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भोपाल कब आयेगा
By फ़ुरसतिया on March 6, 2012
आजकल टेलीविजन पर अक्सर एक विज्ञापन आता है।
इसमें एक बुजुर्गवार ट्रेन पर चढ़्ते हैं। उनको भोपाल उतरना है। वे लोगों से पूछते रहते हैं कि भोपाल कब आयेगा। लोग उनको बताते नहीं। शायद उनकी बात नहीं समझ पाते। भाषा का चक्कर। रेल चलती रहती है। उनका सवाल अनुत्तरित रहता है। अंतत: वे निद्रावस्था को प्राप्त होते हैं। शायद आखिरी स्टेशन पर जब वे जगते हैं तो वे डिब्बे में अकेले यात्री बचे होते हैं। बाहर निकलकर प्लेटफ़ार्म पर आते हैं तो अपने को किसी दक्षिण भारतीय स्टेशन पर पाते हैं। स्टेशन का नाम दक्षिण भारतीय भाषा में लिखा होता है जिसे वे पढ़ नहीं पाते। लेकिन उनके पास एक चूंकि टाटा डुकोमा का मोबाइल है इसलिये चिंता की बात नहीं। मोबाइल से संपर्क सूत्र बना हुआ है।
पता नहीं रेलवे के लोगों ने यह विज्ञापन देखा कि नहीं। मेरे ख्याल से तो रेलवे को इसके खिलाफ़ आपत्ति जतानी चाहिये। रेलवे की आपत्ति की बात तो बाद में पहले आम जनता के हिसाब से मामला देखा जाये।
अपने यहां रेलवे में घुलने-मिलने का काम सबसे तेज होता है। ट्रेन के स्पीड पकड़ने तक जान-पहचान का सिलसिला शुरु हो जाता है। भाषा, क्षेत्र आदि इसमें कभी प्रभावी बाधा नहीं बन पाते। एक से पूछो दस बतायेंगे वाला मामला रहता है। ऐसे में मोबाइल कम्पनी कैसे यह कल्पना करती है कि रेल में कोई पूछेगा और उसको पता नहीं चलेगा कि भोपाल कब आयेगा। रेलवे में यात्री को बैठा के एकदम कल्पना के घोड़े दौडा दिये विज्ञापन की थीम बनाने वाले ने।
अपने समाज का भी यह अतिशयोक्ति पूर्ण नकारात्मक चित्रण है। एक बुजुर्ग पूछ रहा है भोपाल कब आयेगा और उसको कोई बता के नहीं दे रहा है कि कब आयेगा भोपाल। सिर्फ़ इसलिये कि उसको बताना है कि उसके डुकोमा का मोबाइल है इसलिये उसकी समस्या का हल उसको किसी दक्षिण भारतीय स्टेशन में उतार के थमा दिया जायेगा।
हम लोग आज से अपनी साइकिल यात्रा के दौरान जिन आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक गये थे। हम तेलगू, तमिल, मलयालम या कन्नड़ का ककहरा तक नहीं जानते थे। लेकिन हमको किसी भी जगह परेशानी का ’प’ तक नहीं मिला। यहां कैसे एक बुजुर्ग को विज्ञापन में पूछते-पूछते सुला दिया जाता है कि भोपाल कब आयेगा!
यह विज्ञापन पूरे देश के ताने-बाने की नकारात्मक और काल्पनिक छवि पेश करता है। इत्ता भी भाषा का लफ़ड़ा नहीं है अपने इधर। आप एक भोपाल पूछो रेल में तो लोग दस भोपाल के किस्से सुना देंगे। अपन के तो एक दोस्त का नाम ही भोपाल सिंह है। कोई उनसे पूछता तो खड़े हो जाते सामने – देखो खुद आ गया भोपाल आपके पास।
अब बात रेलवे की। रेलवे सभी स्टशनों में त्रिभाषा फ़ार्मूला इस्तेमाल करता है। जिन प्रदेशों की भाषा हिंदी है वहां स्टेशन के नाम हिंदी ,अंग्रेजी और अगर और उस प्रदेश की कोई राजभाषा होती है तो उस भाषा में भी में स्टेशन का नाम लिखा होता है। जहां भाषा हिंदी के अलावा कोई और भाषा है वहां उस स्थानीय प्रदेश की भाषा के साथ हिंदी और अंग्रेजी में स्टेशन का नाम लिखा होता है। यह अनिवार्यत: पालन करने वाला नियम है। जैसे कि ऊपर देखिये वाराणसी स्टेशन का नाम हिंदी अंग्रेजी और उर्दू में लिखा है। उर्दू उत्तर प्रदेश की द्वितीय राजभाषा है। (फोटो जाट देवता के ब्लॉग से)। इसी तरह बगल की फोटो देखिये चेन्नई बीच स्टेशन का नाम तमिल, हिंदी और अंग्रेजी में लिखा है।
ऐसा कैसे हुआ कि मोबाइल के प्रचारक को दक्षिण भारत में एक स्टेशन मिला जहां स्टेशन का नाम सिर्फ़ दक्षिण भारतीय भाषा में लिखा हुआ है।
हो सकता है कि किसी स्टेशन पर अपवाद स्वरूप नाम हिंदी/अंग्रेजी में लिखने से रह गया हो। लेकिन यह नियम का अपवाद है। अपवाद को विज्ञापित करना कहां की समझ है जी!
स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर पत्ते इस तरह बिखरे दिखाये गयें कि अगर किसी सही में वह कोई स्टेशन है तो उसका स्टेशन मास्टर निलंबित हो जाये।
प्लेटफ़ार्म पर गंदगी वाली बात पर दक्षिण भारत वाले भी खुन्नस खा जायेंगे। उनका एतराज हो सकता है कि साउथ इंडिया का प्लेटफ़ार्म कैसे इत्ता गंदा दिखा दिया- कोई उत्तर भारत समझ रखा है क्या?
वैसे तो विज्ञापन वाले कुछ भी दिखा देते हैं। एवरेस्ट पर पेट्रोल पम्प। जहां कुछ नहीं है वहां पर मोबाइल और भी न जाने क्या-क्या। लेकिन टाटा डुकोमा का यह विज्ञापन किसी भी नजरिये से भारतीय समाज पर फ़िट नहीं बैठता। एक बेचारे बुजुर्ग को गलत बहाने से रात भर टहलाया और सुबह एक अनजान जगह पर उतार दिया। भारतीय समाज के वर्मान ताने-बाने के लिहाज से इस विज्ञापन का संदेश एकदम गल्त है!
बताओ भला एक बुजुर्ग सबसे पूछता फ़िर रहा है और कोई उसे बताने वाला नहीं है – भोपाल कब आयेगा।
ऐसा माफ़िक विज्ञापन की दुनिया में ही हो सकता है।
लेकिन ऐसा विज्ञापन कोई बनाता है तो उसको सेंसर बोर्ड कैसे पास कर देता है? रेलवे इस पर कोई एतराज क्यों नहीं करता।
आपका क्या कहना है इस पर?
कही ऐसा तो नहीं कि अपन ही गलत समझे विज्ञापन को! और सही में ऐसा होता हो कि एक बुजुर्ग पूछता रहे सारी रात और उसे बताने वाला कोई न मिले कि भोपाल कब आयेगा।
लेकिन मुझे फ़िर लगता है कि ऐसा होता नहीं है। विज्ञापन वाले की सोच अललटप्पू टाइप है। कोई और अच्छा उपाय सोचना चाहिये मोबाइल बेचने का।
बुजुर्गवार तो खैर उतर गये। अपने ठिकाने भी पहुंच गये होंगे मोबाइल के सहारे। इन विज्ञापन कम्पनियों का भोपाल कब आयेगा?
इसमें एक बुजुर्गवार ट्रेन पर चढ़्ते हैं। उनको भोपाल उतरना है। वे लोगों से पूछते रहते हैं कि भोपाल कब आयेगा। लोग उनको बताते नहीं। शायद उनकी बात नहीं समझ पाते। भाषा का चक्कर। रेल चलती रहती है। उनका सवाल अनुत्तरित रहता है। अंतत: वे निद्रावस्था को प्राप्त होते हैं। शायद आखिरी स्टेशन पर जब वे जगते हैं तो वे डिब्बे में अकेले यात्री बचे होते हैं। बाहर निकलकर प्लेटफ़ार्म पर आते हैं तो अपने को किसी दक्षिण भारतीय स्टेशन पर पाते हैं। स्टेशन का नाम दक्षिण भारतीय भाषा में लिखा होता है जिसे वे पढ़ नहीं पाते। लेकिन उनके पास एक चूंकि टाटा डुकोमा का मोबाइल है इसलिये चिंता की बात नहीं। मोबाइल से संपर्क सूत्र बना हुआ है।
पता नहीं रेलवे के लोगों ने यह विज्ञापन देखा कि नहीं। मेरे ख्याल से तो रेलवे को इसके खिलाफ़ आपत्ति जतानी चाहिये। रेलवे की आपत्ति की बात तो बाद में पहले आम जनता के हिसाब से मामला देखा जाये।
अपने यहां रेलवे में घुलने-मिलने का काम सबसे तेज होता है। ट्रेन के स्पीड पकड़ने तक जान-पहचान का सिलसिला शुरु हो जाता है। भाषा, क्षेत्र आदि इसमें कभी प्रभावी बाधा नहीं बन पाते। एक से पूछो दस बतायेंगे वाला मामला रहता है। ऐसे में मोबाइल कम्पनी कैसे यह कल्पना करती है कि रेल में कोई पूछेगा और उसको पता नहीं चलेगा कि भोपाल कब आयेगा। रेलवे में यात्री को बैठा के एकदम कल्पना के घोड़े दौडा दिये विज्ञापन की थीम बनाने वाले ने।
अपने समाज का भी यह अतिशयोक्ति पूर्ण नकारात्मक चित्रण है। एक बुजुर्ग पूछ रहा है भोपाल कब आयेगा और उसको कोई बता के नहीं दे रहा है कि कब आयेगा भोपाल। सिर्फ़ इसलिये कि उसको बताना है कि उसके डुकोमा का मोबाइल है इसलिये उसकी समस्या का हल उसको किसी दक्षिण भारतीय स्टेशन में उतार के थमा दिया जायेगा।
हम लोग आज से अपनी साइकिल यात्रा के दौरान जिन आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक गये थे। हम तेलगू, तमिल, मलयालम या कन्नड़ का ककहरा तक नहीं जानते थे। लेकिन हमको किसी भी जगह परेशानी का ’प’ तक नहीं मिला। यहां कैसे एक बुजुर्ग को विज्ञापन में पूछते-पूछते सुला दिया जाता है कि भोपाल कब आयेगा!
यह विज्ञापन पूरे देश के ताने-बाने की नकारात्मक और काल्पनिक छवि पेश करता है। इत्ता भी भाषा का लफ़ड़ा नहीं है अपने इधर। आप एक भोपाल पूछो रेल में तो लोग दस भोपाल के किस्से सुना देंगे। अपन के तो एक दोस्त का नाम ही भोपाल सिंह है। कोई उनसे पूछता तो खड़े हो जाते सामने – देखो खुद आ गया भोपाल आपके पास।
अब बात रेलवे की। रेलवे सभी स्टशनों में त्रिभाषा फ़ार्मूला इस्तेमाल करता है। जिन प्रदेशों की भाषा हिंदी है वहां स्टेशन के नाम हिंदी ,अंग्रेजी और अगर और उस प्रदेश की कोई राजभाषा होती है तो उस भाषा में भी में स्टेशन का नाम लिखा होता है। जहां भाषा हिंदी के अलावा कोई और भाषा है वहां उस स्थानीय प्रदेश की भाषा के साथ हिंदी और अंग्रेजी में स्टेशन का नाम लिखा होता है। यह अनिवार्यत: पालन करने वाला नियम है। जैसे कि ऊपर देखिये वाराणसी स्टेशन का नाम हिंदी अंग्रेजी और उर्दू में लिखा है। उर्दू उत्तर प्रदेश की द्वितीय राजभाषा है। (फोटो जाट देवता के ब्लॉग से)। इसी तरह बगल की फोटो देखिये चेन्नई बीच स्टेशन का नाम तमिल, हिंदी और अंग्रेजी में लिखा है।
ऐसा कैसे हुआ कि मोबाइल के प्रचारक को दक्षिण भारत में एक स्टेशन मिला जहां स्टेशन का नाम सिर्फ़ दक्षिण भारतीय भाषा में लिखा हुआ है।
हो सकता है कि किसी स्टेशन पर अपवाद स्वरूप नाम हिंदी/अंग्रेजी में लिखने से रह गया हो। लेकिन यह नियम का अपवाद है। अपवाद को विज्ञापित करना कहां की समझ है जी!
स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर पत्ते इस तरह बिखरे दिखाये गयें कि अगर किसी सही में वह कोई स्टेशन है तो उसका स्टेशन मास्टर निलंबित हो जाये।
प्लेटफ़ार्म पर गंदगी वाली बात पर दक्षिण भारत वाले भी खुन्नस खा जायेंगे। उनका एतराज हो सकता है कि साउथ इंडिया का प्लेटफ़ार्म कैसे इत्ता गंदा दिखा दिया- कोई उत्तर भारत समझ रखा है क्या?
वैसे तो विज्ञापन वाले कुछ भी दिखा देते हैं। एवरेस्ट पर पेट्रोल पम्प। जहां कुछ नहीं है वहां पर मोबाइल और भी न जाने क्या-क्या। लेकिन टाटा डुकोमा का यह विज्ञापन किसी भी नजरिये से भारतीय समाज पर फ़िट नहीं बैठता। एक बेचारे बुजुर्ग को गलत बहाने से रात भर टहलाया और सुबह एक अनजान जगह पर उतार दिया। भारतीय समाज के वर्मान ताने-बाने के लिहाज से इस विज्ञापन का संदेश एकदम गल्त है!
बताओ भला एक बुजुर्ग सबसे पूछता फ़िर रहा है और कोई उसे बताने वाला नहीं है – भोपाल कब आयेगा।
ऐसा माफ़िक विज्ञापन की दुनिया में ही हो सकता है।
लेकिन ऐसा विज्ञापन कोई बनाता है तो उसको सेंसर बोर्ड कैसे पास कर देता है? रेलवे इस पर कोई एतराज क्यों नहीं करता।
आपका क्या कहना है इस पर?
कही ऐसा तो नहीं कि अपन ही गलत समझे विज्ञापन को! और सही में ऐसा होता हो कि एक बुजुर्ग पूछता रहे सारी रात और उसे बताने वाला कोई न मिले कि भोपाल कब आयेगा।
लेकिन मुझे फ़िर लगता है कि ऐसा होता नहीं है। विज्ञापन वाले की सोच अललटप्पू टाइप है। कोई और अच्छा उपाय सोचना चाहिये मोबाइल बेचने का।
बुजुर्गवार तो खैर उतर गये। अपने ठिकाने भी पहुंच गये होंगे मोबाइल के सहारे। इन विज्ञापन कम्पनियों का भोपाल कब आयेगा?
Posted in बस यूं ही | 33 Responses
भारतीय नागरिक की हालिया प्रविष्टी..नदियों में विसर्जित प्रदूषण .
आपकी फेसबुक प्रोफाईल पर मुझे टिप्पणियाँ नहीं दीख रहीं, केवल नोटिफिकेशन से पता चला कि आपने टिप्पणी के उत्तर में कुछ लिखा है। पर क्या लिखा है, यह नहीं दीख रहा।
Dr. Kavita Vachaknavee की हालिया प्रविष्टी..छत पर आग उगाने वाले दीवारों के सन्नाटों में क्या घटता है
हमारे यहाँ तो ट्रेन में बोल दो की फलां स्टेशन उतरना है तो बोलेंगे भैया सो जाओ, जब स्टेशन आने वाला होगा तो जगा देंगे, हम दो स्टेशन आगे जा रहे हैं |
और मान लो की वो न जाते हुए वहां तक तो कह देंगे, भैया जब हम उतरेंगे तो जगा देंगे उसके आगे देख लेना |
ट्रेन तो हमारे देश में एकता का प्रतीक हैं, जब इतिहास पढ़ रहे थे तो ये भी पढ़ा था कि ये भी एक वजह थी क्रांति के फ़ैलने की|
आज भी ट्रेन में राजनीति से लेकर खेल , कला से लेकर विज्ञान सारी चर्चाएँ हो जाती हैं | वित्त मंत्री को अर्थशास्त्र और विदेश मंत्री को विदेश नीति सिखा दे हमारे यहाँ के ट्रेन यात्री |
विज्ञापन तो स्टेशन कि बात कर रहा है केवल , हमारे यहाँ वाले तो ट्रेन के चलने तक कि jankaaree दे दे, एक मर्तबा एक स्टेशन पे हमारी ट्रेन रुकी , काफी देर खड़ी रही | एक भैया कहीं से पता करके आये और बोले
“स्टेशन मास्टर तो कहि रहे हैं पर हमका नाही लागत की क्रास हुईहै हियाँ पर”
मैंने विज्ञापन तो देखा नहीं है, पर मसौदा आपत्तिजनक लगता है |
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..अथ श्री “कार” माहत्म्य पार्ट-२
टाटा डोकोमो के विज्ञापन बनाने वाले ने एसी कमरे मे बैठकर बनाया होगा और कहा होगा “व्हाट एन आइडीया सर जी !”
आशीष श्रीवास्तव की हालिया प्रविष्टी..सरल क्वांटम भौतिकी: परमाणु को कौन बांधे रखता है?
ब्लॉग -चेतावनी: आप प्रवीण पांडे जी के क्षेत्राधिकार में प्रवेश कर रहे हैं ….कैसा संयोग कि उन्होंने भी आज रेल वृत्तांत लिखा है !
होली की सपरिवार रंगारंग शुभकामनाएं!
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..हे कवयित्री!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..अम्मा, गूगल और वेलु का पंजाबी ढाबा
यह विज्ञापन विवाद पैदा कर प्रचार पाने के लिए तो नहीं कि एक मामला भोपाल वाले, एक रेलवे और भी कोई भलामानस दायर कर दे ?
राहुल सिंह की हालिया प्रविष्टी..मिक्स वेज
….होली में यह विज्ञापन भी झेल लेंगे !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..बुरा न मानो होरी है !
वैसे यह विषय था छोटा, आपने खींचकर बड़ा लेख कर ही दिया!
कुछ साल पहले एक किताब पढी थी, नाम था- भारतीय विज्ञापनों में नैतिकता…
उसके हिसाब से तो आज का लगभग सारा विज्ञापन अनैतिक ही मालूम होता है… …
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..स्त्री और शब्द-2 (कविता)
आप की आपत्ति से हमारी सहमती है……………
प्रणाम.
ashish की हालिया प्रविष्टी..वंचिता
बहुत बढ़िया प्रस्तुति..
होली की शुभकामनायें!
आप सामाजिक रूप से जागरूक पोस्टकार बनते जा रहे हैं। यह आपकी मौज लेने की ईमेज के खिलाफ है। आप अपनी ईमेज की भी फिक्र करें!
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..सब्जियां निकलने लगी हैं कछार में
रवि की हालिया प्रविष्टी..जीवन पूरा एक वृत्त है…
sonal की हालिया प्रविष्टी..फागुन की बतिया
मै दक्षिण भारत का कोई रेलवे यार्ड समझ रही थी क्युकी स्टेशन तो लगा नहीं .
वैसे
एक बात और पूछनी थी आप को वो सज्जन बुजुर्ग क्यूँ लगे , बस इसलिये क्युकी सर पर बाल कुछ कम हैं ??
और सबसे महत्व पूर्ण बात
मैने ये महसूस किया हैं की ज्यादातर मोबाइल कम्पनी के कस्टमर कएर नंबर पर उसी प्रान्त की भाषा बोली जाती हैं जिस प्रान्त में उस समय नेटवर्क काम कर रहा हैं
बी अस अन अल तक में लैंड लाइन पर अगर ” इस रूट की सभी लाइन व्यस्त हैं आता हैं ” तो उसी प्रदेश की भाषा में होगा जहां आप नंबर मिलाते हैं
फिर टाटा डूकोमो जिस बात का प्रचार कर रहा वो कितनी सही हैं , क्या दक्षिण भारत में उनका कस्टमर कएर हिंदी में बात करेगा ???
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..येनांग विकार: ! (पटना ११)
होली मुबारक ..
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..जय हो….
वैसे सभी विज्ञापन आपके दृष्टान्त की तरह भदेस नहीं होते ! पुराने तौर तरीके से कहूँ तो ये मोहिनी मंत्र मारू तकनीक है जिससे मारे जाने वाले को पता भी नहीं चलता
ali syed की हालिया प्रविष्टी..भला क्या चाहता हूं मैं ?
रहस्य क्या है..? की हालिया प्रविष्टी..सर्च इंजिन (Search Engine) मे चीजो को आसानी से कैसे ढूंढे
शुभ-कामनाएँ !
शुभ-कामनाएँ !
आशा है कंपनी वाले अब अपना सुधार कर लेंगे और जिस सेंसर बोर्ड ने इसे पास किया होगा उसकी ओर से फुरसतिया जी को खेदप्रकाश का संदेश भी प्राप्त होगा।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..नन्हे हाथों का कमाल…
उतरने वाला व्यक्ति इतनी देर थोड़ी सोता रहेगा , इटारसी ,खंडवा या नागपुर भी तो आएगा …..कहीं न कहीं तो साथ वाले उतार ही देंगे ……..
आशीष श्रीवास्तव