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सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है
By फ़ुरसतिया on March 12, 2008
हार गया हाकी में भारत। बुरी तरह!
लोग हल्ला मचा रहे हैं। दुख में बावरे हैं। हाय-हाय मची है।
हमारे मन ने कहा हमें भी दुखी होना चाहिये। दस्तूर है। सबके साथ चलना चाहिये। न चलेंगे तो कोई चिरकुट सा बहादुर आयेगा और मठाधीश कह के भाग जायेगा।
कहेगा देश दुखी है और इनको ठेलुहई सूझ रही है।
सो देश की बात सोच के दुखी हो रहे हैं।
अकेला दुख बहुत बोरिंग होता है सो थोड़ा चिंतन भी कर लेतें हैं। न, न, आप चितिंत न हों! हलकान न हों। हम आराम से हैं। स्वस्थ चिंतन करेंगे। संभलिये, हमारा चिंतन शुरू होता है अब!
हाकी हमारा राष्ट्रीय खेल है।
हमारी राष्ट्रीय परम्परा है कि अपने यहां जो राष्ट्र से जुड़ जाता है, चौपट हो जाता है।
राष्ट्रपिता से लेकर राष्ट्रगान से होते हुये राष्टीय पक्षी, पशु किसी के हाल देख लीजिये सब बेहाल हैं।
मोर केवल कविताओं में सुरक्षित हैं, शेर अभयारण्यों में नहीं बचे, जन-गन-मन को कोई भी बेसुरा कर देता है, तिरंगे को हीरोइनें ‘ब्यूटी कास्ट्यूम’ की जब-तब ओढ बिछा लेती हैं। गांधीजी का तो हाल और बेहाल है। वे हंसने-हंसाने के वायस बन गये हैं। हिट चुटकुला बना दिया है हमने उनको।
हाकी का भी यही हाल हुआ! होना ही था। पोयटिक जस्टिस है जी यह!
जो राष्ट्रीय बनेगा, दुर्गति को प्राप्त होगा।
लेकिन हमें दुखी नहीं होना चाहिये। इसके धनात्मक पक्ष को देखना चाहिये और विचार करना चाहिये कि इस अवसर का कैसे सार्थक उपयोग किया जा सकता है।
हाकीं में हम हारे और ऐसा हारे जैसा कि अस्सी साल में नहीं हारे। हाकी की हालत बहादुरशाह जफ़र की तरह हो गयी। जहां राज करती थी वहां दो गज जमीन न मिली। सालों जीतते रहे जहां अब वहां खेलने के लिये तरस गये।
लेकिन आप यह भी तो कि अब अगले अस्सी साल तो कोई न पूछेगा! मौज से हारते रहो, कोई रिकार्ड तो टूटने से रहा।
यह घटना उदाहरण पेश करती है कि कैसे जब सारी दुनिया इस्तीफ़ा मांग रही हो, साथी लो इस्तीफ़ा फ़ेंक कर मुंह छिपा रहे हों तो गिल साहब बहादुरी से डटे हैं। कह रहे हैं हम तो न हटेंगे। हाकी का दम निकाल करके ही दम लेंगे। धारा के विपरीत चलने के अनुकरणीय साहस का मुजाहिरा होता है इस घटना से। हारते नहीं तो कैसे दिखता यह नजारा।
लोग इसी बहाने देश की नीतियां बनाने वालों को एक कोसनी लात और लगा सकते हैं-राष्ट्रीय खेल के चयन में भारी भूल हुई। खराब नींव पर बुलंद इमारत कैसे बन सकती है! हमारा राष्ट्रीय खेल क्रिकेट होना चाहिये, कबड्डी होना चाहिये। खो-खो होना चाहिये। कुछ भी लेकिन हाकी न हो।
व्यंग्य लेखक कहेंगे- हमारा राष्ट्रीय खेल नेतागिरी हो, घपलेबाजी, लफ़्फ़ाजी हो। और कुछ न हो तो कम से कम चुटकुले बाजी ही हो जाये।
अगड़म-बगड़म लेखक किसी टापर का लेख चुरा के छापेंगे- हाकी एक खेल है। इसके खिलाड़ी गरीब होते हैं। हाफ़-पैंट पहन के खेलते हैं। कम पैसे में गुजारा करते हैं। राष्ट्रीय खेल से जुड़े होने की बदनामी के चलते उनको कोई प्रायोजक नहीं मिलता। न कोई विज्ञापन मिलता है। उनके निकालने-रखने पर कोई हो-हल्ला नहीं होता। हाकी खिलाडियों की हालत इत्ती गयी गुजरी होती है कि उनकी चाहने वालियों तक का कोई ‘ट्रैक रिकार्ड’ नहीं रखता। किसी को पता नहीं चलता कि कौन प्रेमिका उनके जन्मदिन की पार्टी में शरीक रही। दो दिन बाद दूसरे के साथ टहलती दिखी।
इसका एक स्थाई अध्यक्ष और तमाम अस्थायी अधिकारी और उससे भी ज्यादा अस्थायी खिलाड़ी होते हैं। धनराज जैसे खिलाड़ी पिल्ले की तरह बाहर कर दिये जाते हैं। चूंकि खेल राष्ट्रीय है इसलिये इनके खिलाडियों के बारे में जानकारी नहीं रखते लोग। लोगों में इस बारे में अक्सर मतभेद हो जाता है कि कैप्टन अजीतपाल सिंह हैं या असलम शेर खान! हार की खबर पता चलते ही एक देश भक्त ने चिल्ला कर कहा- ई ससुरे जफ़र इकबाल को कान पकड़कर बाहर कर देना चाहिये। कोच के लिये शाहरुख खान को अन्दर धंसा देना चाहिये।
उनको नहीं पता कि शाहरुख खान आजकल क्रिकेट बेंच रहे हैं। सब बेंच लेंगे तब हाकी पर हाथ साफ़ करेंगे। तब तक हाकी अपने आप साफ़ हो जायेगी।
आशावादी कह रहे हैं- ये तूफ़ान के पहले का सन्नाटा है। अब हमें जीतने से कोई माई का लाल रोक नहीं सकता। देक्खो क्रिकेट में विश्वकप में बाहर हुये सो अब सबको हरा दे रहे हैं। ऐसे ही अब हाकी में होने वाला है। जो हमसे टकरायेगा-चूर-चूर हो जायेगा। हम सबको हरा देंगे चाहे वो चिली हो, चाहे घाना, चाहे युगांडा। हम सबको हरा देंगे। बाकी को हराने के बारे में भी विचार करने से अब हमको कोई रोक नहीं सकता।
हमसे अगर पूछो तो हम तो यही कहेंगे- सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है।
मेरी पसंद
हम जहाँ हैं,
वहीं सॆ ,आगॆ बढॆंगॆ।
वहीं सॆ ,आगॆ बढॆंगॆ।
हैं अगर यदि भीड़ मॆं भी , हम खड़ॆ तॊ,
है यकीं कि, हम नहीं ,
पीछॆ हटॆंगॆ।
है यकीं कि, हम नहीं ,
पीछॆ हटॆंगॆ।
दॆश कॆ , बंजर समय कॆ , बाँझपन मॆं,
या कि , अपनी लालसाओं कॆ,
अंधॆरॆ सघन वन मॆं ,
पंथ , खुद अपना चुनॆंगॆ ।
या कि , अपनी लालसाओं कॆ,
अंधॆरॆ सघन वन मॆं ,
पंथ , खुद अपना चुनॆंगॆ ।
और यदि हम हैं,
परिस्थितियॊं की तलहटी मॆं,
तॊ ,
वहीं सॆ , बादलॊं कॆ रूप मॆं , ऊपर उठॆंगॆ।
परिस्थितियॊं की तलहटी मॆं,
तॊ ,
वहीं सॆ , बादलॊं कॆ रूप मॆं , ऊपर उठॆंगॆ।
Posted in बस यूं ही | 12 Responses
बात क्या है
हमारी ब्लॉगिंग भी “हाकिया” गयी है।
कभी-कभी लगता है कोई जानवर हमारा सिर अपने मुंह में लेकर सवालिया नज़रों से हमें देखेगा और हम हारे हुए हें हें करेंगे- चबाना चाहते हैं, जानवरजी? प्रेम से चबाइये, बस ख्याल रखियेगा, आपका कोई नुकसान न हो..
एक अच्छे लेख के लिये बधाई …..