मैं आमतौर पर खुशमिज़ाज इंसान के रूप में बदनाम हूं.किसी किसिम की
चिरकुट-चिंता से मुक्त.पर कभी-कभी कुछ-कुछ होने लगता है.क्या होता है बताना
मुश्किल है. पर ‘ट्राई’मारने में क्या हर्जा ?
जब कभी मैं अपने तकनीकी वीरों को खुल्लमखुल्ला तकनीकी सूचनाओं का आदान-प्रदान करते देखता हूं तो अफसोस होता है कि मैं उनको बूझने लायक भी नहीं.आगे सुझाव देना तो दूर.जब कोई नया तकनीकी सगूफा उछलता है तो मुझे वह बाउन्सर की तरह लगता है जिसे मैं हड़बड़ाकर डग कर देता हूं.कभी-कभी लगता है कि मैं भी सीखूं यह सब तो तमाम किताबें उठा के शुरु हो जाता हूं पर जल्द ही सोचता हूं यार आराम से देखेंगे.यह आराम पता नहीं कब नसीब होगा.पर होगा यह लगता है.
दूसरा अफसोस मुझे होता जब मैं तमाम स्वानमधन्य साथियों की कवितायें देखता हूं.मैं शर्म महसूस करता कि हाय हम काहे न लिख पाये.कविता-कानन में हम क्यों न टहल पाये?इतनी धांसू कवितायें देखता हूं कि शर्म से जमीन में धंस जाता हूं.कोशिश करता हूं कि मैं भी लिखूं पर वे प्रयास इतने बचकाने लगते हैं कि मैं सोचता हूं कि इससे तो हम बिना कविता के ही अच्छे.
एक बार परसाईजी के पास एक उम्रदराज युवा कवि आये.अपनी कवितायें दिखाईं.कहा -मैं जीवन में सब कुछ कर चुका हूं. अब साहित्य सेवा करना चाहता हूं.ये देखें मैंने कुछ लिखा है.बतायें मैं कैसे साहित्य सेवा कर सकता हूं?परसाईजी ने रचनायें देखीं और कहा-यदि आप सचमुच साहित्य सेवा करना चाहते हैं तो अनुरोध है कि आप इन कविताओं को छपाने की इच्छा का त्याग कर दें तथा संभव हो लिखना भी छोड़ दें.
यह बात तो मजाक में कही गयी होगी पर मैं जब भी कभी लिखता हूं-खासकर कविता तो लगता है कि शायद यह मेरे जैसों के लिये ही कही गई होगी.
बहरहाल मैं जब भी कोई कविता देखता हूं किसी ब्लाग में तो मन बहुतबेचैन होता है.हूक सी उठती है मन में-काश हम भी लिख पाते कुछ कविता -सविता.पर उस हूक को हम समझदारी से जबरियन दबा देते हैं.तब हमें अहसास होता है कि विद्रोह कैसे कुचले जाते होंगे.
पर सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता.आजकल बच्चे बड़े समझदार हो गये हैं.मेरा बच्चा रोज मुझे देखता रहता.कोई नई कविता पढ़ने के बाद झोले की लटक जाता मुंह देखता.एक दिन उसने मुझे उदास होते रंगे हाथों पकड़ लिया.पूछा-पापा,आप उदास क्यों हैं?क्या कोई कविता पढ़ी.हमें लगा कि जिस बात को हम खुद से छिपाते रहे उसे मेरा बच्चा बता रहा है.हमने किसी घपले का खुलासा होते ही उसे दबाने के के प्रयासों की तत्परता से कहा -नहीं बेटा,ऐसी कोई बात नहीं है.पर वह माना नहीं.बोला-आप छुपा रहें हैं.पर मैं जानता हूं कि इसके पीछे कविता का दुख है.मैं बोला-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है.पर वह माना नहीं तो मुझे उसकी बात माननी पड़ी.मैंने अपने जुर्म का इकबाल कर लिया.कहा-हां,मैं कविता के कारण दुखी हूं.
फिर तो वह मौज लेने लगा.बोला-यह आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं.मैंने तो पढ़ा है कि कविता दुख से उपजती है.पहली कविता का जन्म ही आह से हुआ था.कहा गया है:-
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान,
उमड़कर आखों से चुपचाप,बही होगी कविता अनजान.
बहरहाल हमें हमारे बच्चे ने आगे समझाया कि अगर आपको इस बात से दुख होता है कि आप कविता लिख नहीं पाते तो फटाक से शुरु कर दीजिये लिखना.कुछ दिन में हाथ रवां हो जायेगा तो धक्काड़े से लिखने लगेंगे फिर आपको रोकना पड़ेगा. मैंने कहा -नहीं यार नहीं होता अपुन से.
पर वह तुल गया समझाने पर.बोला -पहले जब आपने ब्लाग लिखना शुरु किया था तो कहां लिख पाते थे ?धीरे-धीरे सीखे न.वैसा ही यह भी होगा.मेरी हिचक देख के वह बोला अच्छा लाइये मैं बताता हूं कैसे लिखते है.दिखाइये वे ब्लाग जिनकी कवितायें पढ़कर मन बेचैन हो जाता है.मैंने सारे कविता-रस पगे ब्लाग उसे दिखाये.एक जगह वह चौंका -पापा ,यह क्या यहां पूंछ ऊपर है,मूंछ नीचे.मेरे मुंह से निकल गया-हर आदमी अपनी सबसे खास चीज को सबसे ऊपर रखता है.यहां क्या बुरा है.वह ,पापा आप भी हमेशा अपनी अकल लगाते हो, कहते हुये सारे कविता से लदे-फदे ब्लाग सरसरी तौर पर देख गया . फिर बोला -आप ,इन कविताओं की नकल करके कुछ लिखिये.पुत्र की सलाह मानने पर मजबूर होना पड़ा मुझे.मैंने जो लिखा वह नीचे दिया जा रहा है.अच्छा लगे तो मेरे प्रयास की तारीफ करियेगा.बुरा लगे तो उनको कोसियेगा जिनकी कविता की देखा-देखी हमने यहां शब्दों की गठबंधन सरकार बनायी:-
मैं
हवाई जहाज में
खाने के इंतजार में हूं
एअर होस्टेस आती है
पूंछती है -क्या लेंगे आप ?
मैं कहता हूं
मेरी मां के हाथ की बनी
बुकनू ले आओ.
वह चौंककर कहती है-
यहां हवाई जहाज में बुकनू कहां?
यहां तो इम्पोर्टेड नमक मिलता है.
मैं कैसे बताऊं-कितना जरूरी है मेरे लिये
इम्पोर्टेड नमक के मुकाबले
भोजन में मां के हाथ की बुकनू होना.
लड़के ने चार-पांच बार वाह-वाह किया फिर बोला अब एक इंकलाबी गजल लिख मारिये.हम बोले -कहां हम,कहां इंकलाब!पर वह जिद पर अड़ा रहा.मुझे लिखना पड़ा:-
या खुदा ये कैसे-कैसे मंजर नजर आने लगे,
जो रुकने को आये थे,उठ -उठ के जाने लगे.
बात तो साथ हरहाल में निभाने की हुई थी लेकिन
ये क्या हुआ कि खास अपने आंखें चुराने लगे.
जिनके हाथों में था रहबरी का आलिम खिताब,
वे सरे राह रहजनों के साथ नजर आने लगे.
देश की अब क्या सुनायें दास्तां ऐ मेरे दोस्त,
जो बहुत जागरूक थे वे भी तो जम्हुआने लगे.
यह इंकलाबी तेवर वाली गजल हम पांच मिनट में टाइप करके हांफने लगे तब तक लड़के ने वाह-वाह करके हमें चौंका दिया. वो तारीफ की हमें मजा आने लगा.अब हम भी सोचे कि एक प्रेम कविता पर भी ट्राई मारें नहीं तो पंकज बोलेंगे -हमारे लिये कुछ नहीं लिखा.तो जो ट्राई मारा वह यह है:-
ये खिला हुआ चांद कहां कुछ कहता है,
पर कुछ है यह जो मेरे मन में बहता है.
वैसे तो हमेशा ही हंसते रहते हैं हम,
अब कैसे कहूं दिल कितना दुखता है.
फिर देखने का मन है तुमको लेकिन,
लंबा बहुत तुम्हारे घर का रस्ता है.
औरों के तो नखरे भी होंगे लेकिन,
ले लेना दिल मेरा ये सबसे सस्ता है.
लड़का बोला -थोड़ा और जरा लुटा-पिटा लिखो.मैं बोला -क्या कारवां गुजार दूं ?नीरज की तरह लिखूं.वह नीरज को जानता नहीं है फिर भी बोला -तब क्या.बेवकूफी करना है तो कायदे से करें.मैंने फिर अर्ज किया:-
आंसू,जिल्लत,गम-न जाने क्या-क्या पी गये?
मजाक ही मजाक में हम जिंदगी जी गये.
सोचा था कभी सुकून से गुजारेंगे जिंदगी,
पर बेकरार,हड़बड़ी में जिंदगी जी गये.
ख्वाब में हमनें तुमको था देखना शुरु किया,
क्या हो रहा गुरु,सुना और हम सिहर गये.
कैसे बतायें थी जिंदगी कितनी कामयाब,
बेकरार- बेखुदी में सब हिसाब भूल गये.
पांच मिनट प्रति कविता की दर से चार कविता लिखने के बाद हमने गरदन अकड़ाकर लड़के की तरफ देखा.सोचा अब यह और तारीफ करेगा.पर वह तारीफ छोड़कर चुनौती वाले अंदाज में बोला.कोई व्यंग्य कविता लिख के दिखायें.मैंने कहा -कैसे लिखूं.बोला -जैसे ये लिखी.मैंने चुनौती स्वीकार की.लिखा:-
प्रेम विवाह करके
दंपति गति को प्राप्त पत्नी
बुढ़ापे में पति से बोली -
ये मुई जुड़वां लड़कियों की शादी कैसे होगी ?
पति चिंता मुक्त होकर बोला,
अभी भी लड़के काफी वेबकूफ हैं
जैसे तुमने भागकर शादी की थी
वैसे ये भी कर लेगी
हमें इस चिंता से मुक्त कर देगी.
मैंने कविता की खेती के कारण उपजे श्रम सीकर सुखाते हुये अपने लड़के की तरफ देखा.वह मुस्कराता हुआ बोला -पिकअप तो अच्छा है पर अब मुझे डर लग रहा है कि कहीं लोग आपकी तुकबंदियों की तारीफ न करने लगें और आप गलतफहमी के शिकार न हो जायें.
जब कभी मैं अपने तकनीकी वीरों को खुल्लमखुल्ला तकनीकी सूचनाओं का आदान-प्रदान करते देखता हूं तो अफसोस होता है कि मैं उनको बूझने लायक भी नहीं.आगे सुझाव देना तो दूर.जब कोई नया तकनीकी सगूफा उछलता है तो मुझे वह बाउन्सर की तरह लगता है जिसे मैं हड़बड़ाकर डग कर देता हूं.कभी-कभी लगता है कि मैं भी सीखूं यह सब तो तमाम किताबें उठा के शुरु हो जाता हूं पर जल्द ही सोचता हूं यार आराम से देखेंगे.यह आराम पता नहीं कब नसीब होगा.पर होगा यह लगता है.
दूसरा अफसोस मुझे होता जब मैं तमाम स्वानमधन्य साथियों की कवितायें देखता हूं.मैं शर्म महसूस करता कि हाय हम काहे न लिख पाये.कविता-कानन में हम क्यों न टहल पाये?इतनी धांसू कवितायें देखता हूं कि शर्म से जमीन में धंस जाता हूं.कोशिश करता हूं कि मैं भी लिखूं पर वे प्रयास इतने बचकाने लगते हैं कि मैं सोचता हूं कि इससे तो हम बिना कविता के ही अच्छे.
एक बार परसाईजी के पास एक उम्रदराज युवा कवि आये.अपनी कवितायें दिखाईं.कहा -मैं जीवन में सब कुछ कर चुका हूं. अब साहित्य सेवा करना चाहता हूं.ये देखें मैंने कुछ लिखा है.बतायें मैं कैसे साहित्य सेवा कर सकता हूं?परसाईजी ने रचनायें देखीं और कहा-यदि आप सचमुच साहित्य सेवा करना चाहते हैं तो अनुरोध है कि आप इन कविताओं को छपाने की इच्छा का त्याग कर दें तथा संभव हो लिखना भी छोड़ दें.
यह बात तो मजाक में कही गयी होगी पर मैं जब भी कभी लिखता हूं-खासकर कविता तो लगता है कि शायद यह मेरे जैसों के लिये ही कही गई होगी.
बहरहाल मैं जब भी कोई कविता देखता हूं किसी ब्लाग में तो मन बहुतबेचैन होता है.हूक सी उठती है मन में-काश हम भी लिख पाते कुछ कविता -सविता.पर उस हूक को हम समझदारी से जबरियन दबा देते हैं.तब हमें अहसास होता है कि विद्रोह कैसे कुचले जाते होंगे.
पर सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता.आजकल बच्चे बड़े समझदार हो गये हैं.मेरा बच्चा रोज मुझे देखता रहता.कोई नई कविता पढ़ने के बाद झोले की लटक जाता मुंह देखता.एक दिन उसने मुझे उदास होते रंगे हाथों पकड़ लिया.पूछा-पापा,आप उदास क्यों हैं?क्या कोई कविता पढ़ी.हमें लगा कि जिस बात को हम खुद से छिपाते रहे उसे मेरा बच्चा बता रहा है.हमने किसी घपले का खुलासा होते ही उसे दबाने के के प्रयासों की तत्परता से कहा -नहीं बेटा,ऐसी कोई बात नहीं है.पर वह माना नहीं.बोला-आप छुपा रहें हैं.पर मैं जानता हूं कि इसके पीछे कविता का दुख है.मैं बोला-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है.पर वह माना नहीं तो मुझे उसकी बात माननी पड़ी.मैंने अपने जुर्म का इकबाल कर लिया.कहा-हां,मैं कविता के कारण दुखी हूं.
फिर तो वह मौज लेने लगा.बोला-यह आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं.मैंने तो पढ़ा है कि कविता दुख से उपजती है.पहली कविता का जन्म ही आह से हुआ था.कहा गया है:-
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान,
उमड़कर आखों से चुपचाप,बही होगी कविता अनजान.
बहरहाल हमें हमारे बच्चे ने आगे समझाया कि अगर आपको इस बात से दुख होता है कि आप कविता लिख नहीं पाते तो फटाक से शुरु कर दीजिये लिखना.कुछ दिन में हाथ रवां हो जायेगा तो धक्काड़े से लिखने लगेंगे फिर आपको रोकना पड़ेगा. मैंने कहा -नहीं यार नहीं होता अपुन से.
पर वह तुल गया समझाने पर.बोला -पहले जब आपने ब्लाग लिखना शुरु किया था तो कहां लिख पाते थे ?धीरे-धीरे सीखे न.वैसा ही यह भी होगा.मेरी हिचक देख के वह बोला अच्छा लाइये मैं बताता हूं कैसे लिखते है.दिखाइये वे ब्लाग जिनकी कवितायें पढ़कर मन बेचैन हो जाता है.मैंने सारे कविता-रस पगे ब्लाग उसे दिखाये.एक जगह वह चौंका -पापा ,यह क्या यहां पूंछ ऊपर है,मूंछ नीचे.मेरे मुंह से निकल गया-हर आदमी अपनी सबसे खास चीज को सबसे ऊपर रखता है.यहां क्या बुरा है.वह ,पापा आप भी हमेशा अपनी अकल लगाते हो, कहते हुये सारे कविता से लदे-फदे ब्लाग सरसरी तौर पर देख गया . फिर बोला -आप ,इन कविताओं की नकल करके कुछ लिखिये.पुत्र की सलाह मानने पर मजबूर होना पड़ा मुझे.मैंने जो लिखा वह नीचे दिया जा रहा है.अच्छा लगे तो मेरे प्रयास की तारीफ करियेगा.बुरा लगे तो उनको कोसियेगा जिनकी कविता की देखा-देखी हमने यहां शब्दों की गठबंधन सरकार बनायी:-
मैं
हवाई जहाज में
खाने के इंतजार में हूं
एअर होस्टेस आती है
पूंछती है -क्या लेंगे आप ?
मैं कहता हूं
मेरी मां के हाथ की बनी
बुकनू ले आओ.
वह चौंककर कहती है-
यहां हवाई जहाज में बुकनू कहां?
यहां तो इम्पोर्टेड नमक मिलता है.
मैं कैसे बताऊं-कितना जरूरी है मेरे लिये
इम्पोर्टेड नमक के मुकाबले
भोजन में मां के हाथ की बुकनू होना.
लड़के ने चार-पांच बार वाह-वाह किया फिर बोला अब एक इंकलाबी गजल लिख मारिये.हम बोले -कहां हम,कहां इंकलाब!पर वह जिद पर अड़ा रहा.मुझे लिखना पड़ा:-
या खुदा ये कैसे-कैसे मंजर नजर आने लगे,
जो रुकने को आये थे,उठ -उठ के जाने लगे.
बात तो साथ हरहाल में निभाने की हुई थी लेकिन
ये क्या हुआ कि खास अपने आंखें चुराने लगे.
जिनके हाथों में था रहबरी का आलिम खिताब,
वे सरे राह रहजनों के साथ नजर आने लगे.
देश की अब क्या सुनायें दास्तां ऐ मेरे दोस्त,
जो बहुत जागरूक थे वे भी तो जम्हुआने लगे.
यह इंकलाबी तेवर वाली गजल हम पांच मिनट में टाइप करके हांफने लगे तब तक लड़के ने वाह-वाह करके हमें चौंका दिया. वो तारीफ की हमें मजा आने लगा.अब हम भी सोचे कि एक प्रेम कविता पर भी ट्राई मारें नहीं तो पंकज बोलेंगे -हमारे लिये कुछ नहीं लिखा.तो जो ट्राई मारा वह यह है:-
ये खिला हुआ चांद कहां कुछ कहता है,
पर कुछ है यह जो मेरे मन में बहता है.
वैसे तो हमेशा ही हंसते रहते हैं हम,
अब कैसे कहूं दिल कितना दुखता है.
फिर देखने का मन है तुमको लेकिन,
लंबा बहुत तुम्हारे घर का रस्ता है.
औरों के तो नखरे भी होंगे लेकिन,
ले लेना दिल मेरा ये सबसे सस्ता है.
लड़का बोला -थोड़ा और जरा लुटा-पिटा लिखो.मैं बोला -क्या कारवां गुजार दूं ?नीरज की तरह लिखूं.वह नीरज को जानता नहीं है फिर भी बोला -तब क्या.बेवकूफी करना है तो कायदे से करें.मैंने फिर अर्ज किया:-
आंसू,जिल्लत,गम-न जाने क्या-क्या पी गये?
मजाक ही मजाक में हम जिंदगी जी गये.
सोचा था कभी सुकून से गुजारेंगे जिंदगी,
पर बेकरार,हड़बड़ी में जिंदगी जी गये.
ख्वाब में हमनें तुमको था देखना शुरु किया,
क्या हो रहा गुरु,सुना और हम सिहर गये.
कैसे बतायें थी जिंदगी कितनी कामयाब,
बेकरार- बेखुदी में सब हिसाब भूल गये.
पांच मिनट प्रति कविता की दर से चार कविता लिखने के बाद हमने गरदन अकड़ाकर लड़के की तरफ देखा.सोचा अब यह और तारीफ करेगा.पर वह तारीफ छोड़कर चुनौती वाले अंदाज में बोला.कोई व्यंग्य कविता लिख के दिखायें.मैंने कहा -कैसे लिखूं.बोला -जैसे ये लिखी.मैंने चुनौती स्वीकार की.लिखा:-
प्रेम विवाह करके
दंपति गति को प्राप्त पत्नी
बुढ़ापे में पति से बोली -
ये मुई जुड़वां लड़कियों की शादी कैसे होगी ?
पति चिंता मुक्त होकर बोला,
अभी भी लड़के काफी वेबकूफ हैं
जैसे तुमने भागकर शादी की थी
वैसे ये भी कर लेगी
हमें इस चिंता से मुक्त कर देगी.
मैंने कविता की खेती के कारण उपजे श्रम सीकर सुखाते हुये अपने लड़के की तरफ देखा.वह मुस्कराता हुआ बोला -पिकअप तो अच्छा है पर अब मुझे डर लग रहा है कि कहीं लोग आपकी तुकबंदियों की तारीफ न करने लगें और आप गलतफहमी के शिकार न हो जायें.
जैसे तुमने भागकर शादी की थी
वैसे ये भी कर लेगी
हमें इस चिंता से मुक्त कर देगी.
पंकज
मेरी पसंद –
देश की अब क्या सुनायें दास्तां ऐ मेरे दोस्त,
जो बहुत जागरूक थे वे भी तो जम्हुआने लगे.
रवि भाई मेरे विचार में इस वाले की जमीन पे एक घाकड व्यंजल बन सकती है!
जो रुकने को आये थे,उठ -उठ के जाने लगे.
बात तो साथ हरहाल में निभाने की हुई थी लेकिन
ये क्या हुआ कि खास अपने आंखें चुराने लगे.”
मेरे ख्याल से फुरसतिया जी,आपने ने ये गजल अपने पाठको और श्रोताओ का रियेक्शन देखकर लिखी होगी,क्यों है ना सही?
हा हा…अरे भई मै तो मजाक कर रहा था, वैसे गुरु मान गये, हर विद्या मे माहिर हो, फिर ये गीत,कविता,गज़ल क्या चीज है, आपके सामने. बहुत अच्छा लिखे हो, दो चार बार पढूँगा तो समझ मे भी आ ही जायेगा, नही भी समझ मे आयेगा तो, आप तो ही व्याख्या करके बताने वाले.आगे भी आपकी कविताओ का इन्तजार रहेगा, बस हाइकू वगैरहा मत लिखना
ये तो फुरसतिया से इतना प्रेम है कि इनकी पोस्ट पर कमेन्ट मे, मै कोई लिहाज नही करता, आखिर फुरसतिया जी हमारे शहर के ही है, आज से पचास सौ साल बाद, इनका नाम कानपुर के इतिहास मे अमर रहेगा
अब हाइकु का भी समझ लो, अमां जब तक कविता समझ मे आये, कविता ही खत्म हो जाती है, फिर पढो, फिर खत्त्म, ये सिलसिला चलता ही रहता है. हाइकु कविता तो एकदम ऐसी लगती है, जैसे सुक्खी दारू पी कर स्कूटर चला रहा हो और मै उसके पीछे दुबक के बैठा हूँ, कहाँ मोड़ेगा, कहाँ ब्रेक लगायेगा पता ही नही चलता.
धन्यवाद.