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5 − four =
…अथ वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन कथा
By फ़ुरसतिया on October 20, 2010
…और इस तरह संपन्न हुआ वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन!
लोगों ने अपने अपने अनुभव लिखे। अच्छे। खराब! जो लोग वहां थे उन्होंने अपने अनुभव लिखे। ज्यादातर लोगों ने आत्मीय और लोगों से मिलकर खुश होने के अनुभव बयान किये। जो वहां नहीं थे वे इधर-उधर से चिंदी-चिंदी बिन-बिन कर अपने डिजाइनर अनुभव बयान कर रहे हैं। हिंदी पाठक सहज विश्वासी होता है। उदार च! वह दोनों अनुभव को समान आदर प्रदान कर रहा है।
पहले वर्धा सम्मेलन की तारीख सितंबर में तय थी। हम फ़ट से करा लिये थे रिजर्वेशन। बाद में पिछले साल की तरह तारीख फ़िर बदली। इस बार मारे नखरे के बहुत दिन तक टिकट नहीं कटाये। नखरे का खामियाजा भी भुगते । लौटानी का रिजर्वेशन झांसी तक का ही मिला। उसको भी पचास बार देखना पड़ा। आ.ए.सी. से कन्फ़र्म होने तक। झांसी के बाद ट्रेन बदल के आना पड़ा। हालांकि कोई परेशानी नहीं हुई। आये ट्रेन से ही। कोई पैदल यात्रा नहीं करनी पड़ी। लेकिन यह कहने से हमें कौन रोक सकता है कि बहुत कष्ट हुआ। इसके बाद यह भी कह सकते हैं ऐठते हुये- आयोजकों को सम्मेलन की तारीखें मर्द की जबान की तरह तय करनी चाहिये। एक बार तय किया तो बदलने का सवाल ही नहीं। लेकिन लिखने में खतरा है। पता चला कि आयोजक आजकल के किन्हीं मर्दों की तरह कह दें- कौन सी तारीख, कौन सा सम्मेलन? आपको अवश्य कोई धोखा हुआ होगा। आप मेरी बात गलत समझ गये। हम तो अपनी साइट में टेस्ट पोस्ट करके देख रहे कि सम्मेलन करवायेंगे तो कैसे आमंत्रित करेंगे देश-विदेश के लोगों को।
सम्मेलन में जाना तय था। लेकिन जैसे-जैसे तारीख नजदीक आती गयी न जाने के बहाने रूपा फ़्रंट लाइन की बनियाइन पहनकर सामने आने लगे। हम सारे बहानों –तो चलो आगे कहते रहे। लेकिन बाद में सब बहानों को किनारे करके बैठ गये टेम्पो में वर्धा जाने के लिये। रास्ते का जाम एक तरफ़ तो खुशी प्रदान कर रहा था कि कानपुर अब तो बड़ा शहर हो गया दूसरी तरफ़ यह भी लग रहा था कि कहीं इसी बड़े बनते शहर से फ़ोन करके सिद्धार्थ की डूबी आवाज न सुननी पड़े- आप भी फ़ुरसतिया! जैसे-जैसे स्टेशन पास आता जा रहा ट्रेन छूटने का खतरा बढ़ता जा रहा था। साथ ही हम यह भी पक्का करते जा रहे थे कि अब तो घर वर्धा होकर ही लौटना है- चाहे जैसे जायें। बहरहाल हम अगले दिन वर्धा में थे।
वर्धा के फ़ादर कामिल बुल्के छात्रावास के सामने आंगन में पहुंचते ही कई साथी मिले। सबसे पहले विवेक सिंह को देखकर हमें लगा कि ये यशवंत सिंह क्लीन शेव हो गये क्या? अनिता जी सुबह ही आ गयीं थीं। कविता जी पहले से ही थीं। यशवंत सिंह भी वहीं जमे थे। अविनाश वाचस्पति जी अपनी छोड़ना शुरु कर दिये थे- तुकबंदियां। उनकी तुकबंदी क्षमता से प्रभावित होकर शिवकुमार मिश्र ने उनको प्रणाम भेज दिया हमारे मोबाइल पर। हमारे मोबाइल से अपने लिये आया प्रणाम कलेक्ट करके अविनाश जी ने उनसे बातचीत करके उन्हें अनुग्रहीत किया। हमनें भी हेलो-हाय कर लिया। अब हम यहां यह भूल रहे हैं कि इस वार्तालाप मोबाइल में किसका इस्तेमाल हुआ था। अगर अविनाश जी का हुआ था तब तो लिखना चाहेंगे कि बातचीत करके मन खुश हो गया। अगर हमारा इस्तेमाल हुआ था तो क्या कहेंगे आप कयास लगाइये । लेकिन ई त पक्का है कि हम ई कब्भी न कहेंगे कि आयोजकों को आयोजन स्थल पर एक टेलीफ़ोन की व्यवस्था रखनी चाहिये जिससे कि आमंत्रित ब्लॉगर देश दुनिया से जुड़े रह सकें।
चाय पीते-पीते सुरेश चिपलूनकर और संजय बेंगाणी से मुलाकात हो गयी। सुरेश जी के लेखों में जितनी आग और जित्ता आक्रोश है उसका प्रमाण अपने चेहरे पर दिखाने में असफ़ल रहे। हम सोचे कि इस बात पर आश्चर्य प्रकट करें लेकिन बाद में मटिया दिये। हां यह जरूर कहे कि सुरेश भाई आपकी पोस्टों में जित्ती आग है कि अगर कहीं गैस खतम हो जाये तो आपकी पोस्टों नीचे रखकर उसकी आग में खाना पकाया जा सकता है। बाद में सुरेश जी के भले व्यवहार से प्रभावित होकर लोगों ने उनको उनके ब्लॉग वाला तीखा फोटो हटाने की गुजारिश की। जनता के बेहद मांग पर सुरेश जी ने ऐसा कर भी डाला।
इस बीच संयोजक महाराज सिद्धार्थ त्रिपाठी भी पधारे। हमने गौर किया कि हमने पिछले सम्मेलन में उनको जो सलाह दी थी उसको वे अभी तक अमल में नहीं ला पाये हैं। हमने सलाह दी थी-
लेकिन साल बीत गया फ़िर भी सिद्धार्थ ने हमारी बात नहीं मानी। वे वर्धा में उतने ही बल्कि कुछ और ज्यादा फ़िक्ररहित, निश्चिंत, आश्वस्त और इत्मिनान से नजर आ रहे थे जितना पिछले साल इलाहाबाद में दिखे थे।
आगे के किस्से जारी। तब तक आप यहां वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन में खैंचे गये फोटू देखें।
लोगों ने अपने अपने अनुभव लिखे। अच्छे। खराब! जो लोग वहां थे उन्होंने अपने अनुभव लिखे। ज्यादातर लोगों ने आत्मीय और लोगों से मिलकर खुश होने के अनुभव बयान किये। जो वहां नहीं थे वे इधर-उधर से चिंदी-चिंदी बिन-बिन कर अपने डिजाइनर अनुभव बयान कर रहे हैं। हिंदी पाठक सहज विश्वासी होता है। उदार च! वह दोनों अनुभव को समान आदर प्रदान कर रहा है।
पहले वर्धा सम्मेलन की तारीख सितंबर में तय थी। हम फ़ट से करा लिये थे रिजर्वेशन। बाद में पिछले साल की तरह तारीख फ़िर बदली। इस बार मारे नखरे के बहुत दिन तक टिकट नहीं कटाये। नखरे का खामियाजा भी भुगते । लौटानी का रिजर्वेशन झांसी तक का ही मिला। उसको भी पचास बार देखना पड़ा। आ.ए.सी. से कन्फ़र्म होने तक। झांसी के बाद ट्रेन बदल के आना पड़ा। हालांकि कोई परेशानी नहीं हुई। आये ट्रेन से ही। कोई पैदल यात्रा नहीं करनी पड़ी। लेकिन यह कहने से हमें कौन रोक सकता है कि बहुत कष्ट हुआ। इसके बाद यह भी कह सकते हैं ऐठते हुये- आयोजकों को सम्मेलन की तारीखें मर्द की जबान की तरह तय करनी चाहिये। एक बार तय किया तो बदलने का सवाल ही नहीं। लेकिन लिखने में खतरा है। पता चला कि आयोजक आजकल के किन्हीं मर्दों की तरह कह दें- कौन सी तारीख, कौन सा सम्मेलन? आपको अवश्य कोई धोखा हुआ होगा। आप मेरी बात गलत समझ गये। हम तो अपनी साइट में टेस्ट पोस्ट करके देख रहे कि सम्मेलन करवायेंगे तो कैसे आमंत्रित करेंगे देश-विदेश के लोगों को।
सम्मेलन में जाना तय था। लेकिन जैसे-जैसे तारीख नजदीक आती गयी न जाने के बहाने रूपा फ़्रंट लाइन की बनियाइन पहनकर सामने आने लगे। हम सारे बहानों –तो चलो आगे कहते रहे। लेकिन बाद में सब बहानों को किनारे करके बैठ गये टेम्पो में वर्धा जाने के लिये। रास्ते का जाम एक तरफ़ तो खुशी प्रदान कर रहा था कि कानपुर अब तो बड़ा शहर हो गया दूसरी तरफ़ यह भी लग रहा था कि कहीं इसी बड़े बनते शहर से फ़ोन करके सिद्धार्थ की डूबी आवाज न सुननी पड़े- आप भी फ़ुरसतिया! जैसे-जैसे स्टेशन पास आता जा रहा ट्रेन छूटने का खतरा बढ़ता जा रहा था। साथ ही हम यह भी पक्का करते जा रहे थे कि अब तो घर वर्धा होकर ही लौटना है- चाहे जैसे जायें। बहरहाल हम अगले दिन वर्धा में थे।
वर्धा के फ़ादर कामिल बुल्के छात्रावास के सामने आंगन में पहुंचते ही कई साथी मिले। सबसे पहले विवेक सिंह को देखकर हमें लगा कि ये यशवंत सिंह क्लीन शेव हो गये क्या? अनिता जी सुबह ही आ गयीं थीं। कविता जी पहले से ही थीं। यशवंत सिंह भी वहीं जमे थे। अविनाश वाचस्पति जी अपनी छोड़ना शुरु कर दिये थे- तुकबंदियां। उनकी तुकबंदी क्षमता से प्रभावित होकर शिवकुमार मिश्र ने उनको प्रणाम भेज दिया हमारे मोबाइल पर। हमारे मोबाइल से अपने लिये आया प्रणाम कलेक्ट करके अविनाश जी ने उनसे बातचीत करके उन्हें अनुग्रहीत किया। हमनें भी हेलो-हाय कर लिया। अब हम यहां यह भूल रहे हैं कि इस वार्तालाप मोबाइल में किसका इस्तेमाल हुआ था। अगर अविनाश जी का हुआ था तब तो लिखना चाहेंगे कि बातचीत करके मन खुश हो गया। अगर हमारा इस्तेमाल हुआ था तो क्या कहेंगे आप कयास लगाइये । लेकिन ई त पक्का है कि हम ई कब्भी न कहेंगे कि आयोजकों को आयोजन स्थल पर एक टेलीफ़ोन की व्यवस्था रखनी चाहिये जिससे कि आमंत्रित ब्लॉगर देश दुनिया से जुड़े रह सकें।
चाय पीते-पीते सुरेश चिपलूनकर और संजय बेंगाणी से मुलाकात हो गयी। सुरेश जी के लेखों में जितनी आग और जित्ता आक्रोश है उसका प्रमाण अपने चेहरे पर दिखाने में असफ़ल रहे। हम सोचे कि इस बात पर आश्चर्य प्रकट करें लेकिन बाद में मटिया दिये। हां यह जरूर कहे कि सुरेश भाई आपकी पोस्टों में जित्ती आग है कि अगर कहीं गैस खतम हो जाये तो आपकी पोस्टों नीचे रखकर उसकी आग में खाना पकाया जा सकता है। बाद में सुरेश जी के भले व्यवहार से प्रभावित होकर लोगों ने उनको उनके ब्लॉग वाला तीखा फोटो हटाने की गुजारिश की। जनता के बेहद मांग पर सुरेश जी ने ऐसा कर भी डाला।
इस बीच संयोजक महाराज सिद्धार्थ त्रिपाठी भी पधारे। हमने गौर किया कि हमने पिछले सम्मेलन में उनको जो सलाह दी थी उसको वे अभी तक अमल में नहीं ला पाये हैं। हमने सलाह दी थी-
भैये कुछ तो लिहाज करो। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के संयोजक हो। जरा हड़बड़ाये , हकबकाये से रहो। तुम मिलते ही हमको पहचान लिये। चाहिये तो यह था कि तीन बार कमरे में आधी दूरी तक आते और बाहर चले जाते। इसके बाद हमसे ही पूछते कि अनूप शुक्ल आ गये क्या? इसके बाद कहते अरे भाई साहब दिमाग काम नहीं कर रहा है। माफ़ करियेगा।
लेकिन साल बीत गया फ़िर भी सिद्धार्थ ने हमारी बात नहीं मानी। वे वर्धा में उतने ही बल्कि कुछ और ज्यादा फ़िक्ररहित, निश्चिंत, आश्वस्त और इत्मिनान से नजर आ रहे थे जितना पिछले साल इलाहाबाद में दिखे थे।
आगे के किस्से जारी। तब तक आप यहां वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन में खैंचे गये फोटू देखें।
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32 responses to “…अथ वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन कथा”
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5 − four =
आप के रपटने के इंतजार में हम कई बार परेसान हो जाते हैं लेकिन जैसे ही आपका रपट आता है , सब कुछ
भूल जाते है . आप आपे लिख्हे पे निगाह दीजिये खुद वाह कर उठेंगे …….
हां यह जरूर कहे कि सुरेश भाई आपकी पोस्टों में जित्ती आग है कि अगर कहीं गैस खतम हो जाये तो आपकी पोस्टो नीचे रखकर उसकी आग में खाना पकाया जा सकता है.
बस भाईजी थोरा इंतजार की दूरी कम करिए.
प्रणाम.
विवेक सिंह की हालिया प्रविष्टी..जली तो जली पर सिकी भी खूब
मेरा पक्क से मुँ खोल देना अभी उचित नहीं ।
जो बात अलग पोस्ट बना कर डालते वह यहाँ लिख देते है. आजकल जब जब लिखने का सोचा कभी पोस्ट लिख नहीं पाए.
आपका स्नेह शुरूआत से ही बना रहा. आपने राष्ट्रवादी की पहचान स्थापित करने में जाने अनजाने सहयोग भी दिया. मन में सम्मान था तो, आपसे मिलने की बेहद इच्छा भी रही, मिले तो लगा बस गले लग जाए, चरण स्पर्श की इच्छा भी दबा गए. इन सब के लिए शायद कानपुर आना पड़ेगा….
आयोजको आजकल के किन्हीं मर्दों- वाक्य रचना दुरुस्त नहीं है
इस वार्तालाप मोबाइल किसका इस्तेमाल हुआ थी।-यह कैसा वाक्य ?
आयोजकों आयोजन स्थल पर एक टेलीफ़ोन की व्यवस्था रखनी -को छूट गया
मटिया दिये-फिर तो बहटिया लिख देते
सिधार्थ-नाम तो दुरुस्त कर ही लें
इस बार ब्रेक कुछ ज्यादा जल्दी लेके डाल दिए।
ललकार सुनायी दे रही है।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..प्रयाग का पाठ वर्धा में काम आया… शुक्रिया।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..देसिल बयना – 52 – चोर के अर्जन सब कोई खाए- चोर अकेला फांसी जाए !
बहुत अफ़सोस है कि इसमें सम्मिलित नहीं हो पाए…
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..आन बसो हिय मेरे
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..पर्दा धूप पे
http://ajit09.blogspot.com/2010/10/blog-post_17.html
हम भी पढ़ रहे हैं टिप्पणियों समेत कथा. देर से प्रतीक्षा थी. फोटो वोटो तो तभी देख भाल लिए गए थे. अब इंतज़ार पूरा हुआ.
- लावण्या
आप तो बस इस का मजा लूटिये
बड़ी मुश्किल है …. 20.10.2010 को आई नैक्स्ट में प्रकाशित व्यंग्य
बीस दस बीस दस : यह तो लय है जी, लय की जय है जी : पहेली बूझें
शुभ रात्रि!
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..आलोचना ≈ तारीफ
अफ़सोस होता है कि हम क्यों न पहुंच पाए।
जय कुमार झा जी की टिप्पणी बहुत सही लगी।
जरा इस तरह का आयोजन कर या करवाकर देखे फिर पता चलेगा की किसी के काम में खामियां निकालना कितना आसान होता है …
बढ़िया।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..वर्धा के बाद अब एक और ब्लॉगर बैठकी का आयोजन हो रहा हैअब शिकायत न करें कि हमें आमंत्रण नहीं मिलाइस पोस्ट को ही आमंत्रण समझें सतीश पंचम
वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन के चित्रों में मौजूद सभी महानुभावों को मेरा प्रणाम।
शरद कोकास की हालिया प्रविष्टी..खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर खून की बूँदे चुग रही है
rishabha deo sharma की हालिया प्रविष्टी..रूसी साहित्यकार चेखव के १२ नाटकों के ६ भारतीय भाषाओं में अनुवाद हेतु कार्यशाला
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..टाइम ट्रेवेल कराती एक किताब
Ram की हालिया प्रविष्टी..गांधी और मेरे पिता
अविनाश वाचस्पति जी से बात करके बहुत अच्छा लगा. हम आपके आभारी हो गए जो आपने उन्हें मेरे एस एम् एस के बारे में बताया.
मिश्र जी की बातों पर ध्यान दिया जाय. गिरिजेश जी की अनुपस्थिति में ‘वर्तन’ सुधार करने का भार उठाने के लिए उनका आभार!
इस बात से तो सहमत हूं कि पूरे आयोजन के दौरान श्री त्रिपाठी जी कहीं से भी आयोजक का आवरण ओढ़े नजर ही नईं आए। जब भी दिखे सहज, प्रफुल्लित ही दिखे। ऐसा आयोजन, वह भी इतने बड़े आयोजन का आयोजक तो पहली बार देखा अपन ने। जय कुमार झा जी सही कह रहे हैं। जाता हूं अब अगली किश्त पढ़ने
इनके बिना कथा
का संपूर्ण आनंद नहीं आता है
हिन्दी ब्लॉगिंग के एक सेमिनार में शामिल ब्लॉगरों के हथियारों की झलक
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..मेरे जन्मदिन को हंसीदिवस के रूप में मनायें – खूब खिलकर खिलखिलायें