Tuesday, October 26, 2021

सब कुछ लिख दिया जाने के बाद भी

 सब कुछ लिख दिया जाने के बाद भी,
बहुत कुछ लिखने को बचा रह जाता है।

हम बिस्कुट भिगो के चाय में खाते ही नहीं,
इसीलिये वो नामुराद डूबने से बच जाता है।
ऊंची बात कहने वाले तो कई होंगे यार,
अपन का तो रोजमर्रा की बातों से नाता है।
-कट्टा कानपुरी

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Sunday, October 24, 2021

उजाले की सरकार

 कमरे में बैठे हुए सूरज की किरणों को देख रहा हूँ। स्कूल के दिनों से पढ़ते आये हैं कि सूरज की सतह से चलकर पृथ्वी तक पहुंचने में आठ मिनट लगते हैं किरणों को। धरती पर पहुंचने के पहले लाखों किलोमीटर चलना पड़ता है किरणों को। रास्ते में भयंकर वाला अँधेरा पड़ता होगा। कहीं कोई इंतजाम नहीं रौशनी का। पता नहीं किसकी सरकार है सूरज और धरती के बीच जो करोड़ों वर्षों में दो चार ठो बिजली के पोल तक न गड़वा पाई अपने इलाके में।

बाहर अशोक का पेड़ नुकीला एकदम भाले की तरह खड़ा है। ऐसे लग रहा है बड़ा होकर आसमान के पेट में छेद करके ही मानेगा पट्ठा।
कुछ देर पहले पूरे लान में जहाँ कोहरे का कब्जा था वहां अब उजाले की सरकार है। मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री, राज्यपाल, सन्तरी,कलट्टर सब पदों पर सूरज के खानदान के लोगों का कब्जा है। किसी के पास कोई डिग्री नहीं है। किसी ने शपथग्रहण में समय बरबाद नहीं किया। किसी ने आने के पहले हल्ला नहीं मचाया कि मित्रों हम आते ही अँधेरे और कोहरे को उखाड़ फेकेंगे। किसी ने विज्ञापन में न समय खराब किया और न पैसे फूंके। बस आये और चुपचाप लग गए काम में। जहां कुछ देर पहले अँधेरा था वहां अब उजियारा है।
कमरे का दरवाजा खुला हुआ है। सूरज की किरणें दरवज्जे से अंदर कमरे में दाखिल हो गयी हैं। वो एक दायरे में ही रुक गयी हैं। उजाला आगे अंदर घुस आया है और जगह-जगह फैलता जा रहा है। अंदर जहाँ भी अँधेरा था वहां अब प्रकाश दिखने लगा है। लगता है सूरज के निकलते ही अँधेरे ने कुछ देर तो उजियारे से कुश्ती की होगी। फिर अपनी औकात समझकर उजाले के सामने समर्पण कर दिया होगा।
सूरज और धरती आपस में आठ मिनट की दूरी पर हैं। दोनों में आपस में क्या कभी बात होती होगी? अगर हाँ तो कौन कम्पनी का फोन प्रयोग करते होंगे दोनों। हो सकता है कि ये जो किरणें हैं न वही माध्यम हों दोनों के आपस में बतियाने का। ये जो सूरज की किरणें बीच-बीच में मुस्कराती और खिलखिलाती सी दिखती हैं वो शायद दोनों की बातें सुनकर ही ऐसा करती हों।
क्या पता दोनों आपस में बतियाते हुए मजे लेते हों एक दूसरे से। सूरज भाई धरती से कहतें हों कि तुम काहे को चक्कर लगाती रहती हो मेरे। आ जाओ मेरे ही पास। बहुत जगह खाली पड़ी है इधर। रहो आराम से। तुम्हारे लिए रोज-रोज रौशनी भेजने का लफ़ड़ा कम होगा।
धरती शायद कहती हो -अरे रहन दो पास होने की बात। इत्ता तो सुलगते रहते हो। तुमसे तो दूरी ही भली। तुम्हारा तो सबसे कम टेंपरेचर ही 6000 डिग्री है। इत्ते में तो हमारे सबरे बाल-बच्चे, प्राणी, जानवर सुलगकर राख बन जाएंगे। सारी हरियाली जल जायेगी, नदियां गायब हो जाएंगी, समन्दर गोल। हमारा धरतीपन खत्म हो जायेगा। हमें न आना तुम्हारे पास।
धरती को सूरज चक्कर वाली बात लगता है ज्यादा ही लग गयी। इसीलिये वो अलग से बोली--'जहां तक रही चक्कर की बात तो जिस दिन हम चक्कर लगाना छोड़ देंगे तो ये जो तुम्हारा सौरमण्डल का टीम टामड़ा है न यह सब लड़खड़ा जाएगा। क्या पता फिर तुम भी कहीँ लड़खड़ाते हुए किसी दूसरे सौरमण्डल में शरण मांगो जाकर। ये हमारा तुम्हारे चारो तरफ घूमना जितना हमारे लिए जरूरी है उतना ही तुम्हारे लिए भी। सो इसका ज्यादा गुमान न किया करो कि हम तुम्हारे चक्कर लगाते हैं।'
सूरज भाई को लगा कि धरती कुछ ज्यादा ही गरम हो गयी सो मुस्कराते हुये बोले-'अरे मैं तो मजाक कर रहा था। तुम तो बुरा मान गयी। कितना अच्छी लग रही हो तुम स्वीट एन्ड क्यूट गोल-गोल घूमती चक्कर लगाती हुई।'
कोई फेसबुकिया होता तो इतने पर खुश होकर सूरज भाई को थॅंक्यू बोलकर चार ठो इस्माइली अलग से लगाता लेकिन चूंकि धरती का कोई फेसबुक खाता तो है नहीं सो उसने सूरज की 'चक्कर लगाती हुई' वाली बात पकड़ ली और फिर हड़काया-' मैं तो सिर्फ तुम्हारा चक्कर लगाती हूँ वह भी अपने बाल-बच्चों के लिए। रौशनी के लिए। लेकिन तुमको कौन जरुरत है जो तुम आकाश गंगा के चक्कर लगाते रहते हो। तुम्हारे पास तो खुद की रौशनी है। ज्यादा मुंह मती खुलवाओ मेरा अब सुबह-सुबह। हमको अपना काम करने दो।'
सूरज भाई चुपचाप मुस्कराते हुए एक बादल की ओट में चले गए। ऊपर से धरती को अपनी धुरी पर घुमते देखते रहे। दोनों अपने अपने काम में लग गए।
हम भी चलते हैं अपने काम पर। आप भी मस्त रहिये।

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Saturday, October 23, 2021

लिफाफे में कविता



*मंच के कवि को अपमान की परवाह नहीं करनी चाहिए। यदि आप स्वाभिमान के चक्कर में पड़े तो हाथ धो बैठेंगे।
*मंचीय कवि के लिए सबसे बड़ा पैसा होता है। वह पैसे के अलावा किसी के आगे नहीं झुकता। पैसे के आगे वह अपना परिवार, मित्र, गांव-जवार, सिद्धांत आदि छोड़ देता है।
ऊपर के पंच वाक्य Arvind Tiwari जी के एकदम ताजा उपन्यास 'लिफाफे में कविता' से हैं। उपन्यास मंचीय कवियों की पोल-पट्टी खोलने वाला है। इसमें अरविंद जी के अनुभव सुने-सुनाए और प्रत्यक्ष दोनों तरह के होंगे।
192 पेज के उपन्यास में से 68 पेज सुबह की सिटिंग में पढ़ गए। उपन्यास की पठनीयता और रोचकता का प्रमाण है यह।
फिलहाल इतना ही। बकिया पूरा पढ़कर लिखेंगे। पढ़ तो आज ही लेंगे। लिखेंगे भी जल्दी ही।
आप भी मंगा लीजिए उपन्यास। पढ़ने लायक है। पसन्द न आये तो पढ़कर या अधपढा हमको आधे दाम पर दे दीजियेगा। हम।मित्रों को उपहार के रूप में दे देंगे।
राज की बात यह भी कि उपन्यास का नामकरण वरिष्ठ व्यंग्यकार के नाम से विख्यात होने के बाद एकरिंग के अखाड़े में 'उछल-उछलकर' हाथ आजमाने के लिए कूदे Alok Puranik ने किया था। लेकिन अरविंद जी कवि सम्मलनों की हालिया दुर्गति से इतना ज्यादा भन्नाए हुए लगे 'अपनी बात' में कि इसका जिक्र करना भूल गए। यह उसी तरह हुआ जैसे कवि सम्मलेन का आयोजक कवियों से कविता पढ़वा कर पारिश्रमिक देना भूल जाता है। 🙂
किताब पढ़ते हुए अरविंद जी के पिछले उपन्यास शेष' अगले अंक में' , 'हेड ऑफिस के गिरगिट' और 'दिया तले अंधेरा' भी याद आये। इन उपन्यासों का जितना जिक्र होना चाहिए उतना शायद हुआ नहीं। अरविंद तिवारी जी को आत्मविज्ञापन भी सीखना चाहिए। लेकिन यह गुण आदतन होता है, सीखा नहीं जाता।
बहरहाल फिलहाल ' लिफाफे में कविता' का आनन्द ले रहे हैं अपन। आप भी लीजिए। मजा आएगा।
खरीद का लिंक टिप्पणी में देखें।

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Thursday, October 21, 2021

आत्मबोध



यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!
आसमान टूटा,
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे.
देखते-देखते दूब के दलों का रंग
पीला पड़ गया
फूलों का गुच्छा सूख कर खरखराया.
और ,यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया.
- कन्हैयालाल नन्दन

कविता सुनने की कड़ी : https://www.youtube.com/watch?v=SnBXex5flFs

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करेंट बुक डिपो



कानपुर में जब भी 'करेंट बुक डिपो' के पास से कभी भी गुजरते हैं तो अनायास 'दुकान-दाखिल' हो ही जाते हैं। यहां आने का हासिल यह होता है कि लौटते हुए कोई न कोई किताब साथ हो लेती है। वह किताब कोई नई किताब हो सकती है या फिर पिछली बार साथ ले जाने से स्थगित रह गयी कोई किताब। साहित्यिक पुस्तकों के मौजूदगी का विश्वनीय अड्डा है 'करेंट बुक डिपो'।
आज किताबें आन लाइन मंगाने का चलन बढ़ गया है। डिजिटल डाउनलोडिंग भी होने लगी है जिसमें 100 रुपये की किताब 10 रुपये में डाइनलोडिंग करके पढ़ी जा सकती है लेकिन डिजिटल मोड में किताब पढ़ने और छपी हुई किताब हाथ में लेकर पढ़ने की क्या तुलना? दोनों की तुलना करने को कहा जाए तो अनायास निकलता है -' जो मजा बनारस में, वो न पेरिस में न फारस में।'
ऑनलाइन खरीदी और डिजिटली पढ़ाई के दौर में किताबों की बिक्री का धंधा मंदा होता गया है। किताबों की दुकानों पर लोगों की आमद कम हो गयी है। पहले टीवी और मोबाइल के चलते किताबें पढ़ने वाले भयंकर तेजी से कम होते जा रहे हैं। ऐसे कठिन दौर में भी 'करेंट बुक डिपो' जैसे संस्थानों का बचे रहना और चलते रहना अपने में बहुत सुकून की बात है।
'करेंट बुक डिपो' की शुरुआत जिस उद्देश्य और भावना से इसके संस्थापक स्व. महादेव खेतान जी ने की थी वे उद्धेश्य और भाव आज के समय में अल्पसंख्यक और खतरे की स्थिति में भी हैं। इसके बावजूद जिस समपर्ण भाव से महादेव खेतान जी के सुपुत्र अनिल खेतान जी इसका संचालन कर रहे हैं वह अपने में सुकून और सराहना की बात है। अनिल जी शहर में पुस्तक मेला के संचालन के भी प्रमुख सूत्रधार हैं।
कल जब फिर करेंट बुक डिपो के पास से गुजरे तो बहुत व्यस्त होने के बावजूद दुकान जाने का मोह संवरण न हो सका। कुछ किताबें जो दिखीं वो फौरन ले लीं। बाकी फिर अगली बार के लिए स्थगित कर दीं। तमाम किताबें हमसे निर्लिप्त शेल्फ पर बैठी रहीं। कुछ उलाहना सी देती लगीं -'हम कब तक यहां रहेगीं।'
कल विदा होते समय Anil Khetan अनिल जी ने Veeru Sonker वीरू सोनकर की कविताओं और उनके तेवर की तारीफ की तो उनकी भी किताब ले ली। उनकी फेसबुक वॉल पर उनके स्टेटस पढ़े। अच्छे लगे। नौजवान तेवर, कनपुरिया होने के चलते कहना होगा - 'झाड़े रहो कलक्टरगंज।'
कानपुर में हैं और किताबों के प्रेमी हैं और अभी तक 'करेंट बुक डिपो' नहीं गए हैं तो समझिए एक जरुरी जगह नहीं गये हैं। फौरन पहुँचिये, आनन्द आएगा।

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Tuesday, October 19, 2021

Monday, October 18, 2021

बारिश, रिक्शा स्टैंड और मोबाइल में डूबे लोग



कल बहुत दिन बाद साइकिलिंग को निकले। शाहजहांपुर साइकिलिंग क्लब के सूत्रधार, संस्थापक डॉक्टर विकास खुराना ने सूचना दी कि एक दिन में 75 किलोमीटर साइकिल चलाने वाले साथियों को मेडल देकर उनका उत्साह वर्धन करना है। समय तय हुआ शाम 5 बजे। जगह कैंट आर्मी गेट।
शाम होते- होते पानी बरसने लगा। पहले तेज फिर रुक-रुक कर। बाद में हमारी तरफ रुक गया लेकिन दूसरी जगहों पर बरसता रहा। आर्मी गेट हमारे घर से दो मिनट की दूरी पर है। लिहाजा हम तो फटाक से पहुंच गए। लेकिन दूर से आने वाले कई साथी आ नहीं पाए। सम्मानित किए जाने वालों में से भी एक बच्ची नहीं आ पाई। तय हुआ कि सम्मानित करने का कार्यक्रम अगले हफ्ते होगा।
डॉ विकास खुराना अपनी बिटिया अवन्या के साथ समय पर पहुंच गए थे। कुछ और साथी भी आ गए थे। अवन्या ने बताया कि उसका स्कूल फिर बन्द हो गया है, दशहरे के कारण। अब 20 को खुलेगा। अवन्या ने लम्बी साइकिलिंग की बात भी कही। 100 किमी के लिए चलने को फौरन तैयार हो गयी। बोली -'अभी चलते हैं।'
जितने लोग आ गए थे उनके साथ फोटो के बाद हमने एक चक्कर साइकिल चलाई। पानी फिर बरसने लगा था, लिहाजा एक चक्कर के बाद सब लोग घर लौट गए।
लौटते हुए रामलीला मैदान का चक्कर लगाते हुए आये। मैदान में एक दुबला-पतला घोड़ा सड़क की तरफ पीठ किये घास चर रहा था। थोड़ा सहमा सा, जल्दी-जल्दी घास खाते देखकर लगा उसको समझाएं कि हड़बड़ी नहीं करो, तसल्ली से खाओ। लेकिन फिर उसको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं लगा।
घोड़े को हड़बड़ी में घास खाते देखकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करने वाले युवाओं का ख्याल अनायास आ गया। ऐसा लगा जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद हड़बड़ी में अपना पेट भर रहा है। उपमा निहायत बेतुकी और शायद सच से परे भी है। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम की जगह ही खाने का भी अच्छा इंतजाम होता है। लेकिन फिर भी ऐसी बात जेहन में घुस गई और निकली नहीं। दूसरों के बारे में हम अक्सर ऐसे ही बेसिर पैर की उपमाएं गढ़ लेते हैं। उपमाएं एक बार गढ़ ली जाती हैं तो ताजिंदगी जेहन से निकलती नहीं जबतक सच्चाई से सामना न हो जाये। और सच्चाई के बारे में तो आपको पता ही है कि कितना सहमती है आजकल सामने आने से।
मंदिर के पास कुछ गायें चौराहे पर खड़ीं दिखीं। बारिश में उनके बीच सड़क खड़े होने से ट्राफिक को समस्या होती है। लेकिन गायें को भी खड़े होने के लिए चौराहे ही रास आते हैं। समस्या अपनी जगह लेकिन गायों की बुराई करना ठीक नहीं। वो बुरा मानें या न माने उनकी चिंता करने वाले बुरा मान सकते हैं।
पानी तेज बरसने लगा तो सड़क किनारे रिक्शा स्टैंड पर बनी बेंचों पर बैठ गए। और लोग भी वहां आते गए, खड़े हो गए, बैठते गए। खड़े होते, बैठते ही लगभग सभी लोग मोबाइल निकालकर उसमें घुस गए। मोबाइल लोगों की शरण स्थली बना है। पुराने जमाने में लोग बचे हुए पैसे गुल्लक, सन्दूक में जमा कर देते थे यह सोचकर कि बख्त जरूरत काम आएगा। आजकल लोगों के पास जो भी समय बचता है उसे मोबाइल में डाल देते हैं। मोबाइल माने समय की गुल्लक। जो समय बचे उसे इसी में घुसा दो। अब लोगों को कौन समझाए कि समय कोई चिल्लर पैसा थोड़ी जो जमा करके बाद में उपयोग किया जा सके। वह गया तो गया।
लोगों की मौका मिलते ही मोबाइल में मुंडी घुसाने की आदत से दुष्यंत कुमार जी का शेर बदलकर पढ़वाने को जी चाहता है। अर्ज किया है:
लहू-लुहान नजारों का जिक्र आया तो,
शरीफ लोग उठे और मोबाइल में जाकर डूब गए।
लहूलुहान नजारों से हो सकता है कि आपको एतराज हो। लेकिन हमारी भी मजबूरी कि हम पूरा का पूरा शेर थोड़ी बदल देंगे। बदल देंगे तो फिर पढेंगा कौन इसे। वैसे सच यह भी है कि लहूलुहान नजारों की बात हो या कोई और हादसा , आजकल उनकी बात होने पर लोग मोबाइल में ही घुस जाते हैं।
सामने बैठा आदमी जोर-जोर से किसी का हाल पूछ रहा था। दूसरी तरफ के इंसान को हड़का रहा था कि परेशानी के दौर से अगला अकेले, बिना बताए, चुपचाप कैसे गुजर गया। उसको क्यों नहीं बताया। परेशानी गुजर जाने पर उसकी सूचना न देने के बारे में हड़काना लाजिमी है।
बगल में बैठा आदमी मोबाइल पर कैरम खेल रहा था। हमारे लिए ताज्जुब का विषय कि बताओ कैरम भी मोबाइल में आ गया। हमको ताज्जुब के तालाब में तैरता छोड़ अगला कैरम खेलता रहा।
देखते-देखते पानी तेज हो गया। हम भी मोबाइल देखने लगे। मुंडी झुकाए मोबाइल में घुसे ही थे कि एक भाई जी आये और झटके से हमारे चरण स्पर्श कर गए। हमको झटका लगा। अपन चरण स्पर्श करवाने में बहुत संकोची हैं। किसी को यथा सम्भव पैर नहीं छूने देते। बच्चों तक को नहीं। पैर छुआने में संकोच लगता है। लगता है हमारे पास ऐसा क्या है जो हम किसी से पैर छुआएं। पुण्य-गरीब हैं हम। पैर छूने की कोशिश करता हुआ इंसान हमको हमारा बचा-खुचा पुण्य लूटने की कोशिश करता लगता है। इसलिए हम बहुत सावधान रहते हैं, कोई पैर छूने की कोशिश करता है तो रोक देते हैं, टोंक देते हैं, बचा लेते हैं पैर।
हमको लगता है किसी चरण-स्पर्शातुर से अपने पैर बचाकर अपनी इज्जत बचा ली। कोई पैर छूने की कोशिश करता है तो लगता है इज्जत पर हमला कर रहा। कोई अचानक पैर छू लेता है तो लगता है इज्जत लूट गईं। इज्जत की जेब कट गई। दुनिया के तमाम गड़बड़ काम पैर छूने के बाद ही अंजाम किये जाते रहे हैं। गुरुओं के मठों, तख्तों पर कब्जा करने के पहले शातिर चेले उनके पैर छूते हैं। कत्ल करने के पहले कातिल द्वारा कत्ल करने वाले के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेने की कई नजीरे हैं।
तमाम सावधानी के बावजूद कभी कोई पैर छू ही लेता है। कभी झटके में और कभी जबरियन यह कहते हुए -'यह तो हमारा हक है।' 'यह तो हमारा हक है' कहकर दुनिया में तमाम अपराध होते रहते हैं। छंटे हुए अपराधी तक 'यह तो हमारा हक है' कहते हुए समाज सेवा के अखाड़े में कूदकर समाज की मिट्टी पलीद करते रहते हैं। अपने ही यहां अनगिनत माफिया जनता की सेवा करना अपना हक मानते हुए राजनीति में सक्रिय हैं। धड़ल्ले से जनता की सेवा कर रहे हैं। किस माई के लाल की हिम्मत कि उनकी सेवा से जनता की हिफाजत करे।
बहरहाल पैर अकेले में छुए गए थे इसलिए हम कुछ करने की स्थिति में थे नहीं। वैसे सबके सामने भी कोई छू लेता तो कौन एफ आई आर कराते।
बरसते पानी में भी लोग घर आ-जा रहे थे। कुछ साइकिल सवार बतियाते हुए निकले। मोटरसाइकिल धड़धड़ाते हुए। एक आदमी सड़क पर दुलकी चाल से दौड़ता हुआ आता दिखा। उसके दोनों पैर एक दूसरे का विरोध करने वाले अंदाज में साथ चलते दिखाई दिए ऐसे जैसे किसी पार्टी में दो विरोधी धड़े अपने वर्चस्व की कुश्ती लड़ते हुए साथ भी है और अलग भी।
पानी और तेज हो गया। एक ऑटो वाले ने मुझे पहचानकर घर तक पहुंचाने का ऑफर दिया। हमने साइकिल का हवाला देकर मना किया। उसने ऑफर में साइकिल भी ले चलने को कहा। हमने फिर मना किया और बारिश रुकने का इंतजार किया।
इस बीच एक और आदमी आ गया। आते ही उसने नमस्ते करके एक घपले का किस्सा सुना दिया। हमको लगा कि जानकारी के लिए लोगों से मिलना बहुत जरूरी है। सब कुछ डिजिटल डाटा के भरोसे छोड़ना ठीक नहीं। खुद के बारे में जानकारी के लिए दूसरों से मिलना जरूरी है। दूसरे जितना हमारे बारे में जानते हैं उतना हमको खुद पता नहीं होता।
वहीं एक बच्चा और मिला। पिता नहीं रहे। उसकी जगह भाई को नौकरी लगी। दूसरा दिहाड़ी मजदूर। खुद नौकरी के लिए इम्तहान दे रहा है। पता चला एक साल इंजीनियरिंग भी की। लेकिन इंटर में पढ़ाई का माध्यम हिंदी होने के चलते पहले साल तीन विषय में फेल हुए। बैक आ गई। इंजीनियरिंग छोड़कर घर आ गए। बी.ए. किया और अब नौकरी की तलाश कर रहे हैं। बीए और नौकरी के बहाने अकबर इलाहाबादी भी याद आ गए जो नौकरी पेशा लोगों के लिए कह गए हैं:
क्या किये एहबाब, क्या कार-ए-नुमाया कर गये,
बीए किया, नौकर हुए, पेंशन मिली फिर मर गए।
कुछ देर बाद बादलों का पानी का स्टॉक खत्म हो गया। कुछ बादल शायद रिचार्ज कराने चले गए। बाकी गरजने की ड्यूटी बजाते रहे। हम खरामा-खरामा पैडलियाते हुये घर आ गए।

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Monday, October 11, 2021

मतविभिन्नता बहस का प्राण तत्व है

 

पान की दुकान पर चाचा-भतीजे से देर तक बात हुई। चाचा ने ज्ञान गुगलिया फेंकी। चाचा की पान की दुकान है। भतीजा परचून और दीगर चीजें बेचता है। इस बीच चाचा की चाय आ गई। हमको भी ऑफर की। हमने मना की।
भतीजा भी अपनी हांकने लगा। बोला -'लोग हमको सीधा और बेवकूफ समझते हैं। लेकिन हम बहुत शातिर हैं। हर जगह उठते-बैठते हैं लेकिन मजाल कोई बुरी आदत छू जाए।'
भला इंसान भी तारीफ करने पर आता है तो साहित्यकार की तरह लगने लगता है जो अपने लिखे की ही तारीफ करता है।
चाचा-भतीजे से मिलकर सड़क पर आ गए। आगे एक नुक्कड़ पर दो बच्चे सड़क पर बैठे आग सुलगा रहे थे। लोहे के सामानों को गर्म करके, पीटकर धार देने का काम कर रहे थे। कम उम्र बच्चे के चेहरे पर रोजी रोटी के चलते बुजुर्ग जैसा हो जाने की गम्भीरता चश्पा थी। स्कूल जाने की उम्र के बच्चे सीधे जिंदगी के स्कूल में दाखिला लेकर पढ़ाई कर रहे हैं।
अलाव सुलगाता बच्चा मिट्टी गीली करके भट्टी को ठीहे पर लगा रहा था। चार-पांच साल पहले से बच्चे कर रहे हैं यह काम। अब शहर में एकाध जगह ही यह काम होता है। पुराने हुनर और काम करने के तरीके अब खत्म होते जा रहे हैं। उनकी जगह नए तरीके आ रहे हैं। फिलहाल अभी लोहा पिटवाने का सहज विकल्प नहीं आया इसलिए यह काम चल रहा है।
जिस जगह पर बच्चे अलाव लगा रहे थे उसी के पास एक होमगार्ड का अधेड़ बेंच पर बैठा मोबाइल-समुद्र में गोते लगा रहा था।
बगल की दुकान पर भीड़ थी। पता चला दारू की दुकान है। सुबह से ही ग्राहक उमड़े पड़े हैं। अनुशासित भीड़। पता चला कि कोई बन्दर दुकान में घुस गया और कई बोतलें तोड़ गया। बहस इस बात पर हो रही थी कि बन्दर बन्द दुकान में घुसा कैसे? कोई एकमत नहीं हुआ इस पर लिहाजा कयास लगते रहे, बहस होती रही। मतविभिन्नता और एकमत का अभाव बहस का प्राणतत्व है।
आगे बढ़ने पर एक साइकिल की दुकान दिखी। नाम चाचा साइकिल स्टोर। नाम के पीछे कारण पूछने पर बताया -'पहले फेरी लगाने का काम करते थे। बाद में घुटने के कारण चलना-फिरना मुहाल हो गया। इसलिए रोजी-रोटी के लिए साइकिल की दुकान खोली। आसपास के बच्चे चाचा-चाचा कहते थे तो दुकान का नाम रख लिया -'चाचा साइकिल स्टोर'।
चाचा साइकिल स्टोर वाले से और काफी बातें हुईं। देश-दुनिया-जहाज की। उनसे बात करते हुए एक बार फिर लगा कि हर इंसान अपने आप में एक महाआख्यान होता है। ऐसा महाआख्यान जो अपने पढ़े जाने का इंतजार करता है। कुछ आख्यान पढ़ लिए जाते हैं, चर्चित हो जाते हैं। बाकी अनजान-गुमनाम रह जाते हैं।
चाचा साइकिल स्टोर से बतियाने के बाद आगे बढ़े। आगे घण्टाघर तक गए। घण्टाघर इतवार की धूप में खड़ा धूप स्नान कर रहा था। छुट्टी का दिन होने के चलते उसके आसपास चिल्लपों भी कम थी। वहीं पिछले महीने रिटायर हुए फैक्ट्री कर्मचारी ने नमस्ते किया और बतियाने लगे -'साहब, आप इधर कहां, पैदल?' गोया साहब के पैदल चलने पर पाबंदी हो कोई।
उसी समय सामने से आते हुए अग्रवाल जी दिखे। हमारे मार्निंग साइकिलिंग क्लब के साथी। उनसे भी देश-दुनिया की बाते हुईं। सड़क पर खड़े-खड़े हमने पूरा तफ़सरा कर डाला। सामने से सूरज भाई सर पर धूप की चम्पी करते हुए आगे बढ़ने के लिए उकसाने लगे।
हम आगे बढ़ गए।

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Friday, October 08, 2021

पैसा बाजार में आने को हुड़कता है



इतवार को टहलते हुए गोविंदगंज से आगे बढ़े। सड़क किनारे एक मकान के ढांचे को गिराया जा रहा था। कंक्रीट का खम्भा। कंक्रीट को ड्रिल करके तोड़ रहा था एक आदमी। दूसरा सहयोग कर रहा था। कंक्रीट के बाद सरिया का नम्बर आना था। कंक्रीट और सरिया कटने के बाद मकान ढांचा जमीन पर आ जाना था। मैदान सपाट हो जाना था।
हमको वहां खड़ा देख एक भाई साहब आ गए। शायद जमीन के मालिक हों या उनके कोई नजदीकी। बताया -'आठ करोड़ में खरीदी यह जमीन। किराएदार रहते थे पहले। किसी को दस लाख-किसी को बीस लाख देकर जमीन खाली करवाईं। खाली कराने के बाद अब ढांचा तोड़कर जमीन समतल होने पर नई इमारत बनेगी। तीन मंजिला।'
नई इमारत का मतलब हमने सोचा कोई मैरिज हाल, रिहाइसी फ्लैट टाइप कोई निर्माण। भाई जी ने मेरी नादानी पर तरस खाते हुए बताया -'मैरिज हॉल या फ्लैट क्यों बनवाएंगे? यहां शॉपिंग मॉल बनेगा। तीन मंजिला। ये देखिए बगल में बनवाया है न एक। उसी तरह का यह भी बनेगा।साल भर में खड़ा कर देंगे इसे भी। '
बगल में दिखा शापिंग माल। नाम सिटिकार्ट। उसके किस्से भी बताए -'25 करोड़ में बना है। 12 लाख महीना किराए पर उठा है।' हम हिसाब लगाने लगे। 25 करोड़ मतलब 250000000 रुपये। लगभग 2.5 लाख अकुशल मजदूरों की महीने भर की कमाई। 12 लाख महीना किराया मतलब लगभग 100 मजदूरों का महीने भर का मेहनताना।
एक आदमी पूंजी के कारोबार से 100 आदमियों के बराबर कमाई कर रहा है। इंसान के अलावा शायद पता नहीं किसी और जीवजगत में इतना अंतर होता होगा क्या ?
सिटिकार्ट नया खुला है। उसके प्रचार के लिए सड़क पर कई बच्चे बाइक में जुलूस की शक्ल में दिखे। शहर वालों को जानकारी देते हुए -'आईये अपने पैसे ठिकाने लगाइए।'
बाजार पैसे का स्थायी अड्डा है। पैसे का मायका है। पैसा बाजार में आने को हुड़कता है।
आगे एक आदमी बैटरी वाले ऑटो पर पानी के बड़े जग घरों के बाहर रखता दिखा। पता चला ढाई से तीन सौ कैन रोज डिलीवर कर देते हैं। तीन-चार घण्टा डिलीवर करने में लगते हैं। इतना ही समय शाम को वापस उठाने में। 4 रुपये पर कैन मिलते हैं इस काम के। पानी का कैन 15 रुपये का मिलता है। पानी फिल्टर्ड होता है।
कभी पानी इफरात था। मुफ्त भी। अब पानी जग में बिकता है। हवा भी बिकने ही लगे किसी न किसी रूप में। क्या पता आने वाले समय में धूप और खुला आसमान भी बाजार में बिकने लगे। आईये घण्टे भर धूप खाइये, आसमान के नजारे देखिए। 40% डिस्काउंट। दीवाली पर बम्पर छूट।
बहादुरगंज मंडी के बाहर कुछ लोग आपस में मुंडी सटाये कुछ खेल रहे थे। शायद ताश। हम पास नहीं गए। क्या पता जुआ खेल रहे हों। पुलिस आये और साथ खड़े लोगों को भी पकड़कर ले जाये। आजकल किसी का कोई भरोसा नहीं।
भरोसे की बात चली तो कहते चलें कि आजकल भरोसे पर बहुत खतरा है। किसी पर भरोसा करना मुश्किल। कब कौन आपको जानबूझकर या अनजाने में बेवकूफ बना जाए, कोई भरोसा नहीं। हाल तो यह है कि लोगों को खुद पर ही भरोसा नहीं रहता कि कब वो क्या कर बैठेंगे। भरोसे का सेंसेक्स बहुत गड़बड़ाया हुआ है।
आगे सब्जी मंडी में घुस गए। सब्जियां सजी-धजी बिकने के लिए तैयार बैठी ग्राहकों का इंतजार कर रहीं थी। बाजार में बिकने के लिए सजना-धजना भी जरूरी होता है। ग्राहक आजकल ऊपरी सजावट ज्यादा देखता है। उसको भी बाजार ने तड़क-भड़क के ताम-झाम में समेट लिया है।
मंडी से बाहर निकलते हुए एक दुकान पर दो लोग बतियाते हुए दिखे। एक बुजुर्गवार नई उम्र के दुकानदार पर अपनी ज्ञान कुल्हाड़ी चला रहे थे। बोले अच्छा बताओ:
'सबसे मीठी चीज क्या, सबसे कडुवी चीज क्या, सबसे भारी चीज क्या?'
कई कयास के बाद हारी बोली गयी। फिर बुजुर्गवार ने बताया -'सबसे मीठी चीज जबान है, सबसे कडुवी चीज भी जबान है।'
इसके बाद सबसे भारी चीज बताने के पहले उन्होंने थोड़ा भौकाल बनाया और बताया -'सबसे भारी चीज होती है इंसान का कलंक।' इंसान का कलंक इतना भारी होता है कि वो उसे उठा नहीं सकता।
यह शाश्वत ज्ञान अब पिछड़े जमाने की बात हो गई। लोग अपना कलंक बोझ की तरह नहीं बल्कि औजार की तरह प्रयोग करते हैं। कहते हैं -'हमसे बड़ा हरामी देखे नहीं होंगे। हमसे मत उलझो वरना समझ लेव क्या हाल होगा।'
पापुलर मेरठी ने भी ऐसे लोगों से बचकर रहने की सलाह दी है:
न देखा करो मवालियों को हिक़ारत से,
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाये।'
दस-बीस साल पहले मजाक में कही यह बात आज के समय का सहज स्वीकार्य सच है।
हम ऐसा ही कुछ कहना चाहते थे लेकिन फिर नहीं कहे। चुपचाप आगे बढ़ गए। चुप्पी आजकल का सबसे बढ़िया रक्षक है। बोले तो गए।

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Wednesday, October 06, 2021

जहां जिंदगी को पनपने का मौका नहीं वहीं ब्लैक होल है


सुबह उठे तो पता चला चीनी खत्म थी घर में। ’दउड़ा’ दिए गए लेने के लिए।बाहर निकले तो सूरज भाई पेड़ की आड़ में मुस्करा रहे थे। चमकते चेहरे से लग रहा था कि मजा आ रहा था उनको कि हमको सुबह-सुबह 'बिस्तर बदर ' कर दिया गया।
हमको लगा कि सूरज भाई कामकाजी हैं।फैशन ऊसन न करते होंगे। लेकिन आज देखा तो किरणों का रंग -बिरंगा मुकुट धारण किये हैं माथे पर। पीला और लाल रंग का गोल मुकुट।
इससे लगा कि लोग चाहे जितना सर्वहारा की सेवा करें लेकिन राजाओं की तरह मुकुट धारण करने की इच्छा से मुक्त नहीं हो पाते। लोकतन्त्र में आम जनता की सेवा के लिए दिन रात लगे रहने वाले जननायक भी अपनी बिरादरी के किसी मंच पर हाथ में तलवार लिए सर पर ताज धारण किये बरामद होते हैं।
सूरज भाई से आज ब्लैक होल के बारे में बतियाते रहे। हमने पूछा -"भाईजी ये ब्लैक होल क्या होते हैं आपकी बिरादरी में?
कैसे बनते हैं? तुमसे मुलाक़ात होती है क्या उनकी कभी?"
सूरज भाई मुस्कराये और बोले- "ब्लैक होल हमरी बिरादरी के वे लोग होते हैं जो रौशनी हीन हो जाते हैं। सिर्फ अँधेरा होता है इनके पास।आसपास की जो भी रोशनी दिखती है इनको उसको पिंडारियों की तरह लूट लेते हैं। पूरे के पूरे सूरज तक को लील जाते हैं। डकार तक नहीं लेते। नेता जैसे परियोजनाओं का पैसा हिल्ले लगाते हैं ऐसे ब्लैक होल लोग सूरज पर सूरज निगलते जाते हैं और बेशर्मी से कहते हैं- ये दिल मांगे मोर।"
लेकिन सूरज भाई सिर्फ अँधेरे में कैसा लगता होगा ब्लैक होल को ?
बिना रौशनी के जिंदगी कैसी होती होगी उनके यहाँ? -हमने ऐसे ही पूछ लिया।
सूरज भाई इस पर गंभीर टाइप हो गए और बोले-"इसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।हमने कोई ब्लैक होल देखा तो नहीं सिर्फ बुजुर्गों से सुनते आये हैं।लेकिन यह समझ लो कि जब कोई सिर्फ लेना जानता है देना नहीं तो वह ब्लैकहोल हो जाता है।जहां जिंदगी को पनपने का मौका नहीं वहीं ब्लैक होल है।आम सूरज और ब्लैक होल में सिर्फ जिंदगी का फर्क होता है।"
सूरज भाई को सीरियस टाइप देखकर अनगिनत किरणें उनके आसपास इकट्ठा होकर उनको गुदगुदाने लगीं। एक बच्ची किरण ने तो उनको उलाहना सा दिया - "कहाँ सुबह-सुबह आप भी पाखण्डी बाबाओं की तरह प्रवचन करने लगे? मैं इत्ता अच्छा एक सुगन्धित फूल पर बैठी थी।आपको प्रवचन मोड में देखा तो मूड उखड़ गया।आपने मेरा मूड आफ कर दिया दादा। हाउ बैड। चलो अब मुस्कराओ।" यह कहते हुए उसने सूरज भाई के गुदगुदी कर दी। सूरज भाई मुस्कराने लगे। वह किरण भागकर फिर फूल पर पहुंच गयी और उसके ऊपर बैठकर सूरज भाई को हाथ हिलाते हुए अंगूठा दिखाया किया। सूरज भाई ने भी थम्पस अप वाला अंगूठा दिखाया तो उस बच्ची किरण ने सूरज भाई को उड़न पुच्ची भेजी। सूरज भाई शरमाते हुए हमारी तरफ देखने लगे।
सूरज भाई फिर चाय पीते हुए कहने लगे- "तुमने आज ब्लैक होल की बात की वो तो मैंने देखा नहीं। केवल सुना है।लेकिन यह समझ लो कि ब्लैक होल ऐसा ही होगा जैसी वह दुनिया होगी जहां लड़कियां नहीं होंगी।सिर्फ और सिर्फ लड़के होंगे। दुनिया को ब्लैक होल बनने से बचाना है तो लड़कियों को बचाये रखना होगा।"
"सूरज भाई आज तो आप ऐसे बतिया रहे हैं मनो कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ कोई भाषण देने जा रहे हैं।" हमारी यह बात सुनकर सूरज भाई मुस्कराये और अपनी गोद में धमाचौकड़ी मचाती किरणों को दुलराने लगे।
सुबह हो गयी।

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Tuesday, October 05, 2021

सड़क पर टहलते हुए

 


इतवार को टहलने निकले। साइकिल से नहीं पैदल। सड़क घर के बाहर सूनसान लेकिन साफ- सुथरी पसरी थी। वीकेंड मूड में सुस्ताते हुए। आर्मी गेट पर दरबान ने रोका नहीं। आते-जाते बातें करते रहते हैं इसलिए पहचान गया है। हमारे मन से भी डर निकल गया है कि रोक लेगा।
रात दो बजे तक ड्यूटी की है संतरी ने। अब सुबह फिर कर रहा है। किस्तों में होती है ड्यूटी। दो घण्टा ड्यूटी, चार घण्टा आराम।
आर्मी गेट के बाहर सड़क के दोनों तरफ बेंचों पर कुछ लोग बैठे थे। ज्यादातर खाली। बेंच नम्बर सात भी अपने साथियों का इंतजार कर रही थी। मैदान में कई टीमें क्रिकेट खेल रहीं थीं। एक जोरदार हिट की हुई गेंद सड़क पर आकर गिरी। दो टप्पे खाकर नाली के पास सुस्ताने लगी। लेकिन गेंद को आराम नसीब नहीं। एक फील्डर भागता हुआ आया और गेंद को वापस फील्ड में फेंक दिया। गेंद फिर फेंकी जाने और बल्ले से पिटने के लिए तैयार हो गयी।
पिटना जिसकी नियति है, वह कब तक बचेगा पिटने से।
आगे एक बेंच पर सिकुड़े से बैठे अमृत मिले। नगरपालिका में दिहाड़ी पर काम करते हैं। 9000 रुपये महीने मिलते हैं। आज छुट्टी कर ली। मन नहीं था काम पर जाने का। माता जी फैक्ट्री से जून में रिटायर हुईं। फंड और ग्रेच्युटी का पैसा मिल गया है लेकिन पेंशन अभी शुरू नहीं हुई है।
रिटायरमेन्ट के 3 महीने बाद पेंशन नहीं शुरू हुई यह सुनकर हमको ताज्जुब हुआ। दरयाफ्त किया तो पता चला 2007 की भर्ती थी उनकी माता जी की। अनुकम्पा के आधार पर लगी थी नौकरी। नई पेंशन स्कीम में पेंशन आएगी। कब, कितनी पता करने के लिए फोन किया तो लेखा अधिकारी ने कल बताने को कहा।
पेंशन के बारे में और जानकारी देकर हमने तसल्ली दी तो बोले -'आपने बता दिया तो सही बात पता चल गई। तीन महीने से हर आदमी अलग तरह की बात बता रहा था।'
अमृत से और बात हुई तो पता चला दो बच्चे हैं। खुद आठ तक पढ़े हैं। बच्चों को भी पढ़ाने में दिक्कत है। फीस बहुत है। महिला कल्याण समिति के स्कूल में अर्जी दी है, फीस माफी की। अभी बड़े बेटे का एडमिशन करवाया है। बेटी का करवाना है।
बात करते-करते अमृत खड़े हो गए। नौकरी लगवाने की बात करने लगे। हमने कहा -'नौकरी कैसे लगवाएं? आजकल तो ठेके पर मजदूरी ही हो रही है।'
अमृत ने कहा-'दिहाड़ी पर ही लगवा दीजिए यहीं। नगर पालिका में बहुत दूर पड़ता है।'
बातचीत से पता चला अमृत हमको पहचान गए हैं। पूछा तो बताया -'हमने सुना है जीएम साहब कभी पैदल , कभी साइकिल पर घूमते हैं। सबसे हाल-चाल पूछते हैं। प्रेम से बात करते हैं। लेकिन बहुत सख्त भी हैं। '
अपने बारे में बातें सुनकर हंसी आई। अमृत बोले -'घर चलिए आपको चाय पिलाएं।'
चाय के लिए मना करके हम आगे बढ़ लिए। अमृत जैसे अनगिनत नौजवान दिहाड़ी मजदूरी करते हुए जिंदगी गुजार रहे हैं। अगली पीढ़ी के लिए दिहाड़ी मजदूर पैदा करते हुए।
आगे सड़क किनारे अशोक के पेड़ अनुशासन में खड़े दिखे। वहीं फुटपाथ पर एक बन्दरिया तसल्ली से लेटी हुई थी। उसका बच्चा उसके पेट के बालों से जुएं बिन रहा था। हमको पास खड़ा देखकर उसने एक बार हमारी तरफ देखा फिर अनदेखा करके जुएं बीनने में तल्लीन हो गया।
सड़क पर एक साइकिल सवार आहिस्ते-आहिस्ते जाता दिखा । उसका मडगार्ड पहिये से टकरा रहा था। मडगार्ड को रोकने वाला नट गायब था। मडगार्ड हल्ला मचा रहा था। शायद इस्तीफे की धमकी दे रहा हो। उस मडगार्ड को देखकर लगा कि साइकिल हो या पार्टी कहीं भी सन्तुलन बिगड़ता है तो हल्ला मचता है।
साइकिल सवार हवा भरवाने लगा। हवा भरने वाला बुजुर्ग था। आहिस्ते से उठकर हवा भरने लगा। बगल में ही कई घर बने थे। बिना अनुमति के बने घर आसपास से जोड़-बटोरकर इकट्ठा किये सामान से बने थे। भानुमति के कुनबे की तरह। समय के साथ ये घर किसी के वोट बैंक में तब्दील हो गए होंगे, इसीलिए बने हुए हैं।
सड़क किनारे हलवाई की दुकान खुल गयी थी। कड़ाही में गोल, लाल रसगुल्ले पूरी कड़ाही को में तैर रहे थे। अभी बिक्री शुरू नही हुई थी। हलवाई अपने साथ बैठे आदमी से राजनीति की बातें करता हुआ ग्राहक का इंतजार कर रहा था।
क्रासिंग के पहले उत्तर रेलवे का टिकट घर दिखा। बन्द। पहले कभी यहां भी टिकट बिकते होंगे। टिकटघर एक पान की गुमटी से कुछ ही बड़ा था। अब बन्द है। टिकटघर भले बन्द हो गया हो लेकिन उसके पास ही बना मंदिर गुलजार दिखा। कई देवियों की मूर्तियां दिखीं। कुछ लोग पूजा करते भी दिखे।
क्रासिंग पार करते हुए रेलवे की पटरी दिखी। आराम से स्टेशन की तरफ मुंह करके लेटी हुई गाड़ियों का इंतजार करते हुए।
एक जगह सड़क किनारे दो लोग अखबार पढ़ते दिखे। हमने बात की तो कहने लगे -'ऐसे अखबार पढ़ना अच्छा लगता है। पहले जगह-जगह लाइब्रेरी होती थी। अब कहीं लाइब्रेरी नहीं हैं जहां बैठकर अखबार पढ़ सकें। सब लोग पैसा कमाने में लगे हैं। कोई समाज के लिए पैसा खर्च नहीं करना चाहता।'
एक जगह एक मकान टूटता दिखा। एक आदमी ने बिना पूछे बताया -'चांदना स्वीट हाउस वालों ने यह खरीद लिया है। अब पूरे को तुड़वा के नया बनवाएंगे।'
सदर बाजार के कोने पर पान की दुकान पर बैठा एक बच्चा पूरा मुंह खोलकर जम्हूआई लेते दिखा। बोर हो गया होगा दुकान पर बैठे-बैठे।
सदर बाजार में एक दुकान के बाहर एक आदमी मैले-कुचैले कपड़े पहने बैठा सूनी निगाहों से सामने घूर रहा था। आंखों में कीचड़, बालों की लटें सूखी। हमने उसके पास खड़े होकर कुछ बतियाने की कोशिश की तो उसने घूरती आंखे हमारी तरफ कर दीं। हमारी हिम्मत नहीं हुई बतियाने की। आगे बढ़ गए।
आगे तमाम दूध वाले पीपों में दूध लिए ग्राहकों का इंतजार कर रहे थे। एक दूध वाला पीपे में हथेली घुसाकर दूध में डूबा रहा था। पूरा पंजा दूध में घुसाकर देखता। हथेली बाहर करते ही हथेली में लगा दूध फिर पीपे में गिर जाता। हथेली को आगे-पीछे करते हुए दूध की क्वालिटी से खुद को और अगल-बगल खड़े लोगों को तसल्ली सी दिलाता लगा।
थोड़ी देर में वह दूध वाला अपने दूध का सौदा करते दिखा। बातचीत से अंदाज लगा कि वह अपना दूध 30 रुपये लीटर बेंचने को तैयार है। दूध का बाजार भाव 50 रुपये लीटर है। शायद दूध वाला अपना दूध जल्दी बेंचकर घर जाना चाहता होगा। कारण जो रहा है, उसको तुरन्त कोई ग्राहक मिला नहीं। वह पीपे के दूध में हाथ डालते-निकालते हुए ग्राहक का इंतजार करता रहा।
अक्सर जनप्रतिनिधियों के बिकने की अफवाहें उड़ती हैं। अपन को लगा कि क्या उनके भाव भी इसी तरह लगते होंगे?
इस फालतू के सवाल को झटककर हम आगे बढ़ गए। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे थे।

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