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मुन्नी पोस्ट के बहाने फ़ुरसतिया पोस्ट
By फ़ुरसतिया on March 29, 2008
ये फुरसतिया को किस की नजर लग गयी. फुरसतिया टाइप पोस्ट के जगह यह मुन्नी पोस्ट. यह ज्ञान जी के सत्संग का नतीजा तो नहीं कि अब आप भी राखी, मल्लिका के चक्कर में लग गये. हमें शक है आप पर. निवारण करें.
अब इस बात का क्या खुलासा करें। ज्ञानजी की देखा देखी ही ये मुन्नी पोस्टें लिखने का मन कर जाता है वर्ना फ़ुरसतिया टाइप पोस्टें तो फ़ुरसत ही लिखी जा सकेंगी।
ज्ञानजी ने भी कल टिपियाते हुयेलिखा -
कबाड़खाने में तो ये दो मोती निकले जो आपने उद्धृत किये हैं। पढ़ कर जोश आ गया। बस “फक्कड़ी कैसे लायें अपने में” – इस पर एक पोस्ट ठेल दीजिये अगर पहले न ठेली हो तो। लिंक का इंतजार रहेगा।कन्हैयालाल नन्दन जी के विषय में बम्बई वालों के लिखे की प्रतीक्षा करते हैं!
मुम्बई वाले नंदनजी के बारे में क्या लिखेंगे यह तो वही जाने लेकिन हम ज्ञानरंजन जी के बारे में कुछ और लिखते हैं। पिछ्ले दो तीन दिन से मैं उनके लेखों का संकलन कबाड़खाना पढ़ रहा हूं। आज के समय के सबसे बेहतरीन गद्य लिखने वालों में ज्ञानरंजन जी एक हैं। उन्होंने कबाड़खाना में अपना एक निजी खत भी शामिल किया है। यह खत उन्होंने अपने मित्र , कथाकार काशीनाथ सिंह को लिखा था। पत्र से पता चलता है कि काशीनाथ सिंह के लिखे से रवीन्द्र कालिया को कुछ खराब लगा होगा। ज्ञानजी ने काशीनाथ को लिखे पत्र में लिखा-
मैंने पहले लम्बे पत्र की कापी नहीं रखी थी। आमतौर पर मैं कापी नहीं रखता। पता नहीं कितने प्यार में वह सब लिखा था। आज जबलपुर दूधनाथ आया हुआ है। उससे कोई बात नहीं हुई पर मेरा मन भर आया रात से। तुम कालिया को और जानो समझो। ऐसे मित्र अब हमें क्या किसी को नहीं मिलेंगे। यह नई पीढ़ी ऐसा सौभाग्य नहीं रखती। तुम तो थे नहीं कटनी में, पहल गोष्ठी में , अनेकानेक लेखक यही कह रहे थे कि आप जैसे मित्रों के आदर्श का यह हश्र, हम इसके लिये तैयार नहीं हैं। वही मुक्तिबोध के शिष्य मलय, और दानी , इन्द्रमणि, सुबोध , महेश कटारे , मंडलोई , हरि भटनागर सब दुखी थे। आत्म स्वीकार और खेद और क्षम्य भाव से हम सब निखर जायेंगे। दुख छंट जायेगा और सब ठीक हो जायेगा राजाजी। तुम हंस में एक खेदपत्र लिखकर मजा लेने वालों का मुंह बंद कर दो, जिनमें हंस के सम्पादक सर्वोपरि हैं। ऐसा अगर मुमकिन नहीं लगता तो कालिया को पत्र में सब कुछ लिख सकते हो। मेरा कोई दबाब नहीं है। यह मेरी समझ है।
बाद में पता नहीं क्या हुआ इस मामले में ( इसी पत्र के नीचे नोट दिया है- अब यह पत्र बेनामी हो गया है, सब कुछ ठीक हो जाने के बाद) लेकिन एक आत्मीय मित्र के पत्र में दुख छंट जायेगा और सब ठीक हो जायेगा राजाजी। जैसे वाक्य पढ़कर कौन ऐसा संवेदनशील मित्र होगा जिसके मन के तार न झनझनायें। जिसके मन में संवेदना न उपजे।
ब्लाग जगत में भी प्रियंकर जैसे संवेदनशील लोग हैं जो इस तरह के संवेदनशील चिट्ठियां लिखते हैं। इस चक्कर में वे अक्सर अपने को बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना भी मानते हैं। लेकिन सच तो यह है कि वे ऐसे अब्दुल्ला हो गये हैं जिनके बिना हर शादी बेगानी है, अधूरी है, चौपट है।
पिछली पोस्ट में मनीष जोशी की टिप्पणी में गिरिराज किशोर जी का जिक्र था। उनसे बातचीत करना भी एक बेहतरीन अनुभव है। गांधीजी के बारे में उन्होंने बहुत शोध किया है और पहला गिरमिटिया उपन्यास लिखा है। उनसे हुयी एक बातचीत को आप यहां पढ़ सकते हैं।
मेरे तमाम मित्र मेरा ब्लाग पढ़ते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो ब्लागर नहीं हैं लेकिन पाठक हैं। वे अपनी प्रतिक्रियाऒं से हमें फोन पर अवगत कराते रहते हैं। यहां तक पढ़ लिया। वहां तक बांच लिया। ये अच्छा लगा। वो कम अच्छा लगा। वो चौपट था लेकिन ये चौकस। ऐसे मित्रों में एक मेरे विभाग के साथी अधिकारी नीरज केला भी हैं। वे जितना हमारी चिंता करते हैं, ख्याल रखते हैं, खैरख्वाह हैं हमारी ऐसी -तैसी करने में भी उससे कम नहीं हैं। ऐसे रहा करो, वैसे रहा करो। ये करो , वो मत करो। अबे समझा करो। घर का ख्याल रखो। घर जल्दी जाया करो। मतलब पूरे अब्दुल्ला टाइप के दीवाने हैं जो अपनेपन से सराबोर किये रहते हैं।
मनोज अग्रवाल भी हमारे कालेज के जमाने के दोस्त हैं। बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं। मैंने उनका ब्लाग भी बनाया था। बनारसी ब्लाग में अपने आलस्यपन के कारण कुछ जोड़ नहीं पाये। वे भी हमारे लगभग सारे लेख पढ़ते हैं और इसकी सूचना अक्सर फोन पर देते रहते हैं। हड़काने का भी प्रयास करते हैं- साले तुम फ़ोन नहीं करते। तुम्हारे पोस्ट यहां तक पढ़ चुका। वहां तक हो गया। मनोज जैसा बताते हैं उन्होंने मेरे डीरेका ( डीजल रेलवे कालोनी, वाराणसी ) में बहुत सारे पाठक जबरियन बनाये हैं। उन लोगों को जबरियन हमारा ब्लाग झेलाते हैं।
कुछ दिन पहले की सिंगापुर में रहने वाले सुदीप ने मेरी माताजी वाली पोस्ट पर टिप्पणी की थी-
अनुप भाई आपकी पोस्टिंग दसियों बार पढ्ने के बाद भी जब जी नहीं भरा तो श्रीमती जी को पढ़ाया । तब भी मन नहीं भरा तो फिर यार दोस्तों को लिंक भेजी। फिर लगा कि इतना भी क्या असकतियाना । इतना मार्मिक और रोचक चिठ्ठा लिखनेवाले के लिये एक टिप्प्णी तो छोड़ ही सकता हूँ । चोरी छुपे आपके चिठ्ठे पढता रहा हूँ और पढ़ने के बाद बिना टिप्प्णी छोड़े चोरों की तरह दबे पाँव निकलता भी रहा हूँ ।
लेकिन जिक्र जब माँ को हो तो चोरों की तरह निकलना मुश्किल होता है । नतीजा आपके सामने है ।
आप अपनी तारीफ से घबराते हैं लेकिन अब जब लिख ही रहा हूँ तो ये भी कह दूँ कि हिन्दी ब्लाग लेखन मे आपका वही स्थान है जो कि हिन्दी के शुरूआती दौर मे हिन्दी को एक मान्य रुप मे लाने मे भारतेन्दु जी का या उसके बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का रहा है।
चार साल कानपुर मे रहा। 12 सालों बाद आज जब कनपुरिया पुट लिये जो आपकी हिन्दी पढता हूँ तो कल्याण्पुर से परेड / बड़ा चौराहा तक कि बस और विक्रम मे किये ठेलम-ठाल दिन याद आते हैं । हम तो कहिते हैं कि अनुप भाई बस अईसे ही लिखते रहो ।
आपके उपर एक छोटा सा पीस लिखने की इच्छा बहुत दिनो से है अपने सिंगापुर मे बसे बिहारी -झारखण्डी हिन्दी प्रेमियों के लिये । आप इजाजत दें तो कुछ बात बने ।
मेरे बारे में कोई लिखना चाहे तो मुझे तो खुशी होगी , तारीफ़ भी अच्छी लगती है लेकिन ऐसे लोगों से तुलना किये जाने पर असहज महसूस होता है सुदीप भाई। सुदीप सिंगापुर में रहते हैं। कानपुर आई.आई.टी.में पढ़े हैं शायद। अब सिंगापुर में हैं। आशा है कि वे अपने कानपुर प्रवास के दिनों के बारे में भी कुछ लिखेंगे। बतायेंगे।
कल मामाजी के बारे में जो लिखा उसके बाद कुछ साथियों की रुचि देखकर दो लिंक और दे रहा हूं।
१.क्या खूब नखरे हैं परवरदिगार के | इसी अनूप भार्गवजी टिप्पणी में इस कविता का वीडियो लिंक भी दिया है जिसे मुझे अनूप भार्गव जी ने भेजा था। http://www.youtube.com/watch?v=Wx8IlgqaArc
२. जिंदगी जिंदादिली का नाम है
१.क्या खूब नखरे हैं परवरदिगार के | इसी अनूप भार्गवजी टिप्पणी में इस कविता का वीडियो लिंक भी दिया है जिसे मुझे अनूप भार्गव जी ने भेजा था। http://www.youtube.com/watch?v=Wx8IlgqaArc
२. जिंदगी जिंदादिली का नाम है
ज्ञानरंजन की किताब कबाड़खाना का विवरण निम्न है-
किताब का नाम – कबाड़खाना
लेखक -ज्ञानरंजन
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली
पृष्ठ-191
मूल्य- 225
लेखक -ज्ञानरंजन
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली
पृष्ठ-191
मूल्य- 225
Posted in बस यूं ही | 15 Responses
इस तरह के चोरों में हमें भी शुमार कर लें..
पुनश्च – गिरिराज किशोर जी वाली पोस्ट भी पढ़ ली रही
आज घर में अकेला था लोरी पढ़ सुन बहुत मजा आया और सुदीप भाई के विक्रम वाले ठेलम ठाल के दिन पढ़ हमें भी लखनऊ में विक्रम की सैर याद आ गई …
हजारीप्रसाद द्विवेदी कई उदीयमान लेखकों की प्रेरणा रहे । चिठ्ठाजगत में आपने भी तो कई बन्दरों को हनुमान बना डाला है । एक बन्दर मैं भी हूँ । अभी हनुमान तो नहीं बन पाया हूँ लेकिन थोड़ा बहुत उछ्ल- कूद तो सीख ही रहा हूँ आपसे और चिठ्ठा जगत में आप सरीखे अन्य दिग्गजों से। इस बार नाम लेने की गलती नहीं करूँगा ।
हाँ – एक दिगगज को रायपुर कुछ दिन पहले सम्मानित किया गया था ।:)