हुए ख्याल आया कि पढ़ने वाले दोस्त यह न समझें कि कहीं तबियत खराबी या अवसाद के चपेटे में तो नहीं आ गए अनूप शुक्ल। तो डिस्क्लेमर यह कि ऐसा कुछ नहीं। अपन मस्त, धूप सेंकते, सूरज भाई के प्रसाद की विटामिन डी पंजीरी फाँकते मजे में हैं। आप भी मजे में रहिए। जो होगा देखा जाएगा। आप भी धूप खा लीजिए फ़ोटो में ।

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Tuesday, January 21, 2025

अनूप जी को विनम्र श्रद्धांजलि



कल रात वरिष्ठ व्यंग्यकार , पत्रकार अनूप श्रीवास्तव जी के न रहने का समाचार मिला। अट्टहास पत्रिका और अट्टहास सम्मान के माध्यम से हिंदी हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अनूप जी का यादगार योगदान रहा। बातचीत होने पर अपने पत्रकार जीवन और साहित्य से जुड़े अनगिनत किस्से सुनाते थे। हर किस्से से जुड़ा कोई दूसरा किस्सा था उनके पास। पुरानी और नई पीढ़ी से लगातार संवाद , संपर्क में रहते थे।

मेरे लेखन के लिए कहते थे, “महिलाओं के स्वेटर बुनने की तरह अनूप अपना लेखन बुनता है।” अद्भुत जिजीविषा थी उनके भीतर। बीमार होने, चोट लगने के बावजूद जरा सा ठीक होते ही सक्रिय हो जाते।
उनके न रहने से हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपूरणीय क्षति हुई है। अनूप जी को विनम्र श्रद्धांजलि ।

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Monday, January 20, 2025

बेहराम कॉन्ट्रैक्टर उर्फ़ बिजीबी









 Alok Puranik पर केंद्रित किताब आलोक पुराणिक- व्यंग्य का एटीएम की छापे की कमियों को देखते हुए सब लेख फिर से पढ़े। आलोक पुराणिक जी के इंटरव्यू फिर से पढ़े। अपनी बातचीत में उन्होंने उन लेखकों का ज़िक्र किया था जिनके लेखन से वे प्रभावित रहे। उनमें एक नाम बेहराम कॉन्ट्रैक्टर, जो कि बिजीबी (Behram Contractor, Busybee) के नाम से प्रख्यात थे का ज़िक्र था। परिचय के लिए टिप्पणी में लिंक देखिए।

बिजीबी ((1930 - 9 अप्रैल 2001) अंग्रेज़ी में लिखते थे। अपनी लगभग 35 साल के लेखन में शुरुआती लेखन उन्होंने द फ्री प्रेस जर्नल , द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ( बॉम्बे ) और मिड-डे रहते हुए किया । फिर उन्होंने 1985 में अपना अख़बार शुरू किया द आफ़्टरनून डिस्पैच एंड कूरियर (The afternoon Despatch and Courier)। इस अख़बार में बिजीबी का स्तम्भ 'राउंड एंड अबाउट' (Round and about) अखबारी के आख़िरी पन्ने पर बाएँ कोने पर छपता था। बिजीबी के लेखन की लोकप्रियता ही थी कि पाठक अख़बार पीछे से पढ़ना शुरू करते थे। इसी तरह की बात लोग शरद जोशी जी के स्तम्भ प्रतिदिन के बारे में भी कहते हैं कि उनका लिखा पढ़ने के लिए लोग अख़बार पीछे से पढ़ना शुरू करते थे।
शरद जोशी जी के 'प्रतिदिन' को पसंद करने वाले पाठकों को बिजीबी को भी पढ़ना चाहिए।
आलोक पुराणिक से पहली बातचीत ,जिसमें उन्होंने बिजीबी का ज़िक्र किया था, 2006 में हुई थी, लगभग अठारह साल पहले। कई बार उस बातचीत और बाद की बातचीतों को भी देखा था जिसमें भी बिजीबी का ज़िक्र था। लेकिन उनके बारे में जानने की ज़हमत नहीं उठाई। इस बार पुराने इंटरव्यू देखे तो उत्सुकता हुई कि पता करें कि ये बिजीबी कौन हैं जिनके लेखन से आलोक पुराणिक जी प्रभावित हैं।
नेट पर खोज की तो पता लगा कि बिजी बी तो बीहड़ लेखक रहे। उनके लेखन के मुरीद बड़े बड़े लोग रहे हैं ख़ुशवंत सिंह, शोभा डे, मारियो पूजो और तमाम पाठक भी। बिजी बी नियमित लिखते थे। चार सौ-पाँच सौ शब्दों के लेख। 35 साल तक नियमित लिखना अपने में सिद्ध लेखक का काम है। उनका लेखकीय नाम बिजीबी का मतलब (कोई ऐसा व्यक्ति जो बहुत सक्रिय या मेहनती हो ) भी उनके काम के अनुरूप था। उनके लेखन सहज आम इंसान को समझ में आने वाली भाषा में है।मज़े-मज़े में बड़ी बात कह जाने का हुनर।
अटल बिहारी बाजपेयी जी प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने मज़े लेते हुए लिखा, " बाजपेयी जी का परिवार न होने के कारण सबसे बड़ा लफड़ा यह है कि लोग अपना काम किसके ज़रिए करवाएँ।" राजनीति में किसी का पक्षधर न होते हुए, बिना कटु हुए, सबसे मज़े लेते हुए लिखना बिजीबी के लेखन की ख़ासियत है।
काफ़ी देर बिजीबी के बारे में जानकारी लेने के बाद उनका कुछ लेख भी पढ़े। देखा तो उनकी किताबें भी आनलाइन दिखीं। उनके परिचय और लेखन से प्रभाव कुछ ऐसा कि जितनी किताबें दिखीं सब ख़रीद लीं। कुल जमा सात किताबें। सब किताबें क़रीब एक हज़ार की पढ़ी। चार-चार सौ पेज की किताबें डेढ़ सौ रुपए की। सुंदर छपाई। बढ़िया काग़ज़।
किताबें ख़रीदने का अपना यही अन्दाज़ है। किसी किताब या लेख़क के बारे में अच्छा सुनते हैं तो फ़ौरन किताब ख़रीदने का मन करता है कि किताब ख़रीद ली जाए। तमाम किताबें ऐसी हैं जो ख़रीद लीं। आने पर उलट-पलट के थोड़ी बहुत पढ़ के रख ली हैं। कुछ पढ़ भी लीं। जो नहीं भी पढ़ीं उनके बारे में लगता है कभी पढ़ेंगे। कभी भी यह अफ़सोस नहीं होता कि ये किताब बेकार ख़रीदी। किताबें समृद्धि और सुकून का एहसास दिलाती हैं।
बहरहाल बात हो रही थी बिजी बी की। बिजीबी के लोकप्रिय और नियमित लेखन को समय पर करने के हिमायती थे। बिजीबी का ज़िक्र करते हुए प्रख्यात लेखिका शोभा ड़े ने लिखा है ,"and the one thing he had taught me was to keep my nose down and get on with it. A job has to be done. And please ...no fuss. Keep it zippy.Keep is simple. And make that fast. Deadlines were deadlines." (और एक चीज़ जो उन्होंने मुझे सिखाई वह यह थी कि अपनी नाक नीची रखनी है और आगे बढ़ना है । काम तो करना ही है और कृपया...कोई झंझट नहीं। इसे ज़िप्पी (जीवंत) रखें। आसान रखें। और इसे जल्दी करो। समय पर काम करना ही है।)
बिजीबी को भारत का आर्ट बुचवाल्ड (Art Buchwald) बताया गया। बिजीबी आर्ट बुचवाल्ड के प्रशंसक थे। आलोक पुराणिक बेहराम कॉन्ट्रैक्टर के प्रशंसक हैं। अपन आलोक पुराणिक को पसंद करते हैं। पसंदगी की चेन चल रही है।
आलोक पुराणिक जी ने बेहराम कॉन्ट्रैक्टर से लेखन में क्या सीखा यह वे बताएँगे लेकिन काम को समय पर करने का सलीका और बिना किसी लफड़े में पड़े लिखने के गुर जरुर सीखे। यही वजह रही क़ि वे वर्षों तक अख़बारों में नियमित लिख सके। आलोक पुराणिक कहीं भी, किसी भी जगह बैठकर समय पर लेखन पूरा करके अख़बारों, पत्रिकाओं को दे देते हैं।
बेहराम कॉन्ट्रैक्टर के बारे में फ़िलहाल इतना ही। बाक़ी फिर उनको और पढ़ने के बाद।

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गुजारे के लिए जेल




आज अख़बार में एक खबर पढ़ी। खबर का शीर्षक है-"जापान में अकेलापन दूर करने जेल जा रहे बुजुर्ग।" खबर के अनुसार जापान के टोक्यो शहर में मौजूद जेलों में इन दिनों बुजुर्ग अपराधियों की तादाद बढ़ती जा रही है। अपनी ग़रीबी और अकेलापन दूर करने के लिए छोटे अपराध में जेल जाना पसंद कर रहे हैं।

सभ्य समाज में जेल जाना बेइज़्ज़ती मानी जाती है। लेकिन जब खाने-पीने के लाले के साथ अकेलापन भी जुड़ जाए और इंसान बुजुर्ग भी हो जाए तो जीवन जीने के लिए जेलयात्रा भी एक उपाय है। जापान में जेल में बुजुर्गों को नियमित भोजन, मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा और लोगों का साथ मिलता है। इसीलिए बुजुर्ग छोटे-मोटे अपराध करके जेल जा रहे हैं।
खबर सुनकर ओ हेनरी की एक कहानी याद आ गयी, "द कॉप एंड द एंथम।" इसका नायक एक गरीब बालक है सोपी। ग़रीबी के कारण उसके खाने-पीने के लाले पड़े रहते हैं। सोपी गुज़ारे के लिए जेल जाने की कोशिश में कई अपराध करता है, लेकिन वह गिरफ़्तार होने में विफल रहता है। फिर, जब वह अपना जीवन बदलने का फ़ैसला करता है और वास्तव में कुछ नहीं करता है, तो उसे एक अधिकारी द्वारा पकड़ा जाता है, उस पर आरोप लगाया जाता है, और उसे तीन महीने की जेल की सज़ा सुनाई जाती है।
अपने देश में भी विकट ग़रीबी है। लोगों को जीवन यापन के लिए पाँच किलो अनाज दिया जा रहा है। चुनाव के अलावा सरकार इस योजना को शायद इसलिए भी ख़त्म करने में हिचकती है कि कहीं इसके ख़त्म होते ही अपराध करके जेल जाने की कोशिश न करने लगें। लोग जेल जाने के लिए बवाल काटने लगें।जो जननेता जितने अधिक लोगों के जेल जाने का इंतज़ाम कर देगा वो उतना बड़ा लीडर कहलायेगा। जेल जाते लोग नारे लगा सकते हैं , वो है तो मुमकिन है। लेकिन अगर कभी ऐसा होगा तो जेल व्यवस्था चरमरा जाएगी।इसलिए यही मनाते है कि यह बवाल जापान तक ही सीमित रहे।

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Friday, January 17, 2025

कुंभ मेले की खबरें

 


कल सभी मीडिया चैनल कुंभ मेले की खबरें दिखा रहे थे। रात को अभिनेता सैफ अली पर हमले की खबर आई।मीडिया चैनल हमले की ख़बरें दिखाने लगे। शाम तक बीस पुलिस टीमें लगी हुईं थीं जाँच के काम में। आज सुबह देखा टीमों की संख्या और 35 हो गई। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एक सेलिब्रिटी पर कितना ध्यान देता है समाज।

राजनीति, हिंदू मुसलमान , सत्ता-विपक्ष, कुमार विश्वास-सैफ, पर भी जिसके पास जो मसाला, भड़ास थी उसने वो पोस्ट करना शुरू कर दिया। सैफ और किसी समलैंगिक पत्रकार का किस्सा भी किसी पोस्ट पर देखा।
कुछ पोस्ट सुशांत को याद करते हुए भी लिखी गईं।
किसी मुद्दे पर हिंदू-मुसलमान-सिख-ईसाई करने वालों में बहुतायत उन लोगों की रहती है जिनका उस समाज से कभी उठने,बैठने, मिलने, जुलने, बोलने, बतियाने, सुख-दुख साझा करने का कोई अपना अनुभव नहीं रहा। ऐसे लोग सुनी-सुनाई धारणाओं पर अपनी राय बनाकर अपनी इतनी दृढ़ता से रखते हैं।
सबके अपने-अपने गढ़े किस्से हैं। उनको ही दोहरा रहे हैं लोग।
अपन भी तो वही कर रहे।
आशा है सैफ जल्दी आईसीयू से बाहर आकर कुछ और कहेंगे। इसके बाद मीडिया वालों को कुछ और मिलेंगे। इस बीच मीडिया वाले अपने हिसाब से काम चलायेंगे।
धूप बहुत खुशनुमा है। अभी इसका न कोई किराया लग रहा न कोई जीएसटी लग रही। आप भी धूप सेवन करिये। विटामिन डी मिलेगी। हड्डियां मजबूत रहेंगी।

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