Saturday, February 26, 2022

कवि के इंतज़ार में बिम्ब

 सुबह होती है

जम्हुआई लेते हुये उठता है फ़ेसबुकिया कवि
इधर-उधर के स्टेटस ठेलता है,हड़काया जाता है
बैठ गये सुबह-सुबह लैपटाप लेकर---
भागता है बेचारा चाय का कप लिये हाथ में
स्कूल जाते बच्चे की ड्रेस प्रेस करता है
इस बीच कविताओं के तमाम बिम्ब
उसके दिमाग में आते हैं।
वह सबसे कहता है-अभी नहीं
भाग जाओ कोई देख देख लेगा घर में
तो बवाल होगा,
थोड़ी देर बाद मिलना फ़ेसबुक पर।
बिम्ब फ़ेसबुक पर कवि के इंतजार में
मुंह बाये बैठे हैं।
उन बेचारों को क्या पता कि
कवि को प्रेस करने के बाद
चाय बनाने के लिये दौड़ा दिया गया है।
-कट्टा कानपुरी

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Friday, February 25, 2022

याददाश्त का फ्रीज हो जाना



पिछले दिनों पंकज बाजपेयी जी से कई बार मुलाकात हुई। इधर वो हाईटेक हुए हैं। पकड़वाने वालों के भी नए नाम जुड़े हैं। पिछली बार मिसाइल ट्रैप करवाने को बोले। बोले - 'वी के मिसरा को पकड़वाईये। वो मिसाइल अटैक करवा देगा। मिसाइल ट्रैप करना जरूरी है।'
एक दिन हाथ बढाकर पैर छूने की मुद्रा में आ गए। जैसे तमाम कनपुरिये हाथ बढाकर पांव छूने का पोज बनाते हैं। अगला आशीष पोज बनाता है। ' प्रणाम पोज' का जबाब 'आशीर्वाद पोज'। न पूरा प्रणाम होता है न ही पूरा आशीर्वाद । बस पोज होते हैं। बहुत बड़ा पोज घोटाला हो रहा है शहर में। सब देख रहे हैं लेकिन बोलता कोई नहीं है क्योंकि शहर के सब बड़े लोग इस पोज घोटाले में शामिल हैं। शहर में इज्जत बचाये रखने के लिए हवाई इज्जत करने वालों और पांव छूने से बचना बहुत जरूरी है। पांव छूने से बचा लिए समझ लो काम भर की इज्जत बच गयी।
बहरहाल जब पंकज बाजपेयी जी ने पांव छूने का पोज बनाया तो हमने मना किया। गले लगाया तो बोले -'मम्मी जी डांटेंगी कि तुम पैर नहीं छूते हो उनके।' हमने उनके बड़े होने का तर्क देते हुए समझाया तो फिर कोहली की गिरफ्तारी पर जोर देने लगे।
चाय पीने के लिए गए। अपना बर्तन निकालकर चाय ली। चाय की दुकान वाली बोली -'अभी पीकर गए हैं। चाय इनको दिन भर पिलाये रहो। पीते रहेंगे।' हमें और अपनी तरह लगे पंकज बाजपेई ।
महिला उनके बारे में तमाम बातें बताने लगी-' पढने में बहुत होशियार थे। आई ए एस का इम्तहान दिया है। बम्बई गए। दिमाग खराब हो गया। आसपास के सब मकान उनके हैं। रिश्तेदारों का कब्जा है। इलाज कोई नहीं कराता। डरते हैं याददाश्त ठीक हो गयी तो कब्जा चला जायेगा। खाना देते रहते हैं। बस्स।'
मिठाई के शौक़ीन हैं। हमने कहा -'लाएंगे किसी दिन मिठाई।' मुस्कारते हुए बोले -'अच्छा।' फिर बोले -'हम आपके घर आ जाएंगे।'
एक दिन बोले -'हाजी मस्तान ने मेरे बच्चे उठवा लिए। उसको पकड़वाईये।'
हमने कहा -' आपका इलाज करवाते हैं।' बोले -' हम ठीक हैं। आप कोहली को पकड़वाईये। बच्चो को खराब कर रहा है। सीबीआई लगवाइए।'
हमने कहा -'आपकी शादी करवा देते हैं। ' बोले -'हमारी शादी हो गयी। बच्चे भी हैं। हमने कहा -' कहां हैं ?' बोले -बम्बई में।
हमने कहा -' एक शादी और करवा देते हैं।' बोले -'चार शादी हो गईं हमारी।' और कुछ बात करें तब तक बात फिर दाऊद, कोहली , हाजी मस्तान की तरफ मुड़ गयी।
बेसिर-पैर की असंबद्ग बातेँ सुनते हुए लगता हूँ मानो उनका दिमाग फ्रीज हो गया है इन बातों के आसपास। अपना समाज जैसे जकड़ गया है हिन्दू, मुसलमान, मंदिर, मस्जिद, जातिवाद में। वैसे ही पंकज जी के दिमाग का ताना बाना इसी के आसपास घूमता रहता है।
आंय-बांय बातें करते हुये एकदम भोले बच्चे जैसे लगते हैं। लंबे कद के पंकज जी जब खड़े होकर बात करते हैं, एक तरफा , तो लगता निराला जी आखिरी दिनों में इनके जैसे ही लगते होंगे। बोलते समय गले की नशे फूल जाती हैं। लंबी नाक वाले बोलते चले जाने वाले पंकज जी को देखते हुए मुझे अक्सर अपने दिवंगत बड़े भाई की याद आती है। उनको तमाम शिकायतें थीं लोगों से। जब कभी बात करते तो बीते हुए समय में चले जाते। सुनने वाले को भी घसीट ले जाते।
पता नहीं किस मौके पर और किस समय इनके दिमाग के तार हिले होंगे। कनेक्शन हिल गया होगा दिमाग से और सीमित रह गया होगा कोहली, दाऊद, हाजी मस्तान , बच्चे और औरतों को खराब करवाने की खतरे में। उनकी बात में आज की कोई चर्चा नहीं होती। न बैंक घोटाले की न, स्पेक्ट्रम घोटाले की। इंडिया टीम की जीत की नहीं और न ही शहर में जाम की।
पता नहीं क्या ताना-बाना बनता हो दिमाग के मदरबोर्ड के तार हिल जाने पर। अनगिनत भावनाओं को कोई स्टेच्यू जैसा बोल देता हो जैसे। अटल जी की याददाश्त चली सी गयी है। सुना है लोगों को पहचान नहीं पाते। उनको कोई उनके भाषण , कविताएं सुनाता होगा तो न जाने कैसे प्रतिक्रिया करते हों। पिछले दिनों बशीर बद्र को देखा एक वीडियो में। अपने ही मशहूर शेर बमुश्किल याद कर पा रहे थे। दिमाग में इस कदर ब्लैक आउट हो गया है कि अपना शेर 'उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो' याद नहीं कर पा रहे थे। दिमाग की गलियों में गहरी रात हो गयी है।
पंकज जी का कोई बचपन का पक्का दोस्त हो तो शायद उनको कुछ याद दिला सके उनसे जुड़ी यादें। उनके पसंदीदा हीरो-हीरोइन। नायक , नेता। बड़े होते हुए उनके क्या सपने , इरादे, अरमान रहे होंगे इस बारे में बता सकता।
पंकज जी तो एक इंसान हैं। उनका अकेले याददाश्त ठहर जाना बड़े समाज के लिए ज्यादा मायने नहीं रखता। लेकिन जब यह बात किसी बड़े समूह, समाज के साथ होती है तब गड़बड़ी की ज्यादा सम्भावना होती है। समझिए कोई समाज 10-12-13 -16-17 सदी की मान्यताएं लिए जी रहा है। आंख के बदले दो आंख, एक गर्दन के बदले हजार मुंडिया को जायज ठहराते हुए उसको अमली जामा पहनाने के लिए तैयार हो रहा हो, उसके लिए तर्क गढ़ रहा हो तो आने वाला समय कितना भयावह हो सकता है इसके बारे में सोचकर डर लगता है।
ऐसे समाज के इलाज के बारे में भी लोग फिकर नहीं करते। उनको डर होगा कि लोगों के सहज हो जाने पर उनकी दुकानें बंद हो सकती हैं।
एक इंसान अपने आप में मुक्कमल इतिहास होता है। उसके जीवन से जुड़ी घटनाओं पर उपन्यास लिखे जा सकते हैं। पंकज जी जैसे अनगिनत लोग हमारे आसपास दिखते, मिलते, रहते हैं। हम उनको अनदेखा करते हुए मजे से जीते रहते हैं, बिना यह एहसास किये कि ऐसा करते हुए हम भी उन्हीं की तरह ठहरे हुए हैं। पंकज भाई दाऊद, कोहली, मिसरा, बच्चे, सीबीआई में ठहरे हुए हैं। समाज के रूप में हम भी इन्ही बातों के आसपास बने हुए हैं। बहुत ज्यादा फर्क नहीं है दोनों की हालत में।
इसी लिए हमको पंकज बाजपेयी अपने जैसे लगते हैं। इसीलिए उनसे बार-बार मिलने का मन होता है। मिलते भी रहते हैं।

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Thursday, February 24, 2022

कमजोर दिल के घपलेबाज



आजकल बैंकिग घोटालों की बमबम मची है। एक के बाद एक ताबड़तोड़ घपले किलकते हुये पैदा हो रहे हैं। ’मीडिया रैम्प’ पर सुन्दरियों की तरह इठलाते हुये कैटवॉक कर रहे हैं। एक घपले के सौंदर्य को जी भरकर निहार भी नहीं पाते कि भड़भड़ा के सामने आया दूसरा घोटाला अपने हनीट्रैप में फ़ंसा लेता है।
घपले करने वाले ताबड़तोड़ बैटिंग वाले अंदाज में स्कोर टांगते जा रहे हैं। जनता बेचारी न्यूट्रल अम्पायर की तरह चुपचाप किनारे खड़ी घपलचियों के जलवे देख रही है। घपलावीरों की हिट की हुई हर गेंद बाउंड्री के बाहर जा रही है। मीडिया चीयरलीडरानियों की तरह हर घपले पर मटक रहा है। घोटालचियों की अदाओं का सौंदर्य निहारते हुये उनको मधुर अंदाज में धिक्कारता है जैसे वधू पक्ष की महिलायें वरपक्ष के सम्मान में मंगलगालियां देती हैं।
उधर कई गुज्जू भाइयों मिलकर हज्जारों करोड़ पार किये। इधर कनपुरिया कोठारी जी ने भी ताव में आकर अकेले ही ’कलट्टरगंज झाड़ दिया।’ मसाला प्रेमी कनपुरिया मुंह के मसाले से सड़क का मुंह रंगते हुये कह रहा है- ’यार इज्जत रख ली अगले ने कानपुर की। अब कोई मना भी करे लेकिन अपन बिटिया की शादी में बरातियों का स्वागत पान पराग से ही करेंगे।’
फ़रवरी में मध्यवर्ग आयकर कटौती के हमलों से हलकान होता है। अपने खर्चे काटता हुआ किसी तरह महीना गुजर जाने का इंतजार करता है। इस समय आयकर की कटौती प्रतिद्वन्दी लेखक को मिले सम्मान सी अखरती है। ऐसे में बैंकिग घोटाले ’बुरा न मानो होली है’ सा कहते हुये हौसला बंधा रहे हैं - ’देख बाबू, देश के हज्जारों करोड़ लुट गये फ़िर भी वह मुस्करा रहा है। तुम अपने चंद रुपयों की कटौती पर बिलख रहे हो।’ बाबू देशभक्ति के नाम पर मुस्कराने की कोशिश करता है तब तक पता चलता है उसके पीएफ़ पर भी कैंची चल गयी। बिना समझाये वह समझ जाता है कि देशभक्त होने के नाते देश का नुकसान उसको ही झेलना पड़ेगा।
घपले पहले भी होते रहे हैं। लेकिन हाल में हुये घपले अलग तरह के हैं। पहले घपलेबाज पकड़े जाने पर शरमाते थे। मुंह छिपाते थे। घपला करने के बाद पछताते थे। अपने बहक जाने की बात बताते थे। कुछ तो मारे शरम के चुल्लू भर पानी में डूब तक जाते थे। इसका कारण उनमें आत्मविश्वास की कमी होती थी। उनको लगता था कि उन्होंने गलत किया है। पकड़े जाते ही वे शर्मिन्दगी वाले मोड़ में चले जाते थे। वे कमजोर मन वाले घपलेबाज होते थे।
लेकिन हाल के घपलेबाजों में अलग तरह का आत्मविश्वास दिखता है। माल्या जी उधर लंदन से हड़काते हुये कहते हैं-’हमको ज्यादा उकसाओगे तो सबकी पोल खोल दूंगा।’ पोल खुलने की घमकी से तो नंगा तक डरता है। इसलिये लोग सहम गये।
घपलेबाज भाई भी ने बैंक और मीडिया को धमकाया है कि उनके खुलासे के चलते उसकी साख में बट्टा लगा। अब कोई पैसा वापस नहीं करेंगे। ’जबरा लूटे, रोवन न देय।’
हमें तो धुकुर-पुकुर मची है कि अगला कहीं देश पर मानहानि का दावा न ठोंक दे। घपले की रकम से दोगुने का हर्जाना न मांगने लगे। खुदा न खास्ता अगर ऐसा हो गया तो अभी तो पीएफ़ कम हुआ है, आगे कहीं तन्ख्वाह भी न दुबली हो जाये।
इस लिहाज से कनपुरिया घपलेबाज संस्कारी डिफ़ाल्टर हैं। घपले का खुलासा होते ही देशभक्त हो गये। पासपोर्ट जब्त हो जाने के चलते सिस्टम में सहज विश्वास पैदा हो गया था। कानून की जकड़ में आया आदमी न्याय व्यवस्था पर भरोसा करने लगता है। इसी विश्वास के चलते उन्होंने कानपुर छोड़कर न जाने की धमकी दी है। जिस बैंक से लोन लेकर पैसा पीटा, तमाम कनपुरियों को पान मसाले के जरिये कैंसर भेंट किया उनको ही चूना लगाते हुये कनपुरिया जुमले - ’ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं’ को अमली जामा पहनाया। कानपुर को ऐसे शहर प्रेमी वीर पर गर्व होना चाहिये।
हर खाया पिया आदमी देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहता है। महापुरुष बनना चाहता है। पुराने समय में लोग महान बनने के लिये जिन्दगी भर परोपकार करते थे। स्कूल कालेज खुलवाते थे। कुंये-बावड़ी बनवाते थे। देश के लिये जेल जाते थे। जिन्दगी गुजर जाती थी तब कहीं महापुरुषों के खाते में नाम दर्ज हो पाता था। महान बनने के चक्कर आदमी की जिन्दगी परोपकार में ही हलकान हो जाती थी। घपलों-घोटालों ने महानता के नये रास्ते खोले हैं। इस रास्ते पर चलकर आदमी ऐश करते हुये भी इतिहास की किताब में घुस सकता है। आज बच्चा-बच्चा विजय माल्या और नीरव मोदी का नाम जानता है।
हाल में सामने आये घपलों के कारीगर बिना कुछ खर्च किये अहिंसक तरीके से मीडिया में छाये रहे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अगर घपलेबाजों से सीखते तो उनको अपनी सरकार के विज्ञापन करने के लिये आधी रात को अपने सचिव से मारपीट नहीं करनी पड़ती।
लेकिन इन घपलों से हमको परेशान नहीं होना चाहिये। हमको इनके धवल पक्ष देखने चाहिये। बैंक में हुये घपलों से बैंको की सुरक्षा मजबूत हो होगी। जरूरत मंदों के लोन मुश्किल हो जायेंगे। घोटालेबाजों से लुटने की भड़ास बैंक वाले शिक्षा लोन लेने वालों पर निकालेंगे। इसका फ़ायदा यह होगा कि बच्चे पढने लिये विदेश कम जायेंगे। प्रतिभा पलायन में कमी आयेगी। जो युवा दुनिया की उन्नति में योगदान देते वे देश में ही रहते हुये रोजगार की तलाश में भटकेंगे। राजनीतिक कार्यकर्ता बनकर जिन्दाबाद मुर्दाबाद के नारों से आसमान गुंजायेंगे। मारकाट करते हुये देश की जनसंख्या कम करने में सहयोग करेंगे। देश आगे बढायेंगे।
हम सदियों से पैसे को हाथ का मैल मानते आये हैं। हमें सोचना चाहिये कि गबन करके विदेश भागे लोग देश की गंदगी लेकर भागे हैं। देश के स्वच्छता अभियान में अप्रतिम योगदान है यह उनका। यह पैसा भी कोई हमेशा के लिये थोड़ी गया है बाहर। जहाज के पंछी की तरह यह फ़िर वापस आयेगा देश में। घपलों के रुपयों का देश से तगड़ा लगाव होता है। जरूरत पड़ते ही वापस आयेगा। देश में चुनाव, दंगे, अराजकता की पुकार पर दौड़ता भागता चला आयेगा। जहां जरूरत होगी, खप जायेगा। देश के घपले का पैसा अंतत: देश में ही खपता है। घपले के पैसे की देशभक्ति में संदेह नहीं करना चाहिये। घपलों में देश की बरक्कत देखना चाहिये।
घपलों का सामना हमको उदारता से करना चाहिये। ’वसुधैव कुटम्बकम’ के हिसाब से घोटाले करने वालों को अपना भाई-बहन मानना चाहिये। जिन घपलों से भाई-बहनों का भला होता हो उनका बुरा नहीं मानना चाहिये। घपलेबाजों की इज्जत करनी चाहिये। ’बुरा न मानो होली है’ कहते उनको गले लगाना चाहिये।

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Monday, February 21, 2022

अरलिंगटन शहीद स्मारक



अमेरिका में वासिंगटन डी सी की लगभग सभी इमारतें दोपहर बाद तक निपटा डालीं। अमेरिका की संसद, कई सारे म्यूजियम और न जाने कितनी ऐतिहासिक इमारतें। जिन इमारतों को बनने में वर्षों लगे उनको एक दिन में देख डाला हमने। बनाने और देखने , निर्माता और दर्शक में अंतर तो होता ही है।
वासिंगटन डी सी देखने के बाद भी समय बच गया था कुछ। विनय ने बताया कि कुछ ही दूर अरलिंगटन शहीद स्मारक है। देखने लायक जगह। दिखाने वाले विनय ही थे सो हम चल दिए अरलिंगटन शहीद स्मारक देखने।
शहीद स्मारक वर्जीनिया स्टेट में स्थित एरलिंगटन काउंटी में है। वासिंगटन डी सी और अरलिंगटन काउण्टी ऐसे ही हैं जैसे कानपुर और शुक्लागंज। फरक सिर्फ इतना की कानपुर और शुक्लागंज के बीच गंगा नदी बहती हैं जबकि वासिंगटन डी सी से अरलिंगटन जाने के लिए पोटोमैक नदी पर करनी होती है। पोटोमैक नदी का पानी साफ-सुथरा देखकर लगा कि यहां के लोग नदियों की पूजा नहीं करते वरना ये भी अपने यहाँ की नदियों की तरफ पवित्र और गंदगीयुक्त हो जाती।
अरलिंगटन शहीद स्मारक में विभिन्न युद्धों में शहीद हुए लोगों के शव दफनाए गए हैं। कुछ शव दूसरे शव गृहों से लाकर भी यहां संरक्षित किए गए हैं। इस शहीद स्मारक की देखभाल अमेरिका का रक्षा विभाग करता है।
शहीद स्मारक की स्थापना 13 मई 1864 में हुई थी मतलब करीब 158 साल पहले। अरलिंगटन हाउस ,जहां यह स्मारक बना है, की स्थापना अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपाति जार्ज वासिंगटन के वंशजों ने की। अरलिंगटन हाउस नाम इंग्लैंड के ग्लूसेस्टरशायर स्थित गांव अरलिंगटन के नाम पर रखा गया जहां के मूल निवासी थे अरलिंगटन हाउस के शुरुआती निर्माता मालिक। शुरुआती दौर में मालिकाना हक के लिए अरलिंगटन हाउस के मालिकों और सरकार में मुकदमे बाजी हुई। लेकिन अंतत: अब यह इलाका सेना की देखरेख में है।
शहीद स्मारक में तमाम तरह के इलाकों में साफ-सुथरी सड़कों के दोनों शहीदों की कब्रें बनी हैं। उनको देखकर अनायास शाहजहांपुर के ओज कवि स्व: राजबहादुर विकल की पंक्तियाँ याद आ गईं :
विश्व के संताप सब बोये गए है।
धूल के कण रक्त से धोए गए हैं।
पांव के बल मत चलो अपमान होगा।
सर शहीदों के यहां बोये गए हैं।।
पूरा शहीद स्मारक 70 भागों में विभाजित है। इनमें से कुछ भाग भविष्य में विस्तार के लिए सुरक्षित रखे गए हैं।
आतंकवादी लोगों द्वारा 2001 में हवाई हमले में न्यूयार्क के ट्विनटावर को जमींदोज किए गए जाने के बाद अमेरिका ने जो हमले किए उनमें मारे गए सैनिकों को में दफनाने के लिए शहीद स्मारक का सेक्सन 60 निर्धारित है। सेक्सन 21 में विभिन्न युद्धों में शहीद नर्सों की कब्रें नर्स मेमोरियल के नाम से हैं। 3800 के करीब ऐसे लोगों को जो पहले गुलाम थे और गृह युद्ध में मारे गए सेक्सन 27 में दफनाया गया है। उनकी कब्रों के पत्थरों पर सिविलियन या नागरिक लिखा गया है। कुल मिलकर मरने के बाद भी शहीदों की कब्रों को अलग-अलग हिसाब से वर्गीकृत किया गया है।
शहीद स्मारक में प्रवेश करते ही ‘स्वतंत्रता की घंटी’(Freedom bell) मौजूद है। अमेरिका के भूतपूर्व, वर्तमान एवं भविष्य के सैनिकों के सम्मान में यह घंटी बजाई जाती है। सुबह 8 से शाम 5 बजे तक पर्यटक सैनिकों के प्रति प्यार एवं सम्मान प्रकट करने के लिए इसे बजा सकते हैं। हमने भी घंटी बजाकर सैनिकों के प्रति समान प्रकट किया। फ्रीडम बेल का निर्माण 2001 में गिराये गए ट्विन टावर के लोहे और तांबे से हुआ है।
शहीद स्मारक में तमाम तो हमारे जैसे पर्यटक थे जो मात्र घूमने के लिहाज से आए थे। इसके अलावा एक बड़ी तादाद उन लोगों की भी थी तो अपने से संबंधित किसी शहीद के स्मारक पर फूल चढ़ाने आए थे। कुछ शहीदों की कब्रों पर बाकायदा सैनिक सम्मान देते हुए दर्शन करने वाले लोग भी दिखे। कुछ घुड़सवारों की टुकड़ी, कोई सैनिक मार्च करती हुयी गारद भी दिखी।
शहीद स्मारक में ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जान एफ़ कैनेडी और उनकी पत्नी जैकलीन कैनेडी तथा उनके बच्चों बेटे पैट्रिक और बेटी एराबेला की कब्रें हैं। इनको देखने सबसे ज्यादा लोग आते हैं। इनकी कब्र के पास लगातार ज्योति जलती रहती है। कैनेडी अमेरिका के 35 वें राष्ट्रपति थे।
1961 से 1963 तक अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान शीतयुद्ध के दौर में रूस और क्यूबा से संबंध सुधारने में उल्लेखनीय काम किया। तीन साल बाद इस उनकी हत्या कर दी गई। उनके देशभक्ति और मानवता के उद्गार उनकी कब्र के सामने पत्थर पर उत्कीर्ण हैं :
“मेरे प्यारे अमेरिका साथियों यह मत पूछो कि तुम्हारा देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है, यह सोचो की तुम अपने देश के लिए क्या कर सकते हो ! विश्व के मेरे साथियों यह मत पूछो कि अमेरिका तुम्हारे लिए क्या करेगा ! बल्कि यह सोचो की हम सब मिलकर पूरे विश्व के मानव की मुक्ति के लिए क्या कर सकते हैं?”
आज से करीब साथ साल पहले के जान एफ़ कैनेडी के यह उद्गार किसी कल्पना की ही बात रह गई है। जब केनेडी ने यह कहा था तब सोवियत संघ रूस और अमेरिका विश्व के दो ताकतवर ध्रुव थे। आज सोवियत संघ विखंडित हो चुका है और कभी उसका अंग रहे देश रूस और यूक्रेन में युद्ध छिड़ा हुआ है। देश के लिए क्या कर सकते हैं जैसी बातें तो लगभग सारी दुनिया में किताबी हो चुकी हैं।
जान एफ़ कैनेडी की समाधि के सामने ही विशाल एम्फिथिएटर है। शहीद स्मारक में पर्यटक के तौर पर आने वाले लोगों की खुले में सभा के लिए यह एम्फिथिएटर बनवाया गया था । मैदान से थोड़ी ऊंचाई पर स्थित इस जगह से पूरे शहीद स्मारक का नजारा दिखता है।
लौटते में शहीद स्मारक के प्रवेश द्वार पर स्थिति विभिन्न प्रसिद्ध युद्धों से संबंधित चित्र देखे। एक सैन्य टुकड़ी सम्मान पूर्वक वापस आते दिखी। शायद शहीद स्मारक से संबंधित कोई ड्रिल पूरी करके लौट रही थी वह टुकड़ी। वहीं एक युवा नौसैनिक की मूर्ति भी मौजूद थी जिसके साथ हमने भी फ़ोटो खिंचाई।
अरलिंगटन शहीद स्मारक अपने में अनूठा स्मारक है। शहीदों के सम्मान में बनाए गए इस शहीद स्मारक को देखकर लौटते हुए याद आ रही थी बचपन में पढ़ी यह कविता:
“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा।“
अरलिंगटन शहीद स्मारक ने इस कविता को पूरे मन से अंगीकार किया है। वहां शहीदों की चिताओं को देखने लोग रोज आते हैं।

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Monday, February 14, 2022

वैलेण्टाइन दिवस पर मतदान



आज शाहजहाँपुर में मतदान हो रहा है। वोट पड़ रहे हैं। दूसरे चरण का मतदान। वैलेंटाइन दिवस को मतदान। अनगिनत लोग अपनी-अपनी वैलेण्टाइन से दूर इस समय मतदान करा रहे होंगे। लोकतंत्र में चुनाव वैलेण्टाइन से ज़्यादा ज़रूरी हैं।
चुनाव की ड्यूटी के लिए घर पास के रामलीला मैदान में जमावड़ा है। अलग मतदान केंद्रों के लिए पार्टियों के नाम लाउडस्पीकर पर पुकारे जा रहे थे। पार्टी संख्या फ़लाना मंच पर पहुँचे। सेक्टर मजिस्ट्रेट गाड़ियों में बैठे थे। चहल-पहल पूरी। मेले जैसा माजरा।
मंच से अपने हिस्से की ई वी एम मशीन लिए लोग चले आ रहे थे। छुटके ब्रीफ़केस जैसी ईवीएम मशीनें अभी तो ख़ाली थीं लेकिन लौटकर उनके पास लोगों के वोट होंगे। वे बोल सकतीं तो शायद कहतीं -‘लोगों के वोट मेरे क़ब्ज़े में।’
आज जिस तरह से दुनिया के तमाम देशों पर कारपोरेट्स कब्जा करते जा रहे हैं उससे लगता है शायद वे भी कहते होंगे -‘ दुनिया हमारे कब्जे में, सरकारें हमारे कब्जे में, लोकतंत्र हमारे कब्जे में।’
कुछ लोग अपनी गाड़ियों और पार्टी के सदस्यों के इंतज़ार में अपनी इवीएम मशीनो को बग़ल में दबाये हुए बैठे, लेटे हुए हैं। एकाध लोग तो वोटिंग मशीन को लोग सिरहाने रखे नींदमगन भी दिखे।
निर्वाचन आयोग के नाम वाली तख़्तियाँ लोग हाथ में लटकाए हुए ले जा रहे थे। तमाम लोग इन तख़्तियों को उल्टा पकड़े थे। कुछ क्या बहुत से लोग तो निर्वाचन आयोग वाले इश्तहार को बिछाकर लेट हुए थे। दुष्यंत कुमार का शेर याद आया :
न हो क़मीज़ तो पावों से पेट ढँक लेंगे,
बहुत मुनासिब हैं ये लोग इस सफ़र के लिए।
यह शेर तो दुष्यंत जी ग़रीबों , वंचितो के लिए कहा था। कुछ समर्थ लोग तो निर्वाचन आयोग को भी क़मीज समझकर बरतने की मंशा रखते हैं।
मैदान में गाड़ियाँ लगी हुईं थीं। लोग अपनी- अपनी पार्टियों के साथ रवाना हो रहे थे। एक बस के नीचे ज़मीन पोली थी। बस का अगला पहिया ज़मीन में धँस गया। लोगों ने धक्का लगाया लेकिन पहिया दो विरोधी पार्टी के कट्टर प्रतिद्वंदियों के चुनाव की यह फँस गया। नहीं निकला। लोग पहिए को निकालने के उपाय खोजने लगे। उपाय कुछ निकल नहीं रहा था। लोगों को कुछ समझ में नहीं आया तो आपस में एक -दूसरे को कोसने , गरियाने लगे। बस से उतरे आम लोग देखते-देखते राष्ट्रीय पार्टियों के स्टार प्रचारकों में तब्दील हो गये।
मैदान के तीन तरफ़ और मैदान के अंदर भी तमाम खाने की दुकाने खुल गयीं। चाय, बिस्कुट, चाट, मसाला और न जाने कितनी तरह की दुकाने गुलज़ार हो गयीं। चुनाव ठेलियाँ वालों
के लिए , फुटकर सामान बेंचने वालों के लिए त्योहार की तरह आता है। क्या पता ये दुकान वाले दुआयें करते हों, चुनाव लगातार होते रहें। क्या पता जहां किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलता हो वह इन्ही ठेले, रहड़ी वालों की दुआवों के कारण होता हो।
बहरहाल आज मतदान है। आप अपने मत का ज़िम्मेदारी से उपयोग कीजिए। मतदान के अधिकारों के न जाने कितने संघर्ष किए हमारे पूर्वजों ने। इसकी क़ीमत समझिए। नारा है न -‘पहले
मतदान, फिर जलपान।’
अगर जल्दी में जलपान कर चुके हों तब भी घबराने की कोई बात नहीं। आपके लिए दूसरा नारा आ जाएगा -‘ पहले मतदान , फिर कोई और काम ।’
लोकतंत्र में नारों की कोई कमी थोड़ी है। आजकल अधिकांश देशों में लोकतंत्र की इमारत ही नारों और जुमलों पर टिकी है।

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Sunday, February 13, 2022

चाय के साथ चुम्बन दिवस

 



सुबह-सुबह मोबाइल आन किया तो पता चला कि आज ’चुम्बन दिवस’ है। क्यों मनाया जाता है चुम्बन दिवस यह जानने के लिये गूगल की शरण गये तो खूब सारी फ़ोटो चुम्बनरत फ़ोटो दिखीं। अधिकतर में युवा लोग खड़े होकर या बैठे हुये चुम्बन करते दिखे । सब नवीन वस्त्र धारण किये। इससे लगा कि जो भी हो यह त्योहार सुबह-सुबह नहीं मनाया जाता। आराम से नहा धोकर ’सेलिब्रेट’ किया जाता है। बिना नहाये-धोये मनाया जाता होता तो फ़ोटो में लोग बिस्तर में बैठे, मंजन करते, चाय पीते दीखते। फ़ोटो में लोग नदी के किनारे दिखे, पहाड़ पर दिखे, एफ़िल टावर के पास दिखे।
कोई व्यक्ति किसी झुग्गी-झोपड़ी के पास किसी को चूमते नहीं दिखा। कोई फ़टेहाल व्यक्ति किसी दूसरे बदहाल को चूमते नहीं दिखा। कोई हड्डी-पसली का एक्सरे टाइप आदमी किसी चुसे हुये चेहरे वाले इंसान को चूमते नहीं दिखा। जो भी दिखा किसी को चूमते हुये वह झकाझक कपड़े में चकाचक चेहरे वाला ही दिखा। बढिया शैम्पू किये बाल, डिजाइनर कपड़े पहने लोग ही चुम्बनरत दिखे। इससे यही अंदाज लगा कि ’चुम्बन दिवस’ गरीब लोगों के लिये नहीं है। मीडिया इसको जितना धड़ल्ले से इसे दिखा रहा है उससे भी सिद्ध होता है कि इस त्योहार का गरीब लोगों से कोई संबंध नहीं है।
पुराने समय की पिक्चर में हीरो-हीरोइन लोग आपस में एक दूसरे को सीधे-सीधे चूमने में परहेज करते थे। सब काम इशारे से होता था। फ़ूल को भौंरा चूम लेता था लोग समझ जाते थे कि चुम्मा हो गया। कुछ इसी तरह से जैसे पहले जनसेवक , आजकल की तरह, गुंडागर्दी खुद नहीं करते थे। इस काम के लिये अलग से गुंडों का इंतजाम करते थे।
धीरे-धीरे थोड़ा खुलापन बढा और हीरो लोग हल्ला मचाने लगेे -’दे दे चुम्मा दे दे’ कहने लगे। जितने जोर से हीरो चुम्मा मांगता है उतनी जोर से अगर गरीब लोग अपने लिये रोटी मांगते तो शायद अब तक भुखमरी खत्म हो गयी होती देश से।
पहले सिनेमा में चुम्बन ऐसे हो थे मानो नायक स्पर्श रेखा खींच रहा हो नायिका के अधर या गाल पर। आजकल की पिक्चरों में तो ऐसे चूमते दिखाते हैं मानों कम गूदे वाला आम चूस रहे हैं। इतनी मेहनत करते हैं लोग पिक्चरों में चूमने में कि देखकर लगता है कि अगले के होंठ न हुये कोई सार्वजनिक सम्पत्ति हो जिसे नोचकर लोग अपने घर ले जाना चाहते हों।
प्रगाड़ चुम्बन में जुटे होंठ बिजली के पिन और साकेट सरीखे लगते हैं। जहां कनेक्शन हुआ नहीं कि मोहब्बत की बिजली दौड़ने लगती है।जरा देर तक बही करेंट तो बहुत देर तक झटका मारती रहती है। सांस उखड़ने लगती है। बेदम हो जाते हैं लोग। बाद में ताजादम भी।
सूरज भाई भी लगता है ’चुम्बन दिवस’ पूरे उल्लास से मना रहे हैं। हर कली को, फ़ूल को, पत्ती को, घास को, मिट्टी को, सड़क को, कगूरे को एक समान प्रेम से चूम रहे हैं। हमको देखा तो हमारे गाल पर भी धर सी एक ठो पुच्ची।
फ़िलहाल आप मजे से जैसा मन करे वैसे मनाइये ’चुम्बन दिवस’। हम तो चाय के कप को चूमते हुये चाय की चु्स्की के साथ मना रहे हैं ’चुम्बन दिवस।
'चाय' के साथ 'चुम्बन' जोड़ने से अनुप्रास अलंकार भी हो गया। और कुछ हो न हो लेख के अंत की छटा दर्शनीय हो गयी।

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Saturday, February 12, 2022

रत्ती के बहाने

 


जयपुर में जंगल प्रेमी साथियों के साथ घूमते हुए कई चीजें देखीं। अक्सर हम लोग कुछ चीजों के बारे में सुनते रहते हैं लेकिन उनके बारे में जानते नहीं। जब पता चलता है तो ताज्जुब होता है, अरे इसका मतलब यह है, ये ऐसा होता है।
ऐसा ही एक शब्द बचपन से सुनते आए थे -रत्ती। बातचीत में प्रयोग भी सुनते रहे -'हमको रत्ती भर भी परवाह नहीं।'
प्रयोग सुनकर लगता तो था कि रत्ती मतलब कोई छुटकी सी इकाई है। लेकिन रत्ती क्या होता है, पता नहीं था।
जयपुर जंगल यात्रा में पत्ता चला कि रत्ती एक पौधा होता है। इसका बीज लाल रंग का होता है। इसकी खूबी होती है कि हर मौसम इसका वजन स्थिर होता है। बदलता नहीं। न सावन सूखे, न भादों हरे वाला हिसाब।
वजन स्थिर होने और छोटा होने के कारण रत्ती के पौधे का इस्तेमाल पुराने समय में आभूषणों के वजन लेने में होता था। एक रत्ती का वजन 125 मिलीग्राम होता है, मतलब आठ रत्ती मिलकर एक ग्राम बनेगा। 96 रत्ती मतलब एक तोला मतलब 12 ग़्राम।
रत्ती के पौधे में तमाम औषधीय गुण भी होते हैं। जुकाम, बुखार, माइग्रेन में इसका इस्तेमाल होता है। देखने मे ख़ूबसूरत पौधे में अनेक गुण होते हैं।
जयपुर जंगल यात्रा के समय इसके बारे में पता चला। समूह के एक साथी ने इसके बारे में बताया और दिखाया तो कुछ रत्ती के बीज हमने पर्स में रख लिए। ऊपर का खोल सूख गया है लेकिन रत्ती के बीज जस के तस हैं, तरोताजा, खूबसूरत, स्वस्थ और उतने ही प्रफुल्लित जितने 3 महीने पहले दिखे थे। जब भी किसी काम से बटुआ खोलते, रत्ती के बीज मुस्कराते दिखते।
हर मौसम में एक सा वजन बनाये रखने वाला रत्ती का पौधा देखा जाए तो हमको स्थितिप्रज्ञ होने की शिक्षा देता है। न दुख में दुखी, न सुख में खुशी। समशीतोष्ण जैसा।
जिस पौधे के बारे में जानने में इतना समय लगा, उसके जैसे हो सकना कब हो सकेगा, क्या कह सकते हैं।

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Friday, February 11, 2022

गुलाबी शहर में किताबों के बीच

 




जयपुर में Naresh Thakral और उनके घुमक्कड़ साथियों के साथ जंगल घुमाई से लौटे तो नरेश हमको जबरियन अपने घर ले गए। नरेश और हम लोग एक समय में मोतीलालनेहरू राष्ट्रीयप्रोद्योगिकीसंस्थान इलाहाबाद में रहे। वो हमसे एक साल बाद आये थे। फिर बीएचयू में भी साथ रहा। नरेश के एक पत्रकार मित्र थे -राकेश सरमा। वे एक बार नरेश से बनारस मिलने आये। हमसे भी उनकी दोस्ती हुई। बहुत दिनों तक उनसे पत्राचार होता रहा। पोस्ट कार्ड में खूबसूरत अक्षरों में पता लिखते थे -राकेश सरमा , पायल छवि गृह के पीछे।
नरेश के घर जमकर नाश्ता किया गया। बिटिया के विवाह की तैयारियां चल रही थीं। नरेश ठकराल निकल लिए इंतजाम देखने। अपन पेटपूजा करके वापस सर्किट हाउस पहुंच गए।
सर्किट हाउस में पहुंचकर ट्रेकिंग की निशानी देखी। जूते में तकरीबन किलो भर धूल बरामद हुई। उसको बास बेसिन में उलट कर जूते को ठोंक-ठोंक कर रेत मुक्त किया गया। नहा धोकर निकलने को तैयार हुए।
ट्रेन शाम को थी। Kush Vaishnav से मिलने की बात सोची। मिलने की तो Yashwant Kothari जी से भी सोची लेकिन पता चला वे नाथ द्वारा में थे। Neeraj Goswamy जी पंच परमेश्वर नाटक के रिहर्सल में व्यस्त थे। Prabhat Goswami जी से भी बात हुई थी एक दिन पहले। वे अपने घर के मांगलिक कार्यक्रम में व्यस्त थे। मिलना हो न सका।
कुश हमारे ब्लागिंग के दिनों के साथी रहे हैं। अनेक खूबियों से लैश। उनकी शादी में हम जयपुर गए थे शिवकुमार मिश्र जी के साथ। कुश हमारे पहले प्रकाशक हैं। हालांकि रुझान प्रकाशन के पहले हम आन लाइन अपनी किताब पुलिया पर दुनिया प्रकाशित कर चुके थे। लेकिन कुश ने हमारी किताबें नहीं छापी होतीं तो शायद ये किताबें न ही आ पातीं और न हम लेखक कहलाते। हमारी पांच किताबें उनके रुझान प्रकाशन से आईं। उनमें से दो को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से इनाम भी मिला। लेकिन प्रकाशन से रॉयल्टी अभी भी बकाया है। जब पूछते हैं तो प्रकाशक कहता है -'देंगे, रॉयल्टी भी देंगे। किताबें निकल जाएं तब सब हिसाब किया जाएगा।' हम इंतजार में हैं। 🙂
कुश को नई-नई चीजों को करने का भी शौक है। इसी सिलसिले में प्रकाशन का काम भी शुरू किया। रुझान प्रकाशन से आई कुछ किताबों को इनाम भी मिले। घड़ाधड किताबें भी आईं। लेकिन समय के साथ शायद मन उचट गया कुश का छपाई के काम से। इधर किसी नई किताब का हल्ला नहीं दिखता।
प्रकाशन के काम के बाद हाल ही में जयपुर में किताब की दुकान खोली कुश ने। उसको देखने और कुश से मिलने गए हम। बहुत थके होने के बावजूद लगा मिल लिया जाए, फिर न जाने कब आना हो गुलाबी शहर।
थोड़ी-बहुत भटकन के बाद कुश से मिलना हुआ। वही सदाबहार मुस्कान। दुकान पहली मंजिल पर थी। कुश को कहीं जाना था इसलिए दुकान बन्द कर दी थी। हमको दिखाने के लिए खोली कुश ने दुकान। बहुत सारी बातें हुईं। कुश ने बहुत जोर दिया लंच के लिए पास ही उनका घर है। लेकिन बहुत थका होने के कारण फिर गए नहीं। कुश को भी मीटिंग में जाना था कहीं। हम वापस लौटकर स्टेशन आ गए।
स्टेशन पहुंचकर लगा कि ट्रेन में अभी देरी है। सोचा शहर थोड़ा और देख लिया जाए। किताबों की दुकान के बारे में पूछने पर नरेश ठाकराल ने रजत बुक स्टॉल के बारे में बताया था। हम स्टेशन से रजत बुक स्टॉल के लिए निकल लिए।
किताबों की दुकान जिस जगह थी उसके पास ही ऑटो वाले ने उतार दिया। सामने ही एक ठेले पर कुल्फी बिकती दिखी। ठग्गू के लड्डू की कुल्फी का जुमला याद आया -'खाते ही जेब और जुबां की गर्मी गायब।' कुल्फी खाई। कुल्फी खाने के बाद पास ही 'रजत बुक स्टोर' था वहां पहुंचे।
दुकान के बाहर ही बोर्ड लगा था -'A book is the smartest hand held device's एक किताब हाथों में रहने वाला सबसे स्मार्ट उपकरण है।
दुकान में घुसते ही टोंक दिए गए। मास्क लगाकर आइये। मास्क लगाकर अंदर घुसे। हमारे बाद एक जोड़ा और आया। उसको भी बिना मास्क अंदर आने से मना किया गया। उनके पास मास्क था भी नहीं। दुकान की तरफ से दिया गया उनको मास्क। फिर वे दाखिल हो पाए किताबों के बीच।
जयपुर की पुरानी दुकान है रजत बुक स्टोर । ज्यादातर किताबें अंग्रेजी में। करीब एक घण्टे हम किताबों के बीच रहे। कुछ किताबें भी लीं। उनमें से एक आइंस्टीन के बारे में है। किताब जितनी दुकान पर खड़े-खड़े पढ़ी गयी उसके आगे अभी शुरआत होना बाकी है।
ट्रेन का समय होने पर हम किताबों का साथ छोड़कर स्टेशन आ गए और ट्रेन पर बैठकर वापस।

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Thursday, February 10, 2022

कबूतर के बहाने

 कल रिजवान के बारे में लिखा जो पक्षियों को दाना-पानी देते हैं। रिजवान नाम के मेरे एक और मित्र हैं कानपुर में। उन्होंने ही मुझे रिजवान नाम का मतलब बताया था -'जन्नत का दरोगा।'

लोगों के नाम का मतलब जानने की उत्सुकता रहती है। कोई नया नाम जिसका मतलब नहीं जानते हैं तो पूछ भी लेते हैं। अक्सर मित्रों के नाम उनके नाम के अर्थ सहित मोबाइल में रखते हैं। हमारे मित्र Md Shabbir शब्बीर (प्यारा) का नाम ही मेरे मोबाइल में 'शब्बीर माने लवली' के नाम से सेव है। Arifa Avis आरिफा से जब भी कभी बात होती है तो पूछते हैं -'कैसे हाल हैं ' जंग के मैदान' के।
समय के साथ आपको आप के नाम से बुलाने वाले कम होते जाते हैं। आप दो-तीन अक्षरों और उसके पुछल्ले सरनेम तक सीमित होकर रह जाते हैं। हमको अनूप कह करकर बुलाने वाले लोगों की संख्या दो अंको से ऊपर नहीं होगी। अनूप का मतलब -जिसकी उपमा न हो, अनोखा। 🙂
बहरहाल रिजवान जी से बात हुई तो उन्होंने बताया कि हमारे दिन की शुरुआत इसी प्रकार होती है। घर पर रोज कबूतर फाख्ता बुलबुल आदि आते हैं। एक पौंड में मछली हैं। सब को खाना देते हैं। गौरैया के घर बने हुए हैं। उन्होंने एक फोटो भी भेजा जिसमें कबूतर उड़ते दिख रहे हैं।
जयपुर में एक जगह सड़क के बीच फुटपाथ पर कुछ कबूतर उड़ते दिखाई दिए। पास जाकर देखा तो एक बुजुर्ग दाना लेकर वहां बैठे थे। लोग उनसे खरीदकर कबूतरों को दाना खिलाते हैं। आनंदित होते हैं। कबूतर फड़फड़ाते हुए , उड़ते हुए दाना खाते रहते हैं , अच्छा लगता है। किसी को भी सहज रूप से प्रसन्न, उल्लसित देखना खुशनुमा अनुभव होता है।
कबूतर दाना-पानी लेते हुए उड़ जाते, थोड़ा उड़कर फिर जमीन पर आ जाते। फड़फड़ाते , फिर खाते, फिर उड़ते, फिर जमीन पर आ जाते। कबूतरों को उड़ते देख Subhash Chander जी की व्यंग्य कहानी 'कबूतर की घर वापसी ' अनायास याद आ गयी। धर्म परिवर्तन की राजनीति पर बहुत बेहतरीन कहानी है यह।
कुछ लोगों ने बताया कि ये जो कबूतर उनके ही हैं जो यहां दाना बेचते हैं। लोगों से अपने कबूतरों के लिए दाने के पैसे लेकर अपना और कबूतरों का पेट पालते हैं। क्या सच है यह पता नहीं लेकिन किसी भूखे को दाना मिलने पर जो खुशी उसके चेहरे पर दिखती है, पूरी कायनात में उससे खुशनुमा एहसास और कोई नहीं।
मुफ्त का दाना-पानी कभी बवाल-ए-जान भी बनता है। जब किसी को बिना कुछ किये कहीं से पेट भरने को मिलने लगता है तो वह कुछ करने लायक नहीं रहता। उसकी मेहनत करने की आदत खत्म हो जाती है। जिस समाज मे यह होने लगता है वह समाज पिछड़ जाता है, अनेक बुराइयां आ जाती हैं उस समाज में।
किसी समाज की बेहतरी के लिए उस समाज के लोगों को उनकी काबिलियत के लिहाज से काम मिलना बहुत जरूरी होता है। ऐसा नहीं होने पर निठल्ले हो जाते हैं उस समाज के लोग। आवारा भीड़ में तब्दील हो जाते हैं लोग, जिनका उपयोग नकारात्मक कामों करते हैं फिरकापरस्त लोग।
जन्नत के दरोगा और अच्छाई की बात से शुरू हुए थे पहुंच गए फिरकापरस्ती तक। कहाँ से चले थे, कहाँ पहुंच गए। ऐसे ही बहलाते हैं लोग।

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