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वर्धा-हिंदी का ब्लॉगर बड़ा शरीफ़ टाइप का जीव होता है
By फ़ुरसतिया on October 30, 2010
वर्धा के बारे में लिखने का सिलसिला एक बार टूट गया। बीस दिन पहले हुयी घटना अब लगता है कोई बहुत पहले की बात है।
वर्धा का ब्लॉगर सम्मेलन महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा ने करवाया था। किसी और विश्वविद्यालय ने इस तरह की कोई पहल क्यों नहीं की अब तक क्या यह सोचने की बात है?
यह संयोग ही रहा कि हिंदी के ब्लॉगरों में से एक सिद्धार्थ ने ब्लॉगिंग से जुड़ी बातें विभूति राय जी को बताईं। वे वर्धा विश्वविद्यालाय के कुलपति हैं। हिंदी का प्रचार-प्रसार करना भी विश्वविद्यालय के कार्यक्षेत्र में आता है। ब्लॉगिंग की संभावनाओं को देखते हुये उन्होंने पिछले वर्ष इलाहाबाद में सम्मेलन कराने की सहमति दी। उस सम्मेलन की जमकर तारीफ़ और आलोचनायें हुईं। इसके बाद इस साल फ़िर सम्मेलन कराया जाना इस बात का संकेत का है कि वे इस माध्यम को हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये एक उपयुक्त माध्यम माध्यम मानते हैं। यह सच भी है। पिछले चार-पांच सालों में नेट पर हिन्दी की उपलब्धता बढ़ी है उसमें हिंदी ब्लॉगिंग का बहुत बड़ा योगदान है। ब्लॉगरों ने खुद लिखने के साथ-साथ अपनी पसंद की रचनायें नेट पर डालीं। कविता कोश, कहानी कोश , ई-कविता, विकीपीडिया और इसी तरह के तमाम छुटके-बड़के प्रयासों के चलते हिंदी नेट पर बढ़ी है!
इस मामले में उनकी सोच की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि उन्होंने इस नये माध्यम की उपयोगिता को पहचाना और इससे जुड़े लोगों को बुलाकर सम्मेलन कराया।
ब्लॉगिंग को एक संभावनाशील माध्यम मानते हुये इससे जुड़े लोगों को बुलाना और उनका सम्मेलन कराना अच्छी बात है। अब कौन लोग आये और कौन लोग नहीं आये। क्यों आये और क्यों नहीं आये। क्यों बुलाये गये और क्यों नहीं बुलाये गये। इस बात पर बहस की हमेशा संभावना रहेगी। जो लोग अपने बुलाये जाने और न बुलाये जाने की बात पर पोस्टें लिख रहे हैं उनसे अगर कहा जाये कि वे तीस ब्लॉगरों को बुलाने के लिये कोई सर्वमान्य फ़ार्मूला सुझायें तो शायद वे जो भी फ़ार्मूला सुझायें उससे असहमत न जाने कितने फ़ार्मूले तुरंत टिप्पणी में आ जायेंगे।
इलाहाबाद में हुये सम्मेलन में अपने को प्रगतिशील मानने वाले ब्लॉगर बहुतायत में थे। तब सुरेश चिपलूनकर ने विरोध किया था कि वहां हिंदूवादी ब्लॉगर क्यों नहीं बुलाये गये। शायद वर्धा में इस बात की कमी पूरी हुई। शायद इस बार जो लोग नहीं आये वे अगली बार बुलायें जायें। बहुत से ब्लॉगर साथी समय और साधन की कमी के चलते न आ पाये। कुछ लोगों के न आने के कारण सैद्धांतिक भी रहे शायद।
वर्धा सम्मेलन मेरे लिये अपने उन साथियों से मिलने का बहाना रहा जिनको मैं पढ़ता आया था, बात की थी लेकिन मिलना-जुलना बाकी था। लोगों के बारे में जो धारणायें बनायी थीं कुछ लोग उनसे धुर उलट थे और कुछ लोग एकदम वैसे ही। सारे आयोजन से एक बात समझ में आयी कि हिंदी का ब्लॉगर बड़ा शरीफ़ टाइप का जीव होता है। अनुशासित। अल्प संतोषी। मिलन-जुलन से संतुष्ट हो जाने वाले लोग, सब लोग बड़े भले लगे।
वर्धा में आलोक धन्वा और राजकिशोर जी मिलना बड़ा अनुभव जन्य रहा। आलोक जी ने तो प्रियंकर जी और कविता जी को सर्टिफ़ाइड कवि बताया लेकिन इन दोनों सर्टिफ़ाइड कवियों ने अपनी कवितायें किताब से देखकर पढ़ी। लगा कि ये सर्टिफ़ाइड कवि –कविता लिख किताब में डाल घराने के कवि हैं। मेरी समझ में एक कवि को अपनी अच्छी रचनायें तो याद करके रखनी ही चाहिये।
राजकिशोर जी की भाषा और उनके लेखों पर भी काफ़ी बात हुई। उनकी सहज-सरल भाषा के बहुत मुरी हैं लोग। नियमित ब्लॉगिंग में आने की बात को सही मानते हुये भी राजकिशोर जी ने अपनी राय बताते हुये कहा कि यहां मैं का बोलबाला है। ब्लाग लेखन में मै हावी है।
आलोक धन्वाजी की कविता के साथ मैंने उनका एक वक्तव्य भी टेप किया। इसमें उन्होंने आज के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुये बताया था कि हम बहुत कठिन समय से गुजर रहे हैं। एक वाक्य में गुजरात पर अपनी बात कहते हुये कुछ बुराई की। सुनते ही संजय बेंगाणी संवेदित हो गये और कहा- आप इसको डालियेगा ब्लॉग पर फ़िर मैं अपनी बात लिखूंगा।
जब आलोक धन्वा जी यह बात कह रहे थे तब मुझे लग रहा था कि क्या सच में हम इतने कठिन समय से गुजर रहे हैं कि सारी चीजें नकारात्मक नजर आयें। इस बारे में फ़िर कभी।
विश्वविद्यालय की साइट का उद्घाटन भी हुआ था। इसके संचालन का काम प्रीति सागर कर रही हैं। आप देखिये साइट में कैसी उपयोगी सामग्री है।
और तमाम यादें वर्धा के बारे में फ़िर कभी। फ़िलहाल इतना ही।
यहां देखिये/सुनिये आलोक धन्वा जी का वक्तव्य। वर्धा सम्मेलन से जुड़ी फोटो देखने के लिये यहां जायें।
वर्धा का ब्लॉगर सम्मेलन महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा ने करवाया था। किसी और विश्वविद्यालय ने इस तरह की कोई पहल क्यों नहीं की अब तक क्या यह सोचने की बात है?
यह संयोग ही रहा कि हिंदी के ब्लॉगरों में से एक सिद्धार्थ ने ब्लॉगिंग से जुड़ी बातें विभूति राय जी को बताईं। वे वर्धा विश्वविद्यालाय के कुलपति हैं। हिंदी का प्रचार-प्रसार करना भी विश्वविद्यालय के कार्यक्षेत्र में आता है। ब्लॉगिंग की संभावनाओं को देखते हुये उन्होंने पिछले वर्ष इलाहाबाद में सम्मेलन कराने की सहमति दी। उस सम्मेलन की जमकर तारीफ़ और आलोचनायें हुईं। इसके बाद इस साल फ़िर सम्मेलन कराया जाना इस बात का संकेत का है कि वे इस माध्यम को हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये एक उपयुक्त माध्यम माध्यम मानते हैं। यह सच भी है। पिछले चार-पांच सालों में नेट पर हिन्दी की उपलब्धता बढ़ी है उसमें हिंदी ब्लॉगिंग का बहुत बड़ा योगदान है। ब्लॉगरों ने खुद लिखने के साथ-साथ अपनी पसंद की रचनायें नेट पर डालीं। कविता कोश, कहानी कोश , ई-कविता, विकीपीडिया और इसी तरह के तमाम छुटके-बड़के प्रयासों के चलते हिंदी नेट पर बढ़ी है!
इस मामले में उनकी सोच की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि उन्होंने इस नये माध्यम की उपयोगिता को पहचाना और इससे जुड़े लोगों को बुलाकर सम्मेलन कराया।
ब्लॉगिंग को एक संभावनाशील माध्यम मानते हुये इससे जुड़े लोगों को बुलाना और उनका सम्मेलन कराना अच्छी बात है। अब कौन लोग आये और कौन लोग नहीं आये। क्यों आये और क्यों नहीं आये। क्यों बुलाये गये और क्यों नहीं बुलाये गये। इस बात पर बहस की हमेशा संभावना रहेगी। जो लोग अपने बुलाये जाने और न बुलाये जाने की बात पर पोस्टें लिख रहे हैं उनसे अगर कहा जाये कि वे तीस ब्लॉगरों को बुलाने के लिये कोई सर्वमान्य फ़ार्मूला सुझायें तो शायद वे जो भी फ़ार्मूला सुझायें उससे असहमत न जाने कितने फ़ार्मूले तुरंत टिप्पणी में आ जायेंगे।
इलाहाबाद में हुये सम्मेलन में अपने को प्रगतिशील मानने वाले ब्लॉगर बहुतायत में थे। तब सुरेश चिपलूनकर ने विरोध किया था कि वहां हिंदूवादी ब्लॉगर क्यों नहीं बुलाये गये। शायद वर्धा में इस बात की कमी पूरी हुई। शायद इस बार जो लोग नहीं आये वे अगली बार बुलायें जायें। बहुत से ब्लॉगर साथी समय और साधन की कमी के चलते न आ पाये। कुछ लोगों के न आने के कारण सैद्धांतिक भी रहे शायद।
वर्धा सम्मेलन मेरे लिये अपने उन साथियों से मिलने का बहाना रहा जिनको मैं पढ़ता आया था, बात की थी लेकिन मिलना-जुलना बाकी था। लोगों के बारे में जो धारणायें बनायी थीं कुछ लोग उनसे धुर उलट थे और कुछ लोग एकदम वैसे ही। सारे आयोजन से एक बात समझ में आयी कि हिंदी का ब्लॉगर बड़ा शरीफ़ टाइप का जीव होता है। अनुशासित। अल्प संतोषी। मिलन-जुलन से संतुष्ट हो जाने वाले लोग, सब लोग बड़े भले लगे।
वर्धा में आलोक धन्वा और राजकिशोर जी मिलना बड़ा अनुभव जन्य रहा। आलोक जी ने तो प्रियंकर जी और कविता जी को सर्टिफ़ाइड कवि बताया लेकिन इन दोनों सर्टिफ़ाइड कवियों ने अपनी कवितायें किताब से देखकर पढ़ी। लगा कि ये सर्टिफ़ाइड कवि –कविता लिख किताब में डाल घराने के कवि हैं। मेरी समझ में एक कवि को अपनी अच्छी रचनायें तो याद करके रखनी ही चाहिये।
राजकिशोर जी की भाषा और उनके लेखों पर भी काफ़ी बात हुई। उनकी सहज-सरल भाषा के बहुत मुरी हैं लोग। नियमित ब्लॉगिंग में आने की बात को सही मानते हुये भी राजकिशोर जी ने अपनी राय बताते हुये कहा कि यहां मैं का बोलबाला है। ब्लाग लेखन में मै हावी है।
आलोक धन्वाजी की कविता के साथ मैंने उनका एक वक्तव्य भी टेप किया। इसमें उन्होंने आज के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुये बताया था कि हम बहुत कठिन समय से गुजर रहे हैं। एक वाक्य में गुजरात पर अपनी बात कहते हुये कुछ बुराई की। सुनते ही संजय बेंगाणी संवेदित हो गये और कहा- आप इसको डालियेगा ब्लॉग पर फ़िर मैं अपनी बात लिखूंगा।
जब आलोक धन्वा जी यह बात कह रहे थे तब मुझे लग रहा था कि क्या सच में हम इतने कठिन समय से गुजर रहे हैं कि सारी चीजें नकारात्मक नजर आयें। इस बारे में फ़िर कभी।
विश्वविद्यालय की साइट का उद्घाटन भी हुआ था। इसके संचालन का काम प्रीति सागर कर रही हैं। आप देखिये साइट में कैसी उपयोगी सामग्री है।
और तमाम यादें वर्धा के बारे में फ़िर कभी। फ़िलहाल इतना ही।
यहां देखिये/सुनिये आलोक धन्वा जी का वक्तव्य। वर्धा सम्मेलन से जुड़ी फोटो देखने के लिये यहां जायें।
Posted in संस्मरण | 31 Responses
यह मेरी व्याख्या नहीं है। मेरी समझ है। चाहत है। मुझे लगता है कि एक कवि को अपनी अच्छी रचनायें याद भी हों तो अच्छा है। प्रियंकरजी की कविता मैंने रिकार्ड की है। उनके द्वारा पढ़कर सुनाने के चलते इसका प्रभाव आधा हो गया। बाकी हर एक की अपनी पसंद अपनी चाहत होती है। सीमायें भीं।
और पाठक उठा-पटक करने वाला…….
बाकी हर एक की अपनी पसंद अपनी चाहत होती है। सीमायें भीं।
सच्ची-मुच्ची बात.
प्रणाम.
ब्लौगिंग ही क्या, हर क्षेत्र में सभी को साथ ले सकना और लेकर चलना लगभग असंभव ही है.
और एक पोस्ट लोगों के नहीं आ सकने के सैद्धांतिक कारणों पर भी आ जाये तो बात बने.
Nishant Mishra की हालिया प्रविष्टी..अपनी कथा कहो…
संयोग से हिंदी का पाठक और ब्लॉगर एक ही होता है। इसलिये पाठक को भी शरीफ़ ही माना जाना चाहिये!
@ निशान्त,
जो लोग नहीं आये उनमें से ज्यादातर लोग रिजर्वेशन/छुट्टी न मिलने के कारण, किसी काम में उलझ जाने के कारण नहीं आ पायें। कुछ लोगों का विभूति नारायण जी से सैद्धांतिक विरोध भी था और उन्होंने वहां न आना तय किया था।
लगता है हड़बड़ी में ठेल दी यह पोस्ट ! नीरस गंभीर सी ….लग ही नहीं रहा अनूप दद्दा ने लिखी है !
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..घर में जहरीले वृक्ष लिए क्यों लोग मानते दीवाली -सतीश सक्सेना
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..अच्छाई को सजोना पड़ता है जबकि बुराई अपने आप फैलती है…।
आप इसी तरह लिखते रहें और हम लोग सम्मेलन का मज़ा लेते रहें
मैं अजित जी की बात से सहमत हूं कि कविता लिखना और उन्हें याद रखना २ अलग चीज़ें हैं एक तो सब की याददाश्त इतनी अच्छी नहीं होती ,दूसरे हम लोग जो कवि सम्मेलनों और मुशायरों में नहीं जा पाते उन का अभ्यास तो होता नहीं तीसरी बात कुछ लोग अपनी भावनाएं जितनी अच्छी तरह लेखन में व्यक्त कर सकते हैं बोल कर नहीं कर पाते इसलिए कवि हमेशा अपनी कविता ज़बानी याद रख सके ये ज़रूरी नही,
इस पर मेरी राय यह है की विश्वविध्यालय हर साल एक ही ब्लोगर को ना बुलाये बल्कि उन ब्लोगरों को मौका दें जो नए तो हैं लेकिन ब्लोगिंग की पूरी मर्यादा को साथ रखते हुए ब्लोगिंग कर रहें हैं…खासकर ग्रामीण क्षेत्र के उन ब्लोगरों को प्राथमिकता दिया जाना चाहिए जो सामाजिक सरोकार और ब्लोगिंग को जोरकर देश और समाजहित में ब्लॉग लिख रहें हैं ….
साथ ही विश्वविध्यालय उन ब्लोगरों को कभी ना बुलाये जो दो चार ब्लॉग सही ID से चालातें हैं और फर्जी ID के सहारे रोज नए ब्लॉग बनाते हैं तथा अपनी पोस्टों पर फर्जी ID के सहारे टिप्पणियां भी करतें हैं …ऐसे लोगों की पहचान कर उनको दरकिनार किया जाना चाहिए क्योकि ब्लोगिंग के लिए सबसे शर्मनाक स्थिति ऐसे लोगों की वजह से पैदा होता है …ऐसे लोगों की पूरी प्रमाणिकता के साथ मैंने लिस्ट बनायीं है जिसे मैं विश्वविध्यालय को भेजूंगा …
रूस और हिटलर से लेकर कम्युनिज़्म तक… धन्वा जी की हर बात का जवाब है, और दिया भी जा सकता है, लेकिन उमर का फ़ासला बहुत ज्यादा होने के कारण “समुचित जवाब” देने में थोड़ा संकोच होता है… । फ़िर धन्वा जी, एमएफ़ हुसैन जितने “महान” भी नहीं हैं कि हम “समुचित जवाब” दें…
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नोट – इलाहाबाद ब्लॉगर सम्मेलन के बाद हुए विवाद की शुरुआत “हिन्दूवादी” शब्द (अथवा बुलाने या नहीं बुलाने) को लेकर हुई ही नहीं थी, बल्कि प्रमेन्द्र प्रताप सिंह के साथ हुए व्यवहार को लेकर हुई थी, और मुख्यतः नामवर सिंह की उपस्थिति को लेकर हुई थी… जो बाद में “हिन्दूवादी” और “प्रगतिशील”(?) की तरफ़ मुड़ गई…(या मोड़ दी गई)।
सुरेश चिपलूनकर की हालिया प्रविष्टी..सर्वोच्च न्यायालय के कुछ भ्रष्ट जजों की संदिग्ध करतूतें… भाग-1 Corruption in Indian Judiciary System Part-1
हम्मम्मम्म………………होता है, अक्सर ऐसा होता है. वैसे खुद की कुछ अच्छी रचनाएं याद होनी ही चाहिए. आलोक जी को सुनना अच्छा लगा.
वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..सब जानती है शैव्या
विवेक सिंह की हालिया प्रविष्टी..जली तो जली पर सिकी भी खूब
rishabha deo sharma की हालिया प्रविष्टी..कविता वाचक्नवी के साक्षात्कार का पुनर्प्रसारण ३१ अक्टूबर को
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..दीवाली निकाल रही है दिवाला – कैसे दूं शुभकामना
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..अमिताभ बच्चन का अंगूठा
लिक्खाड़ बनने का अपना सपना तो सपना ही रह गया…ओह !!!!
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..अमरबेल
ब्लोगिंग को मंच और मान्यता मिलनी ही चाहिए,क्योंकि बहुत कुछ है इसमें जो साहित्य को समृद्धि दे रहा है…
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..अमरबेल
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..दास्तान-ए-चौपट वीकेंड
Gyan Dutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..भाग ७ – कैलीफोर्निया में श्री विश्वनाथ
Pramendra Pratap Singh की हालिया प्रविष्टी..एक कुत्ते की बात
आपकी प्रतिक्रया से सिद्धार्थ जी को अवगत करा दिया गया है, जिसपर उनकी प्रतिक्रया आई है वह इसप्रकार है -
प्रभात जी,
मेरे कंप्यूटर पर तो पोस्ट साफ -साफ़ पढ़ने में आयी है। आप खुद चेक कीजिए।
बल्कि मैंने उस पोस्ट के अधूरेपन को लेकर टिप्पणी की है।
ये प्रीति कृष्ण कोई छद्मनामी है जिसे वर्धा से काफी शिकायतें हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस ब्लॉग के संचालन के बारे में उन्होंने जो बातें लिखी हैं वह आंशिक रूप से सही भी कही जा सकती हैं। मैं खुद ही दुविधा में हूँ।:(
सादर!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा, महाराष्ट्र-442001
ब्लॉग: सत्यार्थमित्र
वेबसाइट:हिंदीसमय
इसपर मैंने अपनी प्रतिक्रया दे दी है -
सिद्धार्थ जी,
मैंने इसे चेक किया, सचमुच यह यूनिकोड में नहीं है शायद कृतिदेव में है इसीलिए पढ़ा नही जा सका है , संभव हो तो इसे दुरुस्त करा दें, विवाद से बचा जा सकता है !
सादर-
रवीन्द्र प्रभात
पाठकों से कोई खतावार होता है क्या ……..
इधर उधर की खाते खाते पेट में गैस हो गया …… अपना रापचिक पाचक भिजवायें…….
प्रणाम.