Monday, October 31, 2022

गंगा तट पर छठ पूजा

 


सुबह टहलने निकले। सड़क गुलजार थी। बच्चे स्कूल जा रहे थे। दो बच्चियां बतियाते हुए आहिस्ते-आहिस्ते जाते दिखीं। एक महिला टहलते हुए अपने पीछे आने वाले कुत्तों को हाथ से भगाने की कोशिश कर रही थी। कुत्ते उसके हाथ के इशारे को अपने हिसाब से ग्रहण करके पूंछ हिलाते हुए उसके पीछे लगे थे। कुछ देर परेशान होने के बाद महिला चुपचाप आगे बढ़ गई। कुत्ते ठहर गए।
इससे लगा कि परेशानियों को अनदेखा करने पर वो खत्म हो जाती हैं।
एक महिला अपनी दो बच्चियों को स्कूल भेजने जा रही थी। बच्चियां अपनी पीठ के बस्ते को पीठ उचकाकर ठीक कर रहीं थीं। बस्ता फिर पीठ पर लद जा रहा था। बस्ते भारी थे। बस्तों का बोझ कम नहीं हो रहा है। बढ़ता ही जा रहा है। इस चक्कर में चाल बिगड़ रही है बच्चों की।
बच्ची की चोटी की तारीफ की तो माँ खुश हो गयी। बच्ची से पूछा कौन बनाता है चोटी? मम्मी की तरफ इशारा करके बोली -'मम्मी।' हमने पूछा -'तुम भी करती हो मम्मी की चुटिया?' बच्ची हंसने लगी। साथ में मम्मी भी। बच्ची मरियम पुर में पढ़ती है। माँ उसको स्कूल छोड़ने जा रही थी।
आगे फुटपाथ पर एक आदमी फसक्का मारे बैठा था। नीम की पत्तियां सहेज रहा था। मुझको राहत इंदौरी के शेर याद आये :
उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो
ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो
दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो
सामने सूरज भाई पेड़ों के बीच के सिंहासन पर राजा की तरह बैठे थे। हमने कहा -'जम रहे हैं भाई जी।' सूरज भाई मारे शरम के लाल हो गए। फिर बादल के पीछे छिप गए।
पुल पर से देखा आसमान में केवल सूरज भाई ही चमक रहे थे। बाकी आसमान कोहरे से ढंका था। शायद सूरज भाई को भी केवल खुद को सामने दिखने की आदत लग गयी है। खुद के अलावा और कोई दिख न जाए।
पुल की रेलिंग पर तमाम गणेश लक्ष्मी की मूर्तियां लाइन से जमा थीं। ये वो मूर्तियां थीं जो घरों से नई मूर्तियों की पूजा के समय हटा दी गई थी। नए शासक के आने पर पुराने के क्या हाल होते हैं यह बयान कर रहीं थीं मूर्तियां। पुराना बाहर कर दिया गया। नया जम गया।
घाट पर भीड़ थी। छठ पूजा करने वालों की। रास्ते में तमाम गाड़ियों में लोग पूजा करके वापस लौट रहे थे। जिन लोगों ने नदी में उतर कर अर्घ्य दिया था उनके पैरों में कीचड़ लगा था। अरे कीचड़ नहीं मिट्टी। कीचड़ तो ठहरे पानी में उतरने से लगता है। यह तो नदी की मिट्टी थी।
जगह-जगह रुक कर लोग प्रसाद ले रहे थे। व्रत तोड़ रहे थे। फल खा रहे थे। चाय पी रहे थे। व्रत के सकुशल खत्म होने पर उल्लिसित हो रहे थे। फोटो खींच रहे थे। हंसी मजाक कर रहे थे। महिलाओं के चेहरे पर थकन भरे संतोष के भाव थे। मोर्चा फतह की संतुष्टि के भाव।
एक जगह हम खड़े होकर वीडियो बनाने लगे। गाड़ी चलाने वाले ने सवारियों से मजे लिए -'देखो चालान के लिए वीडियो बन रहा है।' पूजा करते हुए घर लौटती सवारियां हंसने लगे।
पूजा का इंतजाम देखने वाले माइक पर व्यवस्था के लिए प्रशासन का शुक्रिया अदा कर रहे थे। चंदे के लिए आग्रह कर रहे थे। प्रसाद लेकर जाने का अनुरोध भी।
घाट पर भारी भीड़ थी। लोग पूजा कर रहे थे। नहा रहे थे। एक आदमी ने नदी में नहाते बच्चे को नहाने के बाद सामान की तरह उठाकर किनारे धर दिया। बच्चा पूरा भीगा हुआ था। पानी उसके बदन से गिरते हुए जमीन से होते हुए वापस नदी में मिल जा रहा था।
नदी किनारे की मिट्टी गीली थी। रपटन थी। जो उतरने की कोशिश कर रहा था रपट कर पानी में छपाक से गिर जा रहा था। एक आदमी ने नदी में उतरकर पानी चुल्लू में लेकर अपनी पत्नी की तरफ थ्रो टाइप क़िया। थोड़ा पानी बीच में गिर गया। बाकी का पानी महिला ने कैच कर लिया। अपने सर पर डाल लिया। सूरज को प्रणाम कर लिया। पूजा हो गयी।
कुछ लोग डब्बा लेकर आये और पानी भरकर पूजा कराने लगे।
पूजा करने के बाद तमाम लोग फोटो और सेल्फी ले रहे थे। फोटो लेने के बाद उंगलियों से फैलाकर देख रहे थे। फिर-फिर फोटो ले रहे थे।
पूजा कर चुकी महिलाएं एक-दूसरे के सिंदूर लगा रहीं थी। प्रसाद ले-दे रहीं थीं।
पूजा के तमाम दीपक जल रहे थे। जितने जल रहे थे उससे कई गुना जलकर बुझ चुके थे।
एक बुजुर्ग महिला , जो शायद अपने बेटे के साथ बैठी थी, चुपचाप सारे उल्लास, उमंग भरे माहौल को निलिप्त से भाव से देख रही थी।
सूरज भाई आसमान के तख्त पर बैठे पूरे घाट का मुआयना कर रहे थे। नाव पर चेतावनी लगी थी -'सावधान , पानी गहरा है।'
चेतावनी वाली नाव पर मल्लाह टहल रहा था। नदी में एकाध नाव चल रही थी। बाकी की अधिकतर किनारे ही बंधी थी।
दुकानों पर जलेबियाँ छन रहीं थीं, पकौड़े तले जा रहे थे। लोग दुकानों के बाहर बैठकर, खड़े होकर व्रत तोड़ रहे थे। दुकानों में काम करने फुर्ती से ग्राहक सेवा में तल्लीन थे। दुकाने खिली हुईं थी। बाजार चहक रहा था।
त्योहार की उपस्थिति मात्र से बाजार का खून बढ़ जाता है। त्योहार बाजार के जिगरी दोस्त होते हैं।
जगह-जगह लोग खड़े होकर, बैठकर फ़ोटो खिचा रहे थे। खुश हो रहे थे।
छठ का पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा था।
आसमान के सूरज की पूजा के बाद आज पूनम जैन Poonam Jain का लेख पढ़ा (फ़ोटो में देखिए) – अपने सूरज को अनदेखा न करें। आप भी पढिए और इज्जत दीजिए अपने सूरज की।

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Friday, October 21, 2022

दाल रोटी चल जाती है



नेपाल के संस्मरण लिखने के चलते लोकल किससे पिछड़ रहे। मेक इन इंडिया के जमाने में यह अच्छी बात नहीं। इसलिए बीच-बीच में कानपुरिया किससे भी चलते रहने चाहिए।
बाज़ार जाते हैं तो लोगों से बातचीत में बहुत कुछ पता चलता है। इतवार को एक ताला ख़रीदने गये। दुकान के बाहर अंदर पहनने वाले कपड़े झालर की तरह लटके थे। हमको पता था कि ये ताले भी रखते हैं। ताला माँगा तो पूजा करना स्थगित करके ताले दिखाए। दिए। इसके बाद धूप बत्ती जलाई। हमने कहा -‘पूजा कर लिए होते पहले।’
बोले -‘फिर आपको इंतज़ार करना पड़ता।’
कोई और बात हुई तो वो अपने घर के बारे में बताने लगे। पत्नी बीमार हैं। उनकी भी देखभाल करनी होती है दुकान के साथ। न्यूरो की समस्या है।
बड़े होने के साथ लोगों की मानसिक समस्यायें बढ़ते देख रहे हैं। तनाव, अकेलापन और दीगर बवाल तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
‘उनको भी ले आया करो दुकान साथ में। अच्छा लगेगा।’ -हमने बिना माँगी सलाह उछाल दी।’
‘सही कह रहे आप। एक दिन लाए थे। दिन भर रहीं दुकान पर। खुश रहीं। लेकिन फिर बाद में आईं नहीं।’- दुकान वाले ने बताया।
‘बच्चियों की शादी हो गई। मियाँ-बीबी हैं। अब ऐसे ही कट रही है ज़िंदगी।’- कहते हुए कई तरह के ताले दिखाए। कुछ में साफ़ लिखा था -‘मेड इन चाइना।’
देशभक्ति के चलते हमने चीनी ताले नकार के देशी ताले लिए। ब्रांडेड। चले आये।
शाम को सब्ज़ी ख़रीदने गये। लौटे तो गज़क, लैया-पट्टी का ठेला दिखा। ग़ज़क ली। बतियाये।
पता चला दो महीना यही बेंचते हैं। बाक़ी दिन पानी के बतासे। पानी के बतासे में कमाई अच्छी होती है। लेकिन जाड़े में बिक्री नहीं होती उसकी। इसलिए जाड़े का मौसम गज़क ,लैया-पट्टी के नाम।
कमाई की बात पर बोले-‘दाल रोटी चल जाती है।’
आवाज़ में आस्था है। किसी तरह ज़िंदगी गुजरने का भाव। अभाव है लेकिन शिकायत नहीं। बच्चे पढ़ रहे हैं।
देश की क्या दुनिया की बहुत बड़ी आबादी तमाम अभावों के बावजूद इसी आस्था और विश्वास के भाव से जी रही है। -‘गुजर रही है। कट रही है किसी तरह।’
चलते समय गुड और मूँगफली की पट्टी के दाम पूछे। दाम बताने के पहले ही मन में तय किया कि लेना नहीं है। गज़क बहुत है।
दाम बताते हुए यह भी कहा कि ले जाइए। अच्छी है। साठ रुपये का पैकेट था।
दाम ज़्यादा नहीं था लेकिन हम पहले ही न ख़रीदने के निर्णय पर अमल करते हुए चल दिये। भुगतान नक़द ही हुआ। गूगल पे के झाँसे में अभी तक नहीं आए थे ठेलिया वाले।
चल तो दिए लेकिन आगे बढ़ते हुए ठेलिया वाले की बात पीछा करती रही -‘ले जाइए। अच्छी है।’
आवाज़ ने क़रीब सौ मीटर तक पीछा किया। धीमी होती गई। और धीमी हो इसके पहले हम पलट लिए। गुड की पट्टी ख़रीदी। वापस आये। घर में आकर उस दिन दूध के साथ गुड की जगह गुड पट्टी खाई। अच्छा लगा।
दो दिन हुए इस बात को। अभी भी उनका लहजा याद आता है कहने का -‘दाल रोटी चल जाती है।’

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Tuesday, October 18, 2022

यादों की फाइलें और बतियाने का मन



कम्प्यूटर में किसी फाइल को सेव करते हैं तो कम्प्यूटर पूछता है-'ये फाइल इस नाम से सेव है। क्या आप इसको रिप्लेस करना चाहता हैं?' अक्सर हम लोग पुरानी फाइल के ऊपर नई फाइल चढ़ा देते हैं। कभी-कभी नई को अलग नाम से सेव कर लेते हैं।
जीवन से जुड़ी यादों के बारे में भी ऐसा ही होता। किसी बहुत पुराने मित्र से अर्से बाद मिलो तो दिमाग का कम्प्यूटर पुरानी के बाद नई भी सेव कर लेता है। लेकिन अक्सर पुरानी फाइल भी बची रहती है। उसी नाम से। दिमाग का कम्यूटर इस मामले में अनूठा है। वह पुरानी और नई फाइल एक ही नाम से सेव कर लेता है।
यह यादों वाली बात इसलिए कि आज एक बहुत पुराने मित्र से बात हुई। कालेज के हमारे बाद वाले बैच में थे -भुवन चन्द्र जोशी। कालेज के भुवन बाद में बी.सी.जोशी हो गए। बाद में हमारे डिपार्टमेंट में ही तैनात हुए। फिलहाल वो गृह मंत्रालय में तैनात हैं।
आज एक साझा ग्रुप में बी.सी.जोशी का मैसेज देखा तो फौरन फोन किया। कालेज छोड़े आज 37 साल हुए। इस बीच एकाध बार और भी मुलाकात हुई लेकिन बी.सी.जोशी की याद मेरे जेहन में भुवन के रूप में ही है। गोरा , गोल पहाड़ का लड़का। सीधा, मितभाषी। डिपार्टमेंट में बीसीजोशी बेहतरीन अधिकारियों में माने जाते हैं।
तमाम अन्य साथियों की तरह भुवन चन्द्र जोशी की प्रोफाइल पर हर घर झंडा के अभियान का झंडा अभी भी फहरा रहा है,लिहाजा हमारे जेहन में उनकी पुरानी फोटो ही लगी हुई है। हर घर झंडा अभियान के तरह जिन लोगों ने अपनी प्रोफाइल पर झंडा फहराया था उनमें से अधिकांश उसे उतारना भूल गए हैं। नतीजा सोशल मीडिया में हमशक्लों की संख्या में बहुत इजाफा हुआ है।
बात हुई और तमाम यादें साझा हुईं। घर-परिवार की स्थिति विजटिंग कार्ड की तरह साझा की गई। मिलने का करार हुआ। अमल कब होता है यह देखा जाएगा। सब वादे पूरे करने के लिए थोड़ी होते हैं। सरकार तक यही बताती है।
भुवन पिथौरागढ़ के हैं। एक पहाड़ के आदमी से बात हुई तो दूसरे का नम्बर उचक आया। नारायण दत्त पांडे को फोन मिलाया। नारायण दत्त पांडे Narain Pandey हमारे सीनियर थे कालेज में। बाद में बनारस में मुलाकात होती रही।सिन्नी पंखे में नौकरी से शुरू हुए थे। सिन्नी पंखे बनाने के साथ कई क्षेत्रों में बहुत अच्छी कम्पनी थी। बाद में पारवारिक कलह का शिकार होकर बन्द हो गयी।
पांडे जी से बीच में भी सम्पर्क बना रहा। कई यादें हैं लेकिन सबसे मुकम्मल याद उनके पटेल हॉस्टल की है जहां वो मेस बन्द होने होने पर अपने कमरे में हम लोगों को खिचड़ी खिलाते थे। उनकी याद के साथ उनके कुकर और हीटर की फ़ोटो भी जेहन में चश्पा हैं। फिलहाल पांडे जी फरीदाबाद में वरिष्ठ नागरिक होकर आद्यात्म और सांसारिक गठबन्धन की सरकार के मुखिया हैं।
संयोग से इस बार कश्मीर से लौटते हुए पांडे जी से फिर मुलाकात हुई।
यह बातचीत आज टहलते हुए हुई। हम अक्सर पुराने मित्रों से बात करके यादें ताजा करते रहते हैं। कभी भी किसी से भी बात हो जाती है।
बात टहलने की हो रही थी। टहलते हुए तीन महिलाएं दिखीं। टहलते हुए उनके चेहरे पर सुबह की टहलाई का गर्व दमक रहा था। 'टहल इंडेक्स' जैसी कोई चीज होती हो तो उसमें वे टॉप पर थीं। टहलते हुए वे आपस मे बतिया भी रहीं थीं, थोड़ा मुस्करा भी रहीं थीं लेकिन इस एहतियात के साथ कि उनका 'टहल इंडेक्स' बरकरार रहे।
सेंट एलायसेस स्कूल के बाहर बच्चों और उनके अभिभावकों का जमावड़ा लगा था। इन लोगों को देर हो गयी थी। सवा सात का स्कूल है। उसके बाद आये थे ये लोग। अभी प्रार्थना हो रही थी। प्रार्थना के बाद गेट खुलेगा। तब जाएंगे देर से आने वाले लोग।
इस स्कूल में पता नहीं क्या प्रार्थना होती है। हम तो 'वह शक्ति हमे दो दया निधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं' घराने के 'प्रार्थना बालक'रहे हैं। तमाम लोग हैं इसी कुनबे के। प्रार्थना से याद आया कि कोई कर्तव्य पालन में चूक हो जाये तो बहाना रहेगा -'साहब दयानिधे से शक्ति की ग्रांट आयी ही नहीं इसलिए कैसे डटते कर्तव्य मार्ग पर। हम दोषी नहीं हैं। चूक का कारण दयानिधि जी हैं। उनसे पूछिये।
एक बच्चा देर से आया था। स्कूटर की पिछली सीट पर बैठा गेट खुलने का इंतजार कर रहा था। कक्षा 6 में पढ़ता है। पिता ने बताया -'बच्चे उठने में देर कर देते हैं। नवम्बर से सवा आठ का स्कूल हो जायेगा। तब आराम होगी।'
बच्चे से बतिया रहे थे कि पीछे से एक बच्ची ने मेरी कोहनी छूकर मुस्कराते हुए बताया- 'आज फिर देर हो गयी। वैन फिर खराब हो गयी।' हमको याद आया कि बच्ची गंगापुल पर स्कूल जाते हुए मिली थी। हमारे दिमाग में पुरानी फ़ोटो आ गयी। नई फ़ोटो सेव करते तब तक स्कूल का गेट खुल गया। बच्चे अंदर जमा होने लगे। बच्चे अंदर चले गए तो स्कूल का फाटक आहिस्ते-आहिस्ते बन्द हो गया। दिन भर स्कूल चलेगा। न जाने कितना ज्ञान इधर-उधर होगा। बतकही होगी। कोई हिसाब नहीं। क्या पता कब इस मुफ्तिया ज्ञान के आदान प्रदान पर भी टैक्स के दायरे में आ जाये। ऐसा कुछ हो तब तक जमकर बतिया लीजिए।
आपका भी बतियाने का मन हो रहा होगा। बतिया लीजिए किसी मित्र से। अभी बतियाना भी टैक्स फ्री है।

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Monday, October 17, 2022

ज्यादातर लोग किताबें पलटकर देखते हैं , रख देते हैं



शुक्लागंज से घंटाघर ई-रिक्शा से पहुंचे 'पंदा' रुपए में। सबेरे से चाय नहीं पिए थे। एक ठेलिया पर चाय बन रही थी। गरम खौलती चाय। ठेलिया पर हुंडे तरतीब से सजाए हुए थे। चाय लेकर किताबों की दुकान की तरफ बढ़े। स्टेशन पर तरह-तरह के लोग मिलते हैं। आते-जाते यात्री, रिक्शा वाले, कुली, मांगने वाले, दुकानदार और न जाने कितने तरह के लोग।
चाय की दुकान से जरा ही आगे दो मांगने वाले आपस में बतिया रहे थे। कहीं जाने की बात कह रहे थे- ‘तुम हो आओ फिर हम आते हैं।‘ पेड़ के नीचे लोग जमा हंसी-मजाक कर रहे थे। वहीं फुटपाथ पर तमाम लोग तैयार हो रहे थे। एक महिला एक छोटी बच्ची के साथ गुट्टा खेल रही थी। बताया जबलपुर से आए हैं। साथ वाली बच्ची को बताया -'हमारी बहिन है।' बगल में एक लड़का और एक लड़की मोबाइल में कोई पिक्चर देख रहे थे। दोनों के कान में एक-एक लीड घुसी हुई थी।
आगे किताबों की दुकान पर लोग किताबें देखा-देखी कर रहे थे। दुकान वाले ने बताया कि यहाँ लोग आते हैं। ज्यादातर लोग किताबें पलटकर देखते हैं , रख देते हैं। खरीदते कम हैं। बारिश के बाद अब बिक्री कुछ होने लगी है। सात-आठ हजार की बिक्री हो जाती है। हमको लगा कि शायद कुछ कम करके बता रहे हैं बिक्री का हिसाब। दुकान लगाने की मियाद आज पूरी होने वाली है। स्टेशन मास्टर से बात करके दो-तीन दिन के लिए और अनुमति मांगेंगे आज।
हमने न-न करते हुए भी कुछ किताबें खरीद ही लीं। जो किताबें लीं वे यह रहीं:
1. ऋणजल-धनजल –फनीश्वरनाथ रेणु
2. पन्नों पर कुछ दिन –नामवर सिंह
3. उदासी मेरे मातृभाषा है –लवली गोस्वामी
4. एकाकीपन के सौ वर्ष –गाब्रिएल गारसीया मार्केस
इनमें लवली गोस्वामी Lovely Goswami हमारी ब्लागिंग घराने की दोस्त हैं। उनकी कविताएं हैं किताब में।नामवर जी की 'पन्नों पर कुछ दिन' पिछली बार निकाल के रखी थी। फिर वहीं भूल गए। डायरी है नामवर जी की। शुरुआती दिनों की। बाद में तो उन्होंने लिखना भी बंद कर दिया था। बोलना ही जारी रखा था।
'एकाकीपन के सौ वर्ष' खरीदने के पहले कई बार सोचा। लें कि छोड़ दें। 499 रुपए की है। 15% डिस्काउंट दिया किताब वाले ने। जबकि राजकमल वाले आजकल 25% छूट दे रहे हैं। यह किताब अंग्रेजी में हमने शाहजहांपुर में ली थी। वहाँ हमारे मित्र अरविन्द मिश्र के माध्यम से हृदयेश जी के पास गई। फिर आई नहीं लौट के। किताबें जाने के बाद वापस कम ही आती हैं। हमारे पास खुद तमाम दोस्तों और दीगर जगहों से आई किताबें हैं।
किताब की दुकान से लौटते हुए भूख लग आई थी। एक दुकान में बैठकर नाश्ता किया। पराठा-दही-आचार। 90 रुपए के दो पराठे। खाने के बाद लंच लेने की जरूरत नहीं पड़ी। नाश्ते के बाद सामने की दुकानों पर बैठकर चाय पी। दस रुपए में। चाय पीते हुए एक दोस्त का फोन आया। चाय और फोन की जुगलबंदी में आधा घंटा निकल गया।
पैदल लौटते हुए रास्ते में सब्जी मंडी दिखी। नीबू जो यहाँ बीस रुपए के तीन मिलते हैं वो वहाँ दस रुपए के तीन मिल रहे थे। सौ रुपए किलो वाले सेव 60 रुपये में। किताबों के साथ सेव और नीबू लादकर वापस चल दिए- यह सोचते हुए कि फल-सब्जी यहीं से लिया करेंगे।
सड़क किनारे दोनों तरफ दीवाली की दुकाने सजने लगी हैं। लईया, गट्टा, खील बतासा के ढेर लगे हुए हैं सड़क के दोनों ओर। चूरा साठ रुपए किलो मिल रहा था। मन किया ले लें, दूध में भिगो के खाएंगे। लेकिन फिर रह ही गया। खील वाले मलीहाबाद से आए थे। बोरे के बोरे जमा थे। बिक्री अभी शुरू नहीं हुई थी। होगी अब।
एक जगह बड़ी परात में गट्टा रखे हुए थे। हमने दाम पूछा तो बताया –‘फुटकर बिक्री नहीं करते हम। थोक में बेंचते हैं।‘
गट्टा बनाने की तरकीब बताई। बताया –‘चासनी बनाते हैं। फिर उसकी पतली-पतली लोई बनती है। उसको काट-काट के गट्टा बनाते हैं।‘
कंडे भी बिक रहे थे वहाँ। बताया –‘भट्टी में यही प्रयोग होते हैं। ढाई-तीन रुपए का एक कंडा।‘ एक-एक कंडे को एहतियात से बोरे में भर कर रख रहे थे वहाँ। गोबर भी कितना कीमती है। गोबर कीमती ही नहीं अब तो पावरफुल भी है। इतना कि अब इसको दिमाग तक में भरने का फ़ैशन चलन में है।
दुकान पर एक बच्चा बुजुर्ग के साथ खेल रहा था। कुछ देर में वह दूर जाकर खेलने लगा। बाबा-नाना रहे होंगे बुजुर्ग। यह खेलना-कूदना बच्चे की यादों में जमा हो रहा होगा।
सड़क किनारे जगह-जगह ठेलियों पर नाश्ते, चाय की दुकाने लगी हुई थीं। लोग खड़े-खड़े बुफ़े सिस्टम में खा रहे थे। नाश्ते में पूरी, पराठे, छोले-भटूरे और चाय की बहुतायत थी। एक जगह अन्नपूर्णा भोजनालय का बोर्ड दिखा। 15 रुपए (प्रति व्यक्ति)में दाल,चावल, रोटी सब्जी। कानपुर गौशाला सोसाइटी द्वारा संचालित है यह भोजनालय। सबेरे 11.30 से 01.30 और शाम को 06.30 से 08.30 तक। पहुंचिए जिसको खाना हो। भोजनालय के बाहर बड़े बरतन रखे थे। इन्ही में बनता, रखा जाता होगा खाना।
आगे 'लखनऊ की लाजबाब बिरियानी' और 'अमृतसर के शानदार छोले भटूरे' के बोर्ड दिखे। लखनऊ, अमृतसर वाले अपना सामान कानपुर आकर बेंच रहे हैं। कानपुर वाले दूसरी जगह जाते होंगे। बेचने के लिए घर से बाहर निकालना पड़ता है।
एक जगह एक परिवार मिला। पति,पत्नी और दो बच्चे। पति ने मुझसे समय पूछा। हमने बताया -'दस बजकर बीस मिनट।' पत्नी और फिर पति भी मुस्कराने लगा। कारण पूछने पर बताया -'हम कह रहे थे नौ बजे होंगे, पत्नी कह रही थी दस बज चुके होंगे। इसीलिए समय पूछा।'
हमने पत्नी को शर्त जीतने की बधाई दी। वो फिर मुस्काए। भोपाल से आये हैं। मूलतः कुंडा प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं। अब किसी का इंतजार कर रहे थे। शायद पैसे की कमी हो। आगे बढ़ गया तो लगा पूछ लें। लेकिन फिर आगे बढ़ते गए। सहायता का इरादा स्थगित हो गया।
मदद करने के इरादे देरी करने पर स्थगित हो जाते हैं ।
घूमते-फिरते धूप तेज हो गई। हाथ में किताबें और फल लादे-लादे उँगलियाँ भी दर्द करने लगीं। एक हाथ से दूसरे में बदलकर दर्द साझा किया गया।
मोड पर एक फेरी वाला मिला। मोटरसाईकल पर कपड़े लादे था। उसको रोककर सिपाही कुछ पूछताछ कर रहे थे। बगल से गुजरते हुए हमने सुना –“एकाध अँगौछा हमको भी दे दिया करो कभी-कभी।“ सिपाही कई थे। एक कह रहा था, बाकी मुस्करा रहे थे। हमको रुकते देखा तो बोला –“आप चलो।“
हम क्या करते? चल दिए। चलते-चलते घर पहुँच गए।

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Sunday, October 16, 2022

इंसान को अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा परोपकार में लगाना चाहिए



आज सुबह देर से निकले टहलने। असल में निकलने के पहले नक्शा बनाते रहे दिमाग में कि किधर चला जाएगा आज। इसी चक्कर में निकलते-निकलते साढ़े सात बज गए। दो घंटा प्लान रास्ता तय करने में खर्च करने की बात पर नूर साहब का शेर याद आ गया:
मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
रास्ते में एक हरा पेड़ गिरा पड़ा था। जैसे किसी अच्छे-भले जवान की अचानक मौत हो जाए वैसे ही एकदम नौजवान पेड़ की डाल टूटकर सड़क पर गिरी थी। किसी पेड़ के अचानक टूट कर गिर जाने को उनके बीच पता नहीं क्या कहा जाता हो? शायद हार्ट फेल की तर्ज पर ‘डाल फेल’, ‘तना अरेस्ट’ जैसी कुछ कहा जाता हो। पेड़ के गिरने के मातम में आसपास के पेड़ शांत खड़े थे, चिड़ियाँ चुप थीं। पेड़ का तना दीवार को तोड़ता हुआ सड़क पर निढाल पड़ा था।
नदी के ऊपर सूरज भाई अपना जलवा बिखेरे हुए थे। किरणें गंगा स्नान करके चमक रहीं थी। पानी में डुबकी लगाने से नदी का पानी भी चमक रहा था। नदी में नहाने के एवज में पूरी नदी को विटामिन डी की सप्लाई कर रहे थे सूरज भाई। नदी के पानी में भँवरे, लहरें, बुलबुले उठ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि नदी डकार ले रही हो उसके चलते पानी उछाल मार रहा हो। एक चटाई नदी के बीच की रेत में फंसी पानी में डूब-उतरा रही थी। नदी का पानी चटाई को अनदेखा करते हुए उसके बगल से बहता जा रहा था।
एक आदमी बासी रोटी के दुकड़े करते हुए बड़ी के पानी में डाल रहा था। बासी रोटी से याद आया कि मीना कुमारी को बासी रोटी खाना पसंद थीं। रोटी खत्म होने के बाद उसने अपने झोले से लईया का पैकेट निकाला। पुल की रेलिंग पर रगड़कर पैकेट फाड़ा। फुटपाथ पर लईया फैला दी। इसके बाद आटे की लोई निकाली और उसके छोटी-छोटी गोली बनाकर नदी में डालने लगा। पहले रोटी और फिर आटे की गोलियां डालते हुए उसके चेहरे पर निर्लिप्त संतोष के भाव थे।
बातचीत से पता चला कि वह आदमी पेशे से हलवाई का काम करता है। फिलहाल बुधसेन मिष्ठान भंडार में काम करता है। 20 दिन का दीवाली के मौके का ठेका है काम का। सुबह 9 बजे से शाम 9 बजे तक काम। रोज के एक हजार रूपये मिलते हैं। दीवाली के बाद खुद का काम करेंगे। सहालग में हलवाई का काम। बताया कि मिठाई सब बनानी आती हैं। अच्छी सोनपापड़ी लगती है। दोपहर का खाना दुकान पर शाम का खाना घर पर खाते हैं।
मछलियों को रोटी, आटे की गोली डालने का काम कब से कर रहे हैं पूछने पर बताया-“ बहुत दिन से कर रहे हैं। इंसान को अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा परोपकार में लगाना चाहिए। न जाने किसकी सहायता से किसका भला हो जाए। मेहनत करना चाहिए। अमीरी-गरीबी का हिसाब तो चलता रहता है।“
अपने पास का सारा दाना-पानी नदी में डालने के बाद पीछे हटाते हुए चप्पल उतारी। नदी को प्रणाम किया और साइकिल स्टार्ट करके काम पर चल दिए।
पुल पर दो लड़के और एक लड़की मोटरसाईकिल से आए। देर तक वहाँ खड़े होकर नदी को देखते रहे। फ़ोटो खींचे। कुछ देर में तीनों लोग मोटरसाइकल पर बैठकर चले गए।
एक आदमी के साइकिल के स्टैंड से सड़क पर कपड़ा बड़ी दूर तक सरकता चला गया। दोनों में एक दूसरे के प्रति सहज आकर्षण सा हो गया होगा। मोहब्बत पनप गई होगी। लेकिन दुनिया को मोहब्बत बर्दाश्त कहाँ होती है? पीछे से किसी ने साइकिल वाले को ध्यान दिलाया तो उसने साइकिल पर बैठे-बैठे स्टैंड को सीधा किया। कपड़ा वहीं ठहर गया। कपड़े और साइकिल स्टैंड की प्रेम कथा अचानक खत्म हो गई।
पुल पर से जय हो फ्रेंड्स ग्रुप के लोग बच्चों को पढ़ाते दिखे। एक महिला उनको देखकर रुक गई। पुल पर पान मसाले की दुकान लगाए आदमी से पूछा-“ ये लोग यहाँ क्या करते हैं?” मसाले वाले ने बताया कि ये लोग बच्चों को मुफ़्त पढ़ाते हैं। महिला ने कहा-“ मैं देखती थी। पहले यहाँ लोग जूडो-कराटे सिखाते थे। पढ़ाते भी हैं। बहुत अच्छा काम करते हैं।“
पुल की रेलिंग के सहारे खड़े होकर नदी को देखते रहे कुछ देर। फिर सड़क पर आते-जाते लोगों को देखा। अलग-अलग अंदाज में गुजरते दिखे लोग। कोई सर झुकाए उदास सा जाता दिखा, कोई फुर्ती से लपकता हुआ, कोई मुस्कराता हुआ बतियाता हुआ। साइकिल वाले खरामा-खरामा जाते दिखे, आटो वाले फर्राटा मारते। बगल के पुल से रेलगाड़ी गुजर रही थी। रेलगाड़ी से कुछ लोग हाथ उचकाकर नदी में सिक्के फेंक रहे थे।
नीचे एक परिवार बैठा दिखा। दो बच्चे ठेलिया पर बैठे-लेटे खेल रहे थे। एक बुजुर्ग महिला, एक जवान आदमी-औरत आपस में गपिया रहे थे। हमने ऐसे ही बात शुरू करने की गरज से बच्चों से पूछा-“आज पढ़ने नहीं गए?” बुजुर्ग महिला ने बताया-“ हाँ, आज नहीं गए।“ पास जाकर बातचीत करने पर बच्चों ने बताया –‘ये एलकेजी में पढ़ता है, हम क्लास टू में पढ़ते हैं।‘ इतना बताकर वे फिर खेलने में मशगूल हो गए।
ठेलिया में कागज की कतरन जमा थी। सेव लगाते हैं शाम को बताया महिला ने। नौजवान कुछ बोल नहीं रहा था। चुपचाप औरत की तरफ देखता बैठा था। सामने बैठी औरत हाथ में मेंहदी लगाए बैठी मुंह फुलाये सी बैठी थी। उनके बीच का पसरा सन्नाटा बता रहा था कि मामला तनावपूर्ण है। हम आगे बढ़ लिए।
आगे दुकान पर लिखा ‘बदरका’ वालों की दुकान। बर्तन की दुकान था। बालटी पोंछ रहे रहे बच्चे ने बताया –‘बीस मील दूर है बदरका यहाँ से। बदरका अमर शहीद चनद्रशेखर’ आजाद’ की जन्मस्थली/पैत्रक निवास है। जाएंगे कभी देखने।
आगे टेम्पो स्टैंड पर तमाम टेम्पो, ई-रिक्शा दिखे। कोई स्टेशन जा रहा था , कोई बड़ा चौराहा। हम स्टेशन जाने वाले ई-रिक्शा पर बैठ गए। हमारे साथ बैठे दो लोग स्टेशन से मिट्टी के दिए लेने जा रहे थे। थोक में बिकते हैं वहाँ। डेढ़ और रुपए के सौ के हिसाब से मिलते हैं थोक में। आपस में बतियाते हुए घंटाघर पहुंचे। किराया पूछा तो बोला –“पंदा रुपया।“ 4.1 किलोमीटर की दूरी के 15 रुपए। मतलब तीन रुपया छाछट पैसा प्रति किलोमीटर।
किराया देकर हम उतर गए। ई-रिक्शा वाला जरीब चौकी की तरफ चला गया।

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Friday, October 14, 2022

बहुत हीरो बनते हो



सुबह टहलना एक मजेदार अनुभव होता है। तमाम तरह के नजारे दिखते हैं। फिर उन पर लिखना भी रोचक। लिखाई तो एक तरह से घुमाई की डायरी सी होती है। जैसे मीटिंग के बाद 'मिनट्स ऑफ मीटिंग' बनते हैं वैसे ही 'मिनट्स ऑफ टहलाई'। जबलपुर में रहने के दौरान शुरू हुआ यह सिलसिला। कभी देर हो जाती लिखने में तो Surendra Mohan Sharma जी फोन करके पूछते -'आपका रोजनामचा नहीं आया अब तक।'
बाद में लिखना अनियमित सा हो गया। लगता कि रोज-रोज क्या लिखना। एक जैसे नजारे। लेकिन जब घूमने निकलते तो नजारे एक जैसे होते हुये भी अलग ही मिलते।
कल रास्ते में एक साइकिल की दुकान दिखी। मिस्त्री साइकल का पंचर बना रहा था। साइकिल के हैंडल और कैरियर पर सामान लदा था। साइकिल को मय सामान सड़क पर लिटा कर पंचर बनाया जा रहा था। ऐसे जैसे साईकिल सड़क की ऑपरेशन टेबल पर लेटी हो। मन किया फोटो लें लेकिन फिर ठीक नहीं लगा। साइकिल की निजता खंडित होती। उसको बुरा लगता।
चौराहे पर एक लड़का साइकिल से आ रहा था। न जाने क्या हुआ वह सड़क पर गिर गया। पीछे ट्रक आ रहा था। ट्रक रुक गया। बच्चा फौरन उठ गया। हम एकदम पास थे। उठे हुए बच्चे को सहारा देकर किनारे लाये। पूछा -'कहीं चोट तो नहीं लगी?बच्चा चुप रहा। लगी नहीं थी उसके। साइकिल भी सलामत थी।
बच्चा आगे जाता तब तक पीछे स्कूटर पर एक आदमी दो बच्चों को बिठाए आया और बच्चे को धीमी लेकिन सख्त आवाज में, स्कूटर पर बैठे-बैठे हड़काने लगा -'बहुत हीरो बनते हो।' वह शायद उसका पिता था।
बच्चा चुप था। चोट से ज्यादा शायद पिता की डांट से सहमा था। बाप के मुंह पान मसाले से भरा था इसलिए आवाज तेज नहीं थी लेकिन कड़क बाप वाली तो थी ही।
बच्चा कुछ बोला नहीं। चुपचाप सर झुकाये खड़ा रहा। स्कूटर पर सवार भाई-बहन उससे भी छोटे थे। वे अपने बड़े भाई को गिरने के बाद हड़काये जाते देख रहे थे। जैसे किसी अधिकारी को उसके मातहतों के सामने हड़काया जाए उसी तरह का सीन था।
हमने स्कूटर सवार को समझाया -'अभी बच्चा गिरा है। बाद में हड़काना।'
बाप बोला -'अरे, समझाएंगे नहीं तो अक्ल कैसे आएगी।'
हमने कहा-'अक्ल आ जायेगी बाद में। अभी तो उससे प्यार से
बात करो। सहम हुआ है बच्चा।'
(मन तो किया कहने का कि अभी तुममें नहीं आई अक्ल तो उसमें कहाँ से आ जायेगी। लेकिन ऐन टाइम पर अक्ल आ गई। नहीं कहा।)
बाप ने हड़काना स्थगित किया। लेकिन आंखों की सर्चलाइट से बच्चे को सेंकता रहा देर तक। बाद में सब लोग चले गए। हम भी आगे बढ़ गए।
फुटपाथ पर दो लोग ग्लास में रंगीन पदार्थ लिए आचमन कर रहे थे। सुबह-सुबह ग्रीन टी पी रहें हों शायद। लेकिन उनके अंदाज से लगा कि दारु ही है। हमको जैसे चाय की लत वैसे उनको दारू की।
आगे हीरपैलेस की बिल्डिंग दिखी। चारों तरफ खपच्चियों का पलास्टर। ऐसा लगा जैसे बिल्डिंग की पसलियां टूट गईं हों और उनको बांस की खपच्चियों के सहारे ठीक करने के लिए बांध दिया गया हो। कभी शहर के सबसे शानदार सिनेमा हाल के यह हाल देखकर लगा -'सब दिन जात न एक समान।'
सामने मट्ठे का ठेला लगाए आदमी ने बताया -'माल बनेगा यहां। अजय देवगन ने खरीदी है बिल्डिंग। उसका माल बनेगा।'
आज दुनिया पूरी तरह एक बाजार में तब्दील हो गयी है। हर शानदार इमारत एक मॉल में बदल रही है। राजाओं के महल बड़े होटलों में बदल गए हैं। सारे हुक्मरान मल्टीनेशनल कंपनियों के सेल्समैन की तरह काम कर रहे हैं। बाजार ने पूरी दुनिया पर कब्जा कर रखा है।
पार्क के बाहर दुपहिया वाहन लाइन से खड़े थे। पार्क के सामने पार्किंग शुल्क दस रुपये था। जमीन पर गाड़ी करने के पैसे पड़ने तो बहुत पहले शुरू हो गए। बड़ी बात नहीं कल को धूप और छाया पर खड़े होने की भी फीस पड़ने लगे।
आगे एक बन्दर परिवार मजे में धूप में बैठा विटामिन डी ले रहा था। बंदरिया अपने बच्चों को सहला रही थी। बच्चे मस्त धूप में लोटपोट हो रहे थे। बन्दर परिवार आने जाने वाले लोगों से बेपरवाह धूप के मजे ले रहा था। उनके हाथ में कोई मोबाइल, स्मार्टफोन भी नहीं था। हमको उनकी निश्चिन्तता से जलन हुई।
लेकिन जलन क्यों। कोई हमसे पूछे -'बन्दर बनोगे?' हम फौरन कहेंगे न। हमारी यही जिंदगी बढिया।
है कि नहीं?

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Thursday, October 13, 2022

धर्मकर्म सब खत्म हो गया



कल सुबह टहलने निकले तो दाएं-बाएं जाने की बजाय सीधे चलते चले गए। सड़क खत्म हुई एक दीवार पर। बगल की दीवार एक सिरे पर टूटी थी। उस हिस्से को पार किया तो रेलवे लाइन दिखी। हम पटरी के किनारे-किनारे चल दिये।
पटरी पर चलते हुए मुड़-मुड़ कर पीछे देखते रहे कि कहीं कोई ट्रेन न आ रही हो। इस भी एक फोन भी आ गया। बात करते हुए सोचते रहे कि कहीं ट्रेन न आ जाए। पीछे से धकिया दे। मारे डर के बात अधबीच में छूट गई।
आगे मरी कंपनी के पुल के नीचे से निकलकर सड़क पर आ गए। सड़क नींद में ऊँघती जाग रही थी। लोग सड़क किनारे चारपाइयाँ डाले बैठे थे। पुराने जमाने के नवाबों सरीखे। एक आदमी तख्त पर अधलेटा बैठा सड़क पर गुजरते आदमी से कह रहा था -"आओ बैठ लेओ तनक देर। आदमी ने उसके निमंत्रण को बिना कुछ कहे ठुकरा दिया। किसी ने किसी की बात का बुरा नहीं माना।
सड़क किनारे एक इंसान कबाड़ के बैग को सिरहाने रखे, नटुल्ली सी चद्दर ओढ़े सो रहा था। कबाड़ के बैग पेड़ के जंगले के सहारे टिका था। उसके मुड़े हुए पैर देखकर हमको दुष्यंत कुमार जी का शेर याद आ गया:
न हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेंगे,
बहुत मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए।
आगे एक इ-रिक्शा की ड्राइविंग सीट पर दो कुत्ते ऊँघते हुए दिखे। देखकर लगा मानो सवारी का इंतजार कर रहे हैं। हमने उनका फ़ोटो खींचना चाहा तो एक कुत्ता चुपचाप उठाकर नीचे उतर गया। शायद उसको फ़ोटो खिचवाना पसंद ना हो। दूसरे ने कोई एतराज नहीं किया। चुपचाप आंखे बंद करके ऊँघता रहा।
स्टेशन के पीछे के इलाका छोटे-बड़े, अच्छे-सामान्य होटलों से घिरा था। सड़क किनारे दोनों तरफ होटल ही होटल -ठहर तो लें। एक होटल C.K.Palace में एयरकूल कमरा 200 रुपए प्रतिदिन पर मिल रहा था। मतलब 6000 रुपया महीना। यहीं बड़े होटलों में कमरे सात से दस हजार रुपए प्रतिदिन में भी मिलते हैं। हर देश , शहर में ऐसे सस्ते -मंहगे होटल मिलते हैं। तय किया जब कभी दुनिया घूमने निकलेंगे तो स्टेशन के आस-पास ही खोजेंगे होटल। लेकिन कब निकलनेगे यह तय नहीं।
आगे एक धर्मशाला दिखी। श्री केतकी देवी धर्मशाला। हर मंजिल पर घास उगी हुई थी। फ़ोटो खींचने लगे तो वहाँ मौजूद एक आदमी ने टोंका -"आप बिना पूछे फ़ोटो कैसे खींच रहे हैं?"
हमने कहा -"किसके पूंछें? इमारत के तो जबान तो होती नहीं। आप इसके मालिक हैं ?"
बोला -"हां। ये मकान हमारा ही है ?"
इसके बाद तो बटकही की लटाई खुल गई और बातों के पेंच लड़ने लगे। उन्होंने बताया :
“हम लोग आगरा के रहने वाले हैं। हमारे परदादा 125 साल पहले यहाँ आए थे। माथुर लोग हैं हम। इसीलिए यह मोहल्ला मथुरी मोहाल कहलाता है। हमारा परदादा शहर के बहुत बड़े हाकिम थे। उन्होंने अपनी दिवंगत पत्नी के नाम पर यह धर्मशाला बनवाया था। पहले लोग धर्मकर्म करते थे। स्कूल बनवाते थे। धर्मशाला बनवाते थे। अब कौन करता है यह सब? धर्मकर्म सब खत्म हो गया। “
हमने कहा –“अरे, धर्म अभी कहाँ खत्म हुआ। धर्म के नाम पर तो देश दुनिया में न जाने क्या-क्या हो रहा है?”
वो बोले-“ अरे कुछ नहीं। सब खतम हो गया। बहुत बचा होगा तो 10 परसेंट बचा होगा।“
धर्म से उनका मतलब परोपकार वाले भाव से होगा। हमने उनकी बात मान ली क्योंकि धर्म और परोपकार का कोई डाटा हमारे पास नहीं था।
सामने की पट्टी पर मोहल्ले के नाम सुतरखाना लिखा। आगे कोई और मोहल्ला शुरू हो गया था। मोहल्ले भी सेवइयों की तरफ उलझे से दिखे।
घंटाघर के पास चाय-नाश्ते की दुकानें थीं। हर दुकानदार सड़क से गुजरते आदमी को अपने कब्जे में लेने की कोशिश में दिखी। हमने एक दुकान वाले से पूछा –“यहाँ कोई पुस्तक मेला लगा है?”
उसने जबाब देने में देर लगाई। बगल के दुकान वाले ने हाथ के इशारे से हमको अपने कब्जे में लेते हुए कहा –“आओ हम बताते हैं।“
हम सड़क पर खड़े-खड़े ही उसके पास पास चले गए। मुंह उसकी तरफ कर लिया। उसने इशारे से बताया –“सीधे चले जाओ आगे लगा है पुस्तक मेला।“
सीधे जाने पर किताब की दुकान दिखी। फुटपाथ पर लगी एक दुकान पर पुस्तक मेला का बैनर लगा था। दुकानदार बनारस का है। यहाँ स्टेशन पर आकर दुकान लगाई। किताबों पर पिछले दिनों हुई बरसात के चाबुक के निशान थे। कुछ अभी भी गीली –सीलीं थी। अधिकतर किताबें हमारी जानी-पहचानी थीं। फिर भी कुछ देर में कुछ किताबें ले ही लीं। उनमे एक दीवान-ए-मीर भी थी। प्रेम जनमेजय जी प्रेम जनमेजय की लिखी किताब ‘मेरे हिस्से के नरेंद्र कोहली’ भी थी। मीर की पिछले दिनों बहुत तारीफ फिर से सुनी और इतवार को उन पर एक बातचीत भी सुनी थी। बाद में घर आकर देखा तो ‘नामवर सिंह की डायरी’ जो मैंने चुनी थी लेने के लिए वह थी ही नहीं किताबों में। हालांकि उसके पैसे भी नहीं दिए थे मैंने। अब फिर एक चक्कर लगाया जाएगा।
वहीं दुकान के पास दो लड़के फुटपाथ पर चादर बिछाए आराम से बैठे थे। चाय पीते हुए बतिया रहे थे। सोनभद्र से आए थे। किसी संस्थान में एडमिशन के के लिए प्रमाणपत्र दिखाने आए थे। साढ़े दस बजे जाना था तब तक यहीं आरामफर्मा थे।
लौटते समय एक रिक्शावाला तेज चाल से आती महिला के सामने आ गया। टक्कर होते बची। महिला ने आगे निकलते हुए हड़काया- “देखकर नहीं चलते। घुसे चले आ रहे हो।“
रिक्शेवाले ने भी आगे निकलते हुए कहा –“तुमको दिखाई नहीं देता सामने से रिक्शा आ रहा है?”
दोनों जल्दी में थे इसलिए आगे वार्ता स्थगित हो गई।
आगे डीलक्स शौचालय के बाहर निपटने वालों की भीड़ थे। लोग अपनी बारी के इंतजार में थे।
हमने एक बेंच पर बैठकर चाय पी। इसके बाद एक ई-रिक्शा में ड्राइवर के बगल में बैठकर वापस हो लिए। रिक्शा वाला रिक्शे में सब्जी लादे चला जा रहा था। एक सवारी भर की जगह बची थी तो हमको लाद लिया। रेलवे क्रासिंग के पास उतार दिया। दस रुपए में।
क्रासिंग से मालगाड़ी गुजर रही थी। मालगाड़ी गुजरने के बाद हम निकले। निकलकर टहलते हुए घर आ गए।
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