Saturday, April 01, 2017

लखनऊ में व्यंग्य पाठ






मार्च का महीना सरकारी पैसे के कतल का महीना होता है। जो ग्रांट मिली उसको कत्ल कर डालो। जगह-जगह सरकारी ग्रांट के बूचड़खाने खुल जाते हैं। मार्च खत्म हो इसके पहले ग्रांट निपटा दो। देर हुई तो गई ग्रांट। सरकारी विभागों के ज्यादातर कार्यक्रम ’ग्रांट खपाऊ टाइप’ होते हैं। सबसे ज्यादा खरीदारी खर्चा मार्च के आखिरी दिनों में होता है। लक्ष्मी जी बहुतै चंचला होती हैं मार्च में।
लेकिन कभी-कभी बढिया जगह भी खर्च होता है पैसा। जैसे नेशनल बुक ट्रस्ट की तरफ़ से लखनऊ में हुये कार्यक्रम में हुआ 29-30 मार्च को। कथा, व्यंग्य और कवि लोगों बुलवाकर उनसे पाठ कराया गया। इसके पहले नेट पर शब्द विषय पर गोष्ठी हुई।
व्यंग्यकार के नाम से ख्यात होने के नाते हम भी दो दिन पहले एक कार्यक्रम के भागीदार बने। दो दिन पहले लखनऊ में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास मने नेशनल बुक ट्रस्ट के आयोजन में व्यंग्य पाठ करके आये। जब लालित्य ललित जी ने बुलौवा दिया तब लगा नहीं था कि जा पायेंगे। लेकिन हमको जो लगता है अक्सर वो होता नहीं है। इसलिये लखनऊ पहुंच ही गये। लौट भी आये।
मार्च के आखिरी दिन सरकारी दफ़्तरों में व्यस्त रहने के दिन होते हैं। नालायक से नालायक कर्मचारी ’सांस तक लेने की फ़ुरसत नहीं’ का हल्ला मचाता है। हमने सोचा हमें भी छुट्टी नहीं मिलेगी। लेकिन हमको दफ़्तर में हमारी औकात तब पता चली जब बिना एतराज के हमारी छुट्टी स्वीकृत हो गयी। मन दुखी हो गया छुट्टी पाकर। मन तो हुआ बहस करें। उलाहना दें -’क्या हम इतने भी लायक नहीं कि छुट्टी भी न रोकी जा सके।’ चुपचाप लखनऊ चले आये।
लखनऊ पहुंचने के बाद सुबह जब रमेश तिवारी को फ़ोन किया तो पता चला कि अनूप श्रीवास्तव जी बगल में थे। बताया- ’एक हाथ से जलेबी खा रहे हैं। दूसरे से फ़ोन पकड़े हैं।’ हमें लगा हमको भी बुलायेंगे कि आओ तुम्हारे लिये जलेबी बचा के रखी है। लेकिन आखिरी में यही कहा गया - ’सीधे पहुंचो घटनास्थल पर।’
घटनास्थल तक पहुंचने के लिये जो कैब करी उसका ड्राइवर भटकाते हुये लाया। हर सौ कदम पर हमने उसको मिनमिनाते हुये हड़काया। जैसे बुजुर्ग लेखक नयों पर झल्लाते हैं। सरोकारी लोग सपाटबयानी वालों को हड़काते हैं। सपाटबयानी वाले गाली सम्प्रदाय को निपटाते हैं। लेकिन वो पट्टा ड्राइवर भी नयी उमर के नौजवानों की तरह कैब हांकने में लगा रहा।
पहुंचते ही अनूप श्रीवास्तव, लालित्य ललित, रमेश तिवारी, अलंकार रस्तोगी मिले। अलंकार ने किसी को बताना नहीं वाले अंदाज में फ़ुसफ़ुसाते हुये उनको युवा के पी सक्सेना सम्मान मिलने की जानकारी दी। हमने बिना कुछ मजे लिये उनको बधाई दी। अपने आदर्श लेखक के नाम का सम्मान मिलना खुशी की बात है !
इस बीच लालित्य भाई ने मानदेय का पर्चा थमाया और अपनी किताब ’विलायती राम पांडेय’ सप्रेम भेंट कर दी। हमने पर्चा भरा और किताब धर ली। गुफ़्तगू में मशगूल हो गये।
लालित्य ललित की इंतजामिया क्षमता कमाल की है। दूसरे शहर पहुंचकर सब इंतजाम करना, श्रोता, वक्ता, दर्शक जुटाना, प्रचार करना, कार्यक्रम सफ़ल बनाना वह सब भी बिना किसी तनाव के भाव चेहरे पर लाये। इसमें उनके गोल-मटोल प्यारे मुखड़े का भी योगदान होगा। गोलाई में तनाव ठहर ही नहीं पाता होगा। फ़िसलकर टपक जाता होगा।
इस बीच पता चला कि गोपाल चतुर्वेदी जी, नरेश सक्सेना जी पधार गये। दीप जल गये। लालित्य ललित ने कार्यक्रम शुरु कर दिया। सरस्वती वंदना की सीमाक्षी विशाल श्रीवास्तव जी ने। जिनके लिये हम बार-बार लिखते रहे समीक्षा/मीनाक्षी।
पहला सत्र कहानी पाठ का था। चार कहानी कारों में मात्र दो आये थे। अखिलेश जी और हरेप्रकाश उपाध्याय आये नहीं। राष्ट्रीय स्तर के इस कहानी पाठ कार्यक्रम में कुल जमा 28 लोग थे। इन 28 लोगों में फ़ोटोग्राफ़र, चाय पिलाने वाले और कहानी पाठ के बाद व्यंग्य और कविता पाठ करने वाले लोग भी शामिल थे। शुद्ध श्रोता के रूप में एकमात्र सुशीला पुरी जी वहां मौजूद दिखीं। उनके भी घर से बार-बार फ़ोन आ रहे थे लेकिन हमने उनसे अनुरोध किया कि हमारा व्यंग्य पाठ सुनकर ही जायें। वे मान भी गयीं। हमें लगा कि जितनी अच्छी कवियत्री मैं उनको मानता उससे कहीं बेहतर कविता लिखती हैं वे।
पहले विपिन कुमार शर्मा ने कहानी पढी जिसकी लब्बोलुआब यह था कि बाजार सब पर हाबी हो रहा है। लंबी कहानी पढते समय शुरुआत में वे चश्मे से थोड़ा सहमे हुये अंदाज में देखते भी जा रहे थे कि लोग सुन रहे हैं कि नहीं। डरे भी लगे। लेकिन जब देखा कि श्रोता चुप हैं तो फ़िर उन्होंने पूरी कहानी तसल्ली से पढ ही डाली।
विपिन कुमार शर्मा जी के बाद रजनी गुप्त ने अपनी कहानी पढी। शीर्षक था- अंधोतमा। मतलब अंधेरे के अंदर का अंधेरा। छुट्टी लेकर कहानी पाठ करने आईं रजनी जी जिस स्पीड से कहानी पढ रहीं थीं उससे लगा कि उनको दफ़्तर जाने की जल्दी थी। परिस्थिति के मारे एक गरीब बच्चे के माफ़िया के चंगुल में फ़ंस जाने और उसको बचा लेने की मंशा रखने वाली मन:स्थिति की कहानी।
बाद में सुभाष राय ने ’मैं कोई कहानी का विशेषज्ञ नहीं हूं’ कहते हुये अपनी राय जाहिर की कि कहानी पढने का अंदाज कम प्रभावी था। इकहरी कहानी थी। रजनी जी के बारे में बताया कि वे तेज पढ रहीं थीं कि काफ़ी कुछ सुन नहीं पाये। प्रताप सहगल जी ने अपनी राय बताई- रजनी की कहानी में पॉज नहीं थे। कहानी पाठ में पॉज जरूरी होते हैं। तेजेन्द्र शर्मा के कहानी पढने के अंदाज के बारे में बताया- तेजेन्दर शर्मा ऐसे कहानी पढते हैं मानो कहानी का नाट्य रूपान्तरण कर रहे हों। विपिन कुमार शर्मा की कहानी के बारे में राय जाहिर करते हुये प्रताप जी ने बताया - सीधी सरल एक रेखीय कहानी है। कहानी के साथ चारित्रिक जटिलतायें भी चलनी चाहिये।
कहानी सत्र के बाद दस मिनट का अंतराल था। इसी अंतराल में सबको जनवादी नाश्ता थमाया गया। आलूओं के पलंग पर लेटी हुई दो-दो पूड़ी सबको थमाई गयीं। आलू के साथ छिलके नेता के साथ चमचे की तरह चपटे हुये थे। चाय अच्छे दिन की दिन तरह बहुत देर तक दिखी नहीं। जनवादी नाश्ता कराने का तर्क शायद यह रहा हो कि तगड़ा नाश्ता करके व्यंग्य पढने वाले और सुनने वाले भी ऊंघने ने लगें। यह भी हो सकता है कि ग्रांट में खाने-पीने पर खर्च कम बचा हो। दो चाय और दो पूड़ी पर पांच घंटे का सत्र खैंच दिया गया।
पूड़ी-चाय से इलाहाबाद में 2008 में हुये पहले ब्लॉगर सम्मेलन की याद आई। दो दिन चले इस सत्र में करीब पचास लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था थी। शानदार कार्यक्रम हुआ। यादगार। अरविन्द मिश्र जी ने उसकी रिपोर्ट लिखते हुये समारोह में बद इंतजामी धुर्रियां उड़ाते हुये लिखा- “वहां सर्व की हुई चाय ठंडी थी और कमरों में मच्छरदानी की व्यवस्था नहीं थी।“ वे भी क्या दिन थे।
व्यंग्य सत्र शुरु होते ही हाल में कुल जमा लोगों की संख्या 28 से बढकर 40 हो गयी। यह कहानी के मुकाबले व्यंग्य की लोकप्रियता का प्रमाण है। गोपाल चतुर्वेदी जी इस सत्र के अध्यक्ष बनाये गये। रमेश तिवारी संचालक। रमेश तिवारी जी ने शानदार संचालन किया लेकिन आवाज थोड़ा कम करके क्यों बोले यह समझ में नहीं आया।
सुधीर मिश्र पहले व्यंग्य वाचक थे। बताया गया कि वे नवभारत टाइम्स में ’खुले मन से’ कॉलम लिखते हैं। अध्यक्ष जी ने पांच से छह मिनट निर्धारित किये थे व्यंग्य पाठ के। सुधीर जी ने अपना व्यंग्य पढा -कारवां गुजर गया। इसके बाद एक के साथ दो फ़्री वाले अंदाज में दो व्यंग्य और घसीट दिये- ’गधे का स्टेटस’ और ’भूख’। मौका मिला है तो सब पढ लो वाले अंदाज में एक की जगह तीन व्यंग्य पढ लिये भाई जी ने। हमारे बगल में बैठे एक श्रोता ने उनके किसी व्यंग्य पर अपनी प्रतिक्रिया दी- ’यह सटायर तो नही है।’ हमारा उनको टोंकने का मन हुआ -’आप कोई संतोष त्रिवेदी हैं जो कहें यह व्यंग्य नहीं है।’ लेकिन फ़िर टोंका नहीं। इस डर से कि कहीं वो मेरा व्यंग्य पाठ सुने ही न चले जायें।
सुधीर मिश्र के बाद अलंकार रस्तोगी ने अपना व्यंग्य पढा -’ साहित्य उत्थान का शर्तिया इलाज’ । अलंकार ने व्यंग्य में तीन अनूप का जलवा होने की बाद जब कही तो लगा कि भाई यहां से सीधे नोटरी के पास जाकर कहीं अपना नाम अनूप रस्तोगी करवाने का जुगाड़ न करने लगें।
जब अलंकार पढ रहे थे -’मांस नोचना किसे नहीं अच्छा लगता’ उसी समय हमारे घर से फ़ोन आ गया। रिकार्डिंग में व्यवधान हुआ। सेंसर टाइप ही समझा जाये। हमने नोटपैड में लिखा- ’महिला विमर्श लखनऊ के व्यंग्यकारों का पसंदीदा मुद्दा है।’ मेरी इस बात से लखनऊ के जिन भी व्यंग्यकारों को एतराज है वे यह समझें कि हम उनके बारे में नहीं कह रहे हैं।
इसके बाद संजीव जायसवाल जी ने अपना व्यंग्य पढा ’मत’। इसमें मतदान पर अपनी बात कही गयी थी। उसकी रिकार्डंग अलग से पोस्ट करेंगे। लेकिन जब संजीव जायसवाल जी परिचय बताया गया कि उन्होंने 1000 से अधिक कहानियां लिखी हैं, न जाने कितने इनाम मिले हैं तब अपनी अल्पज्ञता के बारे में इहलाम हुआ। हमने अपने को चुपचाप बिना हल्ला मचाये धिक्कार भी लिया।
अंशुमान खरे जी का व्यंग्य गढ्ढा संस्कृति पर था। सड़क के गढ्ढों के बहाने अपनी बात रखी गयी थी।
अनूप मणि त्रिपाठी ने ’अयोध्या की रामकहानी’ वाले चार छोटे-छोटे व्यंग्य पढे। समय सीमा के अंदर। अनूप ने हमसे राय मांगी थी तो हमने सुझाव दिया था कि ’शो रूम में जननायक’ पढो। उन्होंने मना नहीं किया लेकिन मेरी राय मानी नहीं। इससे एक बार फ़िर साबित हुआ कि व्यंग्य में लोग सीनियर्स का लिहाज नही करते। मनमानी करते हैं।
अनूप के व्यंग्य पढने के अंदाज की सबसे खूब तारीफ़ की। गोपाल जी ने इस बात को खासतौर से कहा-’अनूप के व्यंग्य पढने का अंदाज बहुत अच्छा है।’ अनूप मणि के व्यंग्य पाठ की रिकार्डिंग अलग से पोस्ट करेंगे। उन्होंने पांच मिनट की समय के अंदर अपने व्यंग्य पढ लिये। इससे यह भी साबित हुआ कि बालक मंच के अनुशासन को मानता है।
वीणा सिंह ने अपना व्यंग्य पाठ मूर्खता का रिकार्ड पढा। मने अप्रैल फ़ूल का अभ्यास। वीणा सिंह आजकल नियमित लिख रही हैं , छप भी रही हैं। मैंने उनको ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ में भी लिखने के लिये अनुरोध किया। उन्होंने स्वीकार भी किया। उनका व्यंग्य पाठ भी रिकार्ड किया है हमने।
लालित्य ललित ने भी मंच के पास होने से ज्यादा आयोजक होने का फ़ायदा उठाते हुये अपना व्यंग्य पाठ किया-’पुस्तक मेला चालू आहे।’ यह लेख विलायती राम पांडेय किताब में संकलित है।
इसके बाद बारी आई उनके पढने की जो अभी तक तक सबको पढवा रहे थे। अभी तक संचालक की भूमिका निभा रहे रमेश तिवारी ने अपना व्यंग्य लेख पढा - ’बाजार से गुजरा हूं, खरीदार नहीं हूं।’ हमारा कहने का मन हुआ कि पैसे न होने पर ऐसा ही होता है। खाली जेब बाजार से गुजरने पर कोई बंदिश नहीं है अभी। रमेश जी का यह व्यंग्यपाठ अलग से सुनिये।
अनूप श्रीवास्तव जी ने भी अपना व्यंग्य पाठ किया -सुदामा के चावल। यह व्यंग्य लेख जनसंदेश टाइम्स में छप चुका है।
आलोक शुक्ल और सूर्यकुमार पाण्डेय जी आ नहीं पाये व्यंग्य/कविता पाठ के लिये।
व्यंग्य सत्र के बाद गोपाल जी ने व्यंग्य पाठों के बारे में अपनी राय रखी। हमारे व्यंग्य ’आदमी रिपेयर सेंटर’ की तारीफ़ की। अलग तरह का व्यंग्य बताया। अनूप मणि त्रिपाठी के व्यंग्य पढने के अंदाज की खासतौर पर तारीफ़ की। लगे हाथ लखनऊ के व्यंग्य लेखन को बल्ली लगाकर ऊंचा कर लिया। श्रीलाल शुक्ल, केपी सक्सेना जी के शहर में व्यंग्य की प्रतिभायें पनप रही हैं लोग व्यंग्य लिख रहे हैं यह कहकर सबकी तारीफ़ की।
गोपाल जी ने व्यंग्य पाठन को परफ़ार्मिंग आर्ट बताते हुये केपी सक्सेना जी के व्यंग्य पाठ को याद किया। संजीव जायसवाल बच्चों की कहानी के साथ व्यंग्य भी लिखते हैं इसका जिक्र किया। अनूप आल राउंडर हैं इस बात का उल्लेख किया। यहां कौन अनूप हैं यह अंदाज लगाइये। सारे अनूप खुश हो सकते हैं।
गोपाल जी की सबसे अच्छी बात यह लगी कि उन्होंने खराब व्यंग्य लेखन के लिये किसी को हड़काया नहीं। सच्चे बुजुर्ग की तरह सब बच्चों को तारीफ़ की टाफ़ी थमा दी चूसने के लिये। ऐसे बुजुर्ग प्यारे लगते हैं। अब हम उनकी किताबें निकालकर बांचेगें।
तबियत खराब होने के बावजूद गोपाल जी वहां आये। लेकिन तबियत की बात उन्होंने खुद नहीं बतायी। बाद में रमेश तिवारी ने बताई।
बाद में हमने और तारीफ़ जबरियन लेने के लिये फ़िर उनसे अपने लेख के बारे में अकेले में पूछा। उन्होंने हमारे लेख की तारीफ़ छोड़कर आलोक पुराणिक की तारीफ़ कर दी। कहा-’ आलोक इस तरह के लेख खूब लिखते हैं। लेकिन ऐसे लेख तब अच्छे लगते हैं जब उनमें कुछ सरोकार हों , जैसे तुम्हारे लेख में आखिर में आये।’ हम आलोक पुराणिक की तारीफ़ से जलने-भुनने को हुये लेकिन फ़िर आखिर में अपने लेख की तारीफ़ सुनकर खुश हो गये।’
व्यंग्य सत्र के बाद फ़िर कविता सत्र हुआ। नरेश सक्सेना जी अध्यक्षता में। श्रोता बचे थे 31 । इसमें भी कविता पाठ के लिये आये हुये कवि भी जुड़ गये थे। मतलब व्यंग्य सत्र खत्म होते ही श्रोता कम हो गये। जबकि व्यंग्यकार डटे हुये थे।
कविता पाठ करने वालों में सुमन दुबे, सीमाक्षी विशाल श्रीवास्तव, कौशल किशोर, विशाल श्रीवास्तव, वाहिद, डा. शशि सहगल, प्रताप सहगल जी थे। उस समय समय तक हमारे मोबाइल की बैटरी खल्लास हो चुकी थी इसलिये कवितायें इत्मिनान से सुनीं। कवियों को अनूप श्रीवास्तव जी उत्साह से बुलाते। लेकिन कवि जब एक के बाद दूसरी कविता बिना रुके सुनाते तो उनका उत्साह ठंडा हो जाता और वे कवि के आसपास मंडराने लगते। हाल जितने घंटों के लिये बुक हुआ था, घंटे उससे ज्यादा सरक चुके थे। इसलिये पोडियम देर तक रुका हुआ कवि अनूप जी को खलने लगता। वे जल्दी-जल्दी निपटाते गये सबको।
अंत में नरेश सक्सेना जी ने समापन कविता पढी - दीमकों को पढना नहीं आता, इसीलिये दीमकें चाट जाती हैं किताबें।’
समारोह खत्म होने के बाद फ़ोटो सत्र हुआ। इसके बाद कार्यक्रम के समाप्त होने की घोषणा हुई। सब लोग विदा हुये।
समारोह की अनौपचारिक समाप्ति के बाद व्यंग्य का अनौपचारिक सत्र शुरु हुआ चाय की दुकान पर। बिना अध्यक्ष और बिना संचालक का यह सत्र सबसे जीवन्त सत्र रहा। जितने भी लोग अनुपस्थिति थे उनको फ़ुल मोहब्बत से याद किया गया। खूब तारीफ़ की गयी। किसने किसके लिये क्या कहा यह बताना निजता का उल्लंघन करना होगा लेकिन कुछ संवाद जो याद आ रहे हैं वे इस तरह थे:
*वे बेचारे बहुत गरीब हैं, हरामीपने से बाज नहीं आते।
*उनको जितना लिखना था लिख चुके। अब उनके बूते सिर्फ़ मठाधीशी करना बचा है, सो कर रहे हैं।
*इनाम के पीछे वे ऐसे तड़पते हैं जैसे बुढौती में व्याह हुआ आदमी फ़ौरन पिता बनने के लिये हुड़कता है।
*बहुत डांटते हैं भाई वे। सहम जाते हैं हम तो। लिखना-पढना सब भूल जाते हैं।
*आपको वे प्रिय हैं इसलिये आप उनकी सब बात सही ठहराओगे? ये कहां की बात हुई।
*ये भी कोई बात हुई कि किसी की गलत हरकत का विरोध करे तो आप धमकाओ -’पहले उनके जैसा करके दिखाओ तब बात करो।’
*आपसे बहुत डर लगता है-’ पता नहीं क्या छाप दो।’
*उनको यही संभाल पाते हैं।
*आपकी हम बहुत इज्जत करते हैं (इसीलिये उतारते भी रहते हैं) सच्ची कह रहे हैं।
* अरे बाप रे आप इत्ता लिख कैसे लेते हैं। हमसे तो पढा तक नहीं जाता।
बाकी के संवाद खुद कह रहे हैं हम न आयेंगे तुम्हारे की-बोर्ड पर। तुम बहुत बदमाश हो। सब लिख देते हो।
और भी तमाम बाते हुईं। चाय कई बार हुई। अनूप जी छह चाय के पैसे दे गये थे। हो बीस के ऊपर गयीं होंगी। केक और दालमोठ अलग से। सब बेचारे अलंकार की जेब से गया। केपी सक्सेना सम्मान का कुछ तो खामियाजा भुगतना पडेगा ही।
इसके बाद अलंकार ने अपनी मोटर साइकिल से हमको कैसरबाग तक छोड़कर मुक्ति पाई। अलंकार की मोटर साइकिल पर चढना और उतरना दोनों बवाले जान। लगा गयी जांघ की हड्डी। ऊंचे लोग, ऊंची पसंद। बहरहाल कैसरबाग से बस अड्डे पहुंचे। वहां से कानपुर पहुंचे रात को दस बजे।
यह रहा हमारे व्यंग्य पाठ का पहला अनुभव। फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। लेकिन यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि जिस भाषा के ,लगभग दिन भर चले, राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम में श्रोताओं, वक्ताओं, इंतजाम कर्ताओं की कुल संख्या 20 से 40 तक टहलती रहे उसके साहित्य के क्या हाल होंगे?
लखनऊ से लौटकर यह भी अंदाज हुआ कि हमको कितना कुछ सीखना है अभी। पढना, लिखना, वाचन करना और भी न जाने क्या-क्या। एक दिन में यह इहलाम होना कम थोड़ी है। सबसे मिलना-जुलना जो हुआ उसकी तो बात ही क्या है 

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