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घर से निकले सुबह। बाहर जाम लगा है। ओवरब्रिज बन रहा है। सड़क दोनों ओर खुदी है। फुटपाथ के बराबर बची है सड़क दोनों ओर। सुबह शुक्लागंज से कानपुर ओर आने वाले खूब होते हैं। दो स्कूल पड़ते हैं इसी ओवरब्रिज के पार। केंद्रीय विद्यालय और वीरेंद्र स्वरूप। दोनों तरफ जाम। वीरेंद्र स्वरूप की बसें पुल के बीच उल्टी तरफ खड़ी होकर होकर जाम के हाथ मजबूत कर रही हैं। किसी और गाड़ी का निकलना मुश्किल बना रही हैं।
हम जाम दर्शन के घुस गए भीड़ में। लोग सरकते हुए बढ़ रहे हैं आगे। चीटिंयों की तरह चुपचाप लाइन में लगे, जोंक की रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। एक स्कूल की बच्ची अपने से छोटे बच्चे को अभिभावक वाली जिम्मेदारी के साथ उसके कंधे पर हाथ रखे आगे बढ़ रही है। वीरेंद्र स्वरूप के कुछ बच्चे जाम से निर्लिप्त अंदाज में थोड़ा अलग खड़े बतिया रहे हैं।
एक बुढ़िया आहिस्ते-आहिस्ते आगे बढ़ रही है। अचानक सामने से एक सांड आता दिखा। सुबह का समय, सांड शरीफ सा लगा। लेकिन था तो सांड ही। सबने उसको खुद सिकुड़कर रास्ता दिया। वह वीआईपी की जाम से निकल गया। सांडों को हर जगह रास्ता मिल जाता है। सांड सड़क का वीआईपी होता है। उसके लिए हर कोई रास्ता दे देता है।
एक आदमी शायद दिहाड़ी वाला मास्टर है। बताता है बगल वाले को -'गाड़ी जाम के बाहर छोड़कर आ गए। अटेंडेंस लगानी है। जाम में फंसे आदमी का जाम के प्रति अपना विनम्र सहयोग है। जहां गाड़ी खड़ी की होगी वहां कोई छुटभैया जाम लग गया होगा।
पत्नी जी का फोन आया। पता चला आधे घण्टे पहले स्कूल से निकलने के बावजूद घर से 100 मीटर की दूरी पर 'जाम-भंवर' में उलझी हैं। हम आकर सहायता की पेशकश करते हुए डरते हैं कि कहीं हां न कह दें। लेकिन तब तक उनकी तरफ जाम कम हुआ होगा। वे निकल गईं।
हम दफ्तर जाने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। जाम से दो-दो हाथ करने के लिए। इस बीच यह भी सोचते हैं कि जाम से बचने के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता होना चाहिए बच्चों को स्कूल जाने के लिए। लेकिन हम सोंच को बड़ी तेजी से हड़काते हुए भगा देते हैं -'ये सब विकसित देशों के चोंचले हैं। हम विश्वगुरु हैं। इन सब फालतू के लफड़ों में हम नहीं पड़ते।'
अब निकलते हैं वर्ना जाम में देर तक फंसने के चलते देर हो जाएगी दफ्तर पहुंचने में। जाम का झाम बावलिया होता है।
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