Sunday, December 11, 2005

(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?

http://web.archive.org/web/20110926001836/http://hindini.com/fursatiya/archives/86


Akshargram Anugunj
(भाई विनय जैन हिंदी के शायद सबसे घनघोर पाठक हैं। लेकिन लिखने में आलसी भी उतने अधिक । हमने जब अपनी अनुगूंज की प्रविष्टि उनको पढा़ई तो उन्होने बताया कि लगभग इसी भाव की कविता उन्होंने काफी पहले लिखी थी। अनुरोध पर उन्होंने डायरी खोज कर कविता लिखी। स्वामीजी से अनुरोध है कि इसे विनय जैन की अनुगूंज की पोस्ट के रूप में स्वीकार किया जाये।विनय जैन की टिप्पणी मय कविता के यहां दी जा रही है।)
आपकी कविता देखकर कुछ उल्टी सीधी लाइनें जो मैंने काफ़ी पहले लिखीं थीं याद आ गईं। लिख रहा हूँ। हालाँकि आपके पन्ने पर बहुत जगह ले लूँगा, पर अब मेरा अपना तो कोई घर (’ब्लॉग’ पढ़ें) है नहीं इसलिये, और आपने ज़ोर दिया इसलिये, यहीं लिख रहा हूँ। स्वामी-जी चाहें तो इसे मेरी अनुगूँज समझ लें ।

बड़ा बेकार सा महसूस करता हूँ मैँ अब खुद को
बड़ी बेवजह लगती है मेरी साँसें मेरी धड़कन
ये ऐसा क्यूँ है मेरे साथ जबकि
मैं अभी हूँ नवयुवा
विश्वास और उम्मीद का तो एक समुन्दर चाहिये मुझमें उमड़ना

नहीं ऐसा नहीं कि वो समुन्दर
अब नहीं है मेरे भीतर, अब भी है
खुद में मुझे विश्वास पूरा
अब भी हूँ उम्मीद का दामन मैं पकड़े
मगर कब तक? कि अब जो स्त्रोत है
सागर का वह अवरुद्ध सा होने लगा है।
नदी अब प्रेरणा की सूखती ही जा रही है।
कि देखा करता हूँ जब दौड़ दुनिया की
जो भागी जा रही है, किस तरफ़ पर
जा रही है ये बिना जाने
कि जब ये देखता हूँ, है नहीं मतलब
किसी को दूसरे से, रह गया हर कोई
खुद में ही सिमटकर तो न क्यूँ जाने
बड़ी मुश्किल में पाता हूँ मैं खुद को।
बड़ी बेगानी सी लगती है दुनिया
बड़ा तन्हा-सा पाता हूँ मैं खुद को।
पर नहीं
अब नहीं, और नहीं।
अब मैं ढूँढूँगा नए स्त्रोत और नई नदियाँ
और पैदा करूँगा लहरें उस समुन्दर में
जो कि तेजी से मुर्दा झील बनता जा रहा है।
आखिर
बस यही दुनिया नहीं केवल जो देखा करता हूँ मैं
और भी हैं लोग और संख्या में भी वे कम नहीं हैं
जो कि अब भी दूर हैं नफ़रत, घृणा से
सरलता से जो अभी ऊबे नहीं हैं
स्वार्थ से आगे भी जो हैं देख सकते, सोच सकते
दोस्ती, विश्वास, करुणा
हैं नहीं केवल किताबी शब्द जिनके वास्ते।
लोग ऐसे, जो सफल भी हैं
सफलता के मगर हाँ मायने उनके अलग हैं।
वे ही अब होंगे मेरे मन में औ’ तब होंगे
कि जब-जब पाऊँगा खुद को अकेला
करूँगा महसूस जब बेकार खुद को
लगेगी बेवजह जब-जब ज़िन्दगी ये
हाँ वही होंगे मेरे मन में हमेशा॥
-विनय जैन
(१९९३ में कभी)

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

5 responses to “(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?”

  1. eswami
    वाह! अगर मै गलत नही हूँ तो यह दूसरी कविता है अनुगूंज प्रविष्ठी के रूप में पहली काली ने लिखी थी – “शिक्षा का उद्देश्य” पर.
  2. हिंदिनी »
    [...] िनयजी की टिप्पणी जो बाद मे बाकायदा अनुगूंज प्रविष्टी बनी, धन्यवाद विनय जी ! ए� [...]
  3. अक्षरग्राम  » Blog Archive   » आवलोकन अनुगूंज १६: (अति)आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?
    [...] �जी की टिप्पणी जो बाद मे बाकायदा http://hindini.com/fursatiya/?p=86″>अनुगूंज प्रविष [...]
  4. फ़ुरसतिया » आइडिया जीतू का लेख हमारा
    [...] विनय जैन:- बिना ब्लाग के ब्लागर हैं ये, लिखने को उकसाते रहते हैं, खुद तो बस पढ़कर खुश रहते हैं,सबसे लिखवाते रहते हैं। [...]
  5. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
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