http://web.archive.org/web/20140419213625/http://hindini.com/fursatiya/archives/2662
टुनटुन टी स्टॉल, बमबम पान भंडार और सौंन्दर्य की नदी नर्मदा
By फ़ुरसतिया on March 5, 2012
कल
इतवार को छुट्टी थी सो अपन उठाये मोटरसाइकिल चले गये भेड़ाघाट। दोस्तों ने
कुल दूरी बताई गयी 25 किमी। जहां-जहां पूछते गये वहां तक तो मामला सीधा
रहा। एक जगह पूछा नहीं- मारे कान्फ़ीडेंस के मारे । बस वहीं आगे निकल गये।
जहां मुड़ना था वहां से दस किलोमीटर आगे निकल गये। आत्मविश्वास की अति ने
बीस किलोमीटर ज्यादा दौड़ा दिया बेचारी गाड़ी को। एक बार फ़िर याद आया- अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है।
इसी हड़बड़ी में रास्ते के टुनटुन टी स्टॉल और बमबम पान भंडार के फ़ोटो खैंचना भूल गये।
पिछली बार जब आये थे तो भेडाघाट तो रस्सी-रास्ते से नहीं देखी थी नर्मदा। इस बार सबसे पहला काम यही किया। सत्तर रुपये का टिकट खरीदकर चढ़ लिये ट्राली में। ऊपर से देखा तो क्या तो गजब की सुन्दरता इठलाती बह रही थी नीचे। वेगड़जी ने सही ही लिखा है नर्मदाजी के बारे में- सौंदर्य की नदी नर्मदा।
पार उतरकर सबसे पहले चाय की दुकान खोजी। देखा एक भईये अपनी झोपड़ी में समोसा तल रह थे। कड़ाही में तेल कम था लेकिन दायें-बायें से समोसे अन्दर ठूंसते जा रहे थे। जैसे कोई गांव-कस्बे की बस का कण्डक्टर सवारी ठूंसता है बस में। चाकू से समोसा चलाते हुये वे उसके हर हिस्से को पकाते जा रहे थे। समोसा के साथ चटनी के रूप में मट्ठे का प्रयोग पहली बार देखा। पांच रुपये की चाय और पांच रुपये का समोसा। दाम बाजिब। कोई होटल/मोटल वाला होता तो इत्ते के कम से कम पचास तो ढीले करा लेता।मजे की बात कि पानी के पाउच बेचने के लिये उसकी दुकान में रखे थे फ़िर भी अगले ने पानी मुफ़्त पिलाया। नर्मदा का शीतल जल फ़्री आफ़ कास्ट!
चाय-समोसा के बाद नर्मदा – सौंन्दर्य निहारने का काम शुरू किया। कोई हड़बड़ी तो थी नहीं सो आराम से निहारा। फ़िर निहारा। फ़िर देखा और फ़िर-फ़िर देखा। इत्ते में जितना देख पाये तो देखकर बाकी का सौंन्दर्य बाकी आने वालों लोगों के देखने के लिये वहीं छोड़ दिया। रास्ते में चार-पांच साल के बच्चे/बच्चियां बेर बेच रहे थे।
आगे नदी तट पर एक झोपड़िया में साइन बोर्ड लगा था -मां नर्मदा डिजिटल कलर लैब। नर्मदा नदी का अपना डिजटल कलर लैब भी है।
काफ़ी देर नदी किनारे टहलते रहे। पल्ली तरफ़ धुआधार की रेलिंग और उसके आसपास धुंआधार फोटो खिचाते दिख रहे थे। कोई नदी में नहा रहा था॥ कोई पानी में पैर डाले बैठा था। कुछ लोग आपस में एक दूसरे पर पानी उलीच रहे थे।
हमने सोचा हम भी कुछ देर पानी में पैर डालकर बैठ रहें। लेकिन फ़िर सोचा पैर और तदन्तर मोजे भीग जायेंगे। सो नदी किनारे टहलते रहे। आगे देखा कि कुछ भैंसे नदी के पानी में आराम मुद्रा में विराज रहीं थीं। उनको देखकर याद आया कि कभी अज्ञेय जी ने नदी के पानी में खड़े होकर कविता पाठ किया था। हमने सोचा हम भी अपने मोबाइल से कोई पोस्ट निकालकर पोस्ट पाठ कर डालें। लेकिन फ़िर मटिया दिये। कारण- लफ़ड़ा वही था कि कपड़े भीग जाते। फ़िर अज्ञेयजी महान थे। तैयारी से गये थे। फोटो-सोटो का जुगाड़ करके गये थे। हम न महान , न कोई तैयारी न फोटो-सोटो का कोई पुख्ता इंतजाम। इसलिये इरादा जो बना भी नहीं उसे मुल्तवी कर डाला।
आगे एक स्थानीय युवा दम्पति कुछ बरतन लिये आता दिखा। देखते-देखते उसने वहां ही चूल्हा बनाया और खाना पकाना शुरु कर दिया। 25-30 साल का रहा होगा पुरुष। उसने बताया कि वह महीने में एकाध बार बीबी के साथ ऐसी पिकनिक पर जाता रहता है। कल की पिकनिक का खर्चा उसने बताया छह सौ रुपये। उसमें दारू के सौ रुपये भी शामिल थे। दारू की शीशी उसने दिखाई भी -गोवा ब्रांड। साथ खिलाने-पिलाने के लिये भी न्योता दिया। लेकिन हम मारे शरम के मना कर दिये। उसने बताया कि कभी-कभी पीते हैं दारू लेकिन जब पीते हैं बीबी के सामने। चोरी से पीने में लत लग जाती है। जिस दिन पीते हैं उस दिन बीबी से डरते हैं। बाकी दिन बीबी डरती है।मियां- बीबी में प्यार-मोहब्बत-लड़ाई-झगड़ा-मार-पीट सब होती है। मार-पीट क्यों करते हो पूछने पर उसने बताया कि अरे! बातचीत वाली मारपीट। आज तक कब्भी अपन ने हाथ नहीं उठाया। चाहे पूछ लेव सामने है।
अब हम मारपीट की क्या पूछते। शरीफ़ों की तरह खाने और पीने का न्योता ठुकराकर उसई हवा ट्राली से वापस आये। खरामा-खरामा चलते हुये धुंआधार पहुंचे। रास्ते में तमाम छोटी-छोटी दुकाने फ़ुटपाथ पर लगाये लोग बैठ थे। ज्यादातर महिलायें। दो-चार-दस रुपये के सामान।
धुंआधार के पास लोग खूब इकट्ठा थे। ज्यादातर लोगों के हाथ में मोबाइल कैमरा। मोबाइल कैमरे ने फ़ोटोग्राफ़रों का धन्धा चौपट कर दिया। इससे एक नुकसान यह भी हुआ है कि पहले लोग फ़ोटो बनवाकर सहेजते थे। सालों तक देखते थे। अब इस तुरंता माध्यम के चलते फ़ोटो की गति खैंचा/देखा/भूल गये टाइप हो गयी हैं।
धुंआधार के पास ही एक ही चट्टान के पास एक बीच की उमर का जोड़ा दिखा। पुरुष अपनी संगिनी को एक ही पोज में आधे घंटे से भी अधिक अपनी बांह में समेटे बैठा रहा। हम और सीन देखने के साथ-साथ उस पोज के कुछ बदलने की आशा और इंतजार में उसको थोड़ी-थोड़ी देर में देखते रहे। लेकिन उन लोगों ने मेरे वहां रहने तक पोज की यथास्थिति बरकरार रखी। घर जाकर जरूर उन्होंने अपनी हाथ और गरदन की मालिश/सिंकाई की होगी।
दोपहर की गर्मी में धुआंधार पर उड़ती पानी की बौछार की ठंडक सुकून देह लगती रही। लोग वहां नर्मदाजी को प्रणाम करके नारियल फ़ेंक रहे थे। नीचे भयंकर धुआंधार गर्जन करता हुआ प्रपात। देखा कि एक लड़का धीरे-धीरे चट्टानों के सहारे नीचे उतरता हुआ नदी के पानी तक पहुंचा। देखते-देखते उसने पानी में गोता लगाया और दो मिनट में झरने में डूबता-उतराता नारियल अपने हाथ में लेकर वापस आ गया। उमड़ते-घुमड़ते-गरजते झरने से वह ऐसे नारियल उठा लाया जैसे हम सड़क से अपना कोई सामान उठा रहे हों।
वहीं एक दृष्टिहीन बुजुर्ग अपने एकतारे/तूम्बड़ा पर टुनटुनाते पर भजन गा रहे थे -जानकी सोचे करत हैं लंका में। बार-बार इसी को सुनते हुये एक ने कहा- बाबा आगे सुनाओ। इस बार बाबा ने कहा- आगे कछु नईयां। मतलब आगे कुछ नहीं है। जो है बस यही है। बुजुर्गवार बीच-बीच में अपने सामने रखी थाली के पैसे टटोलकर अपनी जेब के हवाले करते जा रहे थे।
धुआंधार से लौटकर फ़िर से घाट पर आये नौका विहार के लिये। नाव वाले ने किराया बताया इकतालिस रुपये। हमें लगा कि देखो केवल नदी पार कराने के पैसे रोप-वे ने सत्तर रुपये लिये। पांच मिनट में। यहां घंटे भर के आदमी के पसीने की कीमत तीस रुपये कम। जमीन से ऊपर और जमीन पर सेवा के मूल्य अलग-अलग होते हैं। यह भी अन्दाजा लगा कि ऊपर की (काल्पनिक स्वर्ग) सेवाओं के बदले ही भगवान के दरबार में इत्ता चढ़ावा क्यों चढ़ता है और उनके इत्ते एजेंट क्यों बढ़ते जा रहे हैं।
नाव पर नर्मदा यात्रा का मजा अलग ही है। जिन लोगों ने यह यात्रा की है वे इससे सहमत होंगे। जिन लोगों ने नहीं की उनको असहमत होने का कोई तर्क नहीं होगा। बताते हैं दुनिया में ऐसे स्थल और कहीं नहीं है जो इतने खूबसूरत हों। नाववाले की कमेंट्री आशुकवि वाले अंदाज में जारी थी। लगभग एक सी ही कमेंट्री लेकिन हर बार सुनने का मजा अलग ही। लगा कि वह कोई आशु ब्लॉगर है! जिसका मुकाबला हाल-फ़िलहाल कोई कर सकता है तो वे अपने नुक्कड़ वाले अविनाश वाचस्पति जी ही हैं।
एक जगह गुलाबी चटटान दिखाते हुये नाव-गाइड ने बताया- रेखा ने यहां गुलाबी साड़ी पहन के सूटिंग की थी इसलिये चट्टान गुलाबी हो गयी। साड़ी बंबई की थी इसलिये रंगछूट गया। जबलपुर की होती तो साड़ी फ़ट भले जाती रंग न छूटता।
नदी के पानी की गहराई बताते हुये कई बार गाइड बोला- यहां उतरने पर सिंगल आदमी डबल हो जाता है। रात भर फ़्री में रहता है सुबह तैरता वापस आता है।
एक जगह बोला- यहां परेशान लोग परेशानी दूर करने आते हैं। बिना टिकट ऊपर जाते हैं। पकड़े जाने पर खाने-पीने-रहने का इंतजाम मुफ़्त में होता है।
बंदरकुदनी एक जगह है जहां नर्मदा दो पहाड़ों के बीच बहती है। यह वह जगह है जहां कहते हैं बंदर कभी कूदकर नर्मदा के एक किनारे से दूसरे किनारे चले जाते थे।
घटे भर के नौका विहार के बाद वापस आये। मोटरसाइकिल दबा के आधे घंटे में जबलपुर पहुंच गये। लौटते हुये आशीष श्रीवास्तव से मिलना हुआ। मूलत: जबलपुर में रहने वाले और फ़िलहाल बंगलौर में नौकरी करने वाले आशीष हमारी पोस्टें पढ़ते टिपियाते रहते हैं। लेकिन बहुत कहने के बावजूद अभी ब्लाग बनाने के झांसे में नहीं आये हैं। उनसे मिलने की बात बहुत दिन से तय थी। कल ही घर आये बंगलौर से। जब उनका फ़ोन आया तो हम भेड़ाघाट में बीच की उमर के जोड़े पर निगाह रखे हुये थे। फ़ोन आते ही वहां से ध्यान हटाकर बताया आते हैं मुलाकात करने।
यहां के सारे फोटो अपन के ब्लैकबेरी कैमरे से। टुनटुन टी स्टॉल और बमबम पान भंडार के फ़ोटो फ़िर कभी। ठीक है न !
इसी हड़बड़ी में रास्ते के टुनटुन टी स्टॉल और बमबम पान भंडार के फ़ोटो खैंचना भूल गये।
पिछली बार जब आये थे तो भेडाघाट तो रस्सी-रास्ते से नहीं देखी थी नर्मदा। इस बार सबसे पहला काम यही किया। सत्तर रुपये का टिकट खरीदकर चढ़ लिये ट्राली में। ऊपर से देखा तो क्या तो गजब की सुन्दरता इठलाती बह रही थी नीचे। वेगड़जी ने सही ही लिखा है नर्मदाजी के बारे में- सौंदर्य की नदी नर्मदा।
पार उतरकर सबसे पहले चाय की दुकान खोजी। देखा एक भईये अपनी झोपड़ी में समोसा तल रह थे। कड़ाही में तेल कम था लेकिन दायें-बायें से समोसे अन्दर ठूंसते जा रहे थे। जैसे कोई गांव-कस्बे की बस का कण्डक्टर सवारी ठूंसता है बस में। चाकू से समोसा चलाते हुये वे उसके हर हिस्से को पकाते जा रहे थे। समोसा के साथ चटनी के रूप में मट्ठे का प्रयोग पहली बार देखा। पांच रुपये की चाय और पांच रुपये का समोसा। दाम बाजिब। कोई होटल/मोटल वाला होता तो इत्ते के कम से कम पचास तो ढीले करा लेता।मजे की बात कि पानी के पाउच बेचने के लिये उसकी दुकान में रखे थे फ़िर भी अगले ने पानी मुफ़्त पिलाया। नर्मदा का शीतल जल फ़्री आफ़ कास्ट!
चाय-समोसा के बाद नर्मदा – सौंन्दर्य निहारने का काम शुरू किया। कोई हड़बड़ी तो थी नहीं सो आराम से निहारा। फ़िर निहारा। फ़िर देखा और फ़िर-फ़िर देखा। इत्ते में जितना देख पाये तो देखकर बाकी का सौंन्दर्य बाकी आने वालों लोगों के देखने के लिये वहीं छोड़ दिया। रास्ते में चार-पांच साल के बच्चे/बच्चियां बेर बेच रहे थे।
आगे नदी तट पर एक झोपड़िया में साइन बोर्ड लगा था -मां नर्मदा डिजिटल कलर लैब। नर्मदा नदी का अपना डिजटल कलर लैब भी है।
काफ़ी देर नदी किनारे टहलते रहे। पल्ली तरफ़ धुआधार की रेलिंग और उसके आसपास धुंआधार फोटो खिचाते दिख रहे थे। कोई नदी में नहा रहा था॥ कोई पानी में पैर डाले बैठा था। कुछ लोग आपस में एक दूसरे पर पानी उलीच रहे थे।
हमने सोचा हम भी कुछ देर पानी में पैर डालकर बैठ रहें। लेकिन फ़िर सोचा पैर और तदन्तर मोजे भीग जायेंगे। सो नदी किनारे टहलते रहे। आगे देखा कि कुछ भैंसे नदी के पानी में आराम मुद्रा में विराज रहीं थीं। उनको देखकर याद आया कि कभी अज्ञेय जी ने नदी के पानी में खड़े होकर कविता पाठ किया था। हमने सोचा हम भी अपने मोबाइल से कोई पोस्ट निकालकर पोस्ट पाठ कर डालें। लेकिन फ़िर मटिया दिये। कारण- लफ़ड़ा वही था कि कपड़े भीग जाते। फ़िर अज्ञेयजी महान थे। तैयारी से गये थे। फोटो-सोटो का जुगाड़ करके गये थे। हम न महान , न कोई तैयारी न फोटो-सोटो का कोई पुख्ता इंतजाम। इसलिये इरादा जो बना भी नहीं उसे मुल्तवी कर डाला।
आगे एक स्थानीय युवा दम्पति कुछ बरतन लिये आता दिखा। देखते-देखते उसने वहां ही चूल्हा बनाया और खाना पकाना शुरु कर दिया। 25-30 साल का रहा होगा पुरुष। उसने बताया कि वह महीने में एकाध बार बीबी के साथ ऐसी पिकनिक पर जाता रहता है। कल की पिकनिक का खर्चा उसने बताया छह सौ रुपये। उसमें दारू के सौ रुपये भी शामिल थे। दारू की शीशी उसने दिखाई भी -गोवा ब्रांड। साथ खिलाने-पिलाने के लिये भी न्योता दिया। लेकिन हम मारे शरम के मना कर दिये। उसने बताया कि कभी-कभी पीते हैं दारू लेकिन जब पीते हैं बीबी के सामने। चोरी से पीने में लत लग जाती है। जिस दिन पीते हैं उस दिन बीबी से डरते हैं। बाकी दिन बीबी डरती है।मियां- बीबी में प्यार-मोहब्बत-लड़ाई-झगड़ा-मार-पीट सब होती है। मार-पीट क्यों करते हो पूछने पर उसने बताया कि अरे! बातचीत वाली मारपीट। आज तक कब्भी अपन ने हाथ नहीं उठाया। चाहे पूछ लेव सामने है।
अब हम मारपीट की क्या पूछते। शरीफ़ों की तरह खाने और पीने का न्योता ठुकराकर उसई हवा ट्राली से वापस आये। खरामा-खरामा चलते हुये धुंआधार पहुंचे। रास्ते में तमाम छोटी-छोटी दुकाने फ़ुटपाथ पर लगाये लोग बैठ थे। ज्यादातर महिलायें। दो-चार-दस रुपये के सामान।
धुंआधार के पास लोग खूब इकट्ठा थे। ज्यादातर लोगों के हाथ में मोबाइल कैमरा। मोबाइल कैमरे ने फ़ोटोग्राफ़रों का धन्धा चौपट कर दिया। इससे एक नुकसान यह भी हुआ है कि पहले लोग फ़ोटो बनवाकर सहेजते थे। सालों तक देखते थे। अब इस तुरंता माध्यम के चलते फ़ोटो की गति खैंचा/देखा/भूल गये टाइप हो गयी हैं।
धुंआधार के पास ही एक ही चट्टान के पास एक बीच की उमर का जोड़ा दिखा। पुरुष अपनी संगिनी को एक ही पोज में आधे घंटे से भी अधिक अपनी बांह में समेटे बैठा रहा। हम और सीन देखने के साथ-साथ उस पोज के कुछ बदलने की आशा और इंतजार में उसको थोड़ी-थोड़ी देर में देखते रहे। लेकिन उन लोगों ने मेरे वहां रहने तक पोज की यथास्थिति बरकरार रखी। घर जाकर जरूर उन्होंने अपनी हाथ और गरदन की मालिश/सिंकाई की होगी।
दोपहर की गर्मी में धुआंधार पर उड़ती पानी की बौछार की ठंडक सुकून देह लगती रही। लोग वहां नर्मदाजी को प्रणाम करके नारियल फ़ेंक रहे थे। नीचे भयंकर धुआंधार गर्जन करता हुआ प्रपात। देखा कि एक लड़का धीरे-धीरे चट्टानों के सहारे नीचे उतरता हुआ नदी के पानी तक पहुंचा। देखते-देखते उसने पानी में गोता लगाया और दो मिनट में झरने में डूबता-उतराता नारियल अपने हाथ में लेकर वापस आ गया। उमड़ते-घुमड़ते-गरजते झरने से वह ऐसे नारियल उठा लाया जैसे हम सड़क से अपना कोई सामान उठा रहे हों।
वहीं एक दृष्टिहीन बुजुर्ग अपने एकतारे/तूम्बड़ा पर टुनटुनाते पर भजन गा रहे थे -जानकी सोचे करत हैं लंका में। बार-बार इसी को सुनते हुये एक ने कहा- बाबा आगे सुनाओ। इस बार बाबा ने कहा- आगे कछु नईयां। मतलब आगे कुछ नहीं है। जो है बस यही है। बुजुर्गवार बीच-बीच में अपने सामने रखी थाली के पैसे टटोलकर अपनी जेब के हवाले करते जा रहे थे।
धुआंधार से लौटकर फ़िर से घाट पर आये नौका विहार के लिये। नाव वाले ने किराया बताया इकतालिस रुपये। हमें लगा कि देखो केवल नदी पार कराने के पैसे रोप-वे ने सत्तर रुपये लिये। पांच मिनट में। यहां घंटे भर के आदमी के पसीने की कीमत तीस रुपये कम। जमीन से ऊपर और जमीन पर सेवा के मूल्य अलग-अलग होते हैं। यह भी अन्दाजा लगा कि ऊपर की (काल्पनिक स्वर्ग) सेवाओं के बदले ही भगवान के दरबार में इत्ता चढ़ावा क्यों चढ़ता है और उनके इत्ते एजेंट क्यों बढ़ते जा रहे हैं।
नाव पर नर्मदा यात्रा का मजा अलग ही है। जिन लोगों ने यह यात्रा की है वे इससे सहमत होंगे। जिन लोगों ने नहीं की उनको असहमत होने का कोई तर्क नहीं होगा। बताते हैं दुनिया में ऐसे स्थल और कहीं नहीं है जो इतने खूबसूरत हों। नाववाले की कमेंट्री आशुकवि वाले अंदाज में जारी थी। लगभग एक सी ही कमेंट्री लेकिन हर बार सुनने का मजा अलग ही। लगा कि वह कोई आशु ब्लॉगर है! जिसका मुकाबला हाल-फ़िलहाल कोई कर सकता है तो वे अपने नुक्कड़ वाले अविनाश वाचस्पति जी ही हैं।
एक जगह गुलाबी चटटान दिखाते हुये नाव-गाइड ने बताया- रेखा ने यहां गुलाबी साड़ी पहन के सूटिंग की थी इसलिये चट्टान गुलाबी हो गयी। साड़ी बंबई की थी इसलिये रंगछूट गया। जबलपुर की होती तो साड़ी फ़ट भले जाती रंग न छूटता।
नदी के पानी की गहराई बताते हुये कई बार गाइड बोला- यहां उतरने पर सिंगल आदमी डबल हो जाता है। रात भर फ़्री में रहता है सुबह तैरता वापस आता है।
एक जगह बोला- यहां परेशान लोग परेशानी दूर करने आते हैं। बिना टिकट ऊपर जाते हैं। पकड़े जाने पर खाने-पीने-रहने का इंतजाम मुफ़्त में होता है।
बंदरकुदनी एक जगह है जहां नर्मदा दो पहाड़ों के बीच बहती है। यह वह जगह है जहां कहते हैं बंदर कभी कूदकर नर्मदा के एक किनारे से दूसरे किनारे चले जाते थे।
घटे भर के नौका विहार के बाद वापस आये। मोटरसाइकिल दबा के आधे घंटे में जबलपुर पहुंच गये। लौटते हुये आशीष श्रीवास्तव से मिलना हुआ। मूलत: जबलपुर में रहने वाले और फ़िलहाल बंगलौर में नौकरी करने वाले आशीष हमारी पोस्टें पढ़ते टिपियाते रहते हैं। लेकिन बहुत कहने के बावजूद अभी ब्लाग बनाने के झांसे में नहीं आये हैं। उनसे मिलने की बात बहुत दिन से तय थी। कल ही घर आये बंगलौर से। जब उनका फ़ोन आया तो हम भेड़ाघाट में बीच की उमर के जोड़े पर निगाह रखे हुये थे। फ़ोन आते ही वहां से ध्यान हटाकर बताया आते हैं मुलाकात करने।
यहां के सारे फोटो अपन के ब्लैकबेरी कैमरे से। टुनटुन टी स्टॉल और बमबम पान भंडार के फ़ोटो फ़िर कभी। ठीक है न !
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 35 Responses
धुआंधार के बारे में जानकारी धुआंधार है !!!
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..बस एक दिन….
“जाट देवता” संदीप पवाँर की हालिया प्रविष्टी..SATTAL or SAT TAL सात ताल
भारतीय नागरिक की हालिया प्रविष्टी..नदियों में विसर्जित प्रदूषण .
/
@अज्ञानियों का आत्मविश्वास:
हमारा एक्सपीरिएंस यह रहा है कि जहाँ दोराहे पर भी एक रास्ते का चुनाव करना पड़ा है, तो अपने मन से चुना गया हर रास्ता गलत ही निकला है.. याद नहीं कभी इसका अपवाद भी मिला हो!!
/
@दारू की शीशी-गोवा ब्रांड:
ये तो गोवा के तौहीन है.. दारू की बोतल तो सुना है जिसको पीकर माइकल दंगा करता था!! शीशी से क्या होगा भला!!
हां गाना याद आया- फ़िर न कहना माइकल दारू पीकर दंगा करता है।
शर्म काहे कर गये आप? इत्ते पिरेम से अगले ने ऑफर किया था, हमारा प्रोटेस्ट नोट किया जाए|
एक पोज वाली बात में शायद ‘अपने अपने घर जाकर’ ज्यादा सही हो| आगे कछु नईयां:)
नाम ठीक कर दिए हैं जी ताकि सनद रहे:)
sanjay @ mo sam kaun…? की हालिया प्रविष्टी..community gap andor communication gap
“आगे कछु नईयां” के बाद ही सब कुछ होता है घर में ।
आशीष श्रीवास्तव की हालिया प्रविष्टी..सरल क्वांटम भौतिकी: परमाणु को कौन बांधे रखता है?
राहुल सिंह की हालिया प्रविष्टी..मिक्स वेज
बात पते की है, यह कई साल पहले रीडर्स डाइजेस्ट में पढ़ी थी तब से मैंने तो बाकायदा फ़ोटो प्रिंट करवाने शुरू कर दिये
बधाई !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..इस होली पर क्यों न साथियो,आओ सबको गले लगा लें -सतीश सक्सेना
मजे मजे की बात तो आपने बारे मजे से किये बट ‘मौज’ थोरी कहीं छुट-ती जा रही है……………हम-उम्र/उम्रदराज को छोर भी दें तो……….बालक-सालक तो ढेर कुनबे में हैं ही………………
प्रणाम.
मौज मजा भी होगा ! जरा सेट हो लें!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..परीक्षा की विधियाँ
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..सब्जियां निकलने लगी हैं कछार में
आप ऊ सूरा का गला नईं देक्खे जौन
असली संगीत बिखेरत है..
अगली हमाए बिना मत जैओ.. उते
आप खौं का बतावें
नारियल कया.. बे मौड़ा धुंआधार में दस्सी -चवन्नी के लाने कूद परत थे..
सिरकार नैं बंद कर दई.. मनौ कछुक आजउ बोल परत हैं..”साब दस्सी मैको..”
वापिस बंगलोर पहुँच गए है ……जबलपुर में तो होली की मस्ती में कंप्यूटर को हाथ तक नहीं लगाया ……
आशीष श्रीवास्तव