हम आज फजलगंज से घर की तरफ आ रहे थे-सपत्नीक.सामने से से एक सांड आता दिखा.आता क्या -भागता सा.मेरे मुंह से अचानक निकल – स्वामीजी यहां कैसे.पर वह सांड सीधा था,बिना रुके ,उचके भागता चला गया.
यह हायकू (संक्षिप्त) दर्शन हुये आज सांड के.हायकू कविता पढ़ी आज स्वामीजी की.जो हायकू कविता सबसे पहले मैंने सुनी थी वह कहती थी:-
अतीत- यादें ,और यादें, और यादें,
वर्तमान -इरादे,और इरादे और इरादे,
भविष्य -वायदे ,और वायदे ,और वायदे.
पता किया कि हायकू कविता जापानी कविता होती है.छोटी कविता.जिन्होंने बताया था उन्होंने तीन लाइन की कविता को हायकू कविता बताया था.हमें बहुत अफसोस हुआ था उस समय क्योंकि मैं बचपन की अन्य कुटेवों की तर्ज पर उस समय तक कई चार लाइन की तुकबंदियां गढ़ चुका था.मुझे अफसोस हो रहा था पहले पता होता तो चार लाइन की तीन कविताओं के जगह पर चार हायकू होते.मैनें काफी कोशिश की तीनों कविताओं को फुसलाकर चौथी कविता में लाने की.पर लाइनें नहीं मानी.वे कोई निर्दलीय विधायक तो थी नहीं जो सरकार बनाने चली आतीं.
फिर हमने दूसरी बार हायकू कविता सुनी एक दक्षिण भारतीय साथी से.वे सुनाते:-
बकरी चढ़ी पहाड़ पर ,
बकरी चढ़ी पहाड़ पर,
और उतर गई.
तथा
मेढक ने पानी में कूदा,
मेढक ने पानी में कूदा,
छपाक.
कुछ लोगों ने इन कविताओं को हायकू कविता मानने से इन्कार कर दिया यह कहकर कि इनकी पहली और दूसरी लाइन में एक ही शब्द है.पर तय पाया गया कि चूंकि लाइनें अलग-अलग हैं इसलिये इसे हायकू मानने के अलावा कोई चारा नहीं है.
फिर आयी ठेलुहा नरेश की एक छोटी कविता.जब मैंने वह पढ़ी तो हायकू कविता के बारे में सब कुछ भूल गया था.उसे पढ़कर यह भाव आया -हो न हो इसे कहीं देखा है.जानी-पहचानी चीज लगती है.फिर जैसे लोग रामदयाल को दीनानाथ कहकर नमस्ते कर देते है,वैसे मैंने उसे हायकू मान के टिपियाया. नतीजा यह हुआ कि चार लाइन की कविता पचास लाइन के कमेंट को ढो रही है.वैसे विस्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इनकी पहली कविता हायकू टाइप ही थी:-
मेरे घर के,
सामने है ये सीढ़ी,
मत पी बीड़ी.
फिर पूर्णिमा जी कीजल की बूंदों में पुरानी सारी कवितायें घुल गयीं.वहीं से पता चला कि हायकू कविता में तीन लाइनों में
कुल 17 अक्षर होते हैं.पहली में पांच,दूसरी में सात तथा तीसरी में पांच. पहले की सारी कवितायें ‘नान हायकू’ करार करनीं पढ़ीं,जैसे किसी रिकार्डधारी का रिकार्ड स्टेराइड पाजिटिव पाये जाने पर खारिज कर दिया जाये.हमारी चार लाइन की कविताओं पर फिर ऐंठ के बौर आ गये.
पहले जब हम विजय ठाकुर की कवितायें पढ़े तो लगा यह भी कुछ हायकूनुमा है.पर जब देखा कि वे पांच लाइना क्षणिकायें हैं तो हमने सोचा रहन दो.पहले मन किया कि टिप्पणी करें कि पहली लाइन में मतलब साफ होते हुये भी नहीं होता पर फिर आलसिया गये.मटिया दिये
आज जब स्वामीजी की कविता हायकूनुमा पढ़ी तो लगा कि इनकी हालत ठीक है.काहे से कि इनकी अवधूती भाषा बरकरार है.मेरा मन किया कि हायकू कविता पर कमेंट भी हायकू टाइप होने चाहिये.सो प्रयास करता हूं-मां सरस्वती को प्रणाम निवेदित करते हुये:-
दौड़ता हुआ
सांड़, सांड़ ही तो है
नही -दूसरा.
सिद्ध है सिद्ध
देख रहा है गिद्ध
नहीं बेचारा.
कुत्ते हैं भौंके
सांड़ चले मस्त
या गया सिरा ?
सिक्के खोटे
चलेंगे क्या सोंटे?
मरा ससुरा.
पूंछ पकड़ी
उचकेगा वो सांड
अबे ये गिरा..
सांड के पीछे-पीछे भागते-भागते मैं थका तो बैठ गया.बैठा तो लगा अच्छा लगा.लालच आ गया.सोचा कुछ और अच्छा लगे.फिर सोचा कुछ मोहब्बत की बातें की जायें.तो मन की हार्डडिस्क मेंसर्फिंग करके कुछ शेर निकाले :-
मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ भी सोचा नहीं जाता ,
कहा जाता है उसे बेवफा, बेवफा समझा नहीं जाता.(वसीम बरेलवी)
ये जो नफरत है उसे लम्हों में दुनिया जान लेती है,
मोहब्बत का पता लगते , जमाने बीत जाते है.
अगर तू इश्क में बरबाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता. (वाली असी)
बरबादी की जहां बात आयी हम फूट लिये बिना पतली गली खोजे.हमें लगा कहीं फजलगंज में दिखा सांड़ भी न इसी डर से भागा हो कि कहीं कोई उससे प्रेमनिवेदन करके बरवाद न कर दे.निर्द्वंद बरबादी करना अलग बात है पर अपनी बरबादी से सांड भी डरते हैं – **
यह हायकू (संक्षिप्त) दर्शन हुये आज सांड के.हायकू कविता पढ़ी आज स्वामीजी की.जो हायकू कविता सबसे पहले मैंने सुनी थी वह कहती थी:-
अतीत- यादें ,और यादें, और यादें,
वर्तमान -इरादे,और इरादे और इरादे,
भविष्य -वायदे ,और वायदे ,और वायदे.
पता किया कि हायकू कविता जापानी कविता होती है.छोटी कविता.जिन्होंने बताया था उन्होंने तीन लाइन की कविता को हायकू कविता बताया था.हमें बहुत अफसोस हुआ था उस समय क्योंकि मैं बचपन की अन्य कुटेवों की तर्ज पर उस समय तक कई चार लाइन की तुकबंदियां गढ़ चुका था.मुझे अफसोस हो रहा था पहले पता होता तो चार लाइन की तीन कविताओं के जगह पर चार हायकू होते.मैनें काफी कोशिश की तीनों कविताओं को फुसलाकर चौथी कविता में लाने की.पर लाइनें नहीं मानी.वे कोई निर्दलीय विधायक तो थी नहीं जो सरकार बनाने चली आतीं.
फिर हमने दूसरी बार हायकू कविता सुनी एक दक्षिण भारतीय साथी से.वे सुनाते:-
बकरी चढ़ी पहाड़ पर ,
बकरी चढ़ी पहाड़ पर,
और उतर गई.
तथा
मेढक ने पानी में कूदा,
मेढक ने पानी में कूदा,
छपाक.
कुछ लोगों ने इन कविताओं को हायकू कविता मानने से इन्कार कर दिया यह कहकर कि इनकी पहली और दूसरी लाइन में एक ही शब्द है.पर तय पाया गया कि चूंकि लाइनें अलग-अलग हैं इसलिये इसे हायकू मानने के अलावा कोई चारा नहीं है.
फिर आयी ठेलुहा नरेश की एक छोटी कविता.जब मैंने वह पढ़ी तो हायकू कविता के बारे में सब कुछ भूल गया था.उसे पढ़कर यह भाव आया -हो न हो इसे कहीं देखा है.जानी-पहचानी चीज लगती है.फिर जैसे लोग रामदयाल को दीनानाथ कहकर नमस्ते कर देते है,वैसे मैंने उसे हायकू मान के टिपियाया. नतीजा यह हुआ कि चार लाइन की कविता पचास लाइन के कमेंट को ढो रही है.वैसे विस्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इनकी पहली कविता हायकू टाइप ही थी:-
मेरे घर के,
सामने है ये सीढ़ी,
मत पी बीड़ी.
फिर पूर्णिमा जी कीजल की बूंदों में पुरानी सारी कवितायें घुल गयीं.वहीं से पता चला कि हायकू कविता में तीन लाइनों में
कुल 17 अक्षर होते हैं.पहली में पांच,दूसरी में सात तथा तीसरी में पांच. पहले की सारी कवितायें ‘नान हायकू’ करार करनीं पढ़ीं,जैसे किसी रिकार्डधारी का रिकार्ड स्टेराइड पाजिटिव पाये जाने पर खारिज कर दिया जाये.हमारी चार लाइन की कविताओं पर फिर ऐंठ के बौर आ गये.
पहले जब हम विजय ठाकुर की कवितायें पढ़े तो लगा यह भी कुछ हायकूनुमा है.पर जब देखा कि वे पांच लाइना क्षणिकायें हैं तो हमने सोचा रहन दो.पहले मन किया कि टिप्पणी करें कि पहली लाइन में मतलब साफ होते हुये भी नहीं होता पर फिर आलसिया गये.मटिया दिये
आज जब स्वामीजी की कविता हायकूनुमा पढ़ी तो लगा कि इनकी हालत ठीक है.काहे से कि इनकी अवधूती भाषा बरकरार है.मेरा मन किया कि हायकू कविता पर कमेंट भी हायकू टाइप होने चाहिये.सो प्रयास करता हूं-मां सरस्वती को प्रणाम निवेदित करते हुये:-
दौड़ता हुआ
सांड़, सांड़ ही तो है
नही -दूसरा.
सिद्ध है सिद्ध
देख रहा है गिद्ध
नहीं बेचारा.
कुत्ते हैं भौंके
सांड़ चले मस्त
या गया सिरा ?
सिक्के खोटे
चलेंगे क्या सोंटे?
मरा ससुरा.
पूंछ पकड़ी
उचकेगा वो सांड
अबे ये गिरा..
सांड के पीछे-पीछे भागते-भागते मैं थका तो बैठ गया.बैठा तो लगा अच्छा लगा.लालच आ गया.सोचा कुछ और अच्छा लगे.फिर सोचा कुछ मोहब्बत की बातें की जायें.तो मन की हार्डडिस्क मेंसर्फिंग करके कुछ शेर निकाले :-
मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ भी सोचा नहीं जाता ,
कहा जाता है उसे बेवफा, बेवफा समझा नहीं जाता.(वसीम बरेलवी)
ये जो नफरत है उसे लम्हों में दुनिया जान लेती है,
मोहब्बत का पता लगते , जमाने बीत जाते है.
अगर तू इश्क में बरबाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता. (वाली असी)
बरबादी की जहां बात आयी हम फूट लिये बिना पतली गली खोजे.हमें लगा कहीं फजलगंज में दिखा सांड़ भी न इसी डर से भागा हो कि कहीं कोई उससे प्रेमनिवेदन करके बरवाद न कर दे.निर्द्वंद बरबादी करना अलग बात है पर अपनी बरबादी से सांड भी डरते हैं – **
निःश्छल के क्रोध में भी एक सौंदर्य होता है, प्रतिक्रियात्मक आवेश तो होता है पर क्रियात्मक आवेग नहीं होता. मेरे विचार में सांड १०० मेसे ९९ बार सींग दिखाता है पर मारता नहीं, क्रोध आता है और चला जाता है फ़िर क्रोध का आवेश खुद को दिख जाता होगा हंसी आ जाती होगी अपने प्रतिक्रियात्मक आवेश पर!
हायकू के बारे मे जानकारी देने के लिए आभार!
साण्ड का ये चित्र कितना सुंदर है!
मेरा तो बस इतना ही कहना है, साँड को साँड ही रहने दो, कोई नाम ना दो,
अब तुमने कमेन्ट के लिये डन्डा कर ही दिया है तो मेरा हाइकू मे कमेन्ट भी झेलो.
तुमने लिखी कविता हाइकू
सबने झेली ऐसी कविता
काहे कू
अब ये हाइकू है कि नही, ये मै नही जानता.
समस्या पूर्ति नहीं करेंगे(केवल समस्या पैदा करेंगे ?).अब अनुमति मिल गयी तो करेंगे चाहे ईनाम न मिले.
हम भी यदि हर शनिवार को साँड को एक मुट्ठी अरुवा चावल और एक केला खिलाएँ, तो साँड बाबा की कृपा होगी और सही हिन्दी हाइकु लिख पाएँगे. तीन लाइनों वाली अर्थात् तीन पहियोंवाले कॉनकार्ड या जेट विमान से झट उड़कर संसार की सैर कर पाएँगे. नहीं तो बैल की तरह बँधे रहकर हिन्दी की बैलगाड़ी ही खींचते रहेंगे.
हरिराम
क्या केवल भारत में साँड बन्धनमुक्त रख कर घूमन्तु रखने की परम्परा है. क्या विदेशों में भी साँड इसी तरह परम मुक्त रहते हैं? या उन्हें कहीं बाँध कर रखा जाता है? क्यां भारत के बाहर विदेशी परिवेशों में वहाँ के साँडों से कुछ काम करवाया जाता है?
कृपया प्रवासी भारतीय बन्धु इस सम्बन्ध में प्रकाश डालें तो बड़ी कृपा होगी.
रामु
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