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आशा ही जीवन है
By फ़ुरसतिया on March 11, 2011
आज ज्ञानजी की पोस्ट पढ़ी- डिसऑनेस्टतम समय। इसमें तमाम साथियों की टिप्पणियां हैं। इससे लगा कि हम अपने सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं। मैंने सोचा हम भी उदास हो जायें लेकिन इसी समय मुझे अपनी एक पुरानी पोस्ट याद आयी- आशा ही जीवन है। यह लेख उस समय हमने अनुगूंज के नवें लिये लिखा था जिसका आयोजन अनुनाद सिंह
ने किया था। अनुगूंज आयोजन के अंतर्गतआयोजक ब्लागर एक विषय देता था। उस
पर लोग अपनी प्रविष्टि लिखते थे (अपने ब्लाग पर)। उसकी सूचना अक्षरग्राम पर
देते थे। फ़िर आयोजक ब्लागर अक्षरग्राम पर अपना अवलोकनी चिट्ठा लिखता था।
अनुगूंज के बहाने लिखे गये लेख ब्लागजगत के बेहतरीन लेखों में से होंगे।
इस अनुगुंज का अवलोकनी चिट्ठा
देखकर आप उस समय के ब्लागरों के लेखन का जायजा ले सकते हैं। इसी बहाने हम
अपना करीब छह साल पहले लिखा लेख फ़िर से पोस्ट कर रहे हैं। देखिये शायद
आपको पसन्द आये।
वैसे तो यह मान लेने में मुझे कोई एतराज नहीं होना चाहिये कि आशा ही
जीवन है। पर जहां मैं सोचता हूं वहीं मामला गड़बड़ा जाता है। आशा ही जीवन
है कहना ठीक नहीं लगता। आशा -आशा है, जीवन -जीवन। यह सच है कि आशा का जीवन
में बहुत बड़ा योगदान होता है। पर आशा ही जीवन है कहना जीवन के बाकी तत्वों
की उपेक्षा करना है। जीवन का तो ऐसा है कि जो भी चीज जरूरी दिखी उसी को
कह दिया कि वही जीवन है। जल की कमी हो रही है तो जल बचत करने वाले जल
परियोजना से जुड़े लोग कहते हैं जल ही जीवन है। जो लोग देशप्रेम का झंडा
ऊंचा किये रहते हैं वे कहते हैं कि जो लोग देश को प्यार नहीं करते वे मरे
के समान हैं मतलब देश प्रेम ही जीवन है। लब्बो-लुआब यह कि जिस किसी को भी
महत्वपूर्ण बताना हुआ तो कह दिया कि वही जीवन है।
आशा ही जीवन है कहना कुछ वैसा ही है जैसे कि कुछ सालों पहले बरुआजी ने इंदिरागांधीजी के लिये कहा था -इंदिरा इज इंडिया। अब इंदिराजी नहीं पर देश टनाटन चल रहा है, वाबजूद तमाम उखाड़-पछाड़ के, सो इंदिरा इज इंडिया तो सही नहीं रहा होगा।
आशा जीवन के लिये महत्वपूर्ण हो सकती है। ड्राइविंग सीट पर बैठ कर जीवन की गाड़ी की दिशा निर्धारित कर सकती है पर भइये जैसे ड्राइवर और गाड़ी दो अलग इकाई हैं वैसे ही आशा अलग है जीवन अलग। बहुत लोग बिना किसी आशा के जीवन बिता देते हैं यह कहते हुये:-
सुबह होती है,शाम होती है
जिंदगी तमाम होती है.
बहुत लोग निराशा में ही जीवन बिता देते हैं उनके लिये निराशा ही जीवन है। आप लाख कहते रहो पर कि उनका जीना जीना नहीं है पर अगर वे कहते हैं हमारे लिये निराशा ही जीवन है तो आप अपनी आशा का कितना रंदा चलाओगे उन पर ? तो महाराज पहले तो मेरा यह बयान नोट किया जाये कि आशा ही जीवन है यह बात पूरी तरह सच नहीं है। जीवन में आशा के अलावा भी बहुत कुछ होता है।
यह तो हुआ मंगलाचरण। अब यह बतियाया जाये कि आशा है क्या ? हम बहुत पहले कह चुके हैं कि आशा हमारी पत्नी का नाम नहीं है। पर उस समय हम यह बताना छोड़ दिये थे कि आशा कौन है -किसका नाम है? तो अब वह बताने के प्रयास किया जाये.
आशा स्त्रीलिंग है। खूबसूरत है। आकर्षक है। बिना किसी उम्र-लिंग के
भेदभाव के सबकी चहेती है। जीवन को अगर संसद कहा जाये तो आशा मंत्रिमंडल है।
जीवन अगर कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है तो आशा वह शेयरधारक है जिसके पास
इस कंपनी के सबसे ज्यादा शेयर हैं। जीवन अगर कोई गाड़ी है तो आशा उसकी
ड्राईवर । जीवन अगर कोई इंजन है तो आशा उसका ईंधन।
आशा का स्थान बहुत जरूरी है जीवन में। बहुत कुछ होता है जीवन में जब मनचाहा नहीं होता। निराशा होती है। ऐसे समय में आशा एक संजीवनी होती है जिससे जीवन फिर उठ खड़ा होता है। आशा वह बतासा है जो जीवन के मुंह में घुल कर कड़वाहट दूर करता है। मिठाई में केवड़े की सुगन्ध की तरह है आशा की महक।
हमेशा से दुनिया में निराश होने का फैशन रहा है। आप देखिये अगर तो बहुतायत निराश लोगों की है। ये बहुसंख्यक निराश लोग भी अपने आसपास किसी आशा के दीप को जलते देखते हैं तो इनकी भी आंखें रोशनी की मीनार हो जाती हैं। आशा यह तेवर देती है कि हम किसी असफलता से सामना होने पर कह सकें:-
पराजित हैं हम
किंतु सदा के लिये नहीं
कल हम फिर उठेंगे
अधिक शक्तिऔर विवेक के साथ !
आशा हमें यह खिलंदड़ा उत्साह देती है जो पराजयों के इतिहास को भी अनदेखा करके कह सकें:-
अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते ,
दे शूल को संकल्प सारे.
हमारे एक कर्मचारी थे-वजीर अंजुम। वे डायबिटीज से पीड़ित थे। तमाम मध्यवर्गीय बीमारियां उनकी मेहमाननवाजी करतीं थीं। पर वे जब तरन्नुम में गाते :-
हादसे राह भूल जायेंगे,कोई मेरे साथ चले तो सही.
तो लगता कि तमाम अंधेरे में रोशनी की मीनार जल रही हो। वे आज नहीं हैं पर यह गीत उस मंत्र की तरह कानों में गूंजता है जिसको सुनते निराशा के भूत सर पर पैर रखकर नौ दो ग्यारह हो लेते हैं।
बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे जो आशा का झंडा फहराते हैं। तमाम सूत्र वाक्य मिल जायेंगे पर एक दिन मैंने किसी बोर्ड पर लिखा देखा- सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है। इससे बेहतर आशा का मंत्र मुझे नहीं मिला आजतक।
जीवन में हम तमाम परेशानियों से दो चार होते हैं। जिनसे हम पहले निपट चुके होते हैं उनसे निपटने के तरीके भी हमें पता होते हैं। पर जो नयी चुनौतियां आती हैं उनसे निपटने के नये तरीके भी खोजने होते हैं। पर आशा का लंगर वही होता है । यह स्थायी भाव है।
अब यहां तक काम भर का हो गया। अब लेख समेटा जा सकता है। पर सबसे पहले जो
मैंने स्वामीजी का लेख पढ़ा था उसकी पढ़ताल करने का मन कर रहा है। ये
बताते हैं आशा कुछ नहीं है। जो कुछ है वह महिमा प्रपंच की है। स्वामीजी
बताते हैं आशा ही जीवन नहीं है बल्कि प्रपंच ही जीवन
है। सच तो यह है कि न आशा ही जीवन है न प्रपंच ही जीवन हैं। आशा व प्रपंच
एक दूसरे की ‘मिरर इमेज’ हैं। आशा किसी शिखर की तरफ बढ़ते हुये के
धनात्मक भाव हैं तो प्रपंच शिखर से रपटते हुये किसी के वे कलाबाजियां हैं
जो शिखर-पतित येन-केन-प्रकारेण शिखर पर बने रहने के लिये करता है।
आशा का झंडा लहराते शिखर पर चढ़ते के लिये दुनिया वाह-वाह करती है। जबकि शिखर बचाये रखने के लिये प्रपंचरत के लिये दुनिया कहती है-देखो इनकी हवस नहीं गयी। आशावादी के प्रयास हनुमान के प्रयास होते हैं जिनकी सुरसा तक ,जिसे वे धता बताकर निकल आते है, तारीफ करती है। प्रपंचरत के प्रयास को स्वामीजी तक धूर्तता बताते हैं। आशा वरेण्य है,प्रपंच चुभता है। आशा तो सबको साथ लेकर चल सकती है। पर प्रपंच की त्रासदी होती है कि वह अकेला होता है। तमाम छल करने पड़ते हैं प्रपंच को। और जब वह बेनकाब होता है तो सदियों तक- हाय वे भी क्या दिन थे, कहने के लिये बाध्य होता है। प्रपंच तभी तक कामयाब होता है जब तक आशायें अलग-थलग रहती हैं। आशाओं के गठबंधन को देखकर प्रपंच पतली गली से निकल लेता है।
तो मतलब मेरा यही है कि अगर कोई कहता है आशा ही जीवन है तो आई बेग टु डिफर.पर यह भी सच है कि आशा बहुत बड़ी ताकत है जीवन को दिशा देने में.अगर डायलागियाया जाये तो कहा जा सकता है-आशा जीवन तो नहीं पर जीवन की कसम यह जीवन से कम भी नहीं.
बाकी तो तुलसी बाबा के शब्दों में:-
जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी.
साथी आओ कुछ देर ठहर जायें,
इस घने पेड़ के नीचे, सांझ ढले,
कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें
सन्नाटा कुछ टूटे कुछ मन बहले।
गीतों की ये स्वर-ताल मयी लड़ियां,
जुड़ती हैं जिनसे हृदयों की कड़ियां,
कोसों की वे दूरियां सिमटती हैं,
हंसते-गाते कटती दुख की घड़ियां।
भीतर का सोया वृंदावन जागे,
वंशी से ऐसा वेधक स्वर निकले।
माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
पर उससे ज्यादा तम का मातम है,
दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं,
चोटें हैं, तो चोटों का मरहम है,
काली-काली रातों में अक्सर,
देखे जग ने सपने उजले-उजले।
इस उपवन में बहार तब आती है,
पीड़ा ही जब गायन बन जाती है,
कविता अभाव के काटों में खिलती,
सुविधा की सेजों पर मुरझाती है;
हमसे पहले भी कितने लोग हुये,
जो अंधियारों के बनकर दीप जले।
आओ युग के संत्रासों से उबरें,
मन की अभिशप्त उसासों से उबरें,
रागों की मीठी छुवनों से शीतल
सुधियों की लहरों में डूबे-उछरें;
फिर चाहें प्राणों में बिजली कौंधे,
फिर चाहे नयनों में सावन मचले।
उपेंद्र, कानपुर।
आशा ही जीवन है
आशा ही जीवन है कहना कुछ वैसा ही है जैसे कि कुछ सालों पहले बरुआजी ने इंदिरागांधीजी के लिये कहा था -इंदिरा इज इंडिया। अब इंदिराजी नहीं पर देश टनाटन चल रहा है, वाबजूद तमाम उखाड़-पछाड़ के, सो इंदिरा इज इंडिया तो सही नहीं रहा होगा।
आशा जीवन के लिये महत्वपूर्ण हो सकती है। ड्राइविंग सीट पर बैठ कर जीवन की गाड़ी की दिशा निर्धारित कर सकती है पर भइये जैसे ड्राइवर और गाड़ी दो अलग इकाई हैं वैसे ही आशा अलग है जीवन अलग। बहुत लोग बिना किसी आशा के जीवन बिता देते हैं यह कहते हुये:-
सुबह होती है,शाम होती है
जिंदगी तमाम होती है.
बहुत लोग निराशा में ही जीवन बिता देते हैं उनके लिये निराशा ही जीवन है। आप लाख कहते रहो पर कि उनका जीना जीना नहीं है पर अगर वे कहते हैं हमारे लिये निराशा ही जीवन है तो आप अपनी आशा का कितना रंदा चलाओगे उन पर ? तो महाराज पहले तो मेरा यह बयान नोट किया जाये कि आशा ही जीवन है यह बात पूरी तरह सच नहीं है। जीवन में आशा के अलावा भी बहुत कुछ होता है।
यह तो हुआ मंगलाचरण। अब यह बतियाया जाये कि आशा है क्या ? हम बहुत पहले कह चुके हैं कि आशा हमारी पत्नी का नाम नहीं है। पर उस समय हम यह बताना छोड़ दिये थे कि आशा कौन है -किसका नाम है? तो अब वह बताने के प्रयास किया जाये.
आशा का स्थान बहुत जरूरी है जीवन में। बहुत कुछ होता है जीवन में जब मनचाहा नहीं होता। निराशा होती है। ऐसे समय में आशा एक संजीवनी होती है जिससे जीवन फिर उठ खड़ा होता है। आशा वह बतासा है जो जीवन के मुंह में घुल कर कड़वाहट दूर करता है। मिठाई में केवड़े की सुगन्ध की तरह है आशा की महक।
हमेशा से दुनिया में निराश होने का फैशन रहा है। आप देखिये अगर तो बहुतायत निराश लोगों की है। ये बहुसंख्यक निराश लोग भी अपने आसपास किसी आशा के दीप को जलते देखते हैं तो इनकी भी आंखें रोशनी की मीनार हो जाती हैं। आशा यह तेवर देती है कि हम किसी असफलता से सामना होने पर कह सकें:-
पराजित हैं हम
किंतु सदा के लिये नहीं
कल हम फिर उठेंगे
अधिक शक्तिऔर विवेक के साथ !
आशा हमें यह खिलंदड़ा उत्साह देती है जो पराजयों के इतिहास को भी अनदेखा करके कह सकें:-
अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते ,
दे शूल को संकल्प सारे.
हमारे एक कर्मचारी थे-वजीर अंजुम। वे डायबिटीज से पीड़ित थे। तमाम मध्यवर्गीय बीमारियां उनकी मेहमाननवाजी करतीं थीं। पर वे जब तरन्नुम में गाते :-
हादसे राह भूल जायेंगे,कोई मेरे साथ चले तो सही.
तो लगता कि तमाम अंधेरे में रोशनी की मीनार जल रही हो। वे आज नहीं हैं पर यह गीत उस मंत्र की तरह कानों में गूंजता है जिसको सुनते निराशा के भूत सर पर पैर रखकर नौ दो ग्यारह हो लेते हैं।
बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे जो आशा का झंडा फहराते हैं। तमाम सूत्र वाक्य मिल जायेंगे पर एक दिन मैंने किसी बोर्ड पर लिखा देखा- सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है। इससे बेहतर आशा का मंत्र मुझे नहीं मिला आजतक।
जीवन में हम तमाम परेशानियों से दो चार होते हैं। जिनसे हम पहले निपट चुके होते हैं उनसे निपटने के तरीके भी हमें पता होते हैं। पर जो नयी चुनौतियां आती हैं उनसे निपटने के नये तरीके भी खोजने होते हैं। पर आशा का लंगर वही होता है । यह स्थायी भाव है।
आशा का झंडा लहराते शिखर पर चढ़ते के लिये दुनिया वाह-वाह करती है। जबकि शिखर बचाये रखने के लिये प्रपंचरत के लिये दुनिया कहती है-देखो इनकी हवस नहीं गयी। आशावादी के प्रयास हनुमान के प्रयास होते हैं जिनकी सुरसा तक ,जिसे वे धता बताकर निकल आते है, तारीफ करती है। प्रपंचरत के प्रयास को स्वामीजी तक धूर्तता बताते हैं। आशा वरेण्य है,प्रपंच चुभता है। आशा तो सबको साथ लेकर चल सकती है। पर प्रपंच की त्रासदी होती है कि वह अकेला होता है। तमाम छल करने पड़ते हैं प्रपंच को। और जब वह बेनकाब होता है तो सदियों तक- हाय वे भी क्या दिन थे, कहने के लिये बाध्य होता है। प्रपंच तभी तक कामयाब होता है जब तक आशायें अलग-थलग रहती हैं। आशाओं के गठबंधन को देखकर प्रपंच पतली गली से निकल लेता है।
तो मतलब मेरा यही है कि अगर कोई कहता है आशा ही जीवन है तो आई बेग टु डिफर.पर यह भी सच है कि आशा बहुत बड़ी ताकत है जीवन को दिशा देने में.अगर डायलागियाया जाये तो कहा जा सकता है-आशा जीवन तो नहीं पर जीवन की कसम यह जीवन से कम भी नहीं.
बाकी तो तुलसी बाबा के शब्दों में:-
जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी.
मेरी पसन्द
इस घने पेड़ के नीचे, सांझ ढले,
कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें
सन्नाटा कुछ टूटे कुछ मन बहले।
गीतों की ये स्वर-ताल मयी लड़ियां,
जुड़ती हैं जिनसे हृदयों की कड़ियां,
कोसों की वे दूरियां सिमटती हैं,
हंसते-गाते कटती दुख की घड़ियां।
भीतर का सोया वृंदावन जागे,
वंशी से ऐसा वेधक स्वर निकले।
माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
पर उससे ज्यादा तम का मातम है,
दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं,
चोटें हैं, तो चोटों का मरहम है,
काली-काली रातों में अक्सर,
देखे जग ने सपने उजले-उजले।
इस उपवन में बहार तब आती है,
पीड़ा ही जब गायन बन जाती है,
कविता अभाव के काटों में खिलती,
सुविधा की सेजों पर मुरझाती है;
हमसे पहले भी कितने लोग हुये,
जो अंधियारों के बनकर दीप जले।
आओ युग के संत्रासों से उबरें,
मन की अभिशप्त उसासों से उबरें,
रागों की मीठी छुवनों से शीतल
सुधियों की लहरों में डूबे-उछरें;
फिर चाहें प्राणों में बिजली कौंधे,
फिर चाहे नयनों में सावन मचले।
उपेंद्र, कानपुर।
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Nishant की हालिया प्रविष्टी..आदतों से छुटकारा – सफलता की सीढ़ी
प्रमोद सिंह की हालिया प्रविष्टी..आयेगा आनेवाला
कनक, कविता, ललिता, सविता बकिया सबका लम्बर भी आयेगा। फ़िलहाल तो आशा के ही चर्चा हैं।
फिर यह कहूँगा कि जूदेव की भाषा में आपने सही फरमाया कि “आशा जीवन तो नहीं पर जीवन की कसम यह जीवन से कम भी नहीं.”
लेकिन ज़िंदगी ज़ुल्फ़ रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है. असल बात यह है कि धूल में गिर जाने पर सबसे पहले तो खड़े हुआ जाता है फिर कपडे झाड़े जाते हैं. फिर यह देखते हैं कि कहाँ चोट-खरोंच लगी है, फिर उसे पल में भुलाकर अगले खेल में शामिल हो लेते हैं. यह मैं अपनी दो साल की बिटिया के हवाले से कह रहा हूँ.
अपनी तमाम खामियों के बावजूद यह ज़िंदगी और दुनिया खूबसूरती के अनगिनत बेशकीमती लम्हे मुहैया कराती है. ईमानदारी और नैतिकता अगर कभी ख़त्म भी हो जाए तो उनके न होने पर अफ़सोस करना भी तो उम्मीद का दामन बांधना ही होगा न?
सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है. देखें किसे क्या मिलता है. जो डर गया, समझो वो मर गया!
होली कब है? कब है होली? कब?
Nishant की हालिया प्रविष्टी..आदतों से छुटकारा – सफलता की सीढ़ी
राप्चिक री-पोस्ट।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लाज लगने का साटि-फिटिक और लिंगानुपात
मनुष्य के परेशानियों से जूझने और तनाव कम करने के लिए इस से बेहतर जुमला मेरी नज़र से भी नहीं गुज़रा
आशावादिता जीवन नहीं है , हाँ जीवन की ऊर्जा ज़रूर है
बढ़िया पोस्ट
आशा जीवन नहीं है तो उसका आधार तो है ही.
Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..स्कैम- एरर ऑफ जजमेंट- फुल रेस्पोंसिबिलिटी और मनी-ट्रेल – भाग २
ठेलिंग रीठेलिंग कोई मुद्दा नहीं है यह विधाता का ही चाल चलन है जो मानव में परिलक्षित होता है. अगर यह रीठेलिंग ना हुआ होता तो हम जैसे लोग आशा से महरूम रह जाते
बड़े भाई को साधुवाद (हालाँकि आजकल हार वाद पर विवाद हो रहा है )
–
Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..स्कैम- एरर ऑफ जजमेंट- फुल रेस्पोंसिबिलिटी और मनी-ट्रेल – भाग २
एक के साथ ३-४ मुफ्त मिला……….मालामाल हो लिए………….
प्रणाम.
इमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं!
यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति …..
इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना
उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो !
बिलकुल सही कहा …
अगर ज्ञान भाई उदास है तो बड़ों की देखा देखी उदास होना जरूरी ही नहीं फ़र्ज़ भी होता है ! अब आपको देख मैं भी उदास हो जाता हूँ !
उदासी के लिए शुभकामनये गुरु !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..गायब होती मान मनुहार -सतीश सक्सेना
……….
@अरविन्द जी …पुनर् ठेलन ही सही कम से कम लोग -बाग़ अपने ब्लोगों को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं यह क्या कम है.
वर्ना आज कल के[एक दूसरे की टांग] खिंच तान के माहोल में ब्लॉग लेखन को वेंटिलेटर पर जाने से रोकना एक दुष्कर कार्य है .
——–
सुबह होती है,शाम होती है
जिंदगी तमाम होती है
इसे यूँ सुधार लिजीये
—सुबह होती है,शाम होती है
जिंदगी यूँ ही तमाम होती है.
——————————————-
और यहाँ भी ”जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी.”
–सुधार होना अपेक्षित है ..इस प्रकार होगा –
”जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी”
न जाने कैसे अरविन्द जी ये मौका कैसे चूक गए??
कृपया क्षमा का दान दिजीयेगा.
****
तूफानों में कश्ती के संग साहिल कहाँ डूबा करता है |
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है |
मेरा मानना है कि रि-ठेलन को ब्लॉगों का जीवित रखने का प्रयास नहीं माना जाय बल्कि इसे एक तरह से ब्लॉगिंग का ही आवश्यक तत्व माना जाना चाहिए जिसका कि उद्देश्य अपने लिखे हुए को नये जुड़े पाठकों से परिचित कराने के तरीके के रूप में देखा जाना चाहिए।
समय समय पर बज़ पर, ट्वीटर पर, फेसबुक आदि पर लोग आपसे जुड़ते चले जाते हैं औऱ ऐसे में जरूरी हो जाता है कि उनको भी वह सब चीजों से परिचित हो लेना चाहिए जो आपके हिसाब से उचित है, अच्छी है, पठन पाठन योग्य है।
दरअसल होता यह है कि हम नये की उम्मीद में पुराने को नहीं पढ़ते………या पढ़ने में आलस्य कर जाते हैं जबकि पुरानी पोस्टें भी उतने ही महत्व और वैचारिक धार वाली होती हैं जितनी कि नई। अब ये तो मानव स्वभाव है कि लोग ताजा मिले तो बासी पसंद क्यों करें
लेकिन ये भी तो सच है कि पुरानी पोस्टों को रख कर अचार थोड़े ही डालना है…….कि न तो उसे शो-केस में सजाकर रखना है। भई जो पुराना लिखा गया है उसमें भी तो समय लगा है, उर्जा लगी है….उसे कैसे नकारा जा सकता है।
फिर रि-ठेल भी वही कर सकता है जिसके पोस्ट की क्वालिटी समय बदलने पर भी प्रासंगिक हो कंटेंट-रिच हो, अथवा किसी किस्म का संस्मरण आदि हो। पाठकों की पसंद नापसंद के बारे में वैसे भी टिप्पणियों से पता चल ही जाता है कि कौन सी टिप्पणी थोथी है…..कौन सी भोथरी है……कौन सी टिप्पणी दिल से की गई है। और टिप्पणियों से ना भी पता चले…..लेकिन लेखक को तो अंदर से पता होता है कि उसने वाकई अच्छा लिखा है या केवल मजमा जुटाया है
( एक गुजारिश – आखरी पैरा पढ़ते हुए उसे मेरा दंभ न माना जाय…..बात कहनी थी सो कह दिया हूं : )
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लाज लगने का साटि-फिटिक और लिंगानुपात
…………………………………………………………………..आप ने कहा–:
-लेकिन लेखक को तो अंदर से पता होता है कि उसने वाकई अच्छा लिखा है या केवल मजमा जुटाया है
..@.सतीश पंचम जी . ..नमन आप को और इसी जैसा सीधा सच कह देने की हिम्मत रखने वालोंको!
पोस्ट पे नहीं टिपण्णी पे…………………
प्रणाम.
मै आशा करता हूँ आपके लेखन को पढते हुए मेरा जीवन अच्छा गुजरेगा……………..
rajendra awasthi. की हालिया प्रविष्टी..गीत
Gyan Dutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..डिसऑनेस्टतम समय
बहुत बहुत धन्यवाद बंधु…..आप लोगों के इन्ही स्नेहिल बतियों से मन हिलोर उठता है
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लाज लगने का साटि-फिटिक और लिंगानुपात
तो
सोनिया इज़ दुनिया
चंद्र मौलेश्वर की हालिया प्रविष्टी..उत्तर आधुनिकता का एक और उत्तर
“सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है। इससे बेहतर आशा का मंत्र मुझे नहीं मिला आजतक।”
इस सूत्र-वाक्य को पढने के बाद लगता नहीं, की इससे बेहतर वाक्य मिलेगा.
ऊर्जावान पोस्ट. अपनी पुरानी पोस्टें इसी तरह पढवाते रहिये.
वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..एक दाढ़ का व्रत
……………….मुझे तो यह बात बहुत पते की लगी.
‘नवयुवको के लिए आशा का सन्देश’ याद आ गया !
विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन ‘नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश’ अपना अलग व्यक्तित्व रखता था। वह दीवारों पर लिखे ‘नामर्दी के बिजली से इलाज’ जैसे अश्लील लेखों के मुकाबले में नहीं आता था। वह छोटे छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर – जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था – टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, ‘नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश’ नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी।
आशीष ‘झालिया नरेश’ की हालिया प्रविष्टी..परग्रही सभ्यता मे वैज्ञानिक विकास – परग्रही जीवन श्रंखला भाग ८
zeal की हालिया प्रविष्टी..कला को कलंकित करते उन्मादी चित्रकार
सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..उपन्यासकार समीर लाल समीर को पढ़ने के बाद
हो मुकम्मल तीरगी ऐसा कभी देखा न था
एक शम्अ बुझ गई तो दूसरी जलने लगी
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..फ़ुरसत में … साधुवाद!
हर मुश्किल का हल निकलेगा,
आज नहीं तो कल निकलेगा।
भोर से पहले किसे पता था,
सूरज से काजल निकलेगा।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..फ़ुरसत में … साधुवाद!
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..आज के दिन ही गांधी जी ने डांडी मार्च किया था
dr.anurag की हालिया प्रविष्टी..कभी चलना आसमानों पे मांजे की चरखी ले के
………..पर अभी भी इंतजार है ……………
होलिनाम.
तन रंग लो,
खेलो,खेलो उमंग भरे रंग,
प्यार के ले लो…
खुशियों के रंगों से आपकी होली सराबोर रहे…
जय हिंद…
प्रणाम.