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खोये सामान का मिलना
By फ़ुरसतिया on September 4, 2013
कल अचानक मेरे मोबाइल का खोया हुआ कवर मिल गया।
बहुत दिन से खोया था। करीब महीना हुआ। शायद और ज्यादा। हमने सब जगह खोज लिया था। घर, दफ़्तर, दोस्त का कमरा। यहां, वहां न जाने कहां-कहां। लेकिन अगले ने मिल के नहीं दिया। फ़िर सोचा जाओ यार नहीं मिलते तो न मिले। हम भी तुमको नहीं खोजते।
कवर के अभाव में मोबाइल बेचारा नंगा हो गया। जब तक जेब में पड़ा रहता तब तो ठीक। जब बाहर निकलता तो शरमाता हुआ सा निकलता। कुछ दिन बाद जब आदत पड़ गयी तो बेशरम हो गया। जेब में न भी रखो तब भी आराम से सामने पड़ा रहता।
ब्लैकबेरी के मोबाइल का ये कवर पहले भी खो चुका था एक बार। लेकिन उस बार खोते ही दूसरा ले आये थे। इसलिये कि मोबाइल नया-नया था उन दिनों। पन्द्रह हजार का मोबाइल बिना कवर के रहे यह अच्छा नहीं लगता। उस समय की मोबाइल की कवर की जरूरत ताजी प्रेमिका की फ़रमाइश सी लगी। पन्द्रह हजार के मोबाइल के लिये चार सौ का कवर कौन बड़ी चीज है। जैसे ही खोया फ़ौरन नया ले आये।
लेकिन इस बार हालात जरा अलग टाइप के थे। कवर जब खोया तो मोबाइल दो साल पुराना हो चुका था। जो मोबाइल मैं पन्द्रह हजार में लाया था उसी मॉडल का मेरा एक दोस्त हाल ही में लाया -नौ हजार के करीब। इधर-उधर गिरते-पड़ते मेरा मोबाइल राणा सांगा हो चुका है। कैमरे के मोतियाबिंद हो चुका है। मकान का फ़ोटो खैंचो लोग पूछते हैं ये कौन सा पेड़ है। दायें बायें वाले कई खिड़कियां ऐसे खुली हैं जैसे लगता है अपने देश की सीमा रेखा है ये। चीनी, पाकिस्तानी, बांगलादेशी जहां से जिसका मन आया घुसता चला आता है। लेकिन हम दूसरा कवर लेने का काम स्थगित किये रहे। नौ हजार के मोबाइल के लिये चार सौ का कवर लेना विलासिता लगने लगा।
मोबाइल का कवर न खरीदने के पीछे रुपये बाबू के खराब हाल का भी बहाना जुड़ गया। रुपया भाई इतनी तेजी से गिर रहें है कि हम उन्हीं को देखते रह गये हक्का-बक्का। फ़िर हमने अपने निर्णय में देशभक्ति भी नत्थी कर दी। ब्लैकबेरी विदेशी कम्पनी है। उसका कवर न खरीदेंगे। देश भक्त बनकर रुपये के हाल सुधारने में सहयोग करने लगे।
धीरे-धीरे बिना कवर का मोबाइल सहज लगने लगा। कवर के जरूरत ’बेफ़ालतू’। हमको यह भी इहलाम हुआ कि अपन की तमाम जरूरतें ’बेफ़ालतू’ की हैं। उनके बिना भी धड़ल्ले से काम चल सकता है।
लेकिन कल हुआ कि हमारी चाबियां भी गुम हो गयीं। हमको अच्छे से पता था कि चाबियां हमारे ही कमरे में हैं। लेकिन हमने पहले अपने दोस्तों के कमरे, मेस, दफ़्तर, गाड़ी, सड़क और तमाम दीगर जगहों पर कस के खोजाई की। जब नहीं मिली तो कमरे के कोने-अतरे तला्शने का काम शुरु किया। चाबी जरूरी थी सो वनवासी राम जैसे बेकल होते हुये सबसे पूछते जा रहे थे:
इसके बाद तो फ़िर चाबी भी मिल गयी। लैपटॉप के नीचे दबी हुई थी। इसके पहले पिछले हफ़्ते मोटर साइकिल की चाबी भी मिल चुकी जो और पहले खोयी थी।
ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है। चीजें खो जाती हैं। खोयी रहती हैं। खोजने पर नहीं मिलती। फ़िर कोई दूसरी चीज खोजने पर तीसरी मिल जाती है। चौथी खोजने पर आठवीं। कभी-कभी तो यह भी होता है कि तमाम वो चीजें भी मिलती हैं जो कभी खोयी नहीं होती हैं। लेकिन मिलने पर पता चलता है कि ये तो बहुत दिन से मिल नहीं रही थी।
अब जब इस समय यह लिख रहा हूं तो तमाम चीजें याद आ रही हैं जो काफ़ी दिन से मिल नहीं रही हैं। इनमें से मेरी हाईस्कूल की मार्कशीट भी है, पत्नी का पैन कार्ड है और भी कई चीजें हैं। ये खोई जरूर हैं लेकिन यह भरोसा है कि घर में ही कहीं हैं। मिल जायेंगी। आज नहीं तो कल।
यह तो अपने स्तर की बात हुई। देश के बारे में अगर देखा जाये तो कौन सोचता होगा कि देश के स्तर पर क्या-क्या खोया है? रुपये की कीमत, दुनिया में साख, आत्मनिर्भरता का भाव, आगे बढ़ने की ललक सभी कुछ तो कहीं खोया-खोया सा है। क्या पता ये सब कब वापस आयेंगे। कभी आयेंगे भी या नहीं।
लगता तो है कि एक न एक दिन सब वापस आयेगा। आयेगा और साथ में और भी बहुत कुछ लायेगा।
क्या आपको भी ऐसा लगता है?
बहुत दिन से खोया था। करीब महीना हुआ। शायद और ज्यादा। हमने सब जगह खोज लिया था। घर, दफ़्तर, दोस्त का कमरा। यहां, वहां न जाने कहां-कहां। लेकिन अगले ने मिल के नहीं दिया। फ़िर सोचा जाओ यार नहीं मिलते तो न मिले। हम भी तुमको नहीं खोजते।
कवर के अभाव में मोबाइल बेचारा नंगा हो गया। जब तक जेब में पड़ा रहता तब तो ठीक। जब बाहर निकलता तो शरमाता हुआ सा निकलता। कुछ दिन बाद जब आदत पड़ गयी तो बेशरम हो गया। जेब में न भी रखो तब भी आराम से सामने पड़ा रहता।
ब्लैकबेरी के मोबाइल का ये कवर पहले भी खो चुका था एक बार। लेकिन उस बार खोते ही दूसरा ले आये थे। इसलिये कि मोबाइल नया-नया था उन दिनों। पन्द्रह हजार का मोबाइल बिना कवर के रहे यह अच्छा नहीं लगता। उस समय की मोबाइल की कवर की जरूरत ताजी प्रेमिका की फ़रमाइश सी लगी। पन्द्रह हजार के मोबाइल के लिये चार सौ का कवर कौन बड़ी चीज है। जैसे ही खोया फ़ौरन नया ले आये।
लेकिन इस बार हालात जरा अलग टाइप के थे। कवर जब खोया तो मोबाइल दो साल पुराना हो चुका था। जो मोबाइल मैं पन्द्रह हजार में लाया था उसी मॉडल का मेरा एक दोस्त हाल ही में लाया -नौ हजार के करीब। इधर-उधर गिरते-पड़ते मेरा मोबाइल राणा सांगा हो चुका है। कैमरे के मोतियाबिंद हो चुका है। मकान का फ़ोटो खैंचो लोग पूछते हैं ये कौन सा पेड़ है। दायें बायें वाले कई खिड़कियां ऐसे खुली हैं जैसे लगता है अपने देश की सीमा रेखा है ये। चीनी, पाकिस्तानी, बांगलादेशी जहां से जिसका मन आया घुसता चला आता है। लेकिन हम दूसरा कवर लेने का काम स्थगित किये रहे। नौ हजार के मोबाइल के लिये चार सौ का कवर लेना विलासिता लगने लगा।
मोबाइल का कवर न खरीदने के पीछे रुपये बाबू के खराब हाल का भी बहाना जुड़ गया। रुपया भाई इतनी तेजी से गिर रहें है कि हम उन्हीं को देखते रह गये हक्का-बक्का। फ़िर हमने अपने निर्णय में देशभक्ति भी नत्थी कर दी। ब्लैकबेरी विदेशी कम्पनी है। उसका कवर न खरीदेंगे। देश भक्त बनकर रुपये के हाल सुधारने में सहयोग करने लगे।
धीरे-धीरे बिना कवर का मोबाइल सहज लगने लगा। कवर के जरूरत ’बेफ़ालतू’। हमको यह भी इहलाम हुआ कि अपन की तमाम जरूरतें ’बेफ़ालतू’ की हैं। उनके बिना भी धड़ल्ले से काम चल सकता है।
लेकिन कल हुआ कि हमारी चाबियां भी गुम हो गयीं। हमको अच्छे से पता था कि चाबियां हमारे ही कमरे में हैं। लेकिन हमने पहले अपने दोस्तों के कमरे, मेस, दफ़्तर, गाड़ी, सड़क और तमाम दीगर जगहों पर कस के खोजाई की। जब नहीं मिली तो कमरे के कोने-अतरे तला्शने का काम शुरु किया। चाबी जरूरी थी सो वनवासी राम जैसे बेकल होते हुये सबसे पूछते जा रहे थे:
हे कूड़े,करकट,मकड़ी की जाली,चाबी तो नहीं मिली लेकिन एक कोने में बेचारा मोबाइल कवर बरामद हुआ। असहाय सा पड़ा था। कित्ती छिपकलियां उस पर गुजरीं होंगी। कित्ती चुहियों ने उस पर कबड्डी खेली होगी। गर्द, गुबार में बेचारे के हाल रुपये जैसे हो गये थे। हमने उसको प्यार से उठाया। पहले गंदे कपड़े से, फ़िर साफ़ कपड़े से और फ़िर शर्ट से पोंछ कर सहलाया। उसके हाल कभी कड़क अफ़सर रहे और अब सालों से जेल में बंद बंजारा जी हाल सरीखे बेहाल लगे। हमने उसको लाड़ से सहलाकर मोबाइल उसमें धर लिया। कभी मेले में बिछुड़ गये भाई जब वर्षों बाद मिलते हैं तो एक-दूसरे के गले मिलकर मारे खुशी के रोने लगते हैं वैसे ही मोबाइल और कवर आपस में मिलकर भावुक हो गये। उनका प्रेम देखकर आंखें गीली हो गयीं।
तुम देखी मेरे ताली की ताली?
इसके बाद तो फ़िर चाबी भी मिल गयी। लैपटॉप के नीचे दबी हुई थी। इसके पहले पिछले हफ़्ते मोटर साइकिल की चाबी भी मिल चुकी जो और पहले खोयी थी।
ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है। चीजें खो जाती हैं। खोयी रहती हैं। खोजने पर नहीं मिलती। फ़िर कोई दूसरी चीज खोजने पर तीसरी मिल जाती है। चौथी खोजने पर आठवीं। कभी-कभी तो यह भी होता है कि तमाम वो चीजें भी मिलती हैं जो कभी खोयी नहीं होती हैं। लेकिन मिलने पर पता चलता है कि ये तो बहुत दिन से मिल नहीं रही थी।
अब जब इस समय यह लिख रहा हूं तो तमाम चीजें याद आ रही हैं जो काफ़ी दिन से मिल नहीं रही हैं। इनमें से मेरी हाईस्कूल की मार्कशीट भी है, पत्नी का पैन कार्ड है और भी कई चीजें हैं। ये खोई जरूर हैं लेकिन यह भरोसा है कि घर में ही कहीं हैं। मिल जायेंगी। आज नहीं तो कल।
यह तो अपने स्तर की बात हुई। देश के बारे में अगर देखा जाये तो कौन सोचता होगा कि देश के स्तर पर क्या-क्या खोया है? रुपये की कीमत, दुनिया में साख, आत्मनिर्भरता का भाव, आगे बढ़ने की ललक सभी कुछ तो कहीं खोया-खोया सा है। क्या पता ये सब कब वापस आयेंगे। कभी आयेंगे भी या नहीं।
लगता तो है कि एक न एक दिन सब वापस आयेगा। आयेगा और साथ में और भी बहुत कुछ लायेगा।
क्या आपको भी ऐसा लगता है?
Posted in बस यूं ही | 8 Responses
amit kumar srivastava की हालिया प्रविष्टी..“शीर्षक कैसा हो…….”
मंगलकामनाएं !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..इतने भी मगरूर न हों, सम्मान न दें , इन प्यारों को -सतीश सक्सेना
भारतीय नागरिक की हालिया प्रविष्टी..क्या हमारे यहाँ सही अर्थों में लोकतन्त्रिक व्यवस्था लागू है?
अच्छा अच्छा तो यह पोस्ट इसलिए भी है कि तनिक रौब गांठा जा सके कि हम कोई टटपुजिया हिन्दी ब्लॉगर नहीं बल्कि ब्लैक बेरी रखता हूँ !
वैसे ब्लैकबेरी कई ब्लॉगर रखते हैं
वैसे जरा सावधान रहिएगा किसी की अमानत जवानी मत कहीं खोवा दीजियेगा -नहीं तो उसे इकहरे दुहरे भरेपूरे में खीजने का झंझट मोल लेना होगा -आसाराम जी का देख ही रहे हैं
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..गोरे रंग पर ना गुमान कर.…
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..पर्यटन – आनन्द का कार्य
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..संयोग