Tuesday, April 11, 2017

श्रीलाल जी का आखिरी समय जैसा बीता वैसा वे कतई नहीं चाहते थे





Krishna Bihari जी की पत्रिका निकट में छपा संस्मरण
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरा सबसे पहला परिचय ’राग दरबारी’ के जरिये हुआ। लगभग बीस साल की उमर में। सन 83-84 की बात है। एक शनिवार को लाइब्रेरी से बिना किसी की सिफ़ारिश के राग दरबारी उपन्यास लाया। पढ़ना शुरु किया तो फ़िर खत्म करके ही छूटा। इसके बाद उनकी जो भी रचना मिली पढ़ी। उनके बारे में जहां मिलता- पढ़ता। उनके बारे में जितना जानकारी होती गयी, उनकी जितनी रचनायें पढ़ता गया उनसे मिलने का मन होता गया।
बहुत दिनों तक उनसे मिलने की बात स्थगित होती रही। हमेशा संकोच लगता कि क्या कहेंगे उनसे मिलने पर। क्या पूछेंगे उनसे बात करते हुये। इसी संकोच के चलते पहली बार रागदरबारी पढ़ने के पंद्रह साल बाद तक उनसे मिलना स्थगित होता रहा। इस बीच उनकी तमाम रचनायें, संस्मरण, व्यंग्य, कहानियां पढ़ते गये। लेखक के बारे में अपनी धारणा बनाते गये। जब मौका मिला रागदरबारी एक बार और पढ़ गये।
पहली बार मैंने उनको शाहजहांपुर में देखा। वे हृदयेश जी को मिले ’पहल’ सम्मान में शामिल होने आये थे। शाम को किसी स्कूल में कार्यक्रम में पहली बार उनको बोलते सुना। धीमी ठहरी आवाज में वे सन पचास-साठ के किस्से ऐसे सुना रहे थे जैसे आजकल की बात हो। एक लेखक पाठक संबंध के आगे बढ़कर हमारा वक्ता-श्रोता का संबंध बना।
श्रीलाल शुक्ल जी पहली मुलाकात हुई उनकी किताब पहली बार पढ़ने के करीब पंद्रह साल बाद! साल का आखिरी दिन था। लखनऊ में अपने रिश्तेदार के यहां गया था। वहीं पास में श्रीलाल शुक्ल जी रहते थे। मुझे यह सालों से पता था लेकिन संकोच के चलते मैं गया नहीं उनसे मिलने पहले कभी। उस दिन मिलने के उत्साह ने संकोच को पटक दिया और मैं उनके घर पहुंच गया। एक ठो कैमरा साथ में था।
श्रीलाल जी से मुलाकात हुय़ी। परिचय-सरिचय हुआ। बाहर लान में ही बैठे बात हुई। आधा-एक घंटा करीब। मुझे ताज्जुब हुआ कि जिससे मिलने में मैं इतने साल तक संकोच करता वह तो हमारे घर के बुजुर्ग सरीखा है। आत्मीय, सहज, सरल। बेकार ही मैं इनसे मिलने में संकोच करता रहा।
चलते समय मैंने उनके फ़ोटो खींचे। फ़ोटो खिंचवाने के बाद उन्होंने कहा –इसकी कापी मुझे भी भेजियेगा।
दो दिन बाद जब मैं उनको फोटो भेज रहा था तब याद आया कि अरे जिस दिन मैं उनसे मिला उस दिन उनका जन्मदिन था। और मैंने उनको जन्मदिन की बधाई दी ही नहीं। खैर चिट्ठी में उनको जन्मदिन की बधाई देने के साथ उनको फोटो भेजे। उन्होंने उसके जबाब में पोस्टकार्ड लिखकर धन्यवाद भेजा।
उस समय श्रीलाल जी सत्तर पार कर चुके थे। पूरी तरह स्वस्थ थे। पत्र का जबाब खुद लिखकर देते थे। पूरी जिन्दगी प्रशासनिक अधिकारी रहने के बावजूद सहज, सरल बने रह सके यह उनकी बड़ी खासियत लगी मुझे।
इसके बाद उनसे लगातार मिलना होता गया। साल में कम से कम एक बार तो मुलाकात होती ही। उनसे मिलने पर वे अपने समय से जुड़े लेखकों के तमाम संस्मरण सुनाते। खुलने पर मौज-मजे के किस्से भी। वे खुलकर हंसते और मजे लेते। प्रत्युन्नमति, बहुत दिनों तक, जब तक वे स्वस्थ रहे , कमाल की रही। वे अपने पर भी खुलकर हंसते। लेकिन उनका हंसना हंसना ही होता था। उसमें खिल्ली उड़ाने का भाव नहीं होता।
धीरे-धीरे उनके बारे में और जानता गया। इस बीच अखिलेश जी किताब तद्भव आयी। पहला अंक श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित था। उनमें उनका इंटरव्यू , लोगों के उनके बारे में संस्मरण और तमाम सामग्री से उनके बारे में और बहुत कुछ पता चला। यह भी पता चला कि अपने पसंदीदा लेखक , जिससे हम कई बार मिल भी चुके हैं, के बारे में हम कितना अनजान हैं।
इस बीच इंटरनेट से जुड़ना हो गया था। नेट पर हिंदी में बहुत कम सामग्री थी। परसाईजी और श्रीलाल शुक्ल जी की एकाध रचनाओं के अंश नेट पर पर डाले। फ़िर सोचा कि राग दरबारी नेट पर होना चाहिये। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा –डाल दो। हमने कहा – प्रकाशक को तो एतराज नहीं होगा कुछ? वे बोले- अरे डाल दो जब प्रकाशक कुछ बोलेगा तो देखा जायेगा।
फ़िर रागदरबारी और उनकी तमाम रचनायें नेट पर डालना शुरु किया। उनसे मिलना जारी रहा। संकोच कम होता गया। जब भी लखनऊ जाते उनसे जरूर मिलते। कभी-कभी फोन पर बात भी कर लेते।
उनके 81 वें जन्म पर उनके बारे में किताब आयी तो उनके घर के लोगों के संस्मरण थे। मेरा भी एक संस्मरण था- ’श्रीलाल शुक्ल विरल सहजता के मालिक।’ घर के लोगों के संस्मरणों से पता चला कि उनका बचपन भी कठिनाई में बीता था लेकिन वे उसके बारे में विज्ञापन करना उचित नहीं समझते। मुक्तिबोध के शब्दों में दुखों को दागों को तमगों सा पहनने को वे ओछा काम समझते थे।
एक बार आर्मापुर में किसी कार्यक्रम में वे आये थे। तब तक उनसे परिचय काफ़ी हो गया था। मैं उनको लगभग जबरदस्ती अपने घर ले आया। मार्कण्डेयजी, गिरिराज किशोर जी , कमलेश अवस्थी जी साथ थीं। करीब एक घंटा हमारे घर रहे वे। घर में उगी हल्दी एक पैकेट में दी उनको चलते समय तो वे हंसते हुये बोले- इससे पवित्र और क्या हो सकता है?
लेखन के बारे में मेरे लिये वे बहुत बड़े लेखक ही रहे। इसलिये मेरी जिज्ञासायें उनसे एक समर्पित प्रसंसक जैसी ही रहती थी। कभी-कभी कुछ सवाल-जबाब भी करते। एक बार किसी बात पर कहने लगे- हम भारत के लोगों में बदतर परिस्थितियों में रहने की अद्भुत क्षमता है। इसलिये मुझे नहीं लगता कि देश में कोई सार्थक बदलाव निकट भविष्य में होने वाला है।
श्रीलालजी की तमाम खाशियतों में एक यह भी थी कि वे व्यर्थ के विवादों में अपना समय तथा ऊर्जा बरबाद करने को निहायत वाहियात-बेवकूफी का काम मानते थे। रागदरबारी के लिखे जाने के करीब तीस साल बाद हिंदी लेखक मुद्राराक्षस ने रागदरबारी में तमाम खामियां बताते हुये इसे ग्रामीण परिवेश का उपन्यास मानने से इंकार किया। तीखी भाषा में लिखी इस अतथ्यात्मक आलोचना का खंडन करने के लिये जब श्रीलाल जी के प्रशंसको-मित्रों ने उन्हें उकसाया तो वे बोले-मैं इस वर्डी डुएल में नहीं पड़ना चाहता। मुद्राराक्षस को भी लोग जानते हैं मुझे भी।
श्रीलालजी की कुछ स्थापनायें एकदम नयी दृष्टि देती हैं। उनका मानना था कि देश का ज्यादातर हिस्सा ग्रामीण परिवेश से जुड़ा है लिहाजा मैला आंचल,रागदरबारी,आधा-गांव आदि उपन्यास मुख्य धारा के उपन्यास माने जाने चाहिये। जबकि अंधेर बंद कमरे आदि शहरी परिवेश के उपन्यास बहुत छोटे तबके का सच बताते हैं लिहाजा वे आंचलिक माने जाने जाने चाहिये।
श्रीलाल जी का आखिरी समय जैसा बीता वैसा वे कतई नहीं चाहते थे। उनकी एक ही तमन्ना थी वे आखिरी समय तक स्वस्थ और चैतन्य रहें। लिखने की उनकी बहुत मंशा थी। लेकिन ये दोनों ही इच्छायें उनकी पूरी न हो सकीं।
श्रीलाल जी का साहित्य में क्या स्थान है यह विद्वान लोग जानें। लेकिन कभी-कभी यह लगता है कि उनको परसाईजी, जोशी जी के साथ आदि-इत्यादि में निपटाया गया। कारण शायद श्रीलाल जी भी रहे हों क्योंकि उन्होंने हर तरह का लेखन किया। जासूसी टाइप उपन्यास भी लिखे। आलोचकों के गोल में नहीं घुसे। पाठकों के समर्थन से प्रसिद्ध हुये। भारत में साहित्य से जुड़ा हर सम्मान मिला। इसलिये भी साहित्य माफ़िया शायद सोचता हो कि इन पर क्या सर्च लाइट मारना।
श्रीलाल जी से मेरा संबंध एक प्रसिद्ध बुजुर्ग लेखक से के एक औसत प्रशंसक पाठक का ही रहा। जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तब वे लिखना बंद करने की स्थिति तक कम कर चुके थे। उनके लेखन और व्यक्तित्व के तमाम पहलूओं से मैं शायद अब भी बहुत परिचित न हूं। लेकिन जितना मैं श्रीलाल जी को जानता हूं उतने से कहने का मन करता है कि वे एक बहुत बड़े लेखक थे। जितने बड़े लेखक थे वे इंसान भी उतने ही बड़े थे। शायद कुछ ज्यादा ही बड़े।
अनूप शुक्ल

No comments:

Post a Comment