Saturday, November 27, 2021

खबरों के पीछे का सच

 


सुबह-सुबह मैदान में जोर-जोर से ताली बजाते दिखे लोग। हमको लगा कोरोना के नए वैरियंट को आने के पहले ही भगाने का अभ्यास हो रहा है। दुश्मन के पांव जमाने के पहले ही उसके छक्के छुड़ाने का अभ्यास। नजदीक से देखा तो योग और अन्य गतिविधियां भी हो रही थीं। 20-30 लोग । इतनी सुबह नियमित आ जाते हैं कसरत करने हमारे लिए ताज्जुब की बात।
लेकिन ताज्जुब किस बात का। जिस काम को हम करना चाहते हैं उसको करने के हजार तरीके निकल आते हैं। कोई काम नहीं है मुश्किल जब किया इरादा पक्का।
बाद में पता चला कि यह एक स्कूल का खेल का मैदान था। जयपुर स्कूल। स्कूल में पढ़ने, काम करने वाले लोग ही रहे होंगे। एक जगह रहने वालों को साथ लेना सहज।
सड़क पर अखबार वाला घरों में अखबार डाल रहा था। साइकिल चलाते हुए बैग से अखबार निकाल कर घरों में थ्रो कर देता। जैसे क्रिकेट के मैदान में खिलाड़ी अंदाज से दौड़ते हुए गेंद थ्रो कर देते हैं। कभी विकेट पर लगती है, कभी दूर निकल जाती है।
हॉकर के फेके हुए अखबार अधिकतर घरों के अंदर गिरे। कुछ गेट, दीवार से टकराकर इधर-उधर छिटक गए। अखबार वाले ने इधर-उधर गिरे हुए अखबार उठाकर दुबारा फेंकने की जहमत नहीं उठाई। उसको तमाम अख़बार फेंकने थे।
अखबार फेंकते समय न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम के अनुसार साइकिल हिल जाती। सन्तुलन बिगड़ता। साइकिल वाला एक तरफ झुक कर फौरन फिर सन्तुलन बना लेता। अगले घर में अख़बार फेंकने लगता।
अखबार फेकने की फ़ोटो ली। पता नहीं क्या हुआ, अंधेरा था या क्लिक करते समय हाथ हिल गया, लेकिन फ़ोटो साफ नहीं आया। थोड़ा धुंधला गया। कुल मिलाकर जो फोटो साफ -सुथरी आनी चाहिए वह धुंधली होकर मॉर्डन आर्ट का बेहूदा नमूना होकर रह गयी।
अखबार वाले का धुंधला फ़ोटो आज के समय की खबरों की तरह लगा। यहाँ अखबार वाला वास्तव में है, हम उसको सामने देख रहे हैं। लेकिन फोटो देखने में चेहरा-मोहरा, भाव भंगिमा समझ नहीं आते।
आज की खबरों के भी यही हाल हैं। किसी घटना की खबरें इस तरह छपती, प्रसारित होती हैं कि सच क्या है ,पता नहीं लगता। हर खबरिया चैनल , अखबार उस घटना की ऐसी हिली हुई रिपोर्टिंग करता है कि बाज दफा पता ही नहीं चलता कि हुआ क्या है। जब तक खबर का सच पता चले उससे पहले ही दूसरी घटना घट जाती है। नई खबर हल्ला मचाने लगती है।
खबरों के पीछे के सच को छिपाने और बदरंग करने में ताली और गाली और समाज की जहालत का भी काफी योगदान होता है।
बहरहाल हमारी मंजिल न ताली सुनना था न ही अखबार का वितरण देखना। हम आये थे जंगल की सैर करने। हमारे मित्र नरेश ठकराल ने उकसा दिया कि आइए सुबह सैर कराते हैं जंगल की। हम चढ़ गए पानी में। देर रात एक विवाह समारोह से लौटने से बावजूद पांच बजे जग गए। मन किया करवट बदल के सो जाएं। लेकिन फिर फटाक से तैयार होकर निकल लिए। ये किस्से उसके बाद के, नरेश का घर खोजने के दरम्यान के।
आगे और पीछे के किस्से आगे आएंगे। आने चाहिये अगर आलस्य और काम के बोझ ने दबोच न लिया।

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