दीवाली आकर गुजर गई। चार दिन की छुट्टी आधी से ज्यादा खर्च हो गयी। तमाम काम करने के बारे में सोचा था लेकिन अमल में कौन लाता है। सोचा था कि अमेरिका के बचे हुए संस्मरण लिखकर किताब बन जाएगी। लेकिन दो साल पहले के बचे किस्से जब भी लिखने की सोचते हैं , वो सब हाथ से फिसल जाते हैं।
लिखने का हरेक का अलग-अलग अंदाज होता है। कई लोग तसल्ली से लिखना पसन्द करते हैं। हमसे तसल्ली वाला लेखन नहीं हो पाता। आज का किस्सा आज नहीं लिखा तो वो तासीर नहीं बचती। लगता है कमजोर हो गया संस्मरण। दुबला गया बेचारा। किसी घटना से रूबरू होते हुए जो बिम्ब उभरते हैं वो समय के साथ बिखर जाते हैं। लिखने का मन नहीं होता।
हमारे तमाम अधूरे लेख अक्सर हमको और हमारी बेतरतीबी को कोसते हुए कहते होंगे -'इस नामुराद की काहिली के चलते हम अधूरे पड़े हैं। वरना हम भी मुक्कमल होकर किसी लेख की शक्ल पा गए होते।'
लिखने की तो हम यह भी सोचते हैं कि एक ठो उपन्यास लिखा जाए। उपन्यास लिखने का हमारा बहुत मन है। भले ही घटिया ही लिखें। घटिया भले ही कोई कहे, लेकिन उपन्यास कहने से कोई थोड़ी रोक सकेगा उसे। घटिया भी केवल वही लोग कहेंगे, जो उसे पढेंगें। बाकी लोग थोड़ी कुछ कहेंगे। पढेंगे ही नहीं तो जानेंगे कैसे कि घटिया है। दस-बीस लोगों के कहने से क्या होता है। हम इत्ती फिजा बना देंगे लिखते ही कि कोई भी शरीफ इंसान इसके खिलाफ कुछ कहने से बचेगा। जो कोई आलोचना करेगा हम उससे कहेंगे -'आप इसको अभी समझे नहीं, यह अपने समय से आगे का उपन्यास है।'
'आप इसे समझे नहीं' कहकर तमाम लोग अपने साधारण लेखन को ऊंचा बताते रहते हैं। लेकिन यह हुनर हमको अभी आता नहीं। हमारी तो किसी रचना की कोई तारीफ भी करता है तो हमको लगता है, अगला हमको बेवकूफ बना रहा है। हमारे चिरकुट लेखन को अच्छा बता रहा है।
इस बीच घूमना-फिरना भी स्थगित रहा। रोज सोचते हैं सुबह निकलेंगे। सुबह सोचते हैं , शाम को चलेंगे। सुबह-शाम के चक्कर में सब स्थगित हो जाता है। घूमते हुए लोग मिलते हैं, उनसे बातें होती हैं तो तमाम ख्याल आते हैं। उनको तुरन्त न लिखा जाए तो सब नाराज होकर दिमाग से बाहर चले चले जाते हैं।
दीवाली को घर खूब सजाया गया। मार झालर-फालर लगाई गई। चीनी सामान का कितना बहिष्कार हुआ पता नहीं लेकिन हमारे यहां चीनी झालर ही लगी। पूरे घर में जलती-बुझती झालर को देखकर लगा मानो झालर के मन में धुकुर-पुकुर मची है कि कहीं अगली घड़ी फ्यूज न हो जाऊं। एक दिन बाद एक हिस्से ने फ्यूज होकर अपना चीनी होना सार्थक भी कर दिया। लेकिन बाकी हिस्सों ने फ्यूज न होकर चीन की नाक कटा दी। ऐसी भी क्या चीनी झालर जो भला फ्यूज न हो।
रोशनी से घर जगमग हुआ तब तो नहीं लेकिन आज हम सोच रहे हैं कि देश भर में बिजली का संकट था। कोयला एक-दो दिन का ही बचा था। इसके बावजूद हमने बिजली की झालर लगाई। कितनी खराब बात। कितनी भी कम बिजली लगती हो लेकिन ख़र्च तो फिजूल का ही है। गाते भले नीरज जी की कविता हों :
'जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना,
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।'
लेकिन अमल में कविता से उलट काम कर रहे। जितने की झालर हमने लगाई उतने के लिए जो बिजली चाहिए होगी उसमें दस-बीस किलो कोयला तो फुंका होगा। कोयला जला होगा, तो उससे कार्बन डाई ऑक्साइड भी बनी होगी। उस कार्बन डाई आक्साइड से दुनिया का तापमान कुछ तो बढ़ा होगा। मतलब दुनिया के पर्यावरण को बिगाड़ने में अपन का भी दोष रहा होगा। सामूहिक अपराध में शामिल हो गए अपन भी। सजा भी मिलेगी ही। धरती गर्म होकर हमको सजा देगी।
दीवाली की रात घूमने निकले। लोग बेंचों पर बैठे बतिया रहे थे। एक जगह कुछ युवा ठहाके लगाते हुए स्कूली दिनों के किस्से साझा कर रहे थे। एक ने किसी कन्या का नाम लेते हुए बताया -'सब समझते थे कि वो उनको लिफ्ट देती थी लेकिन उसने किसी को भाव नहीं दिया।' इसी घराने की बातें । बातें और भी लेकिन उनको बताना उनकी निजता का हनन होगा।
सड़क पर कुछ गायें बैठीं थीं। सपरिवार। तसल्ली से। बीच सड़क पर। कोई उनको टोंकने वाला नहीं था। एक जीप निकली तो उनकी रोशनी में गायें चमक गयीं। हमने भी उसी समय फोटो खींच ली। बिना उनसे पूंछे। पूछते तो भी मना थोड़ी करतीं।
घर वापस आकर घर के बाहर का वीडियो बनाया। बगीचे का फव्वारा भी चला लिया। वीडियो देखकर तमाम लोगों ने घर की तारीफ भी की। तो सोचा आपको भी दिखा दिया जाए। देखिए।
हमारी तो दीवाली गुजर गई। आपकी भी गुजर ही गयी होगी। अच्छी ही गुजरी होगी। ऐसे ही सब कुछ अच्छा गुजरता रहा। बाकी और कुछ रखा नहीं है दुनिया में।
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