Tuesday, November 08, 2011

मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण- श्रीलाल शुक्ल

http://web.archive.org/web/20140419155901/http://hindini.com/fursatiya/archives/2355

मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण- श्रीलाल शुक्ल

[कल जागरण समूह की संस्था लक्ष्मी देवी ललित कला अकादमी में स्व. श्रीलाल शुक्ल की स्मृति का आयोजन किया गया। लोगों ने उनके बारे में अपनी राय रखी। मैंने भी अपने संस्मरण सुनाये। वहीं पर प्रसिद्ध आलोचक स्व. देवी शंकर अवस्थी की पत्नी आदरणीया कमलेश अवस्थी जी भी आईं थीं। श्रीलाल शुक्ल जी बेटी रेखा अवस्थी उनकी देवरानी हैं। कमलेश जी ने श्रीलाल शुक्ल जी से संबंधित कई आत्मीय संस्मरण सुनाये। इन संस्मरणों में रागदरबारी के पात्रों की रचना प्रक्रिया, समाज के बारे में श्रीलाल जी सोच-समझ और उनके द्वारा सुनाये गये अपने समय के कई साहित्यकारों (फ़िराक साहब, भगवतीचरण वर्मा , नागर जी आदि) के किस्से हैं। पुरस्कार मिलने पर श्रीलाल शुक्ल जी प्रतिक्रिया और तमाम विकट परिस्थितियों में भी वे कैसे सहज बने रहते थे इसके जिक्र के साथ अन्य कई वाकयों का जिक्र है। इसी सिलसिले में श्रीलाल शुक्ल जी द्वारा लिखा यह लेख भी यहां पोस्ट किया जा रहा है जिसे श्रीलाल जी ने अपना लिखा एतिहासिक व्यंग्य लेख बताया है। कमलेश जी के वक्तव्य की वीडियो रिकार्डिंग नीचे दी गयी है। ]

मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण- श्रीलाल शुक्ल


श्रीलाल शुक्ल
1945 की बात है। तब तक विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी को देखते ही उसे लफ़ंगा मानने का चलन नहीं हुआ था। ऐसे प्रोफ़ेसर काफ़ी संख्या में थे जो लड़कों को ’जेंटिलमैन’ कहकर संबोधित करते थे, यही नहीं, उन्हें ऐसा समझते भी थे।
मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में था। वातावरण सब प्रकार से विद्यार्थी को जेंटिलमैन बना डालने वाला था। हमारे छात्रावासों में मीटिंग हाल में योग्य और विशिष्टता पाने वाले विद्यार्थियों की सूचियां टंगी हुईं थीं। ये आई.सी.एस. में , पी.सी.एस. में, इसमें, उसमें -किसी भी तुक की सरकारी नौकरी की परीक्षा में सफ़ल होने वालों की सूचियां थीं। हम किसी-न-किसी दिन इन्हीं सूचियों में टंगने की उम्मीद बांधे चुपचाप किताबें पढ़ते रहते, उससे भी ज्यादा चुप होकर खेलते और छात्रावास के पुरातनकालीन शौचालयों, गंध भरे, लगभग गंदे भोजनालयों और बिन पानी के गुसलखानों में आते-जाते हुये अपने को जैंटिलमैन बनाये रखने की कला सीखते।
मेस और रेलवे बोर्ड की भाषा में- संडास तो जैसे-तैसे चल जाते, क्योंकि वे जैसे-जैसे अपने उद्धेश्य की पूर्ति कर देते थे, पर बिना पानी का गुसलखाना कहॉं तक सहा जाता? शायद पानी का दबाब कम था। जो भी हो, नल से बूंद-बूंद पानी टपकता था। बूंद-बूंद से घंटेभर में बाल्टी भरती थी और चौथाई मिनट में रीती हो जाती थी। गुसलखाने के आगे ’क्यू’ लगता था, पर ’क्यू’ का कोई नियम जरूरी नहीं था। नहाने वालों की भीड़ में दंगे की स्थिति पैदा हो जाती थी। इसी स्थिति ने कुछ नेता पैदा किये। नेताओं ने नहाने की व्यवस्था में सुधार करना चाहा। तब तक हम सीख गये थे कि किसी भी सुधार के लिये धुंआधार आंदोलन करना ही एकमात्र तरीका है। हम आंदोलन पर उतर आये।
सिर्फ़ बाथरूमी चप्पल और पैजामे पहने हुये, हाथ में तौलिया और साबुन लिये नंगे बदन जवांमर्दों का एक जत्था हमारे छात्रावास से बाहर निकला। जुलूस की शक्ल में हम वाइसचांसलर डॉ. अमरनाथ झा के बंगले की ओर बढ़े। आसपास के छात्रावासों के लड़के भी हमारे दुख से दुखित होकर जिस्म से कपड़े उतार-उतारकर तौलिया झटकारते हुये, जुलूस में शामिल हो गये। ’इन्कलाब जिन्दाबाद’ का वातावरण बन गया। ’लोटे-लोटे की झनकार, सारे बाथरूम बेकार’ के नारों से खुद हमारे ही दिमाग गूंज उठे।
ऐसे मौके पर प्रयाण-गीत के लिये मैंने एक कविता लिखी थी, जिसे यहॉं दोहराना ही इस टिप्पणी का असली उद्धेश्य है।
यह कविता उस जमाने के प्रसिद्ध प्रयाण गीत -
खिदमते हिंद में जो मर जायेंगे
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।

की तर्ज पर लिखी गयी थी और इस प्रकार थी-
” हम बिना बाथरूम के मर जायेंगे।
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।

यह न पूछो कि मरकर किधर जायेंगे,
होगा पानी जिधर, बस उधर जायेंगे।
जून में हम नहाकर थे घर से चले,
अब नहायेंगे फ़िर जब कि घर जायेंगे।
यह हमारा वतन भी अरब हो गया,
आज हम भी खलीफ़ा के घर जायेंगे।
-आदि-आदि।”

यह मेरी पहली व्यंग्य रचना थी। पता नहीं, उस ’करुण-करुण मसृण-मसृण’ वाले जमाने में जबकि जबकि ज्यादातर मैं खुद उसी वृत्ति का शिकार था -मैं यह प्रयाण- गीत कैसे लिख ले गया। जो भी हो, इसका यह नतीजा जरूर निकला कि लगभग दस साल बाद मैंने जब व्यंग्य लिखना शुरु किया तो मुझमें यह आत्मविश्वास था कि मैं दस साल की सीनियारिटी वाला व्यंग्य-लेखक हूं और दूसरों की तरह किसी भी पोच बात को सीनियारिटी के सहारे चला सकता हूं।
खैर, अपने व्यंग्य-लेखन के बारे में इतना तो मैंने लगे हाथ यूं ही बता दिया। जहां तक बाथरूमों की बात है, खलीफ़ा- डॉ. झा ने हमारे आंदोलन को सफ़ल बनाने में बड़ी मदद की। आज की तरह विद्यार्थियों के जुलूस को देखते ही उन्होंने पुलिस नहीं बुलाई, गोली नहीं चलवाई, प्रेस के लिये तकरीर नहीं दी, इसे अपनी इज्जत का सवाल नहीं बनाया। सिर्फ़ एक-दो छोटे-छोटे वाक्यों में जुलूस के सनकीपन का हवाला देते हुये उन्होंने आश्वासन दिया कि ठीक ढंग के नये बाथरूमों की व्यवस्था हो जायेगी। यही नहीं-आज आपको ऐसी बात सुनकर अचंभा भले ही हो- उन्होंने अपना आश्वासन जल्दी ही पूरा भी कर दिया।
श्रीलाल शुक्ल
धर्मयुग, 1963
(श्रीलाल शुक्ल- जीवन ही जीवन से साभार)

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21 responses to “मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण- श्रीलाल शुक्ल”

  1. sanjay jha
    ’लोटे-लोटे की झनकार, सारे बाथरूम बेकार’……..गज्जबे इन्क्लाबियत निकल रहा है…………
    प्रणाम.
  2. डॉ0 मानवी मौर्य
    कॉलेज लाइफ का भी अलग ही मजा है। आपका लेख पढकर फिर से यादें ताजा हो गईं। श्रीलाल शुक्‍ल जी मेरे पसंदीदा साहित्‍यकारों में से एक हैं।
    डॉ0 मानवी मौर्य की हालिया प्रविष्टी..हिन्‍दी के प्रथम स्‍थापित गजलकार: शमशेर बहादुर सिंह
  3. Deepak dudeja
    ’करुण-करुण मसृण-मसृण’ वाले जमाने
    अब के जमाने का भी कोई विशेषण देते जाइए.
  4. Shikha Varshney
    आह …सुबह बना दी आपने.
    कितना निश्छल सा लेखन .
    तब तक विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी को देखते ही उसे लफ़ंगा मानने का चलन नहीं हुआ था। :):).
    नमन है श्रीलाल शुक्ल को .और आभार आपका.
    Shikha Varshney की हालिया प्रविष्टी..इतिहास की धरोहर "रोम".(.पार्ट २ )
  5. वन्दना अवस्थी दुबे
    आभार.
  6. rachna
    हेअडिंग में
    श्रीलाल शुक्ल
    से पहले inverted comma लगाना चाहिये .
    हेअडिंग देख कर भ्रम होता हैं जैसे आप के व्यंग लेखन की बात हुई हैं .
  7. arvind mishra
    इस प्रसंग से हमें खुद के ऐसे होस्टल अभियानों की याद हो आयी :)
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..मेरे पसंदीदा शेर -सेशन 4
  8. प्रवीण पाण्डेय
    पढ़कर आनन्द उचक आया।
  9. santosh trivedi
    फिर से श्रीलाल शुक्ल जी याद आ गए ! उनका जाना हिंदी साहित्य की एक विशेष शैली से पाठकों को महरूम हो जाना है !
  10. वन्दना अवस्थी दुबे
    रचना जी, शुक्ल जी की पोस्ट पर उनसे पूछे बिना जवाब देना, धृष्टता लग रही है, लेकिन मैं इसे कर रही हूं. आपने हैडिंग में सुधार का सुझाव दिया है, तो मैं ये जानकारी दे दूं, कि जब हम किसी व्यक्ति के बारे में लिखते हैं तो उसका नाम इन्वर्टेड कॉमा में दिया जाता है, लेकिन यदि हम किसी लेखक की ही रचना दे रहे हैं, तो हैडिंग के बाद डैश और लेखक का नाम दिया जाता है, जिसका मतलब होता है, कि ये वाक्य लेखक के द्वारा ही कहा गया है. यही व्याकरण-सम्मत है.
    बाकी शुक्ल जी जो कहना चाहें. :)
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..क्या होगा अंजाम मेरे देश का….
    1. rachna
      “मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण” – श्रीलाल शुक्ल
      वंदना
      सही तरीका ये हैं . मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण – श्रीलाल शुक्ल पढ़ कर लगता हैं जैसे अनूप शुक्ल ने श्रीलाल शुक्ल पर व्यंग लिखा था
      rachna की हालिया प्रविष्टी..चाइल्ड लेबर
  11. सलिल वर्मा
    शुक्ल जी की रचनाओं को पढ़ते हुए होठों पर मुस्कान होती है.. उनकी सबसे बड़ी विशेषता (और शायद किसी भी व्यंग्यकार की) यह है की वे कभी loud नहीं हुए… और उनके लेखन का क्षितिज इतना विस्तृत की “आदमी का ज़हर” पढ़ते हुए लगता ही नहीं “राग दरबारी” के रचयिता की रचना है!!
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति!!
    सलिल वर्मा की हालिया प्रविष्टी..माँ सुन्दर होती हैं
  12. चंदन कुमार मिश्र
    बढ़िया रहा गजल या व्यंग्य से गुजरना…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..स्वेटर (कविता)
  13. मनोज कुमार
    अब तो न वो लोटा है, न वो बाथरूम!
    श्री शुक्ल ने पाठकों को जिस यथार्थ से परिचय कराया वह आज अनुपलब्ध-सा ही है। यथार्थ के प्रति श्री शुक्ल जैसी सतर्क, गहरी और पैनी निगाह बहुत ही कम देखने को मिलती है।
    मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..घायलों की मरहम-पट्टी
  14. ज्ञान दत्त पाण्डेय
    खलीफा घर लौट गया! :-(
    ज्ञान दत्त पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..जर्जर खण्डहर
  15. Anonymous
    बहुतै मजा आया पढकर ….
  16. अजित वडनेरकर
    बढ़िया…पूरा पढ़ गए। गु़सलखाने की पानी से रिश्तेदारी तो अंग्रेज बहुत
    पहले खत्म कर गए थे।
    आज के दौर के अख़बार भी वही काम कर रहे हैं:)
  17. संतोष त्रिवेदी
    ….काश मैं भी जूता खाने लायक होता !
  18. rajendra rao
    विलम्ब से ही सही आज इस प्रसंग पर अनूप शुक्ला जी की टिप्पणी पढ़ने को मिली।मैं उस आयोजन में था।श्रीलाल जी को स्म्ररण करते हुए कमलेश अवस्थी जी के वक्तव्य को यहां देख कर खुशी हुई।अब से आपका ब्लाग देखा करूंगा।
  19. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] मेरे व्यंग्य-लेखन का एक ऐतिहासिक क्षण-… [...]
  20. AKASH
    जेंटलमेन , :)
    ये प्रजाति आजकल लुप्त होने की कगार पर है | :)
    सादर
    AKASH की हालिया प्रविष्टी..तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो

Saturday, November 05, 2011

वो मोहब्बत किस काम की जिसमें जुदाई न हो

ऐसे पेन का क्या फ़ायदा जिसमें रौशनाई(स्याही) न हो,
वो मोहब्बत किस काम की जिसमें *जुदाई न हो!

*मोहब्बत में धोखे के समर्थक ’ जुदाई ’ के स्थान पर बेवफ़ाई पढ़ें।

हमारी चिरकुटइयां देखकर हमें बहुत काबिल न समझ,
कहीं कोई ऊंची बात निकल गयी तो देखते रह जाओगे!

हमने तो आदतन बेवकूफ़ी की कुछ बात कही,
वे भी आदतन ही बोले-वाह, बहुत खूब ,फ़िर से कहो।

-कट्टा कानपुरी


Tuesday, November 01, 2011

साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शुक्ल

http://web.archive.org/web/20140419213033/http://hindini.com/fursatiya/archives/2322

साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शुक्ल

प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल जी का पिछ्ले दिनों 86 वर्ष की अवस्था में देहान्त हो गया। उनके साथ की तमाम यादों के साथ उनकी रचनायें देखते हुये मन किया कि उनकी एक रचना पोस्ट की जाये। साहित्य के लिये अपनी कसौटी बताते हुये श्रीलाल शुक्ल जी ने कैसे अच्छी किस्म से घटिया साहित्य से बचने की सलाह दी है यह गौरतलब और शायद अनुकरणीय भी! यह लेख सन 1983 में आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हुआ था और श्रीलाल शुक्ल जी के 81 वें जन्मदिन के पर दिल्ली में आयोजित अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हुई पुस्तक श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित है।
इसी क्रम में शायद आप अभिव्यक्ति के नये अंक में सुशील सिद्धार्थ का श्रीलाल जी के बारे में लिखा आत्मीय संस्मरण व्यंग्य के विलक्षण शिल्पी श्रीलाल शुक्ल और श्रीलालजी की कहानी इस उम्र में भी पढ़ना चाहें।

साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शुक्ल


श्रीलाल शुक्ल
जब कोई साहित्य की परख के लिये कसौटी की बात उठाता है तो यह मानकर चलता है कि साहित्य को खरे सोने जैसा होना चाहिये। पर साहित्य में खरे सोने की तलाश करते हुये भी मैं हमेशा अपने को दो बातों की याद दिलाता रहता हूं: एक यह कि जिंदगी में खरा होना ही सब कुछ नहीं है, कभी लोहे की भी जरूरत होती है, और कभी-कभी मिट्टी की भी। और दूसरी मशहूर कहावत में पहले ही कही जा चुकी है कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।
उपमा, रूपकों और कहावतों के जाल से निकलकर मैं शुरू में ही बता दूं कि मैं साहित्य से हमेशा कोई बहुत बड़ी उम्मीद या असाधारण अपेक्षा नहीं करता, ठीक उसी तरह जैसे की जिंदगी की असाधारण संभावनाओं को समझते हुये भी मैं सीधी-सादी जिंदगी की कद्र करता हूं। साहित्य की कोई भी कृति मेरे लिये ऐसी चुनौती नहीं है जो या तो मुझे झकझोर दे या मैं खुद जिसे अपनी आलोचनात्मक बुद्धि से झकझोर दूं, ठीक वैसे ही जैसे हर एक मोड़ पर मिलने वाला इंसान मेरे लिये कोई ऐसा प्रतिद्वंदी नहीं है जिससे या तो मैं लाजिमी तौर पर परास्त हो जाउं या खुद उसे परास्त कर दूं। तब तक वह खुद अपने को दुश्मन न घोषित कर दे,हर इंसान किसी न किसी बिंदु पर मेरा साथी है; वैसे ही जब तक कोई साहित्यिक कृति खुद अपनी असाहित्यिक विकृति के सहारे मुझे विमुख न कर दे, वह कहीं न कहीं मेरी आत्मस्वीकृति का अंग है।
मैं साहित्य से हमेशा कोई बहुत बड़ी उम्मीद या असाधारण अपेक्षा नहीं करता, ठीक उसी तरह जैसे की जिंदगी की असाधारण संभावनाओं को समझते हुये भी मैं सीधी-सादी जिंदगी की कद्र करता हूं।
अब तक मैं साहित्य और जिंदगी की समान स्थितियों का काफ़ी उल्लेख कर चुका हूं और इसका एक कारण है। वह यह कि साहित्य मेरे लिये जिंदगी का एक अनिवार्य अंग है, ठीक उसी तरह जैसे जिंदगी मेरे लिये साहित्य का एक अनिवार्य अंग है, और यहीं अच्छे साहित्य की परख के विषय में मेरी एक मान्यता परिभाषित हो जाती है।
तरह-तरह के लोगों से मिलते हुये मैं बहुतों को बरदास्त भले ही कर लूं पर वास्तविक खुशी उन्हीं से मिलकर होती है मेरे अनुभव-संसार को विस्तार देते हों, मेरी संवेदना की जमी परतों को खोलकर उसकी गहराइयों में उतरने के लिये मुझे प्रेरित करते हों। यही बात मैं साहित्य पर भी लागू करता हूं। अगर कोई साहित्य मेरे अनुभवों में कोई नया आयाम नहीं जोड़ता, परिचित स्थितियों के बीच मेरी मानसिक उदासीनता को तोड़कर संवेदना की नई गहराइयों में जाकर मुझे नहीं छोड़ता तो मैं उसे बरदास्त भर कर सकता हूं उससे आगे मेरे लिये वह कुछ नहीं है।

साहित्य मेरे लिये जिंदगी का एक अनिवार्य अंग है, ठीक उसी तरह जैसे जिंदगी मेरे लिये साहित्य का एक अनिवार्य अंग है, और यहीं अच्छे साहित्य की परख के विषय में मेरी एक मान्यता परिभाषित हो जाती है।
साहित्य को इस निगाह से देखने का एक अर्थ यह भी होता है कि मेरे लिये साहित्य का रोचक और सरस होना जरूरी नहीं है। हो सकता है कि मेरी यह बात बहुतों को अटपटी जान पड़े, क्योंकि मेरे बहुत से पाठक स्वयं मेरे साहित्य को उसकी रोचकता के लिये ही पढ़ते हैं। रोचकता और सरसता, एक तो पढ़ने वाले की रुचि और उसकी रस-संबंधी अवधारणा का ही विस्तार है, दूसरे उत्कृष्ट साहित्य हमेशा रोचक हो, यह लाजिमी नहीं है। गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी का संपर्क, हो सकता है, किसी को किसी दिलकश अभिनेत्री या फ़िल्मी कमेडियन की सोहबत की भांति रोचक न लगे, तब भी मानवजाति की प्रगति में ये दोनों जिंदगी के जिन मूल्यों को इंगित करते हैं, उसे शायद समझाना जरूरी नहीं है।
तभी जिसे उत्कृष्ट साहित्य समझा गया है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज की रुचि के अनुसार उबाऊ, यानी ’डल’ और ’बोरिंग’ है। फ़ारसाइथ और मारियो प्यूजो के सनसनीखेज उपन्यासों को पढ़ने वाले टॉलस्टाय, दोस्तोयेव्स्की या टामस मान को बोरिग या उबाऊ समझ सकते हैं। जिसे पुराना क्लासिकी साहित्य कहते हैं, उसे शुद्ध आनंद के लिये पढ़ना अब अनेक शुद्ध साहित्यप्रेमियों के लिये भी भारी पड़ता है। एडवर्ड एल्बी और जॉन आस्बर्न की ’कॉंय कॉंय कॉंय’ शैली वाले नाटकों के आगे शेक्सपियर को साहित्यिक आनंद के निमित्त पढ़नेवालों की कमी हो सकती है। कालिदास के ’अभिज्ञान शाकुन्तलम’ को न पढ़कर बहुत से लोग ’आषाढ़ का एक दिन’ पढ़ना ज्यादा रुचिकर समझ सकते हैं, पर इससे समय-समय पर बदलने वाली लोकरुचि का भले ही आभास हो जाये, क्लासिकी साहित्य ने मानवीय अनुभवों और उसकी संवेदनाओं को जिस सीमा तक और जिस स्तर पर संपन्न किया है, उसे आसानी से नहीं भूला जा सकता।
घटिया साहित्य का उत्पादन प्रेस के ईजाद के बाद की घटना है। घटिया प्रतिभायें हमेशा से घटिया साहित्य निकालती आई हैं, सिर्फ़ आज उनके विस्तार और प्रसार की सुविधायें संभावनायें ज्यादा हो गयी हैं।
ऊबाऊ साहित्य, और उसी के साथ, जिंदगी में भी बोरडम के मामले में मैं बर्टेंड रसल की शागिर्दी करना चाहूंगा। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’द कान्क्वेस्ट ऑफ़ है्प्पीनेस’ में उन्होंने समझाया है कि जिंदगी में बोरडम या ऊब से घबराना या कतराना नहीं चाहिये, क्योंकि ऊब भी भरी-पूरी जिंदगी का अनिवार्य अंग है और उसे सहज भाव से ग्रहण करना चाहिये। साहित्य का उदाहरण देते हुये उन्होंने उत्कृ्ट कोटि के क्लासिकी ग्रंथों का हवाला दिया है जो कई अंशों में प्रचलित लोक-रुचि में ऊबाऊ होते हुये भी असामान्य साहित्यिक अनुभव सृजित करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसलिये समझ की बात यही होगी कि हम घटिया साहित्य से कभी-कभी मन बहलाव करते हुये भी , और उसे साहित्यिक दुनिया की अनिवार्य संक्रामक स्थिति मानते हुये भी, उत्कृष्ट साहित्य के बारे में अपनी धारणा बिगडने न दें। यानी,किसी फ़िल्मी तारिका के अभिनय की प्रसंशा करने के कारण ही यह जरूरी नहीं कि हम अपनी पत्नी के प्रति अपने प्रेम और आदर में कमी कर दें।
बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता
घटिया साहित्य का जिक्र करते हुये हमें यह भी न भूलना चाहिये कि आज प्रिंटिंग, प्रकाशन, पुस्कतक-व्यवसाय, साहित्य, शिक्षा -उसके पूर्णकालिक शिक्षक और पूर्णकालिक छात्र-इन सबने मिलकर साहित्य लिखने और लिखाने तथा साहित्य पढ़ने और पढ़ाने को हमारी सभ्यता का एक अनिवार्य अंग बना दिया है। इसलिये साहित्य की उपज भी व्यापक और व्यवसायिक तौर पर हो रही है। ऐसी स्थिति में घटिया साहित्य का उत्पादन प्रेस के ईजाद के बाद की घटना है। घटिया प्रतिभायें हमेशा से घटिया साहित्य निकालती आई हैं, सिर्फ़ आज उनके विस्तार और प्रसार की सुविधायें संभावनायें ज्यादा हो गयी हैं। इसलिये साहित्य के पाठकों को सावधान करने के लिये अंत में एक और बात कहना जरूरी समझता हूं।
घटिया साहित्य दो किस्म का होता है। एक तो घटिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में सभी लोग जानते हैं। दूसरा होता बढिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में पाठक को चौकन्ना रहना चाहिये। इस कोटि का साहित्य पता नहीं कब बढिया बनकर पाठक की रुचि को बिगाड़ दे और उसे स्वाभाविक रूप से उत्तम साहित्य में रुचि लेने से रोक दे।
बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता, बहुचर्चित आदर्शों को स्वत: सिद्ध और स्थायी मानवीय मूल्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहता है और यथार्थ के विभिन्न आयामों को न उघाड़कर यथार्थ की साहित्य में जो पिटी हुई रूढियां बन रही हैं, उन्हीं को हम पर आरोपित करता है। यह साहित्य हमारे सतही अनुभवों को बार-बार दुहराकर हमारी भावुकता का फ़ायदा उठाता है और हमारे भावनात्मक व्यक्तित्व को एक भी इंच ऊपर नहीं खिसकने देता। इस सारे घटियापन के बावजूद इसमें भाषा नाटकीय रूप से आकर्षक हो और तथाकथित मापदंडों से अत्यंत साहित्यिक हो, सृजनात्मक न होते हुये भी वह प्रांजल और छद्म रूप से काव्यमय हो, ऐसा साहित्य शिल्प की दृष्टि से भी संपन्न और
आधुनिक हिंदी साहित्य में भी कथा-साहित्य और कविताओं का एक बड़ा भारी हिस्सा ऐसा मिलेगा जो अत्यंत शुद्ध किंतु निष्प्राण भाषा में बड़े सजग शिल्प के साथ लिखा जा रहा है। पर वह भाषा और शिल्प की पात-गोभी भर है। ऐसे साहित्य को सौम्यता से बरदास्त करना तो ठीक है, पर उसका चस्का नहीं लगना चाहिये।
प्रत्यक्षत: प्रभावशील हो सकता है और अपने पूरे तामझाम के साथ ऊपर से ऐसा दीख सकता है जैसा कि उसका समान्तर असली साहित्य। पर ऐसा साहित्य हमारे लिये अनुभव-संसार में कुछ जोड़ नहीं सकता, वह सिर्फ़ हमें कुछ देर के लिये उत्तेजित कर सकता है। बढिया किस्म के घटिया साहित्य का एक अच्छा नमूना, बकौल जार्ज आर्वेल, रडयार्ड किपलिंग की कवितायें हैं और हिंदी में बकौल मेरे, रीतिकालीन काव्य का लगभग दो तिहाई हिस्सा है। आधुनिक हिंदी साहित्य में भी कथा-साहित्य और कविताओं का एक बड़ा भारी हिस्सा ऐसा मिलेगा जो अत्यंत शुद्ध किंतु निष्प्राण भाषा में बड़े सजग शिल्प के साथ लिखा जा रहा है। पर वह भाषा और शिल्प की पात-गोभी भर है। ऐसे साहित्य को सौम्यता से बरदास्त करना तो ठीक है, पर उसका चस्का नहीं लगना चाहिये।
जो साहित्य का आनन्द लेना चाहते हैं उन्हें मेरी साहित्यिक कसौटी स्वीकार हो या नहीं, पर उनके लिये अच्छे और बुरे में किये बिना साहित्य पढ़ना उत्कृष्ट कोटि के साहित्यिक अनुभवों से अपने को वंचित कर देना है। व्यक्तिगत रूप से रोचक और बढ़िया कोटि के घटिया साहित्य का सामना होते ही मैं रामचरितमानस या वाल्मीकीय रामायण जैसे पुराने ऊबाऊ साहित्य की ओर पलायन करने को ज्यादा सुखद और सुरक्षित समझता हूं।
-श्रीलाल शुक्ल
आकाशवाणी लखनऊ से 1983 में प्रसारित
श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित

25 responses to “साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शुक्ल”

  1. प्रवीण पाण्डेय
    समाज से जुड़ा साहित्य उबाऊ नहीं होना चाहिये, मनोरंजक तरीके से रखी समस्या भी ग्राह्य हो जाती है।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..Rim acquires Gist!
  2. विवेक रस्तोगी
    साहित्य के बारे में बहुत सारी बातों का पता चला और अब यह भी समझ में आ गया जो न समझ में आये वह साहित्य नहीं कूड़ा करकट ही है।
    विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..झारखंड धनबाद का पहला दलित डॉन बन रहा है या यूँ भी कह सकते हैं कि बन चुका है। (First Dalit Don or Robin Hood – Dhulu Mahato)
  3. ashish
    बढ़िया किस्म के घटिया साहित्य के बारे में वृहद् जानकारी मिली . साहित्य की गजबे परिभाषा .
    ashish की हालिया प्रविष्टी..ओ दशकन्धर
  4. सृजन शिल्पी
    “आधुनिक हिंदी साहित्य में भी कथा-साहित्य और कविताओं का एक बड़ा भारी हिस्सा ऐसा मिलेगा जो अत्यंत शुद्ध किंतु निष्प्राण भाषा में बड़े सजग शिल्प के साथ लिखा जा रहा है। पर वह भाषा और शिल्प की पात-गोभी भर है। ऐसे साहित्य को सौम्यता से बरदास्त करना तो ठीक है, पर उसका चस्का नहीं लगना चाहिये।”
    इतनी सहजता से यह बात कह गए श्रीलाल शुक्ल।
    आज भी कई लेखक और कवि हिन्दी में हैं, जो अन्यथा बहुत अच्छा लिखते हैं। उनमें संभावना तो है, मगर वह बात नहीं, वह प्राण नहीं, जो किसी पाठक को बदल देने की क्षमता रखता हो या उसे उस दिशा में क्रियाशील होने के लिए उत्प्रेरित कर सकने का माद्दा रखता हो। बस, लोग शब्दों से चित्र खींचे जाते हैं…पता ही नहीं चलता कि यह सब क्यों….महज मनोरंजन के लिए या फिर शायद अपने शब्दों की छटा दिखाने भर की कोशिश होती है…
    शुक्ल जी द्वारा पाठकों को इस तरह सचेत किया जाना यब साबित करता है कि वह कितने सजग और संवेदनशील रचनाकार थे।
    यह लेख पढ़वाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !
    सृजन शिल्पी की हालिया प्रविष्टी..टीम अन्ना को हुए मर्ज़ की आख़िर दवा क्या है?
  5. sushma Naithani
    “बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता, बहुचर्चित आदर्शों को स्वत: सिद्ध और स्थायी मानवीय मूल्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहता है और यथार्थ के विभिन्न आयामों को न उघाड़कर यथार्थ की साहित्य में जो पिटी हुई रूढियां बन रही हैं, उन्हीं को हम पर आरोपित करता है। यह साहित्य हमारे सतही अनुभवों को बार-बार दुहराकर हमारी भावुकता का फ़ायदा उठाता है और हमारे भावनात्मक व्यक्तित्व को एक भी इंच ऊपर नहीं खिसकने देता। ”
    बहुत सटीक, शुक्रिया पढवाने के लिए..
    sushma Naithani की हालिया प्रविष्टी.."उड़ते हैं अबाबील"
  6. सतीश सक्सेना
    हिंदी साहित्य की इस प्रभावशाली कलम को सादर नमन है !
    सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..लड़कियों का घर ? – सतीश सक्सेना
  7. सतीश पंचम
    श्रीलाल शुक्ल जी के विचारों को जान साहित्य के बारे में और जानकारी मिली। आभार इसे यहां प्रस्तुत करने हेतु।
  8. देवेन्द्र पाण्डेय
    ..आभार।
  9. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    इस आलेख को दुबारा पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।
    लेकिन, ऐसी समझदारी भरी बातें अब कौन करेगा…! :(
    सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..मेरा मन क्यूँ छला गया…?
  10. मनोज कुमार
    एक बेहतरीन आलेख से परिचय कराने के लिए आभार।
    लेखक श्रीलाल शुक्ल जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
    मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य!
  11. संतोष त्रिवेदी
    श्रीलालजी ने जैसा लिखा है वैसा ही साहित्य को समझा है !उनके जाने के बाद उनके ये विचार और प्रासंगिक हो गए हैं .वास्तव में साहित्य क्या होता है,यह व्यक्तिगत रुचियों पर भी निर्भर करता है !
    उन्हें पुनः नमन !
    संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..बदलते हुए !
  12. GGShaikh
    अपनी बात और साहित्य की बात एक साथ रखी उन्हों ने.
    बुद्ध-गांधी के नामोल्लेख में, श्रीलाल शुक्ल जी का जैसे इन महा मानवों का विरल संस्पर्ष…
    अन्य साहित्यकारों की उनकी अपनी अभिव्यक्तियों की तुलनात्मकता भी श्रीलाल शुक्ल जी की स्वयं ही की मौलिक.
    श्रीलाल शुक्ल जी हमारे बीच 86 साल रहे और अपने विलक्ष्ण व सहज-सरल लेखन में निर्भ्रांत, दंभहीन मानव जीवन की नई-नई संभावनाओं की क्षितीज को आंकते रहे, जीवन की सहज रीतियां इंगित करते रहे…जहां वे देश के हर इंसान में एक पारदर्शी सच्चे इंसान की छवि भी देखना चाहते…साथ ही हमारी जहालत का दर्द भी उनके दिल में सदा रहा, जिसकी प्रस्तुति उनके व्यंग्य में मिले (उनकी एक पुस्तक का नाम है “जहालत के पचास साल”…).
    श्रीलाल शुक्ल जी के उज्जवल चिंतन-लेखन को नमन…
    अनूप जी, श्रीलाल शुक्ल जी के इस आलेख चयन का धन्यवाद…
  13. sanjay jha
    बहुत सुन्दर…………
    उनको विनम्र श्रधांजलि
    प्रणाम.
  14. चंदन कुमार मिश्र
    बढ़िया…कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें भी लगीं अपने को…अन्तिम वाक्य बड़ा अलग और खास है…अभिव्यक्ति पर गया…कहीं कहीं पता नहीं क्यों दिखावा या फ़ासीवाद जैसा शब्द ध्यान में आ रहा था शुक्ल जी के लिए…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..समाजवाद ही क्यों? – अल्बर्ट आइन्सटीन
  15. arvind mishra
    श्रीलाल शुक्ल का एक विचारोत्तेजक निबंध -सामयिक श्रद्धांजलि प्रस्तुति !
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..अभी उनसे दोस्ती के जुमा जुमा चंद हफ्ते ही बीते हैं……..
  16. ज्ञान दत्त पाण्डेय
    वे तो चले गये। अपना भी मन रामचरित मानस की ओर लौटने को करता है!
  17. eswami
    शुक्लजी के लेखन की क्लास इतनी आला है कि उनका प्रशंसक होना भी अपने आप पर गर्व करने लायक बनाता है!
  18. Amit
    शुक्ल जी हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे.
    Amit की हालिया प्रविष्टी..नेपुरा-III
  19. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शु… [...]
  20. Yashwant Mathur
    आपने लिखा….हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ….
    धन्यवाद!
    Yashwant Mathur की हालिया प्रविष्टी..मन का गुलाम
  21. Kailash sharma
    बहुत सारगर्भित और विचारोत्तेजक आलेख…आभार इसको पढ़वाने का..
    Kailash sharma की हालिया प्रविष्टी..किस पिंज़रे में फ़स गया
  22. Anonymous
    श्रीलाल शुक्ल जी का लेख अत्यंत सारगर्भित है, बहुत से प्रश्नों का हल देता हुआ..आभार इसे पढवाने के लिए…
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