http://web.archive.org/web/20110925160549/http://hindini.com/fursatiya/archives/85
बात आदर्शों की हो रही थी। यह देखा गया है कि आदर्श समय,समाज,परिस्थितियों के अनुसार बदल जाते हैं। लेकिन कुछ आदर्श सार्वभौमिक होते हैं। हर समाज,समय,परिस्थिति में लागू होते हैं। मजे की बात है कि सबसे ज्यादा उल्लंघन सार्वभौमिक आदर्शों का ही होता है। उदाहरण के लिये सच बोलने का आदर्श है।
हर समय,समाज में सच बोलने को आदर्श माना जाता रहा है। लेकिन देखा गया है कि हर समाज में झूठ की भी पताका फहराती रही।
सच बोलना बहुत सीधी सी बात है। जैसा हो वैसा कहो। जैसा कहो वैसा करो। लेकिन सीधे रास्ते पर चलना बहुत कठिन होता जाता है। कठिनाई से बचने के लिये सच के डिजाइनर आदर्श तलाशे जाते हैं।
सदा सच बोलो जब भारी पड़ने लगता है तो सदा सच बोलो की जगह कहा जाता है-
सत्यं ब्रुयात्,प्रियम् ब्रुयात,न ब्रुयात् सत्यंप्रियम्।
(सच बोलो ,प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो।)
इस तरह आधा सच तो मारा गया बेमौत क्योंकि कहा जाता है -सच कड़वा होता है। जो कड़वा होता वह अप्रिय होता है अत: सच बोलने से बचने का एक बहाना मिल गया। प्रिय बोलने की प्राथमिकता ने सच की दुकान बंद कर दी। सच बेचारा क्या करे। वह भटकता है और जाता है रामचरित मानस के सुंदर काण्ड में और खोज के लाता है दोहा-
सचिव,वैद्य,गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस।
राज,धर्म,तन तीनि कर होई बेगहिं नास।।
(मतलब मंत्री,वैद्य और गुरु यदि भय अथवा लालच के कारण प्रिय बोलते हैं तो राज्य,धर्म तथा शरीर का शीघ्रता से नाश हो जाता है।)
‘कड़वा सच’ तथा ‘डिजाइनर सच’ एक दूसरे के खिलाफ खड़े पाये जाते हैं। अक्सर ‘कड़वा सच’, ‘डिजाइनर सच’ से पिट जाता है।
दुनिया के तमाम बुद्धिमान लोग कड़वे सच को डिजाइनर सच में बदलने में लगे रहते हैं।
आप किसी से मिलना चाहते हैं वह मिलना नहीं चाहता। अगर वह उजड्ड होगा तो कहेगा -मैं तेरे चेहरा नहीं देखना चाहता। यह कड़वा सच होगा । शायद इसी कड़वे सच का डिजाइनर सच होगा-मैं भी आपसे मिलने को बहुत उत्सुक हूं लेकिन मुझे डर है कि मैं अगले दो हफ्ते तक मिलने की स्थिति में नहीं हूं। यह समय सीमा भी वह यह पता करके बताता है कि दो हफ्ते बाद आप मिलने की हालत में नहीं होंगे या वह काम खत्म हो चुका होगा जिसके लिये आप मिलना चाहते हैं।
एक बार मेरे हेडआफिस से मुझसे फोनपर कुछ जानकारी मांगी गई।मैंने जो स्थिति थी बता दी। उधर से कहा गया कि लेकिन तुम्हारे महाप्रबंधक तो इसका एकदम उल्टा बता रहे हैं।मैंने कहा- तो फिर आप उन्हीं से पूछ लें। जो सच है मैंने बता दिया। कुछ देर में मेरे महाप्रबंधक फोन पर गरजे- तुमने उनको यह क्यों बताया?
मैंने कहा -उन्होंने पूछा तो मैंने बताया।
वो खीझकर बोले- इतना सच बोलने की क्या जरूरत थी?
मैंने कहा-साहब,आपने यह बताया ही नहीं था कि कितना झूठ बोलना है।
अब इस हालत को क्या कहा जाये? सच की परेड हो रही है। वह बेचारा अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहा है।यही हालततमाम दूसरे आदर्शों की होती है। हर स्थिति के लिये ‘मौलिक आदर्श’ तथा तमाम ‘डिजाइनर आदर्श’ मौजूद होते हैं। आपकी जो प्राथमिकता हो तथा जैसी औकात हो वो चुन लें।
डिजाइनर आदर्श की महिमा इतनी होती है कि वह मौलिक आदर्श के एकदम उलट छाती ठोंककर खेलता है। ‘अमेरिका जी’ देश के देश बरबाद कर देते हैं उनको सभ्य बनाने के लिये। किसी दूसरे देश में लोकतंत्र लाने के लिये वो अलोकतांत्रिक रास्ता अपनाते हैं। भयमुक्त समाज की स्थापना के लिये गुंडागर्दी जरूरी समझते हैं। उनका लोकतंत्र पूरा जोकतंत्र है जो कहता है जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है और दुश्मन को हम सभ्य बना के ही छोड़ेंगे। इनके लिये परसाईजी लिखते थे- वो जब किसी देश में बमवर्षा करते हैं तो लगता है सभ्यता बरस रही है।
मुझे तो लगता है आदर्श पर चलने के लिये संवेदना मुख्य गुण है।जो जितना संवेदनशील होगा वह उतना ही आदर्शों को मौलिक रूप में अपनायेगा। जैसे-जैसे संवेदना का क्षरण होता जायेगा , डिजाइनर आदर्शों के प्रति आग्रह बढ़ता जायेगा। मजबूरी में आदर्शों का पालन न कर पाने पर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होगा।जैसा कि मुक्तिबोध ने लिखा-
“…ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
जीवन क्या जिया!!
अब तक क्या किया?
उदरम्भरि अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात से तन गये,
किसी व्यभिचार के बन गये बिस्तर?”
(पेट भरने के लिये आत्मा की उपेक्षा की तथा (पंच)भूतों की शादी में कनात से सहयोगी बन कर खड़े हो गये। व्यभिचार के बिस्तर बन गये। व्यभिचार का बिस्तर न व्यभिचार करता है न ही उसके साथ व्यभिचार होता है। लेकिन वह व्यभिचार में सहयोगी भूमिका निभाता है।यह संवेदनशील मन का दर्द है।)
किसी एक आदर्श को पालन करने में पिट जाने की का ढिंढोरा पीटकर सारे आदर्शों को गलत ठहराना बचकानापन है। सबसे पहले तो जरूरी है आदर्श की प्रासंगिकता। पुराने जमाने के तमाम आदर्श आज अप्रासंगिक हो गये है क्योंकि देशकाल के अनुसार तथा समाज के भले के लिये उनपर अमल बेवकूफी होगी। सती प्रथा,बालविवाह, अधिक जनसंख्या, छुआछूत,पर्दाप्रथा कभी किसी समाज के आदर्श माने जाते होंगे । आज वे अप्रासंगिक तथा प्रतिगामी हैं।आज उनका रोना रोना बेवकूफी होगी।
अहिंसा के चक्कर में पिटते जाने की बात कहकर यह कहना आदर्श बेकार है-फालतू बात है। अहिंसा का मतलब यह नहीं कि आत्मरक्षा के आदर्श को आप भूल जायें। आदर्शों की भी (+/-)सीमायें होती हैं। उनमें भी समन्वय जरूरी है।
सबसे जरूरी बात है कि आदर्श वही प्रासंगिक होगा जिससे समाज का बड़े पैमाने पर लाभ होता हो।समाज की बेहतरी, उन्नयन, उदात्तीकरण के रास्ते में यदि कोई आदर्श बाधा बनता है तो उस आदर्श में जरूर कोई खोट है।यह किसी भी समाज के किसी भी आदर्श का लिटमस टेस्ट है।
यह सब मैं लिख रहा हूं तो मेरे सामने सामने स्वामीजी का चेहरा नाच रहा है जो कह रहा है-गुरुदेव लफ्फाजी ही करते रहोगे कि कुछ काम की बात भी लिखोगे? काम की बात बोले तो आपको जो आदर्श मिले वे आज कितने सार्थक हैं? तथा आप अपने बच्चों को क्या आदर्श देना चाहोगे? उसके पहले यह सवाल कि आदर्श कितने सही या गलत हैं?
बहुत पहले कालेज के जमाने में जब हम तुकबंदी करने लगे थे तो तत्कालीन फैशन के अनुसार हमने लिखा था:-
संकल्प-
अरगनी पर टंगे कपड़ों की तरह
जो सूखने पर उतार लिये जाते हैं
नये कपड़े फैलाने के लिये।
आदर्श-
छोटे हो चुके कपड़ों की मानिन्द
जो,कभी-कभी पहन लिये जाते हैं
दूसरे कपड़े गीले होने पर।
पुरुषार्थ-
एक शब्द,
जो कभी-कभी शब्दकोष में दिखाई देता है।
अभिव्यक्ति -
हर परेशानी,हर शिकायत
जो सिर्फ अपने (स्व के)दायरे में कैद है।
यह तुकबंदी २१ साल पहले की है । समय के साथ समाज के हालात बदतर होते गये हैं। लेकिन मेरा विश्वास इसके खिलाफ होता गया है।
मुझे लगता है आदर्शों की हमेशा जरूरत रही है। रहेगी। आज समाज में डिजाइनर सच का चलन बढ़ गया है लेकिन आज भी आपको वही आदमी पसंद आता है जिसके कुछ आदर्श हों। दूसरों से झूठ बोलने वाला बास भी बास से सच बोलने वाला अधीनस्थ चाहता है।
समाज में जटिलतायें बढ़ रही हैं। व्यवहार में दोहरापन बढ़ रहा है। मुसीबत में फंसा आदमी सोचता है कि कोई उसे बचा ले। लेकिन लोग खुद किसी पचडे़ में पड़ने से बचता है। जान जोखिम में डाल कर सहायता करने वाले अब बेवकूफों में गिने जाते हैं। यह सुविधावादी सोच है।लोग चाहते हैं कि अच्छाइयां बनी रहें लेकिन इसके लिये पसीना न बहाना पड़े।
मुझे अपने बुजुर्गों से क्या आदर्श मिले कहना मुश्किल है। क्योंकि कुछ हिसाब-किताब नहीं रखा गया कि कितना मैंने बुजुर्गों से लिया,कितना समाज से कितना दोस्तों से कितना साहित्य से। लेकिन माना जाये कि जो भी हैं वह सब समाज से लिया किसी न किसी रूप में बुजुर्गों से लिया।
अपने पिताजी से मुझे हर हाल में मस्त रहने का संस्कार मिला। दम बनी रहे घर चूता है तो चूने दो वाला भाव। सहज उदारता तथा लापरवाही का भाव विरासत में मिला। माताजी घर में कुछ बनाती तो वे मोहल्ले भर में गा आते देख बे जाके तुम्हारि चाची ने कुछ बनाया है। जाओ नहीं तो दूसरे खा जायेंगे। इसके अलावा अपने सुख को स्थगित करके दूसरों का सुख तलासने का प्रयास जिसमें आदर्श निभाने कायम करने का भाव मुख्य रहता ताकि कोई कुछ कह न सके।
हमारे गुरु से हमें यह संस्कार मिला कि मेहनत और लगन हर कमी को पूरा कर सकती हैं। साधारण पर असाधारण विश्वास था उन्हें। उन्होंने हममें यह आत्मविश्वास दिया कि दुनिया में जो काम कोई दूसरा कर सकता है वह मैं भी कर सकता हूं। जरूरत सिर्फ मेहनत तथा लगन की है। साथ के परिवेश तथा बाद में साहित्य ने सहजता तथा संवेदनशीलता का भाव दिया।
यह संयोग ही रहा कि बचपन के कुछ स्वाभाविक अभावों के अलावा मुझे ऐसे किसी किन्ही संघर्षों से नहीं जूझना पड़ा जिसका मैं बखान कर सकूं। जितना काबिल मैं हूं उससे कई गुना अधिक काबिल लोग मुझसे खराब जीवन यापन को बाध्य हैं। कोई ऐसा अभाव नहीं जिसका मैं रोना रो सकूं। इसलिये मेरा अपने आदर्शों पर विश्वास कमोबेस बना हुआ है।
यह जरूर है कि कुछ मात्रात्मक अंतर जरूर आया हो लेकिन उसका कारण आदर्शों का अप्रासंगिक हो जाना नहीं है हमारी क्षमताओं में कुछ कमी होना है।
अपने बच्चों को क्या आदर्श देना चाहूंगा? यह बताना बड़ा मुश्किल है। और फिर मेरे चाहने से ही वे आदर्श ग्रहण कर लेंगे यह भी सच नहीं है। तमाम तत्व होते हैं जो प्रभाव डालते हैं। फिर भी कुछ संस्कारों को मैं अपने बच्चों में देखना चाहता हूं।
मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चों का अच्छाईयों पर भरोसा बना रहे। मेहनत तथा लगन पर भरोसा बना रहे। वे सहज बने रहें। उनमेंपरदुखकातरता बनी रहे। आत्मविश्वास से लबलबाते रहें। वे टुच्चे स्वार्थों के चक्कर से बचे रहे। इसके अलावा वे जो भी करें वह समाज के लिये सुखकर हों। और सब वे खुशी-खुशी कर सकें।वे सही को सही और गलत को गलत कह सकें। भले ही उनको बकौल वाली असी कहना पड़े- चिरागों को जलाने में जला लीं उंगलिया हमने।
यह सब बातें कमोवेश आदर्शवादी ही हैं। शायद इसलिये भी कि मेरा आदर्शों से मोहभंग अभी नहीं हुआ है। हमारे चारो तरफ बहुत से लोग हैं जो कि बहुत खराब हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी अच्छाइयां मेरे लिये ईष्या तथा चुनौती का विषय हैं कि वैसा बनकर दिखाओ तो जानें। यह संयोग है कि मेरे लिये अभी भी अच्छाइयां तथा आदर्श ज्यादा बड़े आकर्षण हैं।
लब्बोलुआबन मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे विचार में आदर्शवादी संस्कार आज भी सही हैं आगे भी रहेंगे। लेकिन आदर्श वही अनुकरणीय हैं जो समाज की बेहतरी के लिये हों। लिटमस टेस्ट में पास हों।
मेरी पसन्द
मैं
एक दौड़ में शामिल हूं,
-तमाम भीड़ के साथ
मेरे चारो तरफ लोगों का भागता हुजूम है
मैं कहां हूं ,कुछ पता नहीं
क्योंकि भीड़ को
भेद पाने वाली नज़र अभी पायी नहीं.
लोगों का पता नहीं-
कमोवेश मेरे लिये यह दौड़ अन्धी नहीं।
लोग एक दूसरे को धकियाते,बतियाते
गिरे हुये को लतियाते
इस अंतहीन दौड़ में शामिल हैं।
मैं भी दौड़ता हूं-
कभी निर्लिप्त भाव से,
कभी लिप्त होकर
कभी गिरे हुये को बचाकर
कभी पैतरा बदलकर
आगे वाले को गिराकर ।
इससे अलग,
मैं अपनी प्रज्ञा (बुद्धि)को
अपने से,भीड़ से भी
ऊंचा उठाने की कोशिश में हूं
ताकि मुझे पता चल सके कि
भीड़ की इस अंधी दौड़ में मैं कहां हूं?
-अनूप शुक्ला,इलाहाबाद।
०१.०४.८५
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
बात आदर्शों की हो रही थी। यह देखा गया है कि आदर्श समय,समाज,परिस्थितियों के अनुसार बदल जाते हैं। लेकिन कुछ आदर्श सार्वभौमिक होते हैं। हर समाज,समय,परिस्थिति में लागू होते हैं। मजे की बात है कि सबसे ज्यादा उल्लंघन सार्वभौमिक आदर्शों का ही होता है। उदाहरण के लिये सच बोलने का आदर्श है।
हर समय,समाज में सच बोलने को आदर्श माना जाता रहा है। लेकिन देखा गया है कि हर समाज में झूठ की भी पताका फहराती रही।
सच बोलना बहुत सीधी सी बात है। जैसा हो वैसा कहो। जैसा कहो वैसा करो। लेकिन सीधे रास्ते पर चलना बहुत कठिन होता जाता है। कठिनाई से बचने के लिये सच के डिजाइनर आदर्श तलाशे जाते हैं।
सदा सच बोलो जब भारी पड़ने लगता है तो सदा सच बोलो की जगह कहा जाता है-
सत्यं ब्रुयात्,प्रियम् ब्रुयात,न ब्रुयात् सत्यंप्रियम्।
(सच बोलो ,प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो।)
इस तरह आधा सच तो मारा गया बेमौत क्योंकि कहा जाता है -सच कड़वा होता है। जो कड़वा होता वह अप्रिय होता है अत: सच बोलने से बचने का एक बहाना मिल गया। प्रिय बोलने की प्राथमिकता ने सच की दुकान बंद कर दी। सच बेचारा क्या करे। वह भटकता है और जाता है रामचरित मानस के सुंदर काण्ड में और खोज के लाता है दोहा-
सचिव,वैद्य,गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस।
राज,धर्म,तन तीनि कर होई बेगहिं नास।।
(मतलब मंत्री,वैद्य और गुरु यदि भय अथवा लालच के कारण प्रिय बोलते हैं तो राज्य,धर्म तथा शरीर का शीघ्रता से नाश हो जाता है।)
‘कड़वा सच’ तथा ‘डिजाइनर सच’ एक दूसरे के खिलाफ खड़े पाये जाते हैं। अक्सर ‘कड़वा सच’, ‘डिजाइनर सच’ से पिट जाता है।
दुनिया के तमाम बुद्धिमान लोग कड़वे सच को डिजाइनर सच में बदलने में लगे रहते हैं।
आप किसी से मिलना चाहते हैं वह मिलना नहीं चाहता। अगर वह उजड्ड होगा तो कहेगा -मैं तेरे चेहरा नहीं देखना चाहता। यह कड़वा सच होगा । शायद इसी कड़वे सच का डिजाइनर सच होगा-मैं भी आपसे मिलने को बहुत उत्सुक हूं लेकिन मुझे डर है कि मैं अगले दो हफ्ते तक मिलने की स्थिति में नहीं हूं। यह समय सीमा भी वह यह पता करके बताता है कि दो हफ्ते बाद आप मिलने की हालत में नहीं होंगे या वह काम खत्म हो चुका होगा जिसके लिये आप मिलना चाहते हैं।
एक बार मेरे हेडआफिस से मुझसे फोनपर कुछ जानकारी मांगी गई।मैंने जो स्थिति थी बता दी। उधर से कहा गया कि लेकिन तुम्हारे महाप्रबंधक तो इसका एकदम उल्टा बता रहे हैं।मैंने कहा- तो फिर आप उन्हीं से पूछ लें। जो सच है मैंने बता दिया। कुछ देर में मेरे महाप्रबंधक फोन पर गरजे- तुमने उनको यह क्यों बताया?
मैंने कहा -उन्होंने पूछा तो मैंने बताया।
वो खीझकर बोले- इतना सच बोलने की क्या जरूरत थी?
मैंने कहा-साहब,आपने यह बताया ही नहीं था कि कितना झूठ बोलना है।
अब इस हालत को क्या कहा जाये? सच की परेड हो रही है। वह बेचारा अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहा है।यही हालततमाम दूसरे आदर्शों की होती है। हर स्थिति के लिये ‘मौलिक आदर्श’ तथा तमाम ‘डिजाइनर आदर्श’ मौजूद होते हैं। आपकी जो प्राथमिकता हो तथा जैसी औकात हो वो चुन लें।
डिजाइनर आदर्श की महिमा इतनी होती है कि वह मौलिक आदर्श के एकदम उलट छाती ठोंककर खेलता है। ‘अमेरिका जी’ देश के देश बरबाद कर देते हैं उनको सभ्य बनाने के लिये। किसी दूसरे देश में लोकतंत्र लाने के लिये वो अलोकतांत्रिक रास्ता अपनाते हैं। भयमुक्त समाज की स्थापना के लिये गुंडागर्दी जरूरी समझते हैं। उनका लोकतंत्र पूरा जोकतंत्र है जो कहता है जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है और दुश्मन को हम सभ्य बना के ही छोड़ेंगे। इनके लिये परसाईजी लिखते थे- वो जब किसी देश में बमवर्षा करते हैं तो लगता है सभ्यता बरस रही है।
मुझे तो लगता है आदर्श पर चलने के लिये संवेदना मुख्य गुण है।जो जितना संवेदनशील होगा वह उतना ही आदर्शों को मौलिक रूप में अपनायेगा। जैसे-जैसे संवेदना का क्षरण होता जायेगा , डिजाइनर आदर्शों के प्रति आग्रह बढ़ता जायेगा। मजबूरी में आदर्शों का पालन न कर पाने पर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होगा।जैसा कि मुक्तिबोध ने लिखा-
“…ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
जीवन क्या जिया!!
अब तक क्या किया?
उदरम्भरि अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात से तन गये,
किसी व्यभिचार के बन गये बिस्तर?”
(पेट भरने के लिये आत्मा की उपेक्षा की तथा (पंच)भूतों की शादी में कनात से सहयोगी बन कर खड़े हो गये। व्यभिचार के बिस्तर बन गये। व्यभिचार का बिस्तर न व्यभिचार करता है न ही उसके साथ व्यभिचार होता है। लेकिन वह व्यभिचार में सहयोगी भूमिका निभाता है।यह संवेदनशील मन का दर्द है।)
किसी एक आदर्श को पालन करने में पिट जाने की का ढिंढोरा पीटकर सारे आदर्शों को गलत ठहराना बचकानापन है। सबसे पहले तो जरूरी है आदर्श की प्रासंगिकता। पुराने जमाने के तमाम आदर्श आज अप्रासंगिक हो गये है क्योंकि देशकाल के अनुसार तथा समाज के भले के लिये उनपर अमल बेवकूफी होगी। सती प्रथा,बालविवाह, अधिक जनसंख्या, छुआछूत,पर्दाप्रथा कभी किसी समाज के आदर्श माने जाते होंगे । आज वे अप्रासंगिक तथा प्रतिगामी हैं।आज उनका रोना रोना बेवकूफी होगी।
अहिंसा के चक्कर में पिटते जाने की बात कहकर यह कहना आदर्श बेकार है-फालतू बात है। अहिंसा का मतलब यह नहीं कि आत्मरक्षा के आदर्श को आप भूल जायें। आदर्शों की भी (+/-)सीमायें होती हैं। उनमें भी समन्वय जरूरी है।
सबसे जरूरी बात है कि आदर्श वही प्रासंगिक होगा जिससे समाज का बड़े पैमाने पर लाभ होता हो।समाज की बेहतरी, उन्नयन, उदात्तीकरण के रास्ते में यदि कोई आदर्श बाधा बनता है तो उस आदर्श में जरूर कोई खोट है।यह किसी भी समाज के किसी भी आदर्श का लिटमस टेस्ट है।
यह सब मैं लिख रहा हूं तो मेरे सामने सामने स्वामीजी का चेहरा नाच रहा है जो कह रहा है-गुरुदेव लफ्फाजी ही करते रहोगे कि कुछ काम की बात भी लिखोगे? काम की बात बोले तो आपको जो आदर्श मिले वे आज कितने सार्थक हैं? तथा आप अपने बच्चों को क्या आदर्श देना चाहोगे? उसके पहले यह सवाल कि आदर्श कितने सही या गलत हैं?
बहुत पहले कालेज के जमाने में जब हम तुकबंदी करने लगे थे तो तत्कालीन फैशन के अनुसार हमने लिखा था:-
संकल्प-
अरगनी पर टंगे कपड़ों की तरह
जो सूखने पर उतार लिये जाते हैं
नये कपड़े फैलाने के लिये।
आदर्श-
छोटे हो चुके कपड़ों की मानिन्द
जो,कभी-कभी पहन लिये जाते हैं
दूसरे कपड़े गीले होने पर।
पुरुषार्थ-
एक शब्द,
जो कभी-कभी शब्दकोष में दिखाई देता है।
अभिव्यक्ति -
हर परेशानी,हर शिकायत
जो सिर्फ अपने (स्व के)दायरे में कैद है।
यह तुकबंदी २१ साल पहले की है । समय के साथ समाज के हालात बदतर होते गये हैं। लेकिन मेरा विश्वास इसके खिलाफ होता गया है।
मुझे लगता है आदर्शों की हमेशा जरूरत रही है। रहेगी। आज समाज में डिजाइनर सच का चलन बढ़ गया है लेकिन आज भी आपको वही आदमी पसंद आता है जिसके कुछ आदर्श हों। दूसरों से झूठ बोलने वाला बास भी बास से सच बोलने वाला अधीनस्थ चाहता है।
समाज में जटिलतायें बढ़ रही हैं। व्यवहार में दोहरापन बढ़ रहा है। मुसीबत में फंसा आदमी सोचता है कि कोई उसे बचा ले। लेकिन लोग खुद किसी पचडे़ में पड़ने से बचता है। जान जोखिम में डाल कर सहायता करने वाले अब बेवकूफों में गिने जाते हैं। यह सुविधावादी सोच है।लोग चाहते हैं कि अच्छाइयां बनी रहें लेकिन इसके लिये पसीना न बहाना पड़े।
मुझे अपने बुजुर्गों से क्या आदर्श मिले कहना मुश्किल है। क्योंकि कुछ हिसाब-किताब नहीं रखा गया कि कितना मैंने बुजुर्गों से लिया,कितना समाज से कितना दोस्तों से कितना साहित्य से। लेकिन माना जाये कि जो भी हैं वह सब समाज से लिया किसी न किसी रूप में बुजुर्गों से लिया।
अपने पिताजी से मुझे हर हाल में मस्त रहने का संस्कार मिला। दम बनी रहे घर चूता है तो चूने दो वाला भाव। सहज उदारता तथा लापरवाही का भाव विरासत में मिला। माताजी घर में कुछ बनाती तो वे मोहल्ले भर में गा आते देख बे जाके तुम्हारि चाची ने कुछ बनाया है। जाओ नहीं तो दूसरे खा जायेंगे। इसके अलावा अपने सुख को स्थगित करके दूसरों का सुख तलासने का प्रयास जिसमें आदर्श निभाने कायम करने का भाव मुख्य रहता ताकि कोई कुछ कह न सके।
हमारे गुरु से हमें यह संस्कार मिला कि मेहनत और लगन हर कमी को पूरा कर सकती हैं। साधारण पर असाधारण विश्वास था उन्हें। उन्होंने हममें यह आत्मविश्वास दिया कि दुनिया में जो काम कोई दूसरा कर सकता है वह मैं भी कर सकता हूं। जरूरत सिर्फ मेहनत तथा लगन की है। साथ के परिवेश तथा बाद में साहित्य ने सहजता तथा संवेदनशीलता का भाव दिया।
यह संयोग ही रहा कि बचपन के कुछ स्वाभाविक अभावों के अलावा मुझे ऐसे किसी किन्ही संघर्षों से नहीं जूझना पड़ा जिसका मैं बखान कर सकूं। जितना काबिल मैं हूं उससे कई गुना अधिक काबिल लोग मुझसे खराब जीवन यापन को बाध्य हैं। कोई ऐसा अभाव नहीं जिसका मैं रोना रो सकूं। इसलिये मेरा अपने आदर्शों पर विश्वास कमोबेस बना हुआ है।
यह जरूर है कि कुछ मात्रात्मक अंतर जरूर आया हो लेकिन उसका कारण आदर्शों का अप्रासंगिक हो जाना नहीं है हमारी क्षमताओं में कुछ कमी होना है।
अपने बच्चों को क्या आदर्श देना चाहूंगा? यह बताना बड़ा मुश्किल है। और फिर मेरे चाहने से ही वे आदर्श ग्रहण कर लेंगे यह भी सच नहीं है। तमाम तत्व होते हैं जो प्रभाव डालते हैं। फिर भी कुछ संस्कारों को मैं अपने बच्चों में देखना चाहता हूं।
मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चों का अच्छाईयों पर भरोसा बना रहे। मेहनत तथा लगन पर भरोसा बना रहे। वे सहज बने रहें। उनमेंपरदुखकातरता बनी रहे। आत्मविश्वास से लबलबाते रहें। वे टुच्चे स्वार्थों के चक्कर से बचे रहे। इसके अलावा वे जो भी करें वह समाज के लिये सुखकर हों। और सब वे खुशी-खुशी कर सकें।वे सही को सही और गलत को गलत कह सकें। भले ही उनको बकौल वाली असी कहना पड़े- चिरागों को जलाने में जला लीं उंगलिया हमने।
यह सब बातें कमोवेश आदर्शवादी ही हैं। शायद इसलिये भी कि मेरा आदर्शों से मोहभंग अभी नहीं हुआ है। हमारे चारो तरफ बहुत से लोग हैं जो कि बहुत खराब हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी अच्छाइयां मेरे लिये ईष्या तथा चुनौती का विषय हैं कि वैसा बनकर दिखाओ तो जानें। यह संयोग है कि मेरे लिये अभी भी अच्छाइयां तथा आदर्श ज्यादा बड़े आकर्षण हैं।
लब्बोलुआबन मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे विचार में आदर्शवादी संस्कार आज भी सही हैं आगे भी रहेंगे। लेकिन आदर्श वही अनुकरणीय हैं जो समाज की बेहतरी के लिये हों। लिटमस टेस्ट में पास हों।
मेरी पसन्द
मैं
एक दौड़ में शामिल हूं,
-तमाम भीड़ के साथ
मेरे चारो तरफ लोगों का भागता हुजूम है
मैं कहां हूं ,कुछ पता नहीं
क्योंकि भीड़ को
भेद पाने वाली नज़र अभी पायी नहीं.
लोगों का पता नहीं-
कमोवेश मेरे लिये यह दौड़ अन्धी नहीं।
लोग एक दूसरे को धकियाते,बतियाते
गिरे हुये को लतियाते
इस अंतहीन दौड़ में शामिल हैं।
मैं भी दौड़ता हूं-
कभी निर्लिप्त भाव से,
कभी लिप्त होकर
कभी गिरे हुये को बचाकर
कभी पैतरा बदलकर
आगे वाले को गिराकर ।
इससे अलग,
मैं अपनी प्रज्ञा (बुद्धि)को
अपने से,भीड़ से भी
ऊंचा उठाने की कोशिश में हूं
ताकि मुझे पता चल सके कि
भीड़ की इस अंधी दौड़ में मैं कहां हूं?
-अनूप शुक्ला,इलाहाबाद।
०१.०४.८५
Posted in अनुगूंज | 7 Responses
अच्छा लिखा है यह कहना तो अब गैरज़रूरी लगता है आपके लेखों के बारे में। हाँ यह ज़रूर कहूँगा कि आपकी बात से मेरी सहमति है।
आपकी कविता देखकर कुछ उल्टी सीधी लाइनें जो मैंने काफ़ी पहले लिखीं थीं याद आ गईं। लिख रहा हूँ। हालाँकि आपके पन्ने पर बहुत जगह ले लूँगा, पर अब मेरा अपना तो कोई घर (‘ब्लॉग’ पढ़ें) है नहीं इसलिये, और आपने ज़ोर दिया इसलिये, यहीं लिख रहा हूँ। स्वामी-जी चाहें तो इसे मेरी अनुगूँज समझ लें ।
—
बड़ा बेकार सा महसूस करता हूँ मैँ अब खुद को
बड़ी बेवजह लगती है मेरी साँसें मेरी धड़कन
ये ऐसा क्यूँ है मेरे साथ जबकि
मैं अभी हूँ नवयुवा
विश्वास और उम्मीद का तो एक समुन्दर चाहिये मुझमें उमड़ना
नहीं ऐसा नहीं कि वो समुन्दर
अब नहीं है मेरे भीतर, अब भी है
खुद में मुझे विश्वास पूरा
अब भी हूँ उम्मीद का दामन मैं पकड़े
मगर कब तक? कि अब जो स्त्रोत है
सागर का वह अवरुद्ध सा होने लगा है।
नदी अब प्रेरणा की सूखती ही जा रही है।
कि देखा करता हूँ जब दौड़ दुनिया की
जो भागी जा रही है, किस तरफ़ पर
जा रही है ये बिना जाने
कि जब ये देखता हूँ, है नहीं मतलब
किसी को दूसरे से, रह गया हर कोई
खुद में ही सिमटकर तो न क्यूँ जाने
बड़ी मुश्किल में पाता हूँ मैं खुद को।
बड़ी बेगानी सी लगती है दुनिया
बड़ा तन्हा-सा पाता हूँ मैं खुद को।
पर नहीं
अब नहीं, और नहीं।
अब मैं ढूँढूँगा नए स्त्रोत और नई नदियाँ
और पैदा करूँगा लहरें उस समुन्दर में
जो कि तेजी से मुर्दा झील बनता जा रहा है।
आखिर
बस यही दुनिया नहीं केवल जो देखा करता हूँ मैं
और भी हैं लोग और संख्या में भी वे कम नहीं हैं
जो कि अब भी दूर हैं नफ़रत, घृणा से
सरलता से जो अभी ऊबे नहीं हैं
स्वार्थ से आगे भी जो हैं देख सकते, सोच सकते
दोस्ती, विश्वास, करुणा
हैं नहीं केवल किताबी शब्द जिनके वास्ते।
लोग ऐसे, जो सफल भी हैं
सफलता के मगर हाँ मायने उनके अलग हैं।
वे ही अब होंगे मेरे मन में औ’ तब होंगे
कि जब-जब पाऊँगा खुद को अकेला
करूँगा महसूस जब बेकार खुद को
लगेगी बेवजह जब-जब ज़िन्दगी ये
हाँ वही होंगे मेरे मन में हमेशा॥
(१९९३ में कभी)
अक्षरशः सत्य वचन कहे है आपने , आज भी कुछ लोग है जिनके बारे में कहा जा सकता है कि,
“कभी गुलशन, कभी वादी, कभी वीराने में,
भटक भटक के, यूँ ही उम्र काट देता है |
मौसमी फूलों से, खुशबू उधार ले लेकर
अजीब शख्स है, बच्चों में बाँट देता है ||”
—आशीष श्रीवास्तव