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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
[जैसारविरतलामीजी नेआग्रह किया हम हर हफ्ते कम से कम एक पोस्ट अपनी यायावरी के किस्से की लिखने का प्रयास कर रहे हैं- सोमवार को । इसके अलावा अनाम जी
का आग्रह है कि प्रतिदिन लिखा जाय तो प्रतिदिन लिखना थोडा़ मुश्किल सा है।
हमारे और पाठक दोनों के प्रति अनाचार होगा। हम नहीं चाहते कि जितने लोग
अभी पढ़ने के लिये लालायित हैं उससे ज्यादा लोग इसे बंद करने के लिये
चिल्लाने लगें। फिलहाल आइये आगे की कहानी सुनायी जाये।]
प्रतापगढ़ ५० किमी की दूरी पर है इलाहाबाद से। यह सोचा गया कि आने-जाने में १०० किमी हो जायेंगे। पता नहीं था उन दिनों कि राजा भइया प्रतापगढ़ के भइया हैं नहीं तो उनसे भी चंदा वसूल लाते।
प्रतापगढ़ यात्रा तय होने के बाद हमने एक दिन किराये की साइकिलें ली तथा पैडलियाते हुये फाफामऊ का पुल पार गये- प्रतापगढ़ की लिये।
हम तीन लोगों के अलावा संजय चांदवानी तथा बिनोद गुप्ता भी साथ में थे।
रास्ते में कोई परेशानी नहीं आई। कुछ देर हम हंसी-मजाक करते हुये साथ-साथ चलते रहे। फिर आगे-पीछे होते गये। जहां चाय की दुकान दिखी वहां ‘मस्ती ब्रेक’ लिया गया। हम आराम से प्रतापगढ़ पहुंच गये। पहुंचने में करीब चार घंटे लगे।
प्रतापगढ़ को कुंडा के नाम से जाना जाता है। उन दिनों पता नहीं था कि यहां का राजा भी है तथा उसका महल भी है वर्ना शायद महल,तालाब देखकर आते।
हम कुछ ही देर रहे प्रतापगढ़ में । चाय-नास्ता करके तुरंत वापस लौट आये।लौटते समय कुछ गर्मी तथा कुछ पानी की कमी के कारण कुछ साथियों को उल्टी हुयी। लेकिन बिना किसी खास यादगार परेशानी के हम सकुशल वापस हास्टल लौट आये।
जैसे-जैसे शाम होने लगी , पांव-भारी तथा बकौल स्वामीजी पिछाड़ी-पस्त होने लगी।लेकिन १०० किमी की सफल यात्रा के अहसास ने सारे दर्द को डांट के चुप करा दिया।
होते-करते समय सरकता रहा। हमारी तैयारियां चलती रहीं। परीक्षायें भी होती रहीं।
पैसा काम भर का हो गया था। उन दिनों एटीएम का चलन तो था नहीं लिहाजा हमने कुछ पैसे नकद लेकर बाकी के ट्रैवेलर्स चेक बनवा लिये थे।
जून के महीने में कुछ ही दिन बचे थे जब परीक्षायें समाप्त हो गईं। सारे दोस्त लोग अपने-अपने घर जाने लगे। जो जाता वो मिलता और अपना ख्याल रखने की बात कहकर शुभकामनायें थमा कर चला जाता।
कुछ दोस्तों को समझ में नहीं आया कि क्या कहें । वे भावुक होते गये तथा हमें भी भावुकता के पाले में घसीट लिया लेकिन हम बहुत जल्द इसके आदी हो गये। कुछ लोगों ने हमसे ऐसे बिदा ली कि मानों हम महाप्रयाण पर जाने वाले थे।
हालांकि हमारे आसपास न तितिलियां थीं न मोम के बंधन लेकिन हम उन दिनो अक्सर महादेवी वर्मा जी की पंक्तियां दोहराते थे:-
बांध लेंगे क्या तुझे
ये मोम बंधन सजीले,
पंथ की बाधा बनेंगे
तितलियों के पर रंगीले,
तू न अपनी छांह को
अपने लिये कारा बनाना
जाग तुझको दूर जाना!
हमारे कुछ दोस्त जो समझदारी के लिये भी बदनाम थे वे भी अपना चरित्र बदल कर भावुकता की गोद में दुबके रहे काफी देर। संजय अग्रवाल भी इनमें से एक थे।संजय ,अवस्थी के लिये खासतौर से परेशान थे। कह रहे थे- जहां ज्यादा परेशानी दिखे वहां से लौट आना। तुम्हें बहादुरी का खिताब मिल ही गया है।
कुछ दोस्तों ने अपने घर के किराये के पैसे बचा के बाकी सारे पैसे हमें थमा दिये-चुपचाप। यह पैसे उसके अलावा थे जो वे पहले ही हमें चंदा अभियान के दौरान दे चुके थे।उनकी चुप्पी में दाता का अभिमान तो कहीं नहीं था वरन् और अधिक सहयोग न कर पाने का संकोच था।
ऐसे ही तमाम अनुभव आगे भी,यात्रा के दौरान हुये। ये अनुभव इतने गहरे धंसे हैं मन में कि लाख बुराइयों के वावजूद अच्छाईंयों पर भरोसा साला अइसा हो गया है कि हिल के नहीं देता।
देखते-देखते जून का महीना भी विदा हो गया। १ जुलाई को सबेरे हमें यात्रा पर निकलना था। सारे साथ के दोस्त घर जा चुके थे। हम हास्टल में अकेले थे। साथ में केवल अंतिम वर्ष वाले सीनियर बचे थे। फिराक साहब ,राकेश आजाद,त्रिनाथ धावला भी उनमें से थे। राकेश आजाद मुंबई के रहने वाले थे। हमें लौटते में उनके घर रुकना था मुंबई में।
इस बीच दिलीप गोलानी अपने घर कानपुर जाकर घर वालों से मिल भी आये थे। हमने सोचा कि सारी मिला-भेटी लौटकर ही करेंगे।
३० जून को हम हिंदी दैनिक अमृत प्रभात तथा अंग्रेजी अखबार नार्दन इंडिया पत्रिका के दफ्तर में जाकर अपने अभियान की खबर दे आये। एक कालम का यह संक्षिप्त समाचार बहुत दिनों तक हमारे पास रहा।
३० जून की रात को देर तक हम बतियाते रहे। फिर भी १ जुलाई को हम सबेरे जल्दी उठ गये। यात्रा पर निकलने का उत्साह चरम पर था।मेस खुली नहीं था उस समय तक। हम चाय की दुकान पर ही नाश्ता करके कालेज के मेन गेट की तरफ बढ़े। हमारी विंग में रहने वाले चारो सीनियर साथ में थे। वे हमें गेट तक छोड़ने आये।कालेज के कुछ अध्यापक भी साथ थे।
हम लोग चलने के पहले की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान कर ही रहे थे कि फाफामऊ पुल की तरफ से एक कार तेजी से आकर हमारे बगल में रुक गई। कार में से वृद्ध दम्पति बाहर निकले तथा हमको आशीर्वाद दिया व कुछ रुपये भी दिये राह खर्च के लिये दिये। हम उनकोजानते नहीं थे। वे भी अखबार में छपी खबर पढ़कर ही आये थे।वे तुरन्त जिस तरह आये थे उसी तरह तेजी से तीर की तरह चले गये।
हमारे बीच से किसी ने ठहाकों के बीच कहा-यह तो तय हो गया कि यायावर भूखे नहीं मरेंगे।
इन्हीं ठहाकों के बीच हमने साइकिल के पैडल पर पैर रखे तथा शेरशाह सूरी राजमार्ग संख्या २ बनारस की तरफ चल पड़े।सामने से ट्रक जा रहे थे। एक पर लिखा था:-
मुसाफिर हैं हम भी मुसाफिर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
बाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं
छापी गयी इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी,
अनगिनत राही गये इस
राह से ,उनका पता क्या,
पर गये कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ ,पंथी,
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा,
व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव,छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा या कि समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी, यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने
चित का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।
-हरिवंशराय बच्चन
प्रतापगढ़ ५० किमी की दूरी पर है इलाहाबाद से। यह सोचा गया कि आने-जाने में १०० किमी हो जायेंगे। पता नहीं था उन दिनों कि राजा भइया प्रतापगढ़ के भइया हैं नहीं तो उनसे भी चंदा वसूल लाते।
प्रतापगढ़ यात्रा तय होने के बाद हमने एक दिन किराये की साइकिलें ली तथा पैडलियाते हुये फाफामऊ का पुल पार गये- प्रतापगढ़ की लिये।
हम तीन लोगों के अलावा संजय चांदवानी तथा बिनोद गुप्ता भी साथ में थे।
रास्ते में कोई परेशानी नहीं आई। कुछ देर हम हंसी-मजाक करते हुये साथ-साथ चलते रहे। फिर आगे-पीछे होते गये। जहां चाय की दुकान दिखी वहां ‘मस्ती ब्रेक’ लिया गया। हम आराम से प्रतापगढ़ पहुंच गये। पहुंचने में करीब चार घंटे लगे।
प्रतापगढ़ को कुंडा के नाम से जाना जाता है। उन दिनों पता नहीं था कि यहां का राजा भी है तथा उसका महल भी है वर्ना शायद महल,तालाब देखकर आते।
हम कुछ ही देर रहे प्रतापगढ़ में । चाय-नास्ता करके तुरंत वापस लौट आये।लौटते समय कुछ गर्मी तथा कुछ पानी की कमी के कारण कुछ साथियों को उल्टी हुयी। लेकिन बिना किसी खास यादगार परेशानी के हम सकुशल वापस हास्टल लौट आये।
जैसे-जैसे शाम होने लगी , पांव-भारी तथा बकौल स्वामीजी पिछाड़ी-पस्त होने लगी।लेकिन १०० किमी की सफल यात्रा के अहसास ने सारे दर्द को डांट के चुप करा दिया।
होते-करते समय सरकता रहा। हमारी तैयारियां चलती रहीं। परीक्षायें भी होती रहीं।
पैसा काम भर का हो गया था। उन दिनों एटीएम का चलन तो था नहीं लिहाजा हमने कुछ पैसे नकद लेकर बाकी के ट्रैवेलर्स चेक बनवा लिये थे।
जून के महीने में कुछ ही दिन बचे थे जब परीक्षायें समाप्त हो गईं। सारे दोस्त लोग अपने-अपने घर जाने लगे। जो जाता वो मिलता और अपना ख्याल रखने की बात कहकर शुभकामनायें थमा कर चला जाता।
कुछ दोस्तों को समझ में नहीं आया कि क्या कहें । वे भावुक होते गये तथा हमें भी भावुकता के पाले में घसीट लिया लेकिन हम बहुत जल्द इसके आदी हो गये। कुछ लोगों ने हमसे ऐसे बिदा ली कि मानों हम महाप्रयाण पर जाने वाले थे।
हालांकि हमारे आसपास न तितिलियां थीं न मोम के बंधन लेकिन हम उन दिनो अक्सर महादेवी वर्मा जी की पंक्तियां दोहराते थे:-
बांध लेंगे क्या तुझे
ये मोम बंधन सजीले,
पंथ की बाधा बनेंगे
तितलियों के पर रंगीले,
तू न अपनी छांह को
अपने लिये कारा बनाना
जाग तुझको दूर जाना!
हमारे कुछ दोस्त जो समझदारी के लिये भी बदनाम थे वे भी अपना चरित्र बदल कर भावुकता की गोद में दुबके रहे काफी देर। संजय अग्रवाल भी इनमें से एक थे।संजय ,अवस्थी के लिये खासतौर से परेशान थे। कह रहे थे- जहां ज्यादा परेशानी दिखे वहां से लौट आना। तुम्हें बहादुरी का खिताब मिल ही गया है।
कुछ दोस्तों ने अपने घर के किराये के पैसे बचा के बाकी सारे पैसे हमें थमा दिये-चुपचाप। यह पैसे उसके अलावा थे जो वे पहले ही हमें चंदा अभियान के दौरान दे चुके थे।उनकी चुप्पी में दाता का अभिमान तो कहीं नहीं था वरन् और अधिक सहयोग न कर पाने का संकोच था।
ऐसे ही तमाम अनुभव आगे भी,यात्रा के दौरान हुये। ये अनुभव इतने गहरे धंसे हैं मन में कि लाख बुराइयों के वावजूद अच्छाईंयों पर भरोसा साला अइसा हो गया है कि हिल के नहीं देता।
देखते-देखते जून का महीना भी विदा हो गया। १ जुलाई को सबेरे हमें यात्रा पर निकलना था। सारे साथ के दोस्त घर जा चुके थे। हम हास्टल में अकेले थे। साथ में केवल अंतिम वर्ष वाले सीनियर बचे थे। फिराक साहब ,राकेश आजाद,त्रिनाथ धावला भी उनमें से थे। राकेश आजाद मुंबई के रहने वाले थे। हमें लौटते में उनके घर रुकना था मुंबई में।
इस बीच दिलीप गोलानी अपने घर कानपुर जाकर घर वालों से मिल भी आये थे। हमने सोचा कि सारी मिला-भेटी लौटकर ही करेंगे।
३० जून को हम हिंदी दैनिक अमृत प्रभात तथा अंग्रेजी अखबार नार्दन इंडिया पत्रिका के दफ्तर में जाकर अपने अभियान की खबर दे आये। एक कालम का यह संक्षिप्त समाचार बहुत दिनों तक हमारे पास रहा।
३० जून की रात को देर तक हम बतियाते रहे। फिर भी १ जुलाई को हम सबेरे जल्दी उठ गये। यात्रा पर निकलने का उत्साह चरम पर था।मेस खुली नहीं था उस समय तक। हम चाय की दुकान पर ही नाश्ता करके कालेज के मेन गेट की तरफ बढ़े। हमारी विंग में रहने वाले चारो सीनियर साथ में थे। वे हमें गेट तक छोड़ने आये।कालेज के कुछ अध्यापक भी साथ थे।
हम लोग चलने के पहले की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान कर ही रहे थे कि फाफामऊ पुल की तरफ से एक कार तेजी से आकर हमारे बगल में रुक गई। कार में से वृद्ध दम्पति बाहर निकले तथा हमको आशीर्वाद दिया व कुछ रुपये भी दिये राह खर्च के लिये दिये। हम उनकोजानते नहीं थे। वे भी अखबार में छपी खबर पढ़कर ही आये थे।वे तुरन्त जिस तरह आये थे उसी तरह तेजी से तीर की तरह चले गये।
हमारे बीच से किसी ने ठहाकों के बीच कहा-यह तो तय हो गया कि यायावर भूखे नहीं मरेंगे।
इन्हीं ठहाकों के बीच हमने साइकिल के पैडल पर पैर रखे तथा शेरशाह सूरी राजमार्ग संख्या २ बनारस की तरफ चल पड़े।सामने से ट्रक जा रहे थे। एक पर लिखा था:-
मुसाफिर हैं हम भी मुसाफिर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
मेरी पसंद
पूर्व चलने के ,बटोहीबाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं
छापी गयी इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी,
अनगिनत राही गये इस
राह से ,उनका पता क्या,
पर गये कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ ,पंथी,
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा,
व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव,छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा या कि समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी, यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने
चित का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।
-हरिवंशराय बच्चन
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 6 Responses
बाजु……
बाबु समझो इशारे फौरन पूकारे पम पम पम…..
यहां चलती को ‘साइकिल’ कहते है प्यारे पम पम पम …..
री बाबा री बाबा री बाबा
सौ बातों की एक बात यही है
क्या भला तो क्या बूरा कामयाबी मे जिन्दगी है
टूटी फुटी सही चल जाये ठीक है
सच्ची झुठी सही चल जाये ठीक है
आडी चला चला के झुम….
तिरछी चला चला के झुम….
बाजु……
आपकी पसंद की कवितायें भी बहुत अच्छी हैं।