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Wednesday, May 25, 2005
चिट्ठी चिट्ठाकारों को बमार्फत रवि रतलामी
प्रिय रतलामीजी,
मैं चिट्ठी बहुत पहले लिखना चाह रहा था।पर लिखना टलता गया। हुआ कुछ ऐसा कि मैंने पहले तय किया कि लिखूँगा पूरी दुनिया की हालत पर और संबोधन होगा भगवान को ।बताऊँगा उनको:-
देख तेरे सँसार की हालत ,क्या हो गयी भगवान...
इसमें पहले दुनिया का रोना-गाना बताकर फिर भगवान को धिक्कारने की बात थी कि हे भगवान,आप तो भारतीय नौकरशाही की तरह कान में तेल डाले बैठे हो-कब चेतेगो? अनुरोध भी करने का प्लान था कि अपना चिट्ठा-विट्ठा शुरु करो देवभाषा में। चूँकि मसाला तय हो गया और रूपरेखा तय हो गयी तो शुरु भी कर दिया ।दो लाइन लिख दिये ।अब चूँकि आधा शुरुआत हो गयी तो समझो आधा काम हो गया। अब मैं इसी चक्कर में था कि आधा हो गया तो पूरा होने में क्या समय लगेगा!इसी चक्कर में समय सरकता रहा हथेली में जकड़ी बालू की तरह।
फिर कुछ दिन बाद भगवान का आकर्षण कम होता गया। मेरे साथ कुछ लफड़ा है कि जो मैं समझता हूँ कि ये तो हो ही जायेगा वो मैं कभी नहीं कर पाता हूँ। फिर कुछ दिन वे गैरमुकम्मल मादा तस्वीरें सामने टहलती रहीं जिनसे कभी जिंदगी में साबिका पड़ा है। सोचा यह था कि सारे नारी पात्रों को एक साथ लेकर उनके बारे में लेख लिखा जाये। नाम सोचा था -भानुमती को चिट्ठी। भानुमती के कुनबे की तरह सारे लोगों के बारे में लिखने का विचार था-जोड़-तोड़ करके। उसमें सुन्दरता के पक्ष पर भी हाथ आजमाने का विचार था। पर कुछ ऐसा होता गया कि यह विचार भी परवान नहीं चढ़ पाया। कुछ हिचक रही कुछ यादों का बेतरतीब होना।हड़बड़ी में समेटने में बिखरने का खतरा था।हालाँकि जब से मैंने इस पर लिखने का विचार किया तब से लगभग हर मादा पात्र नजरों के सामने से गुजरी गोया याद दिला रही हो -हमें याद करते हो या भूल गये।अच्छा मजेदार बात यह है कि अब समय के साथ कोई पूरी याद बची ही नहीं। जो बहुत खूबसूरत लगती थी उसका नाम याद है पर वह नत्थी हो जाता है किसी कम खूबसूरत अच्छी आवाज वाली वाली लड़की के साथ। पढ़ने में बहुत अच्छी लड़की मिलती है उस खाने में जिनमें पढ़ाई की दुश्मन लड़कियां इकट्ठा हैं।स्मृतियां भी किसी गठबंधन सरकार की निर्दलीय विधायक हो गयी -जिधर मन आता है उधर चल देती हैं।इस पर किसी कवि ने बहुत पहले लिखा था:-
धोबी के साथ गदहे भी चल दिये मटककर,
धोबिन बिचारी रोती,पत्थर पे सर पटककर।
कुल मिलाकर हुआ यह कि दोनों इरादे अमल में लाये नहीं जा सके।अमल में न ला पाने का कारण यह भी रहा शायद कि यह पत्र उन लोगों को लिखने की सोची जा रही थी जिनके संपर्क में मैं नहीं हूँ आजकल।फिर अब जब तारीख निकल चुकी है अनुगूँज की तो फिर यह सोचा जा रहा है कि क्या करूँ ? लिखूँ कि मटिया दूँ! बीच में यह विचार किया था अखिलेशजी की कहानी पूरी कर लूँगा और उसी में अतुल की तरह अनुगूँज का लोगो लगा के जै सियाराम कर लूँगा।
बहरहाल अब जब पानी सर से ऊपर गुजर चुका है तो यह सोचा जब किसी को लिखना ही है तो आप ही क्या बुरे हो!आप ही को चिट्ठी क्यों न लिखी जाये? आप के माध्यम से सबको लिख रहा हूँ। आपको संबोधित इसलिये कर रहा हूँ कि अगर किसी को कुछ बुरा लगे तो मैं कह सकता हूँ कि भाई हम लोगों का आपस का मामला है।यह विश्वास है कि आप बुरा मानोगे नहीं । हम लोग हर हाल में बुरा न मानने के लिये अभिशप्त हैं।
हां तो मैं यह कह रहा था कि लगभग ९ महीने हो गये हमें लिखना शुरु किये। हमने जितना इतने दिनों में लिखा उतना जिंदगी भर में नहीं लिखा। लिखा होता तो किताबें छप चुकी होतीं और हर पांचवे सातवें दिन पूँछ की तरह हिल रही होतीं चिट्ठा विश्व में। चोरी-चोरी,चुपके-चुपके भी काम में अपने का यकीन कभी नहीं रहा जिसके अप्रूवल जैसी प्रकिया से गुजरना पड़े। शुरु में लिखने के समय सारा कच्चा माल खप गया। अब हर पोस्ट पर दिमाग में जोर लगाना पड़ता है।अच्छा,बीच -बीच में यह अहसास भी अपना नामुराद सर उठाता है कि हम कुछ खास लिखते हैं। 'समथिंग डिफरेंट' टाइप का।हम यथासंभव इस अहसास को कुचल देते हैं पर कभी-कभी ये दिल है कि मानता नहीं।तब अंतिम हथियार के रूप में मैं किसी अंग्रेजीलेखक की लिखी हुई पंक्तियां दोहराता हूँ:-
"दुनिया में आधा नुकसान उन लोगों के कारण होता है जो यह समझते हैं कि वे बहुत खास लोग हैं।"
यह डायलाग आपात चिकित्सा के लिये बहुत मुफीद दवा है। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि इसने असर न किया हो।
कारण शायद यह हो कि हम लोग घोटाले भले करोंड़ो-अरबों के पचा लें पर 'लास टु द स्टेट' पचाने में हवा सरकती है।पचास हजार रुपये तनख्वाह पाने वाला भी पाँच रुपये का नुकसान करने के लिये अधिकृत नहीं हैं- नुकसान को निपटा भले दे(सेटल कर दे)
बहरहाल इधर कुछ दिन से जब से निरंतर निकलना शुरु हुयी तबसे हम और व्यस्त हो गये। खालीपूछिये फुरसतिया से लिखना रहता है पर लगता है कि सारी गाड़ी हमीं खींच रहे हों।उसमें भी बड़ा लफड़ा है।एक तो सवाल बहुत कम पूछते हैंलोग। जो पूछते हैं उनके जवाब नहीं सूझते। जो सूझते हैं भी उसके लिये सम्पादक से फोन पर पूछो तो कहेंगे महाराज -अनूप भाई,सच बात तो यह है कि कुछ गम्भीर हो गये जवाब।अब पता नहीं कब झूठी तारीफ करना सीखेगा यह हमारा प्रधान सम्पादक।इस पर एक मजेदार किस्सा सुना जाये:-
एक बार हमारे और ठेलुहा नरेश के संयुक्त चेलाधिराज अमरनाथ उपाध्याय हमारे घर पधारे । हाल ही में लंदन से छुट्टियों घर आये थे इसलिये शरीर आ गया था ,आत्मा हवा में थी। जबान से बीच-बीच में टेढ़ी होकर कुछ निकाल रही थी जिसे वो बता रहे थे कि यह ब्रिटेनिया अंग्रेजी है।बहरहाल वे पुराने गवैया हैं।आये तो गाना शुरु ही नहीं किया बहुत देर तक।तब हमारी श्रीमतीजी ने स्वागतगीत जैसा गीत गाया जिसके बोल कुछ --स्वागतम्,अथ स्वागतम टाइप के थे। फिर तो न पूछो।पट्ठा स्वागत से भाव विभोर हो गया।गाने ,ज्यादातर पुराने, गले से ज्वालामुखी के लावे की तरह बहने लगे।लगातार लरजती आवाज जब थमी घड़ी चार घंटे आगे सरक गयी थी।मेज पर चाय के कई खाली कप इकट्ठा हो गये थे।शाम को नेट लगाया तो दूसरी तरफ ठेलुहा नरेश हाजिर थे।जो बातचीत हुई दोनों में वो नीचे दी जा रही है:-
उपाध्याय:-प्रणाम सरजी!
ठेलुहा:- मस्त रहो बच्चा।
उपाध्याय:- आपके चरण छूने का मन कर रहा है।
ठेलुहा:-चिन्ता न करो । हम ई-मेल में अटैच करके भेज रहे हैं।छू लेना ।भक्तिभाव के अनुसार फल मिल जायेगा।और क्या हो रहा है?
उपाध्याय:-आप ही को याद कर रहे थे।
ठेलुहा:-जरूर हमारा गुणगान कर रहे होगे।
उपाध्याय:- अब आपका जिक्र आता है तो इतना झूठ तो बोलना ही पड़ता है-आपकी इज्जत रखने के लिये।
ठेलुहा:-लेकिन यह झूठ कितना सच लग रहा होगा।ऐसे सच लगने वाले झूठ बोलने में कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिये।किसी से डरना नहीं चाहिये।भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता ऐसे आभासी सच बोलने वाले का।तुम जम के तारीफ करो मेरी ।जो होगा हम देख लेंगें।और हां,शुकुल से मेरा संदेश कह देना। (संदेश था:-उपाध्याय के गाने की हूटिंग जरूर कर देना ।हूटिंग न होने से ये नाराज हो जाते हैं।)
लब्बोलुआब यह कि अक्सर आप सच बोलके जितना अपना परलोक सुधार रहे होते हैं ।उससे ज्यादा अपना लोक बिगाड़ रहे होते हैं। बात, चल रही रही थी फुरसतिया से पूछिये की।तो कोई कहता है कि मामला गंभीर हो गया।कोई कहता है चिकाई कम करो।क्या करें कुछ समझ में नहीं आता।
निरंतर के तीन अंक निकल चुके हैं।वाह-वाह तो काफी हुआ।पर निकालने वाले आह-आह करने लगे। कोई कह रहा है कि भाई लोग अब आप लोग देखो,हम तो चले। देवाशीष कहते हैं रमन कौल चलायेंगे पत्रिका।हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं। जीतेन्दर बताते हैं देवाशीष के बिना निरंतर विधवा की मांग हो जायेगी।अतुल कुछ कहते हैं।पंकज कहते हैं आखिर यह सब हम कर किस लिये रहे हैं?आखिर क्या लक्ष्य हैं हमारे। फिर वह कहते हैं अनूपजी आप कुछ बोलते क्यों नहीं!तो भैया हमारे भी नामाराशि आ गये हैं।बताओअनूपजी ,बोलते क्यों नहीं।बोलो तो कम से कम अमेरिका में पंकज तो सुन ही लेंगे।
इधर की कुछ बात करूँ इसके पहले कुछ पुरानी बातें।मैं जितने दिन से जुड़ा यहां तब से देख रहा हूँ कि दो तरह के लफड़े आते रहे बीच-बीच में।कुछ तकनीकी कुछ गैर तकनीकी।गैर तकनीकी मुद्दे तो मैं समझता रहा। तकनीकी मुद्दे बहुत कम आये मेरी समझ में-अच्छा ही रहा।तकनीकी मुद्दों के पीछे भी कभी-कभी बचकानापन ज्यादा हावी रहा।ब्लागनाद ,हिंदी में टिप्पणी की सुविधा के लिये स्वामी के प्रयास के प्रकरण ने काफी आहत किया मुझे तथा सोचने के लिये मजबूर किया कि हमारे योद्धा आपस में यदुवंशियों की तरह लड़-मर रहे हैं।खैर ,जल्दी ही ऊब गये लोग तथा चुप हो गये।फिर अभी नारद प्रकरण।
मुझे इसकी महत्ता नहीं पता लेकिन यह जरूर लगा कि चिट्ठाविश्व कितना समय ज्यादा लगाता है! मैंने किसी अंग्रजी चिट्ठा में भी यह नारद देखा पता नहीं क्या लफड़ा है!स्वामीजी भी कह रहे थे कि 'इट सक्स टाईम'। कितना 'सक्स'?दो सेकेन्ड चार सेकेन्ड।क्या कर लेते हो इतनी देर में।खूबसूरती गजगामिनी होती है,हड़बड़ी में नहीं देखी जाती। फिर इससे देवाशीष को भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये। अरे जो बढ़िया दिखेगा वहीं लोग जायेंगे। मुझे तो चिट्ठाविश्व की खूबसूरती पसन्द है मैं उसी को देखूँगा। काहे को परेशान होता है यार! पर कुछ बात है जरूर।
इस तेज दुनिया में आयडिया बहुत तेजी से उछालते हैं लोग।अक्सर यह भी जाने बिना कि उसका मतलब क्या है?अगर अतुल के यह कहने पर कि चिट्ठाविश्व को निरंतर में समाहित कर दिया जाये ,देवाशीष उखड़ते हैं तो कतई गलत नहीं करते।ये कोई ब्लाग तो है नहीं भाई कि दो मिनट में बन गया दूसरा। फिर स्वाभाविक तौर पर जिसमें आदमी मेहनत करता है उससे लगाव तो होगा ही। हां, यह मेरे साथ होता तो मैं इस पर एक लम्बी पोस्ट लिखता और मजा लेता।लिया ही है पहले भी। देवाशीष चूक गये इस आनंद से।इसीलिये कहते हैं कि लिखते रहा करो देवाशीष।
तमाम बातें हैं वो फिर कभी।फिलहाल हिंदी ब्लाग तथा निरंतर के बारे में। एक तो पहले मैं बता दूँ कि यहां जो करना पड़ेगा वह खुद हमें करना पड़ेगा।नामचीन लोगों चाहें वे पूर्णिमावर्मनजी हों,रति सक्सेना हों या व्योमजी इनसे कुछ आशायें रखने के पहले हमें यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि इनके पहले से ही कमिटमेंट हैं।इनका सहयोग किसी साझे काम में स्वयंसेवक की तरह नहीं मिलेगा।रचनायें मिल सकतीं हैं प्रसाद के रूप में।हम कृतार्थ होते रहेंगे -बस।
निरंतर का स्वरूप क्या रहेगा यह तो समय बतायेगा।पर यह सच है कि मैं किसी भी रूप में इसे बंद करने का पक्षधर नहीं हूँ। न बंद करने का न आवृत्ति कम करने का।मैं आखिरी व्यक्ति हूँगा इसे बँद करने ले लिये कोई निर्णय लेने के लिये हाथ उठाने वाला।हमसे जो चाहा जायेगा मैं कर दूँगा पर तकनीकी तौर पर मेरा हाथ जरा तंग है।सो उधर हाथ नहीं डालना चाहता ।पर यह तय है कि पत्रिका निकलेगी चाहे कुछ कमतर होकर निकले।
यह भ्रम भी किसी को नहीं होना चाहिये कि वह हिंदी पर कोई उपकार कर रहा है। भाषायें किसी की मोहताज नहीं होतीं।न किसी के आने-जाने कोई फर्क पड़ता है।वास्तव में यह तो हम अपने परिष्कार के लिये करते हैं।हम अगर एक दिन कोई बढ़िया लेख लिख लेते हैं तो पूरा हफ्ता निकल जाता है उसके नशे से छूटने में।निरंतर बंद हो जायेगी तो ऐतिहासिक हो जायेगी। और आजकल ऐतिहासिक चीजोंकी बहुत पूछ हैं। लोग यहाँ नहीं लिखेंगे तो कहीं और लिखेंगे।यहां नहीं पढ़ेंगे कहीं
और पढ़ेंगे।पर यह कसक सबके मन में होगी कि यार,हम भी निकालते थे पत्रिका।
मैं कल्पना करता हूं कि मान लो कल को देवाशीष और रमन कौल समय देने में असमर्थ होने के कारण अलग हो जाते हैं।मैं या मेरे जैसा को तकनीकी रूप से सिफर आदमी कहता है भावुक होकर कि लाओ मैं निकलता हूँ पत्रिका।तो हमारे ये दो साथी क्या करेंगे? मेरे सामने खटाक से भारत-पाकिस्तान के उस मैच की तस्वीर सामने आ जाती है जिसमें आखिरी ओवरों में पाकिस्तान को कुछ रन बनाने थे।रन रेट दरकार ज्यादा था।ड्रेसिंगरूम से जावेद मियांदाद बराबर खिलाड़ियों को हर गेंद पर एक्टिंग करके बता रहे थे कि शाट ऐसे खेलो-वैसे खेलो।कुछ ऐसे ही ये दोनों दिग्गज बतायेंगे कि अनूप भाई अइसा करो-वइसा करो।पर करेंगे तो अपन तब जब उतना अकल होगी।अपने दिल के टुकड़े की हालत देखकर भावुक हृदय के स्वामी देवाशीष जी की नैनकटोंरो से आँसू निकलेंगे -एक इधर से एक उधर से।कितने रूमाल मिलेंगे श्रीमतीजी से महाराज!
देवाशीष की तकलीफें जायज हैं।यह पत्रिका सबको मिलकर चलानी होगी।सबको अपने हिस्से की मेहनत करनी होगी।यह नहीं कि जैसे देवता पुष्पवर्षा करते हैं वैसे 'लिंक' छितरा के चल दो।यह भी मेरा मानना कि अगर कोई काम नहीं हो पा रहा है तो उसके लिये हाय-तोबा मचाने के बजाय उसे अगले अंक के लिये छोड़ दिया जाये।अति उत्साहित होकर दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दखल देने से बचा जाये।
यह तो हुयी निरंतर की बात।मेरा विचार है कि इसकी निरंतरता बनी रहे।आशा है बनी भी रहेगी।पर यह तय है किजिम्मेदारियां को फिर से देखा जाये कि किससे क्या सहयोग मिल सकता है।निठल्लों को भी कुछ काम सौंपे जायें।जुलाई तक तो तय ही है निकलना इसका आगे भी निकलेगी-यह मेरा विश्वास है।जब आप अपनी आसन्नमौत को बुत्ता देकर यहां हाजिर हो तो
इस पत्रिका की सांसे कैसे बंद हो सकती हैं!-हम सबके साथ रहते।कैसे जायेंगे दूर सर्टिफाइड नास्तिक वीर तथालाइलाज आशावादी ।
इसके बाद कुछ लिखने को बचा नहीं पर समेटने के पहले लगता है कुछ और लिख लिया जाये।पता नहीं कब मौका मिले फिर लिखने का पत्र। चूँकि बात हो रही है साथियों की जिनके बीच कुछ समझ का फेर स्वाभाविक है।ऐसा न हो तो दो लोगों के होने का मतलब क्या हो फिर? इस हालत में मतभेद हो सकते हैं।मतभेद होना अच्छी बात है पर मनभेद नहीं होना चाहिये।आपस में न्यूततम साझा ईमानदारी तथा अधिकतम सहयोग की भावना बहुत जरूरी है समूह में।मतभेद जितनी जल्दी सुलट जायें
उतना बेहतर।समय के साथ यह समझ भी बन जाती है कि अगला किस चीज से दुखी होगा तथा किससे खुश।हर आदमी खास 'टेलर मेड'होता है।उससे निपटने का तरीका भी उसी के अनुरूप होता है।यह हम जितनी जल्दी जान जाते हैं उतना खुशनुमा मामलाहोता है।
बहरहाल ,अब इतना लंबा पत्र लिख गया कि कुछ और समझ नहीं समझ आ रहा है।थोड़ा कहा ,बहुत समझना।यह पत्र मैंने रविरतलामी के लिये लिखना शुरु किया था ।पता नहीं कैसे दूसरे साथी अनायास आते चले गये।अपने एक दोस्त से बहुत
समय बाद मिलने पर मैंने उससे कहा कि मैं तुमको अक्सर याद करता हूँ। उसने जवाब दिया -याद करते हो तो कोई अहसान तो नहीं करते।याद करना तुम्हारी मजबूरी है।हमारे साथी कैसे हैं यह तो समय-समय पर लिखता रहता हूँ पर अगर किसी में कुछ कमी है तो उसके अपनी एक टुकड़ा भानुमती से सुना शेर अर्ज करता करके बात खत्म करता हूँ:-
वो जब इतना बेवफा है तो दिल उस पर मरता है,
गर खुदा वो बावफा होता तो क्या सितम होता।
आशा है छुट्टियां अच्छी बीती होंगी।
शुभकामनाओं सहित,
अनूप शुक्ला
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अनूप जी,
ReplyDeleteआपकी चिठ्ठी पढकर कालेज के जमाने की याद आ गई. विश्वविद्यालय के कुछ उत्साही छात्रों ने एक अखबार निकालना शुरू किया.उद्देश्य था छात्रों की आवाज विश्वविद्यालय के प्रशासन तक पहुँचाना,छात्रों को अपने प्रश्न उठाने के लिये मंच देना,विश्वविद्यालय में हो रही गड़बड़ियों की तरफ ध्यान आकर्षित करना इत्यादि. शुरू शुरू में अखबार धूम धड़ाके से चला. विद्यार्थियों को इस मासिक पत्र का इंतजार रहने लगा.लेकिन धीरे धीरे अखबार चलाने वालों के ऊपर अन्य जिम्मेदारियाँ आ गईं, विशेषकर करियर की.करीब १ साल तक चलने के बाद वो अखबार बंद हो गया.
मैने "निरंतर" में कुछ योगदान नहीं किया है, इसलिये उसको चलाने या ना चलाने के बारे में राय नहीं दे सकता. लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि जब "अभिव्यक्ति" जैसी पत्रिका को इतने दिनों तक चलाया जा सकता है, तो "निरंतर" को क्यों नहीं? और कारवाँ बढाते चलिये लोग तो जुड़ते जायेंगे.