Friday, April 14, 2006

वीर रस में प्रेम पचीसी

http://web.archive.org/web/20140420024801/http://hindini.com/fursatiya/archives/122

वीर रस में प्रेम पचीसी

हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :-
मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो.
सच में हम पढ़कर बहुत शरमाये। लाल से हो गये। सच्चाई तो यह है कि हर लेख को पोस्ट करने के पहले तथा बाद तमाम कमियां नज़र आतीं हैं। लेकिन पोस्ट करने की हड़बड़ी तथा बाद में आलस्य के चलते किसी सुधार की कोई संभावना नहीं बन पाती।
अपनी हर पोस्ट लिखने के पहले (डर के मारे प्रार्थना करते हुये)मैं नंदनजी का शेर दोहराता हूं:-
मैं कोई बात तो कह लूं कभी करीने से
खुदारा मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे।

जबसे रविरतलामीजी ने बताया कि हम सब लोग कूडा़ परोसते हैं तबसे यह डर ‘अउर’ बढ़ गया। हालांकि रविजी ने पिछली पोस्ट की एक लाइन की तारीफ की थी लेकिन वह हमारी नहीं थी लिहाजा हम उनकी तारीफ के गुनहगार नहीं हुये।
बहुत दिनों से ई-कविता तथा ब्लागजगत में कविता की खेती देखकर हमारे मन में भी कुछ कविता की फसलें कुलबुला रहीं थीं। यह सोचा भी था कि हिंदी ब्लाग जगत तथा ई-कविता की भावभूमि,विषय-वस्तु पर कुछ लेख लिखा जाय ।सोचा तो यह भी था कि ब्लागरों की मन:स्थिति का जायजा लिया जाय कि कौन सी ऐसी स्थितियां हैं कि ब्लागजगत में विद्रोह का परचम लहराने वाले साथी
यूँ तो सीधा खडा हुआ हूँ,
पर भीतर से डरा हुआ हूँ.

तुमको क्या बतलाऊँ यारो,
जिन्दा हूँ, पर मरा हुआ हूँ.

जैसी, निराशावादी मूड की, कवितायें लिख रहे हैं।
लेकिन फिर यह सोचकर कि शायद इतनी काबिलियत तथा कूवत नहीं है मुझमे मैंने अपने पांव वापस खींच लिये क्रीज में। यह भी सोचा कि किसी के विद्रोही तेवर का जायजा लेने का हमें क्या अधिकार है!
इसके अलावा दो लोगों की नकल करने का मुझे मन किया। एक तो लक्ष्मी गुप्त जी की कविता पढ़कर आल्हा लिखने का मन किया । दूसरे समीरलाल जी की कुंडलिया पढ़कर कुछ कुंडलियों पर हाथ साफ करने का मन किया।
बहरहाल,आज सोचा कि पहले पहली चीज पर ही हाथ साफ किया जाय। सो आल्हा छंद की ऐसी तैसी कर रहा हूं। बात लक्ष्मीजी के बहाने कह रहा हूं क्योंकि इस खुराफात की जड़ में उनका ही हाथ है। इसके अलावा बाकी सब काल्पनिक तथा मौजार्थ है। कुछ लगे तो लिखियेगा जरूर।
सुमिरन करके लक्ष्मीजी को सब मित्रन का ध्यान लगाय,
लिखौं कहानी प्रेम युद्ध की यारों पढ़ियो आंख दबाय।
पढ़िकै रगड़ा लक्ष्मीजी का भौजी गयीं सनाका खाय,
आंक तरेरी,मुंह बिचकाया नैनन लीन्ह कटारी काढ़।
इकतिस बरस लौं चूल्हा फूंका कबहूं देखा न दिन रात
जो-जो मागेव वहै खवाया तिस पर ऐसन भीतरघात।
हम तौ तरसेन तारीफन का मुंह ते बोल सुना ना कान
उनकी मठरी,पान,चाय का इतना विकट करेव गुनगान।
तुमहि पियारी उनकी मठरी उनका तुम्हें रचा है पान
हमरा चोला बहुत दुखी है सुन तो सैंया कान लगाय।
करैं बहाना लक्ष्मी भैया, भौजी एक दिहिन न कान,
उइ तौ हमरे परम मित्र हैं यहिते उनका किया बखान।
नमक हमैं उइ रहैं खवाइन यहिते भवा तारीफाचार
वर्ना तुम सम को बनवइया, तुम सम कउन इहां हुशियार।
सुनि हुशियारी अपने अंदर भौजी बोली फिर इठलाय,
हमतौ बोलिबे तबही तुमते जब तुम लिखौ प्रेम का भाव।
भइया अइठें वाहवाही में अपना सीना लिया फुलाय
लिखबे अइसा प्रेमकांड हम सबकी हवा, हवा हुइ जाय।
भौजी हंसिके मौज लिहिन तब अइसा हमें लगत न भाय,
तुम बस ताकत हौ चातक सा तुमते और किया न जाय।
भैया गर्जे ,क्या कहती हो ‘इलू ‘अस्त्र हम देब चलाय,
भौजी हंसी, कहते क्या हो,तुरत नमूना देव दिखाय।
बातन बातन बतझड़ हुइगै औ बातन मां बाढ़ि गय रार
बहुतै बातैं तुम मारत हो कहिके आज दिखाओ प्यार।
उचकि के बैठे लैपटाप पर बत्ती सारी लिहिन बुझाय,
मैसेंजर पर ‘बिजी’ लगाया,आंखिन ऐनक लीन लगाय।
सुमिरन करके मातु शारदे ,पानी भौजी से मंगवाय
खटखट-खटखट टीपन लागे उनसे कहूं रुका ना जाय।
सब कुछ हमका नहीं दिखाइन बहुतै थ्वारा दीन्ह दिखाय,
जो हम देखा आपहु द्याखौ अपनी आप बतावौ राय।
बड़े-बड़े मजनू हमने देखे,देखे बड़े-बड़े फरहाद
लैला देखीं लाखों हमने कइयों शीरी की है याद।
याद हमें है प्रेमयुद्ध की सुनलो भइया कान लगाय,
बात रसीली कुछ कहते हैं,जोगी-साधू सब भग जांय।
आंख मूंद कर हमने देखा कितना मचा हुआ घमसान
प्रेमयुद्ध में कितने खपिगे,कितनेन के निकल गये थे प्रान।
भवा मुकाबिला जब प्रेमिन का वर्णन कछू किया ना जाय,
फिर भी कोशिश हम करते हैं, मातु शारदे होव सहाय।
चुंबन के संग चुंबन भिरिगे औ नैनन ते नयन के तीर
सांसैं जूझी सांसन के संग चलने लगे अनंग के तीर।
नयन नदी में नयना डूबे,दिल सागर में उठिगा ज्वार
बररस की तब चली सिरोही,घायल का सुख कहा न जाय।
तारीफन के गोला छूटैं, झूठ की बमबारी दई कराय
न कोऊ हारा न कोऊ जीता,दोनों सीना रहे फुलाय।
इनकी बातैं इनपै छ्वाड़व अब कमरौ का सुनौ हवाल,
कोना-कोना चहकन लागा,सबके हाल भये बेहाल।
सर-सर,सर-सर पंखा चलता परदा फहर-फहर फहराय,
चदरा गुंथिगे चदरन के संग,तकिया तकियन का लिहिन दबाय।
चुरमुर, चुरमुर खटिया ब्वालै मच्छर ब्लागरन अस भन्नाय
दिव्य कहानी दिव्य प्रेम की जो कोई सुनै इसे तर जाय ।
आंक मूंद कै कान बंद कइ द्‌याखब सारा कारोबार
जहां पसीना गिरिहै इनका तंह दै देब रक्त की धार।
सुनिकै भनभन मच्छरजी की चूहन के भी लगि गय आग
तुरतै चुहियन का बुलवाइन अउर कबड्डी ख्यालन लाग।
किट-किट दांत बजि रहे ,पूछैं झण्डा अस फहराय
म्वाछैं फरकैं जीतू जैसी ,बदन पसीना रहे बहाय।
दबा-दबउल भीषण हुइगै फिर तौ हाल कहा न जाय,
गैस का गोला बम अस फूटा,खटमल गिरे तुरत गस खाय।
तब बजा नगाड़ा प्रेमयुद्ध का चारों ओर भवा गुलज़ार
खुशियां जीतीं धकापेल तब,मनहूसन की हुइगै हार।
हरा-हरा सब मौसम हुइगा,फिर तौ सबके लगिगै आग
अंग-अंग फरकैं,सब रंग बरसैं,लगे विधातौ ख्यालन फाग।
इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय
बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय।
भैया बोले हंसि के ब्वालौ कैसा लिखा प्यार का हाल
अब तौ मानेव हमहूं है सरस्वती के सच्चे लाल।
भौजी बोलीं तुमसा बौढ़म हमें दिखा ना दूजा भाय,
हमतौ सोचा ‘इलू’ कहोगे ,आजौ तरस गये ये कान।
चलौ सुनावौ अब कुछ दुसरा, देवरन का भी कहौ हवाल
कइसे लफड़ा करत हैं लरिका नयी उमर का का है हाल?
भैया बोले मुस्का के तब नयी उमर की अजबै चाल
बीच सड़क पर कन्या डांटति छत पर कान करति है लाल।
डांटि-डांटि के सुनै पहाडा़, मुर्गौ कबहूं देय बनाय
सिर झटकावै,मुंह बिचकावै, कबहूं तनिक देय मुस्काय।
बाल हिलावै,ऐंठ दिखावै , नखरा ढेर देय बिखराय,
छत पर आवै ,मुंहौ फुलावै लेय मनौना सब करवाय।
इतनेव पर बस करै इशारा, इनका गूंगा देय बनाय
दिल धड़कावै,हवा सरकावै ,पैंटौ ढीली देय कराय।
कुछ दिन मौका देकर देखा ,प्रेमी पूरा बौड़म आय,
पकड़ के पहुंची रतलामै तब,अपना घर भी लिया बसाय।
भउजी की मुसकान देखि के भइया के भी बढ़ि गै भाव
बूढ़े देवर को छोडो़ अब सुन लो क्वारन के भी हाल।
ये है तुम्हरे बबुआ देवर चिरक्वारें और चिर बेताब
बने हिमालय से ठहरे हैं ,कन्या इनके लिये दोआब।
दूर भागतीं इनसे जाती ,लिये सागर से मिलने की ताब
जो टकराती सहम भागती ,जैसे बोझिल कोई किताब।
नखरे किसके चाहें उठाना ,वो धरता सैंडिल की नोक
जो मिलने की रखे तमन्ना, उसे दूर ये देते फेंक।
ये हैं धरती के सच्चे प्रतिनिधि तंबू पोल पर लिया लगाय,
कन्या रखी विपरीत पोल पर, गड़बड़ गति हो न जाय।
सुनिके देवर की अल्हड़ता भौजी मंद-मंद मुस्कांय,
भैया समझे तुरत इशारा सबको कीन्हा फौरन बाय।

17 responses to “वीर रस में प्रेम पचीसी”

  1. ई-स्वामी
    बसंत में श्रिंगार रस बरस रहा है! ये सीधे हाल-ओफ़-फ़ेम लेवेल एन्ट्री है! अपन तो मस्त मस्त! माहौल एकदम सेट है … गौर किया जाए मैं कितना समझदार हूं जो साईट भर पे इस मौसम में फूल बिखराए हूं!(जरा अपनी पीठ भी थपथपा लूं ;-) )
  2. राजीव
    प्रिय अनूप जी,
    आप के द्वारा posted (स्वरचित मानते हुए) आल्हा शैली की काव्य रचना, प्रेम युद्ध बहुत ही मौलिक और चुलबुलाती हुयी लगी। कदाचित ऐसी रचना आल्हा की चिर-परिचित लय में सस्वर प्रकशित होती (स्वर-ब्लॉग / podcast के द्वारा) तो आनन्द और ही होता! और हां, एक बात और – एक क्षेत्र विशेष में अधिक प्रचलित होने के कारण, यदि कुछ पाठक आल्हा लोक-शैली के प्रस्तुतीकरण एवं लय से परिचित नहीं हैं तो वे इस रचना का समुचित रसास्वादन नहीं कर पायेंगे, तो अनूप जी, यदि सम्भव हो, तो इस रचना को MP3 प्रारुप में भी प्रकशित करें, धन्यवाद!
  3. समीर लाल
    “इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय
    बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय।”
    अरे अनूप भाई, इतना जोर का झटका..लेकिन भाई, हम तो आल्हा के सुर मे गाते गाते हिचकोले खाते चले जा रहे थे..कि एकाएक स्टोरी मे टर्न… :)
    वाह, बहुत खुब. आन्नद विभोरित समीर लाल की अनूप भाई को बधाई.
  4. नितिन
    अनूपजी,
    बहुत ही सुंदर लिखा है, बचपन के वो दिन याद आ गये जब बुंदेलखंड में आल्हा
    सुनने को मिलता था। राजीव जी ने सही कहा है यदि इस रचना को स्वरबध्द कर सकें
    तो बात ही क्या!!
  5. रवि
    अंततः आपने सिद्ध कर ही दिया कि पोस्टें कूड़ा नहीं हुआ करतीं…
    क्या हीरे – मोती – माणिक्य बिखेरे हैं आपने!
    मैं अपनी वे कूड़ा टिप्पणियाँ आधिकारिक रुप से वापस लेता हूँ .
  6. sanjay | joglikhi
    चिट्ठा जगत के ‘कुङे-करकट’ में आपके इन मोतीयों का आल्हा लोक-शैली कि लय से अपरिचित होने के कारण समुचित रसास्वादन नहीं कर पाया, इस बात का खेद रहेगा. वैसे आपके उम्मदा प्रयास के लिए बधाई.
  7. समीर लाल
    अनूप भाई,
    शर्मा शर्मी मे देखत है कैसन लाली लिये हैं गाल
    फ़िर भी कौनो कसर ना छोडी सबको करे आप बेहाल
    हमरी मांग पढिके उस पर धरे तुरत ही अपने कान
    आगन कि कथा जोडिके लगभग पूरा किया बखान
    तुमको कैसे धन्नबाद दे इसहि सोच मे बीती शाम
    शायद इससे नेता सिखें कुछ तो दें जनता पर ध्यान
    तुरत ना माने मांगें फ़िर भी कभी तो धर दें उनपे कान.
    समीर लाल
  8. जीतू
    अमा शुकुल आल्हा का मजा पढने से ज्यादा सुनने मे आता है, इसलिए आधी तारीफ़ ही करुंगा, बकिया आडियो वर्जन सुनाओ तब करेंगे।
    वैसे अब तुम्हारे हाथ कविताओं मे भी काफ़ी खुल गये है, तुम तो फ़्री स्टाइल पहलवान की तरह हो गये हो, चाहे WWF मे लड़वा दो या चाहो तो गाँव के दंगल में। लगे रहो…टकाटक।
  9. आशीष
    चलो मै बच गया इस बार :-)
  10. फ़ुरसतिया » कुछ इधर भी यार देखो
    [...] बहरहाल ये तो ऐसे ही कुछ ऊँची हांकने के लालच में लिख दिया। अगर ठीक समझे हों तो मिस़रा उठाइये नहीं तो हियां की बातें हियनै छ्‌वाडौ़ अबआगे का सुनौ हवाल। [...]
  11. फ़ुरसतिया » भैंस बियानी गढ़ महुबे में
    [...] लक्ष्मी नारायण जी की नकल करते हुये हमने जब कुछ तुकबंदियां कीं तो पता चला कि कुछ साथी आल्हा से परिचित नहीं हैं। वास्तव में आल्हा उत्तरभारत के गांवों में बहुतायत में प्रचलित है। जिनका संपर्क गांवों से कम रह पाया वे शायद इसके बारे में कम जानते हों। साथियों की जानकारी के लिये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास ‘से आल्हा से संबंधित जानकारी यहां दी जा रही है:- ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे,जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल(उदयसिंह)- के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषाभाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी- [...]
  12. anitakumar
    वाह पढ़ कर ही इतना अच्छा लगा तो सुनने में कितना अच्छा लगेगा हम इसकी कल्पना कर सकते हैं। जैसा आप ने सही कहा हम जैसे लोग जिनका उत्तर प्रदेश के गावों से कोई संबध नहीं रहा तो आल्हा के बारे में हमारी जानकारी काफ़ी कम है। इसे पोडकास्ट कर सुनाए तो कुछ ज्यादा आनंद आये। आल्हा से संबधित और जानकारी भी दें (पोडकास्ट के साथ) तो हम जैसे जो उत्तर प्रदेश को कुछ कम जानते है उनकी भी जानकारी बड़े। आशा करती हूँ कि समीर जी का कहा कि आप फ़ौरन मांग पूरी करते है वो सच ही साबित होगा…:)
  13. अभय तिवारी
    आप धन्य हैँ महाराज!
  14. कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता
    [...] वीर रस में प्रेम पचीसी हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :- [...]
  15. Anonymous
    हरी गोविन्द विश्वकर्मा ग्राम व पोस्ट बील्हापुर घोरहा भादर
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] क्या थी? 3.मेरे जीवन में धर्म का महत्व 4.वीर रस में प्रेम पचीसी 5.मिस़रा उठाओ यार… 6.कुछ इधर भी यार देखो

Wednesday, April 12, 2006

मेरे जीवन में धर्म का महत्व

http://web.archive.org/web/20110925231056/http://hindini.com/fursatiya/archives/121

मेरे जीवन में धर्म का महत्व

अनुगूंज-१८
हम अनुगूंज के लेख का मसौदा सोच रहे थे।हमसे पहले तमाम लोग लिख चुके हैं जो कि बकौल रविरतलामी कूड़ा ही होगा। हम संकोच में थे कि कूड़े में और क्या कूडा़ मिलाया जाय। लेकिन दिल है कि मानता नहीं।दिल के आगे संकोच ने हथियार डाल दिये। हमने सोचा कि कुछ लिख ही डाला जाय। विषय खोजा-मेरे जीवन में धर्म का महत्व.
हमने धर्म के बारे में किताबें खोजीं लेकिन पता चला  कि बकौल हरिवंशराय बच्चन सारे धर्मग्रंथ तो मधुशाला जला चुकी है। हमें बहुत गुस्सा आया मधुशाला पर।ये क्या मजाक है! धर्म न हो गया किसी भ्रष्टाचारी नेता का पुतला हो गया,जला दिया। अब तो मधुशाला के बारे में सुनी अफवाहें मुझे सच सच लगने लगीं कि यह लोगों के घर जला देती है।
हमने फिर सोचा कि क्या किसी किताब का ‘टोपो’ मारा जाय।कूडा़ ही फैलाना है तो दूसरे का काहे फैलाया जाय। अपना ही ‘कुटीर उद्योग’ खोला जाय। और ये लो,कच्चा माल जुगाड़ के हम जुट गये उत्पादन में।
पहले देखा जाय कि धर्म है क्या?

धर्म वह व्यवस्था होती है जिसका उदय तथा शुरूआती प्रसार अन्याय, गैरबराबरी, दुख तथा शोषण मिटाकर समानता , न्याय की स्थापना करना होता है लेकिन होता असल में यह है कि धर्म के जहां पंख निकल आते हैं वहीं से अन्यायी,शोषक तथा ताकतवर लोग धर्म पर कब्जा कर लेते हैं।धर्म के कल्याणकारी तत्वों को तलाक देकर अन्यायपूर्ण मानव विरोधी व्यवस्था से निकाह पढ़वा लेते हैं।
हर धर्म की शुरूआत मनुष्य के भले के लिये हुई। मनुष्य का दुख दूर करने के लिये हुई।लेकिन कालांतर में वही धर्म मनुष्य के दुख का कारण बन जाता है।फिर मनुष्य दूसरा धर्म खोजता है। फिर वही कहानी चलती रहती है।मुझे लगता है कि धर्म भी एक आइटम की तरह होता है। इसकी भी एक ‘सेल्फ लाइफ’ होती है।अगर समसामयिक चुनौतियों के अनुरूप धर्म में संसोधन होते रहते हैं तो धर्म की प्रासंगिकता बनी रहती है वर्ना धर्म की स्थिति बेरोजगार,अपाहिज बुजुर्ग की तरह हो जाती है ,अपने तक नजर चुराते हैं उससे।
हर धर्म कुछ विशेष परिस्थितियों में जन्म लेता है। स्थान,समय ,सामाजिक स्थिति के अनुसार कुछ व्यवस्थायें बनायी जाती हैं। स्थान,समय ,सामाजिक स्थिति बदलने पर संभव हो कि उतना गहरा प्रभाव न पड़े उसका। जो धर्म जितना अधिक लोगों की खुशी की व्यवस्था कर सकेगा उसका उतना ही अधिक प्रसार होगा।वह उतने ही अधिक दिनों तक प्रासंगिक रहेगा।
हर धर्म में मनुष्य के सुख,सन्तोष,प्रगति और आत्मा के उत्थान के तत्व होते हैं।दया,करुणा,न्याय,सदाचार आदि सब धर्म सिखाते हैं।कटुता,घृणा,द्वेष की शिक्षा कोई धर्म नहीं देता ।अहंकार का सब धर्म निषेध करते हैं।सारे धर्म दूसरे धर्मों का आदर करने की बात करते हैं। हर धर्म मूल रूप में आत्मा में सौन्दर्य,प्रेम,उदात्त भावनायें,कोमल संवेदनायें जगाता है।
लेकिन यह विडम्बना हर धर्म के साथ होती है कि उस पर शक्ति सम्पन्न वर्ग कब्जा कर लेता है-सामन्त, साम्राज्यवादी, व्यापारी, पूंजीपति । वे प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तनों को रोकते हैं। धर्म के जन-कल्याणकारी तत्वों को छोड़ देते हैं तथा अन्यायपूर्ण मानव-विरोधी व्यवस्था चलाते हैं।धर्म को दिखावा बना देते हैं:-

मुंह में राम बगल में छूरी,मिल गये राम पेल दिहिन पूरी।
जब धर्म अपने मूल तत्वों से विचलित होता है तब तमाम धर्म के तमाम ठेकेदार पैदा हो जाते हैं। हर एक के पास अपने धर्म की ‘सोलसेलिंग’ एजेंसी होती है।हर एजेंट  हाटलाइन से सीधे परमात्मा से जुड़ा होता है। इधर आप भुगतान करिये  , उधर आपकी बर्थ स्वर्ग में रिजर्व !
आजकल सबेरे हर टीवी चैनेल बाबा लोग धर्म के बारे में उपदेश देते मिल जाते हैं। ‘संसार निस्सार है’ कहने वाले बाबा लोग एअरकंडीशंड गाडियों के काफिले में विलासिता पूर्ण सुविधाओं के घेरे में घूमते हैं। गली-गली कौड़ी के तीन स्वयंभू  भगवान टकराते रहते हैं।
 पिछले माह उत्तरप्रदेश में तीन स्वयंभू भगवान,जो राजकीय सेवाओं में थे, निलंबित हुये हैं ।उ.प्र. में ही  एक पचास की उमर के स्वयंभू भगवान जिनके भक्तों ,सेवकों तथा सुरक्षागार्डों व ड्राइवरों में ज्यादातर जवान माहिलायें ही शामिल थीं को भगवान विरोधियों ने गोलियों से छलनी कर दिया।
कहने का मतलब यह कि आजकल भगवान होना बहुत आसान हो गया। थोड़ी सी गुंडई,थोड़ी सी धूर्तता,थोड़ी से कलाकारी तथा थोड़ा सा वाग्जाल बस हो गया कमाल। इतनी कम लागत में भगवान बनना सुलभ हो जाने के कारण ही भगवानों की संख्या बढ़ती जा रही है।आप कहेंगे कि  ऐसे भगवानों से तो साधारण इंसान बेहतर लेकिन यह तो और लोग भी कहते हैं:-
फरिश्ते से बेहतर है इंसान होना,
लेकिन उसमें लगती है मेहनत जियादा।

इस तरह की लफ्फाजी का कोई अंत नहीं हैं । बात अपने बारे में करना भी जरूरी है। तो भइये, अव्वल तो हमारा न तो ऐसा कोई धार्मिक एजेंडा है न ही कोई झंडा जिसे मैं डंडे में लगाकर फहरा सकूं।हर धर्म के मूल में जो बाते मैं हैं वे अनुकरणीय  हैं। उनके प्राणतत्व का अनुकरण ही सच्चा धर्म है।
यहां पर धूमिल की कविता ‘मोचीराम’ के अंश देने का मन कर रहा है:-
जिंदा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर
या रंडियों की दलाली करके
रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।

कोई भी धर्म रिन साबुन की टिकिया नहीं है जिसकी चमकार दूसरे धर्म के मुकाबले ज्यादा हो। जो धर्म मानव जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सके,मानवमन को उदात्त बना सके,परदुखकातर बना सके वही धर्म अनुकरणीय होगा।
वही शायद मेरा भी धर्म होगा।
मेरी पसंद
लोग तुम्हारे पास लेकर आते हैं प्रार्थना
मैं तुम्हारे दरबार में एतराज़ लेकर आ रहा हूं।
और उसी एतराज़ में
अपनी अर्जी लगा रहा हूं।
क्षमा करना दया सागर
वैसे तो यहां सभी कुछ चलता है
लेकिन तुम्हारा समदर्शी होना
अब मुझे बहुत खलता है।
पता नहीं तुम्हें कैसा लगता है
जब पीड़ित और पीड़क
दोनों एक साथ
तुम्हारे पास आते हैं
और याचना भरी निगाहों से
तुम्हारे लिये गुहार मचाते हैं
तब फिर बोलो कृपानिधान,
उन दोनों को तुम कितना पहचानते हो?
तुम्हीं बताओ ,
जिस मां की बेती की अस्मत
किसी दरिंदे की हवस का शिकार हुई हो
वह अपनी दरकती हुई छाती में
तुम्हारे न्याय का विश्वास टिकाए
तुमसे  न्याय मांगे
और तुम्हारी उसी अदालत में
वही दरिंदा
चढ़ावे का थाल लिये
खड़ा हो सबसे आगे।
तब भी तुम कैसे रह लेते हो शांत
कैसे सह लेती है तुम्हारी निगाह
दोनों को एक साथ?
बोलो दीनानाथ ,
ऐसा समदृष्टा होना
न्याय के कौन से मानक बनायेगा?
मैं पूछता हूं
तुम्हारा चक्र-सुदर्शन
धनुष-बाण
तीर-तलवार
आखिर किस दिन काम आयेगा?
क्या यह जरूरी नहीं
कि अब अन्याय के खिलाफ
तुम बेहिचक सामने आओ
और मजलूम को उसकी यातना से
छुटकारा दिलाओ?
कम से कम इतना तो मानो
कि जालिम को मज़लूम के समकक्ष रखकर
देखना गुनाह है,
प्रभुवर,आपकी दृष्टि का
यह कौन सा प्रवाह है,
जो तुम्हारी अपनी ही कथाओं को
झूठा ठहराता है,
अन्याय के खिलाफ लड़ने की
तुम्हारी प्रतिष्ठा में दाग लगाता है?
ऐसा तो नहीं
कि हमारे जमाने के अन्याय से टकराना
तुम्हें भी पड़ने लगा हो भारी?
तब फिर मेरी प्रार्थना है
कि मुझे भी ले लो साथ
और फिर करो तैयारी।
समदर्शी बहुत रह लिये
अब प्रत्यक्षदर्शी हो जाओ
देखो, कि यहां जल को जल
और रेत को रेत बताने वाले
किस तरह मार खाते हैं!
निरी रेत,जल बनकर
उन्हें कैसे छलती है
और वे बेचारे उसी मगजल से
देखते-देखते कैसे हार जाते हैं।
मुझे ले चलोगे साथ
तो जिन जिन अंधेरों से होकर गुजरा हूं
वहां वहां तुम्हें भी ले जाऊंगा
अदना ही सही ,लेकिन इस तरह
कुछ तो तुम्हारे काम आऊंगा।
छोड़ो समदृष्टि का चक्कर मेरे करतार,
होने दो दूध का दूध
और पानी का पानी
ज़रूरी है कि अब थोड़ी बहुत बदले
तुम्हारी भी कहानी।
उठाओ चक्र सुदर्शन,धनुष-बाण
कुठार-तीर-तलवार
हो सके तो सब एक साथ
ताकि मज़लूम
खुले मन इस दुनिया में रह सके
 और तुम सचमुच
न्याय के साथ हो,
यह बात वह पूरे विश्वास के साथ कह सके।
-कन्हैयालाल नंदन

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “मेरे जीवन में धर्म का महत्व”

  1. Tarun
    तो आपने भी जबरिया लिख ही दिया, धर्म और धार्मिक होना वैसा ही है जैसा ‘बद अच्‍छा बदनाम बुरा’।
  2. समीर लाल
    मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो.
    शुभेक्षु
    समीर लाल
  3. अभिनव
    ‘जो धर्म मानव जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सके,मानवमन को उदात्त बना सके,परदुखकातर बना सके वही धर्म अनुकरणीय होगा।’ बढ़िया बात कही आपने। नंदन जी की कविता पढ़कर आनंद आया।
  4. रवि
    बहुत अच्छे!
    वैसे , अब मैं प्रमाणपत्र देता हूँ कि यह लाइन कूड़ा नहीं है, बल्कि हीरे की कनी है – चमक बिखेरती हुई-
    फरिश्ते से बेहतर है इंसान होना,
    लेकिन उसमें लगती है मेहनत जियादा।
    आइए, हम सभी थोड़ी मेहनत कर लें :)
  5. sanjay | joglikhi
    इस युग के भगवानों पर लिखने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे. समझ में नहीं आ रहा था क्यो लिखुं, कैसे लिखुं. लेकिन आपने तो एकदम सरल भाषा में सहजता से आधुनिक भगवानों को निपटा दिया. बहुत खुब.
  6. विजय वडनेरे
    बहुत अच्छा लिखे हैं आप.
    दरअसल यही सब देखते हैं आजकल आप और हमसब. चिढ भी होती है, गुस्सा भी आता है. मगर, कुछ ना कर सकने की मजबूरी सी रहती है.
    बिलकुल सच बात है:
    गली-गली कौड़ी के तीन स्वयंभू भगवान टकराते रहते हैं।
    यही दास्तां बयां करता हुआ एक शेर अर्ज है:
    हमने देखा है कई ऐसे खुदाओं को यहाँ,
    सामने जिनके ‘वो’ सचमुच का खुदा कुछ भी नहीं!
    शुभकामनायें.
  7. फ़ुरसतिया » वीर रस में प्रेम पचीसी
    [...] विजय वडनेरे on मेरे जीवन में धर्म का महत्व sanjay | joglikhi on मेरे जीवन में धर्म का महत्व रवि on मेरे जीवन में धर्म का महत्व अभिनव on मेरे जीवन में धर्म का महत्व समीर लाल on मेरे जीवन में धर्म का महत्व [...]
  8. जोगलिखी » चिट्ठाकारों द्वारा लगभग 18,000 शब्द लिखे गये
    [...] अनुगूंज 18 के लिए इन्होने लिखा हैं : दुनियाँ मेरी नजर से (अमित) (30 मार्च) जोगलिखी (संजय बेंगाणी) दिनांक 1 अप्रैल दस्तक (सागर चन्द नाहर ) दिनांक 2 अप्रैल खाली-पीली (आशीष श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निठल्ला चिंतन (तरूण) दिनांक 4 अप्रैल छींटे और बौछारें (रविशंकर श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निनाद गाथा (अभिनव) दिनांक 5 अप्रैल मेरा पन्ना (जितेन्द्र चौधरी) दिनांक 5 अप्रैल बीच-बजार (परग कुमार मण्डले) दिनांक 5 अप्रैल उन्मुक्त (उन्मुक्त) दिनांक 9 अप्रैल झरोखा (शालिनी नारंग) दिनांक 10 अप्रैल उडन तश्तरी (समीरलाल) दिनांक 11 अप्रैल फ़ुरसतिया (अनूप शुक्ला) दिनांक 12 अप्रैल मन की बात (प्रेमलता पाण्डे) दिनांक 12 अप्रैल (ई-स्वामी) दिनांक 14 अप्रैल मेरा चिट्ठा (आशीष) दिनांक 14 अप्रैल इधर उधर की (रमण ) दिनांक 14 अप्रैल [...]
  9. चिट्ठाकारों द्वारा लगभग 18,000 शब्द लिखे गये at अक्षरग्राम
    [...] अनुगूंज 18 के लिए इन्होने लिखा हैं : दुनियाँ मेरी नजर से (अमित) (30 मार्च) जोगलिखी (संजय बेंगाणी) दिनांक 1 अप्रैल दस्तक (सागर चन्द नाहर ) दिनांक 2 अप्रैल खाली-पीली (आशीष श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निठल्ला चिंतन (तरूण) दिनांक 4 अप्रैल छींटे और बौछारें (रविशंकर श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निनाद गाथा (अभिनव) दिनांक 5 अप्रैल मेरा पन्ना (जितेन्द्र चौधरी) दिनांक 5 अप्रैल बीच-बजार (परग कुमार मण्डले) दिनांक 5 अप्रैल उन्मुक्त (उन्मुक्त) दिनांक 9 अप्रैल झरोखा (शालिनी नारंग) दिनांक 10 अप्रैल उडन तश्तरी (समीरलाल) दिनांक 11 अप्रैल फ़ुरसतिया (अनूप शुक्ला) दिनांक 12 अप्रैल मन की बात (प्रेमलता पाण्डे) दिनांक 12 अप्रैल (ई-स्वामी) दिनांक 14 अप्रैल मेरा चिट्ठा (आशीष) दिनांक 14 अप्रैल इधर उधर की (रमण ) दिनांक 14 अप्रैल [...]
  10. अवलोकन : अनुगूजँ 18- मेरे जीवन में धर्म का महत्व at अक्षरग्राम
    [...] धर्म के उदय और अंजाम को समझाना हो तो अनूप शुक्लाजी के पास फुरसत ही फुरसत हैं  “धर्म वह व्यवस्था होती है जिसका उदय तथा शुरूआती प्रसार अन्याय, गैरबराबरी, दुख तथा शोषण मिटाकर समानता , न्याय की स्थापना करना होता है। लेकिन यह विडम्बना हर धर्म के साथ होती है कि उस पर शक्ति सम्पन्न वर्ग कब्जा कर लेता है-सामन्त, साम्राज्यवादी, व्यापारी, पूंजीपति ।“ नतिजा आज कल हम सब देख रहें हैं ”गली-गली कौड़ी के तीन स्वयंभू  भगवान टकराते रहते हैं।“  ऐसे में इनके लिए तो “वही धर्म अनुकरणीय होगा जो धर्म मानव जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सके,मानवमन को उदात्त बना सके,परदुखकातर बना सके”   [...]
  11. कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता
    [...] पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की [...]
  12. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] की आंख 2.जरूरत क्या थी? 3.मेरे जीवन में धर्म का महत्व 4.वीर रस में प्रेम पचीसी 5.मिस़रा उठाओ [...]

Thursday, April 06, 2006

ईश्वर की आंख

http://web.archive.org/web/20140419161327/http://hindini.com/fursatiya/archives/118

ईश्वर की आंख

छत पर चहलकदमी करके नीचे आये तो देखा कि टीवी पर हल्ला मचा था। मुंबई में किसी माडल का ‘बिल्ली भ्रमण’ करते हुये कोई कपड़ा चू गया होगा। माडल ने,जैसा कि होता है,पूरे आत्म विश्वास से अपना कैट-वाक पूरा किया। इसके बाद फिर जैसा होता है वही हुआ-कुछ भारतीय संस्कृति की चिंता करने वालों की मांग पर सारे मामले की जांच कराई गयी।जांच में भी जैसा होता है कुछ निकला नहीं। इसके बाद फिर वही हुआ जैसा कि होता है-दुबारा जांच के आदेश हुये हैं। पहली जांच के विवरण पता नहीं चले कि कैसे जांच हुई लेकिन सहज मन से अनुमान लगा सकता हूं कि सजग जांच अधिकारी की तरह शायद माडल के कपड़े फिर से गिरवा के देखे जायें।
जो भी हो लेकिन लग यही रहा है कि अब तो सारी जांच होकर ही रहेगी।
जिस चैनेल पर माडल -वस्त्र-पतन-पुराण चल रहा है उसी के नीचे खबर आ रही है
मेधा पाटकर के अनशन का आठवां दिन है तथा उनकी हालत गंभीर हो रही है।
मेधा पाटकर सरदार सरोवर परियोजना के विस्थापितों के पुनर्वास के लिये संघर्षरत हैं। उनके बारे में चैनेल लगातार केवल फुटेज देकर काम चला रहा है। माडल के गिरे हुये कपड़े को दौपद्री के चीर की तरह खींच रहा है।

बीस साल के जनसंघर्ष पर बीस सेकेंड का माडल वस्त्र पतन हावी है।
हे भगवान ,क्या हो रहा है इस देश में!
जहां हमने हे भगवान, कहा भगवान का कोई भक्त हमारे  मेल बाक्स में भगवान से जुड़ी एक मेल धम्म से गिरा गया।
मेल भेजने वाले ने तमाम तरफ से भटक कर आयी मेल को हमारे पास भटकने के लिये भेजा था। बताया था कि सात मेल भेजो दूसरों के पास ताकि लोक-परलोक सुधर जाय।
 ईश्वर की आंख
मेल में बताया गया था कि नासा वालों ने भगवान की आंखे देखीं। ३००० सालों में यह नजारा पहली बार दिखता है।नासा वालों ने हबल दूरबीन से देखा तथा कहा भगवान की आंखे देख लो तथा कम से कम सात दूसरे लोगों को दिखाओ।
हम सोच ही रहे थे कि किन सात लोगों को मेल भेजी जाये कि हमें याद आया रमनकौल का लेख -चेन मेल की चेन खींचें। सो हमने सोचा मेल नहीं लिखना चाहिये।लेख लिखना चाहिये।सोचने में तो कुछ खर्च होता नहीं लेकिन लिखने में मेहनत लगती है लिहाजा फिर हम सोच रहे हैं क्या लिखें।
अब बात जब भगवान की आई तो हमने सोच में श्रद्धा की मिलावट भी कर ली। तथा हम भगवान के बारे में जुट गये पूरी मेहनत से सोचने में।
भारत की आबादी अगर सौ करोड़ के अल्ले-पल्ले मान लें तथा देवताओं की पुराने जनसंख्या रिकार्ड के अनुसार आबादी तैंतीस करोड़ मान लें (गजब का परिवार नियोजन है देव समुदाय का। गली-गली रोज नये-नये भगवान पैदा हो रहे हैं लेकिन रिकार्ड में सदियों से वही तैंतीस करोड़ हैं।)इस लिहाज से हिंदू धर्म के अनुसार हर भारतीय के हिल्ले एक तिहाई देवता आता है। या फिर एक देवता पर तीन आदमी।मतलब आम देवता को बाहुबली विधायक-मंत्री को मिलने वाली जेड कैटेगरी की सुरक्षा भी मुहैय्या नहीं।
अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि देवता ने नासा में आंख क्यों दिखाई!दिखाई भी तो केवल एक आंख ही किसलिये दिखाई? क्या भगवान कानून  की तरह काना है(लोग कहते हैं कानून अंधा होता है लेकिन वह अंधा नहीं काना होता है-एक ही तरफ देखता है- हरिशंकर परसाई)।
हो सकता है वह नासा के माध्यम से अमेरिका को आंखे दिखा रहा हो -बस बहुत हो चुका।अब लोगों को तबाह करना बंद कर दो वर्ना शंकर भगवान की तीसरी आंख की सेवायें लेने पड़ेगीं।
संभव तो यह भी है कि अमेरिका (नासा) वाले भगवान से नैन-मटक्का कर रहे हों। दोनों प्रोटोकाल के लिहाज से बराबरी पर बैठते हैं। भगवान की लीला भी अपरम्पार है ,अमेरिका की भी।भगवान हनुमान को संजीवनी नहीं मिली तो पहाड़ उठा लाये । इधर अमेरिका भगवान से ईराक में पसीना बहाने के बाद जब दुनिया ने पूछा कि महाराज आप खोज क्या रहे हैं तो अमेरिकाजी ने महीनों बमबारी करते हुये बताया कि हम ये खोज रहे थे। जासूसों ने बताया था लेकिन जगह नहीं खोज पाये सो हमें अपने बम बरबाद करने पड़े।
लेकिन भगवान की आंखे तिरछी हैं। तिरछी हैं तो क्या भगवान नाराज हैं?
नाराज आंख से तो लाल चिंगारियां निकलती हैं। लेकिन भगवान की आंखें तो नीली हैं।ई कउन सा नया फैशन का गुस्सा है?
लगता तो यह भी है कि भगवान की आंखे फटी-फटी सी हैं। वे लगता है बहुत दुखी हैं इस बात से कि एक तरफ एक महिला अपनी सारी जिंदगी दूसरों के पुनर्वास में लगाने के बावजूद हासिये पर है वहीं चंद कपड़े गिराकर एक माडल की खबरें से सारे चैनेल उफना रहे हैं।
लग तो यह भी रहा है कि भगवान भी कम रागिया नहीं हैं। हो सकता है कि भगवान एक आंख से इधर अपनी लीला कर रहे हों तथा उधर दूसरी आंख से लोगों के ब्लाग पढ़ रहे हों।
आपको क्या लगता है?
मेरी पसंद

मेरी पसंद में तमाम कालजयी रचनायें दिमाग की लाइन में शराफत से शामिल होने को खड़ीं थीं लेकिन उन सबको धकियाकर  तुकबंदियों का  रेला की बोर्ड पर पसर गया है। बड़ी आफत है। खैर, पढ़ें- अगर मन करे:-
1.इधर
महिला माडल के कपड़े गिरे
उधर
मोबाइल का विज्ञापन करता माडल बोला
-ऐसी आजादी और कहां?
2.इधर
 ब्लागर बता रहे हैं-
 हमारा धर्म कैसा है
 उधर
 वो बाजार में चीख रहे हैं
 सड़े टमाटर !
 क्या हराम का पैसा है?

3.आशीष के
 पैर की चोट पर बंधी पट्टी ने
 अंदर लगे मरहम से पूछा
 कैसा लग रहा है
 कैसा तुमने सोचा था?
 मरहम कांखते हुये बोला
 हां, तुम बिल्कुल वैसी हो
 जैसा मैंने सोचा था।

4.ब्लागर की शानदार पोस्ट पर जानदार
 टिप्पणी लिखने के लिये
 की बोर्ड पर हाथ चलाते हुये
 निगाह ब्लाग के उपरी हिस्से पर पड़ी
 मच गई जवाब देने की हड़बड़ी
 मुहावरा लिखने में कुछ हो गयी गड़बड़ी
लिख गया-
कूड़ा तो नहीं लेकिन कूड़े की कसम
जो लिखा है आपने
वो कूड़े से कुछ कम नहीं।

5.प्रियतम निकला अकड़कर ,पुलिस ले गयी थाने
रंग चुराकर लोगों का ,बनते हो बहुत सयाने ।
होली भी अब बीत गयी है,वापस कर दो रंग,
मार पडे़गी वरना इतनी ,चेहरा हो जायेगा बदरंग
प्रियतम ने तब घबरा करके, किया था टेलीफून
जल्दी मुझको छुड़वा लो तुम,खिसक रही पतलून
रंग रखा था मैंने घर में बस अप्रैल फूल बनाया था
बच गये बच्चू कहकर मुच्छड़ ठुल्ला मुस्काया था।

8 responses to “ईश्वर की आंख”

  1. Raman Kaul
    जैसे हर चेन का तोड़ होता है, आप की चेन का तोड़ यह रहा
  2. Amit
    अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि देवता ने नासा में आंख क्यों दिखाई!दिखाई भी तो केवल एक आंख ही किसलिये दिखाई? क्या भगवान कानून की तरह काना है
    आम धारणा के विपरीत, हिन्दु पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवता लोग भगवान नहीं होते। ईश्वर एक है, देवता कई हैं। देवता तो महज़ एक समुदाय है, मालिक तो कोई और है। जिस तरह कर्मचारी कई होते हैं, आफ़िसर कई होते हैं, पर टॉप बॉस एक ही होता है, ठीक उसी तरह!! ;)
  3. आशीष
    भैया ,
    यहां हमे लडकिया सैंडले मार रही है और आप हमारे जख्मो पर मरहम की बजाये कविता रूपी नमक छिडक रहे हो :-(
    हे तैंतीस करोड देवताओ मेसे मेरे हिस्से के एक तिहाई भगवान कहां हो तुम ?
    वैसे ताजा खबर ये है, कि आज मेरी कंपनी मे एक कार्यक्रम है जिसमे एक विज्ञापन प्रतियोगीता है. और् हम विज्ञापन कर रहे है divorce.com (Let’s make the life better)का.
    एक बेचारा क्वांरा
  4. रवि
    भाई, जिसे हिन्दी देखना हो, और आप उसे जबरिया अंग्रेज़ी दिखाओगे तो वो तो कूड़ा ही हुआ ना?
    वैसे, कुल मिलाकर ब्लॉग पोस्टें कूड़ा ही हुआ करती हैं , और उसमें मेरे लिखे पोस्ट भी शामिल हैं …:)
  5. प्रतीक पाण्डे
    अन्तरिक्ष की अथाह गहराई में अकेली लटकी भगवान् की एक आँख क्या करेगी, जब मीडिया वालों की दोनों आँखें भी यह नहीं देख सकतीं कि क्या दिखाने लायक है और क्या नहीं? वैसे भी क्या मालूम ये भगवान् की आँख है या फ़ोटोशॉप की?
  6. समीर लाल
    “बीस साल के जनसंघर्ष पर बीस सेकेंड का माडल वस्त्र पतन हावी है।”..क्या बात कही है, वाकई कितनी बडी विडंबना है.
    समीर लाल
  7. फ़ुरसतिया » जरूरत क्या थी?
    [...] बहरहाल अनूप भार्गव ने चलते-चलते कहा कि ई-कविता के स्तर को थोड़ा नीचे लाने के लिये एकाध चलताऊ तुकबंदी मैं भेजूं। मैं सोच रहा था कि मैं तो अच्छे लेखक का भ्रम पाले हूं। घटिया रचना कहां से लाऊं? लेकिन तब तक रवि रतलामी जी ने हमारी दुविधा दूर कर दी ,यह बताकर कि कुल मिलाकर ब्लॉग पोस्टें कूड़ा ही हुआ करती हैं। लिहाजा यह कूडा़/कविता अनूप भार्गव की मांग पर तथा हुल्लड़ मुरादाबादी की ‘अहा! जिंदगी’ पत्रिका के  होली अंक में छपी कविता जरूरत क्या थी से प्रेरणा लेकर लिखी जा रही है:- सच है कि ब्लाग में कूड़ा ही लिखते हैं अधिकतर लोग लेकिन यह सच सबको बताने की जरूरत क्या थी? [...]
  8. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.ईश्वर की आंख 2.जरूरत क्या थी? 3.मेरे जीवन में धर्म का महत्व 4.वीर रस में प्रेम पचीसी 5.मिस़रा उठाओ यार… 6.कुछ इधर भी यार देखो 7.भैंस बियानी गढ़ महुबे में 8.अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे …. [...]

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