सड़क किनारे चूल्हे में रोटी सेंकते कामगार |
बादल एक खेप बरसकर फ़ूट लिये। पुलों, इमारतों का उद्घाटन करके निकले लिये नेताओं की तरह। जिन्दगी भर उद्घाटन का श्रेय लेते रहेंगे। उद्घाटित इमारत मुकम्मल होने का इंतजार करती हुई खंडहर हो जाती है। कभी-कभी दुबारा उद्घाटित हो जाती है, कायदे से उद्घाटित होने के लिये।
देश क्या दुनिया में ही देखें तो शुरु की हुई चीजों के पूरा होने का औसत वही होगा जो इंसान के शुक्राणुओं-डिम्बाणुओं मिलकर बच्चा होने का। अरबों-खरबों ऐसे ही बेकार चले जाते हैं। उद्घाटन हुआ लेकिन पूरी नहीं हुई।
बारिश भी हरजाई की तरह मुंह दिखाकर फ़ूट ली। सड़क के गढ्ढे, नालियां उफ़नाकर रह गये। कहीं-कहीं सड़कें तलैयों में तब्दील हो गयीं। ऐसी ही एक मिनी तलैया में एक कुत्ता अपनी गर्मी दूर कर रहा था। कमर तक पानी में डूबा बैठा था। मुद्रा ऐसी जैसे लोग स्वीमिंग पूलों में बैठकर दारू, चाय पीते हैं। जीभ से हवा अंदर खींच रहा था। हवा अभी मुफ़्त है। कुछ दिन और खींच ले। बाद में क्या पता हवा पर भी टैक्स लग जाये। हवा में सांस लेने पर टैक्स लग जाये। नाक में सांस मीटर फ़िट हो जायें। लोग छोटी-छोटी सांस लेने लगें। लंबी सांस लेना विलासिता माना जाये।
कुत्ते को छोड़कर हम आगे बढे। सड़क किनारे भुट्टे बिक रहे थे। सिंक रहे थे। कुछ भुट्टों के दाने इतने कम थे गोया किसी बुजुर्ग के उखड़े हुये दांत। एक बच्चा नंगे बदन, कंधे में पट्टी टाइप बांधे भुट्टा सिंकवा रहा था। आंखों में धूप का चश्मा लगाये हुये। जम रहा होगा। यकीन से इसलिये नहीं कह सकते क्योंकि वह हमारी तरफ़ पीठ किये खड़ा था। पास ही 100 नंबर वाली पुलिस की गाड़ी के सिपाही नीचे उतरकर भुट्टा चबाते हुये कानून व्यवस्था की देखभाल कर रहे थे।
रिक्शे वाले अड्डे पर सुरेश मिले। राधा गंगा किनारे गयीं थीं। पटना की हैं। बताते हैं वहां जमीन-जायदाद, घर-परिवार सब लेकिन वे घूमते-घामते यहां आ गयीं। एक रिक्शेवाला सड़क किनारे ही ईंटों का चूल्हा सुलगाये रोटी पाथ रहा था। गोल मोटी रोटी सेंककर वहीं लकड़ी के पटरे पर धरता जा रहा था। वही उसका कैशरोल था। बातचीत का लब्बो-लुआब यही कि गर्मी बहुत है।
नदी बादलों का दर्पण है |
गंगा पुल पर खड़े हुये बहुत् देर गंगा को देखते थे। पानी कुछ बढा था लेकिन कम था। एक् नाव नदी में टहल रही थी। इवनिंग वाक सरीखा करती हुई। पुल पर जाती रेल भी गंगा को निहारने लगी। कुछ लोग नहाते हुये पानी में छप्प-छैंया कर रहे थे। बादलों का रंग नदी पर खिल रहा था। नदी दर्पण की तरह बादले के हर रंग की फ़ोटोकापी करती जा रही थी। कहीं लाल, कहीं सफ़ेद, कहीं मटमैली। अलग-अलग भाग का पानी अलग-अलग रंग में इठला रहा था। नदी सबको साथ समेटते हुये आगे बढती जा रही थी। बिना किसी हड़बड़ी के। ठीक है आगे जाना है लेकिन यह थोड़ी कि आगे जाते हुये दायें-बायें इठलायें भी न।
पुल के ऊपर से नीचे रहने झोपड़ी में रहने वाले लोग दिखे। झोपड़ी में रहने वाली महिला शायद घास छीलकर और बेंचकर वापस आ गयी थी। वो वहीं अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी गंगा के पानी को देख रही। उसकी बिटिया हाथ में स्मार्टफ़ोन लिये अलग-अलग पोज में सेल्फ़ी टाइप ले रही थी। मोबाइल का उपयोग दर्पण के रूप में होने लगा है। क्या पता कल को गाना - ’मोरा मन दर्पण कहलाये’ की जगह बदलकर ’मोरा मोबाइल दर्पण कहलाये’ हो जाये।
सतरंगे बादल, बहुरंगी नदी। |
नदी किनारे कुछ लोग मछली पकड़ रहे थे। मछली फ़ंसाने वाली कटिया नदी में डाले बैठे समाधिस्थ योगी से बैठे। कुछ-कुछ देर में जाल नदी से निकालते। लेकिन मछली न मिलती। फ़िर जाल नदी में घुसा देते। कविता उकसाती होगी:
’एक बार और जाल फ़ेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो।’
जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो।’
कितनी छलावे भरी, भरमाऊ आकर्षण वाली कविता है यह बुद्धिनाथ मिश्र जी की। मतलब मछली जिसके गलफ़ड़े जाल में फ़ंसकर कट जाते हैं, जान चली जाती है जाल में फ़ंसने के बाद। उसके मन में जाल में फ़ंसने की चाह होगी। क्या गजब !
लौटते में मंदिर किनारे बैठे गुप्ता जी दिखे। आंख का आपरेशन हो गया है। चश्मा बनवाना है। बनवा नहीं पा रहे। शुक्लागंज में 500 का बनेगा, नाथ चश्मे वाले ने 900 बताये हैं। पैसे का जुगाड़ हो तो बनवायें। अभी तो दुकान चल नहीं रही। रिक्शे रिपेयर की दुकानें अब कौन चलती हैं। रिक्शे भी तो चलन से बाहर हो गये। मंहगे, धीमे, मेहनत मांगते। अब तो सब बैटरी रिक्शे पर चलते हैं।
अपनी झोपड़ी के बाहर बैठे गुप्ता जी |
हम कहते हैं- ’चश्मा बनवा लो। हम पैसे दे देंगे।’ आगे तय भी किया-’ आप नाथ चश्मे वाले के यहां चले जाना। उनको हम पैसे दे देंगे। आप चश्मा बनवा लेना।’ गुप्ता जी गदगद होकर कहने लगे हैं- ’आपने कह दिया यही बहुत है हमारे लिये।’ अपने देश का आदमी बहुत कम में खुश हो जाता है। अल्पसंतोषी है। कोई खुशहाली का वादा कर देता है, इसी में खुश हो जाता है। जाने कब से लोग वादे करते हुये अपने देश के लोगों को खुश करते आ रहे हैं। लोग खुश होकर फ़ंसते, लुटते, बरबाद होते जाते हैं। लेकिन फ़िर किसी के वादे पर खुश हो जाते हैं। फ़िर झांसे में आ जाते हैं।
चलते हुये गुप्ताजी पैदल चलने की सलाह देते हैं। बोले-’ पूरे शरीर की नसें खिंचती हैं। पंजे तक खिंचते हैं। खून क बहाव ठीक होता है। पसीना निकलता है।’ हम साइकिल पर बैठे सड़क से पैर टिकाये उनकी बात सुनते रहे, हामी भरते रहे। फ़िर उनको हमारे ऊपर तरस आया और बोले-’साइकिल भी अच्छी सवारी है। बढिया एक्सरसाइज होती है। लेकिन पैदल चलना चाहिये।’
एक्सरसाइज तो खैर चलती रहेगी। अब घड़ी कह रही है - ’समय हो गया बाबू। दफ़्तर भी चलना चाहिये।’
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