आज सूरज भाई दिखे. शाम होने के बावजूद गरम थे. तैश में दिख रहे थे. पहले तो सोचा बोलें - कहाँ रहे इत्ते दिन दिखे न भाई जी. लेकिन उनके तेवर देख के चुप रहे.
सूरज भाई मार्च महीने में टारगेट पूरा न हो पाने पर चड़चिड़ाते अफसर की तरह झल्ला रहे थे. पेड़-पौधे अनुशासित स्टाफ सरीखे सहमे से खड़े थे. गुम्म सुम्म. पत्तियां स्टेचू, पेड़ सावधान मुद्रा में थे मानो बस जन-गण-मन बजने ही वाला है कहीं हवाओं में. और तो और चिड़ियाँ तक चुप थीं. सब डरी हुईं थी कि बोलने पर सूरज भाई कहीं गरम न कर दें. वे सब पत्तियों की आड़ में छिपी सूरज भाई के जाने का इंतजार कर रहीं थीं. वे जाए तो फिर बिंदास ची ची ची की जाए.
सूरज के गुस्से से बेखबर कुछ सफेद पक्षी पेड़ों की आड़ में उतर रहे थे. पंख फडफ़ड़ाते उतरते. जमींन पर उतरने के पहले अपने पंख समेटते पक्षी ऐसे लग रहे थे मानो स्कूल की बच्चियां गंदी हो जाने से बचने के लिए अपनी सफ़ेद फ्राक जमीन पर बैठने से पहले सहेज रहीं हो.
कुछ देर की छुपा छुपौवल के बाद मोड़ पर सूरज भाई अचानक सामने आ गए. पेड़ों के बीच से आती उनकी किरने हमारे पास तक ऐसे पहुंच रहीं थी मानो सूरज भाई हमारा गिरेबान पकड़ कर अपनापा दिखाना चाह रहें हों. हमने मुस्करा के उनको नमस्ते किया और कहा अब्भी आते हैं सूरज भाई! आप जरा अपनी दुकान समेट लो.
सूरज भाई को बाय बोल के हम आगे निकल आये. चौराहे पर प्लास्टिक की कुर्सियां लगाये कुछ लोग चुनाव सभा टाइप कर रहे थे. अपने प्रतिनिधि को वोट देने की सिफ़ारिश करते. लौटने पर देखा तो सूरज भाई अपना शटर गिराकर जा चुके थे. पेड़ों पर चिड़ियां चहकने लगीं थी. हवा चलने लगी थी. शाम हो गयी थी.
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