Saturday, December 31, 2022

फॉस्टर सिटी, लैगून और कुत्ता पार्क



25 दिसम्बर की दोपहर को अमेरिका आये। सैनफ्रांसिस्को उतरे। फॉस्टर सिटी में बेटे के घर आये। तब से एक दिन छोड़ बाकी आसपास ही टहलते रहे। फॉस्टर सिटी को हम पहले सैन फ्रांसिस्को का ही मोहल्ला समझते रहे। आज पता चला कि यह खुद में एक शहर है।
34-35 हजार के करीब की आबादी वाले इस शहर को 1960 के दशक में सैन फ्रांसिस्को की दलदली जमीन को पाटकर बसाया गया। इस काम में उस समय के रियल स्टेट व्यवसायी टी जैक फॉस्टर की अहम भूमिका थी। ज्यादातर जमीन उसके ही नाम थी। उसी के नाम पर शहर का नाम फॉस्टर सिटी पड़ा। सिलिकॉन घाटी का प्रमुख शहर है फॉस्टर सिटी।
फॉस्टर सिटी अमेरिका के सबसे सुरक्षित शहरों में से एक माना जाता है।
सैनफ्रांसिस्को के समुद्र तट से जुड़े लैगून शहर की ड्रेनेज व्यवस्था को सुचारू बनाने में सहायक हैं। लोग इनमें नाव भी चलाते हैं।
जिस दिन आये उस दिन तो चुपचाप पड़े आराम करते रहे। अमेरिका में आये बर्फीले तूफान का नजारा और खबर देखते रहे। लग रहा था कि पूरे अमेरिका में किसी बर्फीली फौज ने हमला कर दिया है। जिधर देखो उधर बर्फ ही बर्फ। टीवी की इन खबरों के उलट फॉस्टरसिटी में धूप खिली थी।
शाम यहां बड़ी जल्दी हो जाती है। एक दिन देखा तो साढ़े पांच बजे ही अंधेरा हो गया। आसपास टहलने निकले तो कोई बाहर नहीं दिखा। अलबत्ता कई घरों में क्रिसमस के सांता जी दिखे। कुछ घरों में बिजली की झालरें भी चमक रही थी।
सड़को पर गाड़ियां बड़ी तेज भागती दिखीं। लोगों को घर पहुंचने की जल्दी होगी। ऐसा लग रहा था कि गाड़ियों को पीछे से कोई दौड़ा रहा हो। गाड़ियां मानों अपनी जान बचाने के लिए भाग रही हों।
कालोनी के पास ही एक लैगून को पार करके दूसरी तरफ गए। लैगून को पार करने के लिए जगह-जगह ओवरब्रिज बने थे। लैगून के दूसरी तरफ कुछ लोग वोटिंग करते दिखे। हमारे देखते-देखते एक आदमी लैगून से अपनी नाव निकालकर उसे अपने बगल में लादकर कार के पास गया और नाव को कार पर लादकर चलता बना।
वहां पास में ही एक कुत्तों का पार्क दिखा। उसमें लोग अपने कुत्तों को खिला रहे थे। कुत्ते आपस में दूसरे कुत्तों के साथ खेल रहे थे। हेलो हाय कर रहे थे। कुत्तों के मालिक-मालकिन अपने कुत्तों को कसरत करा रहे थे। ट्रेनिंग दे रहे थे। ज्यादातर लोग गेंद दूर फेक रहे थे और कुत्ते उनको उठाकर ला रहे थे।
दो पार्क थे। अगल-बगल। उनमें करीब दस बारह कुत्ते दिखे। लगभग इतने ही उनके मालिक। प्रति कुत्ता एक मालिक हिसाब समझिए। कुत्तों के लिए पानी की व्यवस्था थी। लोग कुछ देर कुत्तों को खिलाकर टहला कर उनको अपने साथ लेकर कार में बैठकर जाते दिखे। कुछ लोग कुत्तों को साथ लाते हुए भी दिखे। कार से उतरकर पार्क की तरफ कुत्ते इतनी तेज लपककर जा रहे थे कि उनको देखकर यही लगा कि पार्क में पहुंचते ही किसी पद या कुर्सी पर कब्जा कर लेंगे। लेकिन यह देखकर अच्छा लगा कि पार्क में पहुंच कर भी उनका कुत्तापन बरकरार रहा। उन्होंने कोई मानवोचित हरकत नहीं की।
एक कुत्ते ने कसरत करते हुए पार्क के बीच में ही दीर्घशंका कर दी। उसकी मालकिन लपककर पार्क में ही मौजूद व्यवस्था से एक प्लास्टिक का बैग निकाला। कुत्ते के निपटान को उठाया और वहीं मौजूद डस्टबिन में फेंक दिया।
कुत्तापार्क पर लगी नोटिस के अनुसार :
"यह पार्क कुत्तों को दूसरे कुत्तों से मिलन-जुलन की व्यवस्था के लिए बनाया गया है। बच्चे कुत्तों के मनोरंजन में बाधा पहुंचा सकते हैं।
अगर आप अपने बच्चे को कुत्तापार्क में लाते हैं तो उनकी ठीक से देखभाल करें। बच्चों को कुत्ता पार्क रहने का व्यवहार सिखाएं। जैसे कि बच्चे दौड़े नहीं, चिल्लाएं नहीं, छड़ी न हिलाएं और उन जानवरों की तरफ न जाएं जिनसे वे परिचित नहीं हैं। कुत्तों के बाल झाड़ते समय टूटे हुये बाल अपने बैग में रखें।"
कुत्तों के लिए इतनी शानदार और सुरक्षित व्यवस्था देखकर दिनकर जी की कविता याद आ गयी:
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमन्त्रण
यह कविता बचपन में पढ़ी थी इसलिए याद आ गयी। बाकी भूखे बच्चों के हाल तो कविता लिखे जाने के समय से और बेहाल हुए होंगे। मालिक लोगों का तेल-फुलेल पर खर्च और बढ़ा होगा। पापी महलों के अहंकार भी बढ़े होंगे लेकिन कहीं कुछ बदल नहीं रहा।
हालाँकि हमको वहाँ खेलते कुत्तों और उनके मालिकों से कोई शिकायत नहीं है। लेकिन दुनिया भर के भूखे रह जाने वाले बच्चों के हाल सोचकर दुःख होता है।
कुछ देर वहां ठहरकर हम वापस घर चले आये।

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Thursday, December 29, 2022

दोहा से अमेरिका वाया ईरान, अफ़्रीका और अटलांटिक महासागर



अमेरिका का टिकट कतर एयरलाइंस से हुआ था और फ्लाइट कतर की राजधानी दोहा होकर जानी थी। उस समय कतर में 2022 का फुटबाल विश्व कप भी हो रहा था। कतर में ढाई घण्टे का ठहराव भी था। हालांकि रूकना नहीं था फिर भी जानकारी ली कतर के बारे में।
पता चला कि कतर दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक है। 9 वां नम्बर बैठता है अमीरी के मामले में। आबादी कुल जमा करीब तीस लाख। कानपुर की आबादी (45 लाख) इसकी डेढ़ गुनी है। कुल शहर 51 हैं कतर में इससे ज्यादा तो मोहल्ले होंगे कानपुर में। एरिया लगभग कानपुर के बराबर।मतलब कतर की पूरी आबादी को समेट के कानपुर में रखा जा सकता।
कतर की खास बात यह कि यहाँ की करीब नब्बे प्रतिशत आबादी बाहर से आई है। सर्विस देने। मतलब करीब 3 लाख लोग ही यहां के हैं। बाकी सब दिहाड़ी पर काम करने आये दुनिया के दूसरे देशों से। प्रवासी मजदूरों से काम कराने का रिकार्ड यहाँ अच्छा नहीं बताया जाता। कांट्रैक्ट पर आए लोगों के वीसा यहाँ लोग जब्त कर लेते हैं। बंधुआ मजदूर की तरह काम कराते हैं। पिछले साल विश्व कप फुटबाल के आयोजन की तैयारियों से सम्बंधित निर्माण के काम में करीब 6500 मजदूरों की मौत हो गयी। किसी लोकतांत्रिक देश में इतनी मौतों पर बवाल होता लेकिन कतर में इसके बावजूद शानदार आयोजन हुआ।
गरीब की जान की अमीर लोग परवाह नहीं करते।
कतर के बारे में पढ़ते हुए एक रोचक बात पता चली। रोचक क्या नकारात्मक ही कहेंगे आज के समय के हिसाब से। वैसे संविधान के अनुसार तो कतर में स्त्री-पुरुष समानता है। लेकिन कतर की परम्परा के अनुसार हर महिला को जिंदगी भर अपना कोई न कोई अभिभावक रखना होता। बिना अभिभावक की लिखित अनुमति के वे अपने जीवन से जुड़ा कोई भी अहम फैसला नहीं ले सकती। यह अहम फैसला महिलाओं की पढाई, शादी, तलाक़ या कहीं बाहर जाने-आने से भी सम्बंधित हो सकता है।
(बीबीसी की रिपोर्ट का लिंक कमेंट बॉक्स में)
हालांकि कानून इस बात के लिए मजबूर नहीं करता लेकिन परम्परा के अनुसार यह जरूरी है। और नकारात्मक बातों में परम्परा हमेशा कानून पर हावी रहती है। भारत में ही शादी में दहेज कानूनन अपराध है लेकिन बकौल परसाई जी -'हमारे समाज की आधी ताकत लड़कियों के लिए दहेज जुटाने में लग जाती है।'
बहरहाल बात हो रही थी दोहा की। जहाज दिल्ली से एक घण्टे देरी से उड़ा था। एक घण्टे देर ही पहुंचना था। अगली फ्लाइट में डेढ़ घण्टे समय था। दिल्ली में जिस तरह देरी हुई सुरक्षा जांच में उससे डर लग रहा था कि कहीं अगली फ्लाइट हमको लिए बिना न चली जाए और हम दोहा में ही रह जाएं।
यह बात हमने एयरहोस्टेस से पूछी। उसने कहा -'ऐसा नहीं होगा। सेम एयरलाइन है और इसके कई लोग उसमें जाने हैं इसलिए आपको लेकर ही जायेंगे। अगर छूट भी गयी तो दूसरी फ्लाइट से भेजेंगे। उसकी बात मानकर हम चुप हो गए। लेकिन जब मन आता तो मन ही मन चिंता तो कर ही लेते। चिंता करने में कौन पैसा लगता है।
मुफ्त की सुविधा होने के चलते दुनिया ने तमाम लोग इसका फायदा उठाते हैं और दनादन ऊलजलूल चिंताएं करते रहते हैं। दनादन चिंतित होते हैं। काल्पनिक समस्यायों से चिंतित होते हैं। एक की चिंता से उबरते हैं दूसरी में घुस जाते हैं। मुफ्त की सेवाओं का यह साइड इफेक्ट होता है, हर कोई उसका लाभ उठाना चाहता है।
इस बीच नाश्ता पानी भी आता रहा। चाय , पानी,जूस और तमाम खाने के सामान। इनके साथ हवाई जहाज के शौचालय सबसे व्यस्त जगह दिखे। अतिशय उपयोग के चलते सबसे ज्यादा गन्दी जगह हो गए थे शौचालय। न जाने की इच्छा के बावजूद लोग जा रहे थे।
इस बीच फुटबाल में विश्वकप की झलकियां भी देखीं। पुराने खिलाड़ियों के मैच। इसी क्रम में विश्व कप क्रिकेट 1983 पर बनी पिक्चर भी देखी। लेकिन सबसे ज्यादा देखा फ्लाइट स्टेटस। अब कहाँ हैं, किसके ऊपर से उड़ रहे हैं। कितना तापमान है बाहर। कितनी दूरी बची है, कितनी तय कर आये।
ईरान के ऊपर से उड़ते हुए वहां चल रहा युवाओं का आंदोलन याद आया। पढ़ने-लिखने , घूमने-फिरने और मजे का जीवन जीने की उम्र के बच्चे पहनने, ओढ़ने और बुनियादी आजादी के लिए आंदोलन कर रह रहे हैं। तीन सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। न जाने कितनों को मौत की सजा सुनाई जा चुकी है। महिलाओं के हिजाब पहनने की पाबन्दी से आजादी की मांग को लेकर शुरू हुआ आंदोलन न जाने कितने और लोगों की जान लेगा। इंसान की जिंदगी से कीमती कुछ नहीं होता। यह अमूल्य जीवन कुछ लोगों की हठधर्मिता और अड़ियल पैन के चलते बर्बाद हो रहा। न जाने कब यह सिलसिला रुकेगा।
दोहा से अमेरिका की दूरी करीब 16 घण्टे की थी। सैनफ्रांसिस्को पहुंचने का समय सुबह के 1240 था। हम खिड़की से दूर थे। लेकिन समुद्र लहराता दिख रहा था। सूरज भाई भी हमारी अगवानी में चमकते-चहकते दिखे। खिड़की से सटकर चलते रहे।
आखिर में पहुंच ही गए। सैनफ्रांसिस्को। मौसम खुशनुमा और खिला-खिला था।

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Wednesday, December 28, 2022

बर्फीले तूफान में अमरीका यात्रा



दो दिन हुए अमेरिका आये। 25 की सुबह चार बजे चले थे नई दिल्ली से। 25 की दोपहर को दोपहर करीब 1240 पर सैनफ्रांसिस्को में उतरे।
ऊपर का समय देखने से लगता है कि दिल्ली से अमेरिका साढ़े आठ घण्टे में पहुंच गए। करीब साढ़े बारह हजार किलोमीटर है सैन फ्रांसिस्को नई दिल्ली से सीधी दूरी में । मतलब डेढ़ हजार किलोमीटर प्रति घण्टा।
लेकिन समय के लफड़े इत्ते सीधे कहाँ होते हैं। हर शहर का अलग टाइम जोन होता। जैसे अभी दिल्ली में 28 दिसम्बर के दोपहर बाद के 1240 हुए हैं जबकि सैन फ्रांसिस्को में 27 दिसंबर के रात के 1110 हुए हैं। मतलब साढ़े बारह घण्टे पीछे है सैन फ्रांसिस्को दिल्ली से।
इस बार दोहा होते हुए आये। दिल्ली से दोहा 2565 किलोमीटर दोहा से सैन फ्रांसिस्को 12967 किलोमीटर। कुल जमा हुए 15532 किलोमीटर। कुल मिलाकर करीब 20 घण्टे की हवा बाजी हुई। बीच में करीब ढाई घण्टे का ठहराव दोहा में।
अमेरिका आये हुए दो दिन हुए। दिमाग अभी भी दिल्ली, दोहा, अमेरिका के टाइम जॉन में उलझा है। गड्ड-मड्ड। यहां समय देखते हैं तो फौरन हिसाब लगाते हैं कि इस समय भारत मे क्या बजा होगा।
हम तो तीन टाइम जोन की सोचकर हलकान हुए जा रहे। ऊपरवाला तो तमाम टाइमजोन की समस्याएं , प्रार्थनाएं सम्भालता होगा। उसके क्या हाल होते होंगे। अलग- अलग तरह की सभ्यताओं के लोगों से निपटते हुए ऊपर वाला परेशान होगा।
जहाज में बैठते ही खबर आई कि अमेरिका में बर्फ़ीले तूफान के चलते सैकड़ों उड़ाने निरस्त हो गयीं। हवाई अड्डे बन्द हो गए। खबर पढ़ते ही लगा कि कहीं अमेरिका पहुंचने पर यह न कह दिया जाए कि ले जाओ अपना उड़न खटोला वापस। यहां सब दुकान बंद है। बर्फीला तूफान खत्म होने के बाद आना।
लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। जहाज तसल्ली से उतरा सैन फ्रांसिस्को में। पूरे अमेरिका के बर्फीले मौसम से अलग यहां मौसम अच्छा था। धूप भी खिली थी। लगता है सूरज भाई का खास इंतजाम था।
उतरकर इमिग्रेशन पर आए। लम्बी लाइन थी। लेकिन तसल्ली थी कि अब कोई जहाज छूटना नहीं। एक लाइन अमेरिकन नागरिकों की थी। दूसरी वीसा वाली। अमेरिकन लोग बाहर हो गए तो हमको भी उसी लाइन में बुला लिया गया। काउंटर पर आधिकारी ने पूछा -'किसके पास जाना, कितने दिन रुकना, कोई खाने-पीने का सामान तो नहीं लाये।' सबके जबाब लेकर बाहर कर दिया।
बाहर अपना सामान जमा किया। सूटकेस इधर-उधर रखे मिले। ट्राली लेने गए तो देखा वहां आठ डॉलर की फीस। भारत से सीधे आये थे, ताजा-ताजा लिहाजा डॉलर और रुपये का काउंटर फौरन चालू हो गया। हमने सोचा कि पास ही है गेट, पहिये लगे हैं सूटकेस में, काहे को ट्राली में साढ़े छह सात सौ फूंकना।
हम एक बार में दो सूटकेस गेट तक लाकर रख दिये। बाकी के लेने के लिए पलटे तो वहां मौजूद सुरक्षा कर्मी ने टोंक दिया, आप वापस नहीं जा सकते। हिन्दुस्तान होता तो कहे होते -'काहे नहीं जा सकते भाई।' लेकिन यहां मामला अलग था।
हमने बताया कि हमारा सामान उधर है। वो बोला -'हमारे इंचार्ज से बात करिये।' हम बोले -'आप ही समझो हमारी बात।'
साथ की महिला बोली -'हम समझ गए लेकिन आप हमारी मजबूरी समझो। हम नियम के आगे मजबूर हैं।'
अब मुकाबला मजबूरी में होने लगा। आखिर में हमारी मजबूरी भारी पड़ी जब हमने कहा कि अंदर हमारी श्रीमती जी सामान के पास खड़ी हैं। उसने कहा उनको बुला लो सामान के साथ। फोन करो। हमने कहा -'उनका फोन एक्टिवेट ही नहीं है फोन कैसे करें?'
आखिर में वो सुरक्षा कर्मचारी हमारे साथ गया और हम सामान सहित आगे आये और बाहर हुए।
बाहर लोगों की भीड़ थी। गाड़ियां अफरा-तफरी में लगी थीं। मेरा बेटा भी आ गया लेने दोस्त के साथ। सामान गाड़ी में रखा। घर आ गए।
घर आकर खबरों में देखा कि पूरे अमेरिका में बर्फीला तूफान आया है। करीब 50 लोग नहीं रहे । कई जगह बिजली गायब, कहीं पानी की पाइप लाइन फट गईं। छह-छह फुट तक बर्फ जमी है। देखकर लगा कि इंसान की सारी कलाबाजी प्रकृति की कलाकारी के सामने बौनी साबित होती हैं।
शुक्र यह कि कैलिफोर्निया में तूफ़ान का असर नहीं । यहां मौसम सामान्य है।
ऐसे विकट मौसम ने स्वागत किया यहां। लगता है मौसम भी भन्नाया हुआ था कि तीन साल पहले आये थे। फिर आ गए मुंह उठाके।
यह हमारी दूसरी अमेरिका यात्रा थी। कुल मिलाकर तीसरी विदेश यात्रा।

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दिल्ली एयरपोर्ट - विदेश यात्रा के लफड़े



अमेरिका के लिए दिल्ली एयरपोर्ट से जहाज पकड़ा। फ्लाइट 25 दिसम्बर की सुबह 0340 पर थी। पहले शताब्दी में रिजर्वेशन करवाया था। सोचा था कि शाम को चलकर रात साढ़े दस तक दिल्ली फिर वहां से एयरपोर्ट पहुंचकर फ्लाइट पकड़ लेंगे।
लेकिन आने के पहले के दिनों में ट्रेने बहुत बेतरतीब तरीके से चलने लगीं। कोई दस घण्टे लेट, कोई दो घण्टे। बहक गई हों जैसे जाड़े में। कोई भरोसा नहीं कब आ जाएं, कब ठहर जाएं। दिल्ली कानपुर साढ़े आठ बजे शाम आती है। वह एक दिन सुबह चार बजे आई। हमने ट्रेन पर भरोसा छोड़ा और दिल्ली के लिए गाड़ी ली।
गाड़ी से दिल्ली के निकले दोपहर डेढ़ बजे। गूगल मैप की कृपा से भटकते, चलते रात दस बजे पहुंच गए दिल्ली एयरपोर्ट।
विद्वानों में इस बात पर मतभेद था कि इतनी जल्दी एयरपोर्ट में घुसने देंगे कि नहीं। कुछ का कहना था तीन घण्टे पहले नहीं आने देते। लेकिन हम घुस ही गए टिकट दिखाकर। पता चला कि बोर्डिंग पास नहीं बनता तीन घण्टे से पहले। अंदर आने में कोई मनाही नहीं।
अब समय इफरात था। उसको खर्च करने के लिहाज से इधर-उधर टहले। खरामा-खरामा चलते हुए पता किया कि कतर एयरलाइंस का बोर्डिंग पास किधर बनता है। पता चला अमेरिकन एयरलाइन का सबसे आख़िरी में काउंटर हूं उसी पर बनेगा बोर्डिंग पास। साढ़े ग्यारह बजे से।
लौटकर वापस आये। फिर सोचा कुछ डॉलर नकद और खरीद लिए जाएं। काउंटर पर नाम बताया तो उसने जानकारी दी -'4 नवम्बर, 2019 को आपने खरीदे थे डॉलर।'
हमने पूछा -'कितने।' उसने बता दिए देखकर। जबकि हमने लिए किसी और काउंटर से थे। मतलब विदेशी मुद्रा के एक-एक रुपये के हिसाब किताब पर नजर रखी जाती है।
काउंटर पर कुछ बच्चे सिंगापुर की मुद्रा खरीद रहे थे। कुछ पैसे कम पड़े तो दूसरे से लाये। हमने भी अपना फार्म भरा। जब तक मिलें डॉलर तब तक एक महिला और आ गयी। उसको कुछ विदेशी मुद्रा चाहिए थी। पैन कार्ड मांगा गया तो निकाल के दे दिया उसने। अपने पति के पास जा रही थी वो। काउंटर वाले ने पति का वीसा मांगा। उसके पास था नहीं। पता नहीं होगा शायद कि यह भी लगेगा।
इधर-उधर खोजने पर नहीं मिला तो उसने घर से भेजने को फोन किया। काउंटर वाले ने मजे लेते हुए कहा- 'सब कुछ लेकर चलेंगे लेकिन कागज घर पर रख के आएंगे।'
इस बीच हमें डॉलर मिल गए। हम लोग अपनी एयरलाइंस के काउंटर के पास पहुंच गए। अभी भी घण्टा भर बाकी था काउंटर खुलने में। सोचा गया कुछ खा लिया जाए।
कुछ खाने निकले तो पता चला सामानों की कीमतों के एयरपोर्टिकरण हो चुका था। चाय 125 रुपये में और ब्रेड को दो पीस 120 पर पहुंच गए थे।
चाय पीकर वापस आये तो काउंटर के लिये लाइन लग गयी थी। हम बीच में लग लिए। किसी ने टोंका नहीं क्योंकि समय इफरात था और लाइन ढीली। कोई सबूत नहीं कि हम गलत लगे थे।
इस बीच एक बुजुर्ग महिला को व्हीलचेयर पर बैठा कर अटेंडेंट ले जा रहा था। महिला को बहुत तकलीफ थी। बैठने में समस्या से उपजा दर्द उनकी आंख में झलक रहा था। बगल में होने के कारण हमने भी सहयोग करके उनको बैठा दिया। बैठने के बाद उनकी आंखों में जो धन्यवाद का भाव दिखा उसका अनुवाद असंभव है। कितना भी भाषा-समर्थ हो जाये इंसान लेकिन कई मनोभाव अनुवादित हुए बिना ही रह जाते हैं।
कुछ देर में काउंटर पर पहुंचे। टिकट बन गए। सामान जमा होने लगा। छह बैग में तीन का वजन कम था। तीन का थोड़ा ज्यादा। बुकिंग बालिका बोली -'ये ज्यादा है इसका अतिरिक्त पैसा लगेगा।' अतिरिक्त मतलब 75 डालर प्लस टैक्स। 75 डालर मतलब लगभग 6300 रुपये।
हमने बहुत कहा कि कुल मिलाकर तो वजन कम ही है। फिर काहे का पैसा। लेकिन वह मानी नहीं। बोली सामान एडजस्ट कर लें। हम लोग सारे बैग लेकर बाहर आये और आधे घण्टे से भी ज्यादा मशक्कत में इधर का सामान उधर करते करते रहे। तरतीब से लगाया सामान बेरहमी से बेतरतीब किया। जाड़े में पसीना आ गया। पसीने में मेहनत और देरी के कारण फ्लाइट छूटने का डर भी शामिल हो गया था।
सामान सजाकर जब दुबारा पहुंचे काउंटर पर तो भी कुछ ग्राम इधर-उधर था। लेकिन इस बार उसने टिकट दे दिया।
इस बीच एक सरदार जी का सामान भी कुछ ज्यादा निकला।एक्स्ट्रा चार्ज मांगने पर वो बमक गए कि आते समय नहीं लिया, जाते समय भी वही वजन है। काउंटर बालिका नियम की आड़ में छिप गई और पैसे धरा लिए। सरदार जी ने बाद में वसूल लेने की धमकी देते हुये पैसे भरे।
एक महिला टिकट के लिए लाइन में खड़ी थी। उसका वीसा देखकर एयरलाइन वाले ने बताया कि उसका टूरिस्ट वीजा तीन महीने का था। खत्म हो गया। जाने के पहले उसको वीसा बढ़वाना होगा। साइप्रस जाना था उसको। महिला की बच्चा हल्ला मचा रहा था। महिला ने पूछा -'क्या करें? कैसे होगा।'
एयरलाइन वाले ने अपनी मजबूरी जाहिर की। बोला -'आपको वीजा बढ़वाना होगा। दूतावास से।' महिला फोन पर इधर-उधर न जाने किधर-किधर बात करती रही।
विदेश यात्रा में न जाने कितने लफड़े हैं। न जाने कितने पचड़े हैं।
बहरहाल हमको टिकट मिल गया था। टिकट मिलते के बाद इमिग्रेशन काउंटर पर पहुंचे। वहां भयंकर भीड़ थी। लाइन एकदम चींटी की रफ्तार से चल रही थी। हर कोई परेशान। देखा देखी हमको भी होना पड़ा यह सोचकर कि फ्लाइट छूटी तो क्या करेगे।
लाइन के हाल एकदम ट्रैफिक की तरह थे। जिसकी मर्जी होती वो अतिक्रमण कर जाता। हमने भी किया एकाध बार। आखिर में इमिग्रेशन से निकले तब तक एक घण्टा बचा था। अब लाइन सुरक्षा जांच के लिए थी। जिस गति से आगे बढ़ रहे थे वहां उससे लग रहा था कि गयी फ्लाइट। लेकिन अंततः सिक्योरिटी चेकिंग के बाद बोर्डिंग के लिए पहुंचे तब तक 10 मिनट बाकी थे।
हमने सारी साँसों को स्थगित करके स्पेशल सांस ली जिसे लोग 'सुकून की सांस' कहते हैं। ऐसा लगा कि हमने छूटी हई फ्लाइट दौड़ कर पकड़ी है।
बोर्डिंग के बाद फ्लाइट घण्टे भर बाद चली दोहा के लिए। पहले बता दिया होता तो इतना हड़बड़ काहे को करते। लेकिन एयरलाइन वाले तो अपनी मर्जी से काम करते हैं।
कतर एयरलाइन का जहाज था। कतर में अभी फुटबाल का विश्वकप हुआ था। हर तरफ विश्वकप की छाप थी। हर सामान पर फीफा 2022 का विज्ञापन। टीवी पर विश्वकप की झलकियां।
दिल्ली से एक घण्टा देरी से उड़े थे। दोहा एक घण्टा देर पहुंचे। अगली उड़ान कहीं छूट न जाये यह धुक़ुर-पुकुर मचनी शुरू हो गयी थी।

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Monday, December 19, 2022

नेपाल की सेल रोटी मतलब चावल की जलेबी



कहीं बाहर जाने पर सबसे बड़ी चुनौती खाने की होती है। 3 साल पहले जब अमेरिका गए थे तो न्यूयार्क की सड़कों पर घण्टों शाकाहारी खाने के लिए भटकते रहे थे। जब एक पंजाबी ढाबा मिला था तो जो सुकून मिला था उसका बयान मुश्किल है। महसूस ही किया जा सकता है उसे।
नेपाल में खाने की तो कोई समस्या नहीं हुई। शाकाहारी खाना आराम से होटल में और बाहर भी मिला। इसी क्रम में कुछ नए अनुभव भी हुए।
पहुंचने के अगले दिन शुरू हुई मीटिंग देर तक चली। मीटिंग के बाद बाजार में खाने का जुगाड़ देखा गया। कई होटल देखे इधर-उधर। सभी दोपहर के बाद आराम मुद्रा में थे। ऐसा कोई जुगाड़ नहीं दिखा जहां तसल्ली से बैठलर लंच किया जा सके।
भोजन की तलाश में भटकते हुए कई ढाबे दिखे। एक जगह जलेबी जैसी कोई चीज बनती देखी। पता चला यह सेल रोटी है। नेपाल का खास व्यंजन।
पहली बार नाम सुना था सेल रोटी। घुस गए दुकान में। छुटकी सी दुकान। बाहर समोसा, पकौड़ी जैसी चीजों के साथ सेलरोटी बन रही थी। चाय तो सदाबहार पेय पदार्थ है भारत की तरह नेपाल में भी।
सेल रोटी बनने की विधि देखी। चावल के आटे को में शक्कर या कोई और मीठा मिलाकर एक कुप्पी नुमा बर्तन में डालकर जलेबी की तरह कड़ाही में तलते हैं। पकौड़ी की तरह तलकर खाने के लिए तैयार हो जाती है रोटी। जलेबी से इस मायने में अलग होती है कि जलेबी को तलने के बाद उसको मीठा करने के लिए चासनी में डाला जाता है। जबकि सेल रोटी में मीठा उसके आटे में ही मिला होता है। कहीं-कहीं मसाला भी मिलाते हैं।
सेलरोटी के बारे में पढ़ते हुए जानकारी मिली कि सेल रोटी बनने की शुरुआत 800 साल पहले हुई नेपाल में। पहले इसमें मीठा नही और मसाला नहीं मिलाते थे। बाद में इसके स्वरूप में बदलाव आता गया और आज के रूप में पहुंची इसको बनाने की विधि।
सेल रोटी का नाम नेपाल में पैदा होने वाले चावल के प्रकार सेल से जुड़ा है। अपने यहां भी चावल का एक नाम सेल्हा चावल सुनते हैं। एक और जानकारी के अनुसार नेपाल में नए साल के मौके पर बनाये जाने के कारण इसका नाम साल से होते हुए सेल हो गया। अब तो यह साल भर बनती है और दुकानों में समोसे, पकौड़ी की तरह सर्वसुलभ है।
दो-दो सेलरोटी खाने के बाद चाय पी गईं। इतने में ही तृप्त हो गए। लंच हो गया।

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Sunday, December 18, 2022

मेरा बच्चा बहुत प्यारा है



बोधा स्तूप के बाहर तमाम कबूतरों का जमावड़ा था। एक कोने में सैकड़ों कबूतर जमा था। पास ही अनेक लोग कबूतरों के लिए दाने लिए बैठे थे। लोग उनसे लेकर दाना कबूतरों को डाल रहे थे।।कबूतर दाने खाते हुए, इठलाते हुए, टहलते हुए अचानक एकाध मिनट की उड़ान भरकर फिर वापस कबूतरों के बीच आ जाते।
कबूतरों के लिए इस तरह का इंतजाम कई जगह देखा है। पिछले साल जयपुर यात्रा में सड़क के डिवाइडर पर कई जगह देखा। लोग दाना बेंचने के लिए बैठे रहते हैं। आते-जाते लोग दाना खरीदकर उनको डालते है। शायद कबूतर भी उन दाना बेंचने वालों के होते हों। कानपुर में फूलबाग के सामने एक कोने में भी तमाम कबूतर इकट्ठा होते हैं। लेकिन यहां दाना बेचने वाला कोई नहीं बैठता। लोग अपने साथ दाना लाते हैं, कबूतरों को खिलाते हैं। कबूतरों की उड़ान एयरशो की तरह लगती है।
कबूतरों को उड़ते देखकर समीक्षा तैलंग Samiksha Telang की किताब का शीर्षक याद आया -कबूतर का कैटवॉक।
कबूतरों का जमावड़ा देखकर लगा कि जहां खाने-पीने का इंतजाम होता है , जीव वहीं जमा होते हैं। रोजी-रोटी के लिए ही लोग आज शहरों की तरफ भाग रहे हैं। शहर उजड़ रहे हैं।
आगे की एक दुकान पर बीसीसी लिखा था -बुद्धा कैसेट सेंटर (Buddha Cassette center)। दुकान अभी खुली नहीं थी।
आगे एक नुक्कड़ पर एक बच्ची जैसी दिखती महिला चाय बेंच रही थी। उसकी पीठ पर बच्चा था। बच्चे को पीठ पर सहेजे महिला लोगों को चाय बेंच रही थी। लोग उसके पास खड़े होकर या पास के चबूतरे पर बैठकर चाय पी रहे थे। हमने उससे बात करके की मंशा से चाय ली और चाय पीते हुए बात करते रहे। वह भी चाय बेंचते हुए, चाय पीते हुए बतियाती रही। रेशमा तमांग नाम था उसका।
रेशमा ने बताया कि दस किलोमीटर दूर घर है उसका। सुबह तीन बजे उठकर चाय बनाती है। घण्टे भर की दूरी तय करके चाय बेंचने आती है। चाय बेंचकर वापस जाती है। पति कमाई करने के लिए सऊदी अरब गया है। अपना खर्च चलाने के लिहाज से चाय बेचने का काम शुरू किया है। यह बात उसने विदेश गए अपने पति को नहीं बताई है यह सोचकर कि -'वह परेशान होगा।'
कुछ ही दिन पहले चाय बेंचना शुरू किया है रेशमा ने। पहले कुछ लोगों ने आपत्ति की लेकिन अब सब ठीक है। चार लीटर करीब चाय लाती है चाय। बिक जाने पर वापस चली जाती है। अपनी कमाई के एहसास से रेशमा बहुत खुश है। थोड़ा खर्च जुट जाता है।
चाय बेंचना कैसा लगता है पूछने पर रेशमा ने बताया -'बहुत अच्छा लगता है। बहुत खुश लग रहा है। चाय का बिक्री हो रहा है।'
बच्चा सहयोग करता है इस काम में पूछने पर रेशमा ने बताया -'बहुत सपोर्ट करता है। बहुत प्यारा बच्चा है मेरा। बिल्कुल परेशान नहीं करता। '
बात करते-करते रेशमा आसपास के लोगों को चाय भी देती जा रही थी। हम चाय पी चुके इस बीच रेशमा दूर किसी को चाय देने चली गयी। लौटकर आयी तब हमने उसको पैसे दिए। चाय पीकर अगला कहीं फूट न ले यह भाव कहीं नहीं दिखा उसके व्यवहार में। सहज विश्वास का भाव उसके चेहरे पर था।
अभाव में जीने के बावजूद उसके चेहरे पर या बातचीत में दैन्य भाव नहीं था। विनम्रता के साथ सहज रुप से बात करते हुए अपनी कठिनाई का जिक्र भले किया लेकिन हाय-हाय वाले भाव मे नहीं। यह भी कहा कि यह काम करते हुए बहुत अच्छा लग रहा है।
रेशमा के पास से चाय पीकर और अगले दिन फिर आने का वादा करके हम आगे बढ़े। उससे विदा लेने के पहले उसके फोटो और वीडियो उसको दिखाया। वह खुश हुई। बोली हमको भी भेज दीजिए। हमने पूछा कैसे भेजेंगे? उसने मेरे मोबाइल पर अपना फेसबुक खाता खोलकर दिखाया। बाद में मैंने देखा कि उसके फेसबुक में उसके बेटे के कई फोटो हैं। एक फोटो में वह बच्चे के साथ घुड़सवारी करते हुए विक्ट्री का निशान बनाये हुए है।
आगे एक जगह कुछ फूलों की दुकानें थीं। लोग फूल खरीद रहे थे। वहीं पास ही तमाम लोग बैठे थे। लोग उनको चाय पिला रहे थे। और भी सामान और कुछ लोग पैसे भी दे रहे थे।
मंदिर की परिक्रमा करते हुए लोग मंदिर की चाहरदीवारी पर लगे पूजा चक्र घुमाते जा रहे थे। कुछ लोग लेटकर भी परिक्रमा कर रहे थे। वे जमीन पर पेट के बल लेट जाते। अपनी लंबाई भर की जमीन नाप कर आगे बढ़ते और जहां उनका सर रहा होगा पहले वहां पैर रखकर फिर शाष्टांग हो जाते। हाथ में खड़ाऊ जैसी लकड़ी बांधे थे। उसी लकड़ी को जमीन पर रखकर वे परिक्रमा कर रहे थे। महिला और पुरुष दोनों ही इस तरह परिक्रमा करते दिखे। लोग उनको बचाकर , उनके बगल से निकलकर तेजी से परिक्रमा करते जाते।
आगे एक बेंच पर एक ब्रिटेन वासी बैठे मिले। बातचीत होने लगी तो बताया उन्होंने कि दस साल से यहां आते-जाते, रुकते-ठहरते रहते हैं। दुनिया में बढ़ती यांत्रिकता और मिलन-जुलन में आई कमी से नाराज से थे। यहां काठमांडू में लोगों का व्यवहार उनको अच्छा लगता है। ब्रिटेन कभी-कभी जाते हैं, दोस्तों से मेल-मुलाकात करने।
बातचीत करते हुए हमको चाय पिलाई उन्होंने। हमने पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने जिद करके खुद पैसे देने के लिए हजार का नोट निकाला। चाय वाले के पास फुटकर नहीं थे। बोले,-'ले आओ।' लेकिन कहीं मिलने का जुगाड़ नहीं दिखा। मैनें पैसे दे दिए। बोले -'कल हम पिलायेंगे तुमको चाय।'
घर से दूर दो मिनट की मुलाकात के बाद कोई चाय पिलाने, पैसा देने की जिद करे, न दे पाने पर अगले दिन पिलाने का वायदा करे यह कितना खुशनुमा एहसास है।
बातचीत करते हुए एक महिला को देखकर -' हेलो, हाउ आर यू कहकर वह उनसे बतियाने लगे।' हैट लगाये वह महिला मुझे परिक्रमा करते हुये दिखी थी। फिनलैंड, हेलसिंकी से आई थी। कुछ देर बात करने के बाद वह चली गयी। हम भी विदा लेकर चल दिये।
चलने के पहले हमने उनका फोटो दिखाया। उन्होंने मेल करने को कहा। मेल खाता लेकर फोटो भेजा वहीं खड़े-खड़े। डिकी नाम है उनका।
लिखते समय याद आया कि जीवन में बढ़ती यांत्रिकता की।लानत-मलानत करते हुए डिकी ने मेरे मोबाइल की तरह इशारा करते हुए ( यांत्रिकता के प्रतीक के रूप में) - 'दिस स्टुपिड मशीन।' डिकी की बात सुनकर हमने अपने मोबाइल को छिपाने की कोशिश की लेकिन तब तक वह सुन तो चुका ही था। मोबाइल समझदार था। उसने अपने को बेवकूफी के प्रतीक के रूप में इशारा किये जाने का बुरा नहीं माना। मोबाइल की जगह कोई प्रभावशाली आइटम होता तो उसकी बेइज्जती का मुद्दा उठाते हुए उसके समर्थक धरना, प्रदर्शन, हल्ला, गुल्ला शुरू कर दिए होते।
लौटते में स्तूप के अंदर गए। लोग पूजा कर रहे थे। दीप जला रहे थे। पूजा चक्र को घुमा रहे थे। पास ही ढेर सारा चूना जमा था। चूना भी पूजा के काम आता है।
स्तूप से बाहर निकलकर हम जिस रास्ते गये थे उसी रास्ते वापस आ गए। दुकानें खुलने लगीं थीं। गली गुलजार हो गयी थी। एक जगह ड्राइवर लोग अपनी कारें साफ करते दिखे। टूरिस्टों के लिए तैयार हो रहीं थी गाड़ियां।
होटल के पिछले दरवाजे को पीटकर खुलवाया। दरबान आया तो देखा कि वहीं पर घण्टी भी लगी है। अनजाने ही हमने हल्ला मचाया। दरबान ने भी हमको हमारी बेवकूफी का एहसास कराते हुए घण्टी के बारे में बताया। वो कहो होटल का दिहाड़ी का दरबान था। कोई स्थायी चौकीदार होता तो शायद कहता-' घण्टी दिखती नहीं तुमको, हल्ला मचाये हुए हो।'
होटल वापस लौटकर काम के लिये निकलने के लिए तैयार होने लगे।

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Saturday, December 17, 2022

बोधा स्तूप मिथक और ऐतिहासिक धरोहर



पिछली पोस्ट में होटल के पास के स्तूप को देखने का किस्सा लिखा था। Chandra Bhushan जी ने पूछा -' यह कौन सा स्तूप है? देखने से बोधा स्तूप लग रहा है। '
हमने होटल के पास के स्तूप खोजकर देखे और बताया कि यह बोधा स्तूप है।
इसके बाद और जानकारी ली नेट से तो पता चला कि जिस स्तूप को हम ऐसे ही चलताऊ तरीक़े से देखकर लौट वह कितना खास है। युनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल यह स्तूप लिच्छवी राजवंश के समय बना था। मिथक के अनुसार उस राजा विक्रमादित्य ने अपने महल के अहाते पानी के जलस्रोत बनवाया। उसमें पानी नहीं आया तो राजा ने पानी लाने का उपाय पूछा। ज्योतिषियों ने बताया कि 32 गुणों से सम्पन्न किसी इंसान की बलि देने पर पानी आएगा। 32 गुण वाले लोगों में राजा स्वयं एवं उनके दो पुत्र थे। राजा के आदेश पर उनके पुत्र ने उनकी बलि दी। बलि देते समय राजा का सिर कट कर पास स्थित वज्रयोगिनी मंदिर पर जाकर गिरा। राजा के पुत्र ने जिस स्थान पर उनके पिता का सिर गिरा था , स्तूप बनवाने का निश्चय किया।
स्तूप बनवाने के पहले राजपुत्र ने बलि देने का निश्चय किया। बताते हैं कि बलि के लिए मुर्गी स्वयं उस जगह तक गयी जहां आज बोधा स्तूप बना है।
उस समय तक लोग ओस की बूंदों के सहारे सूखे का मुकाबला कर रहे थे इसलिए इस जगह का नाम नेपाली भाषा के अनुसार खस्ती (खस माने ओस, ती माने बूंद) था। बाद में नेपाल के राजा की आज्ञा के अनुसार इस इस जगह का नाम खस्ती से बदलकर बोधनाथ रख दिया।
तिब्बती मिथक के अनुसार एक बुजुर्ग महिला ने कश्यप बुद्ध के निधन के बाद तत्कालीन राजा से एक भैंस की खाल के बराबर जमीन स्तूप बनाने के लिए मांगी। अनुमति मिलने के बाद उसने भैंस की खाल को पतली डोरियों के आकार में काटकर बहुत बड़े हिस्से को घेरकर अपने चार पुत्रों के साथ स्तूप बनाना शुरू कर दिया। जब उस समय के धनी और प्रभावशाली लोगों ने बुजुर्ग महिला को अपनी मेहनत और समझदारी से बड़ी जमीन पर स्तूप बनवाते हुए देखा तो उन्होंने राजा से अपनी आज्ञा निरस्त करने का अनुरोध किया। राजा ने कहा मैं अपने शब्द वापस नहीं ले सकता (नेपाली में खा-शोर) वहीं से इसका नाम (खस्ती) पड़ा।
बाद में जब तिब्बती लोग सन 1950 में नेपाल आये तो तमाम लोगों ने बोधा स्तूप के आसपास रहने का निश्चय किया। 1979 में बोधा स्तूप को विश्व धरोहर में शामिल किया गया।
उपरोक्त दोनों ही मिथकों में तत्कालीन राजाओं की प्रजावत्सलता और अपने दिए वचन पर कायम रहने की नजीर मिलती है। आज के जनप्रतिनिधियों की तरह पलटू नहीं थे वे लोग।
2015 में नेपाल में आये भूकंप में स्तूप क्षतिग्रस्त हो गया था। बाद में उसकी मरम्मत कराई गई।
जिस ऐतिहासिक धरोहर को हम ऐसे ही देखकर लौट आये उसके बारे में जानकारी चंद्रभूषण जी की टिप्पणी के बाद हुई। अगर वो सवाल न पूछते तो हम बोधा स्तूप के बारे में अनजान रह जाते।
चंद्रभूषण जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आधी गणित की पढ़ाई किये हैं। उनके स्वयं के अनुसार 'एक पत्रकार और एक अधूरे कवि' हैं। वे बेहतरीन लेखक हैं। गणित की पढ़ाई आधी छोड़ देने वाले चंद्रभूषण जी की पोस्टों में विज्ञान से जुड़ी नई से नई जानकारी मिलती हैं। समसामयिक राजनीति पर चुटीली टिप्पणियां करते हैं। पिछले साल उनकी तिब्बत पर केंद्रित किताब 'तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत' तिब्बत और तिब्बती समस्या को समझने का बेहतरीन जरिया है। किताब खरीदने का लिंक साथ के फोटो में दिया है।

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Friday, December 16, 2022

नेपाल की खुशनुमा सुबह



होटल के जिस कमरे में ठहरे थे उसकी खिड़की से बौद्ध स्तूप दिखता है। बुकिंग के समय ही एक विकल्प के रूप में मौजूद है -स्तूप की तरफ का कमरा। हालांकि पहले कभी आये नहीं थे लेकिन बताया दोस्तों ने तो वही बुक कराया था।
सुबह नींद जल्दी ही खुल गयी। सफर में अकसर ऐसा होता। जितनी भी देर से सोएं, जग जल्दी ही जाते हैं। उठकर खिड़की के पास आये। सामने स्तूप दिख रहा था। अच्छी तरह से देखने के लिए खिड़की खोलकर देखने के लिहाज से खोली तो कड़-कड़ की आवाज हुई। झांककर देखा तो खिड़की में कांच की फोल्डिंग कीलें सरीखी लगी थीं। खिड़की खोलते ही खुल गईं कीलें। 4-5 इंच लम्बी होंगी कीलें। खासतौर पर बनवाई गईं होंगी।
खिड़की पर इन कांच की कीलों का कारण बाद में समझ आया। शायद कबूतरों को खिड़कियों पर बैठने से रोकने के लिए यह इंतजाम किया गया हो। कबूतर खिड़की पर बैठकर अपने परिवार सहित गुटरगूं करते हुए बीट करके होटल गन्दा न कर पाएं इसलिए कांच की कीलों की बैरिकेटिंग टाइप की गई होगी।
सामने दिखते स्तूप पर कोई पहरेदारी नहीं थी। उसके ऊपर तमाम कबूतर दीगर पंक्षियों के साथ मस्ती और मजे से उड़ते हुए शायद होटल को चिढ़ा रहे थे कि देख बेट्टा यहां और खुली जगह है हमारे लिए। एक तुम्ही नहीं हो बैठने के आसरा हमारा।
कमरे में केतली पर पानी गरम करके चाय बनाई। पीकर चल दिए स्तूप देखने। पांचवीं मंजिल पर कमरा था। लिफ्ट से उतरे। उतरकर डाइनिंग हाल होते हुए बाहर आये। स्विमिंग पूल के बगल से गुजरते हुए पगडंडी नुमा रास्ते से होते हुए होटल के पिछवाड़े पहुंचे। वहां गेट पर दरबान था। उससे स्तूप का रास्ता पूछा और निकल लिए बाहर।
गेट के बाहर सड़क पर आते ही चहलपहल भरा जनजीवन दिखने लगा। लोग सड़क पर तेजी से, तसल्ली और हड़बड़ाते हुए आते जाते दिखे। घरों के सामने बैठे, खड़े लोग दिखे। एकाध गाय दिखी। बच्चे स्कूल जाते दिखे। स्कूल जाते बच्चे अकेले भी दिखे और साथ में भी। समूह में भी। इतनी सुबह स्कूल जाते बच्चे देखकर अच्छा लगा और हल्का ताज्जुब भी हुआ कि यहाँ स्कूल इतनी सुबह शुरू हो जाता है।
ज्यादातर बच्चे स्कूल यूनिफार्म में थे। खूबसूरत, प्यारे, चहकते, चमकते बच्चे। बतियाते, गपियाते। एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखे जाते। कुछ बच्चे साइकिल और मोटरसाइकिल पर भी जा रहे थे लेकिन ज्यादातर पैदल ही थे। किसी भी देश, समाज में स्कूल जाते बच्चे देखना सबसे अच्छे अनुभवों में से एक होता है।
गली में दुकानें ज्यादातर बन्द थीं। एकाध जनरल स्टोर उनींदे से आँख मूँदते हुए खुल रहे थे। कोई-कोई चाय की दुकान भी चहकती दिखी।
स्तूप की गली के मुहाने पर ही सब्जियों के ठेले लगे थे। जमीन पर भी दुकाने लगीं थीं। सबसे पहली ठेलिया पर एक महिला आलू और दीगर सब्जियां ठेलिया पर सजा रही थी। पीठ पर बच्चे लादे हुयी थी। पीठ पर बच्चा लादने का जुगाड़ शायद इंसान ने कंगारू से सीखा होगा। कंगारू सामने रखता है बच्चा। इंसान पीठ पर।
आगे गली में तमाम लोग बंद दुकानों के चबूतरे पर बैठे बौद्ध धर्म से संबंधित सामग्री बेचते दिखे। एक बौद्ध बीच सड़क पर बने खंभे के पास बैठा एक चपटा डमरू की तरह का बाजा बजाते हुए सामने रखी किताब से कुछ बाँचता जा रहा था। मंत्रोच्चार की तरह। बुद्ध धर्म की कोई सीख रही होगी। वह अपने काम में इतना तल्लीन था कि उसको डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं हुई।
वह इंसान न जाने कितने समय ऐसा कर रहा होगा। उसकी जिंदगी में न जाने कितने उतार-चढ़ाव आए होंगे। कैसे उसने इस तरह पूजा करना और यह जिंदगी चुनी होगी इस सबके बारे में मुझे कुछ अंदाज नहीं। लेकिन अपने आप में उसकी जिंदगी एक महाआख्यान रही होगी। हरेक का जीवन अपने में एक अनलिखा महाआख्यान होता है।
आगे बढ़ने पर देखा कि कई जगह छोटे-छोटे दीपक बड़ी सी चौकोर ट्रे में रखे हुए हैं। किसी में कुछ कम किसी में कुछ ज्यादा। शायद स्तूप में पूजा के लिए इन दीपकों को ले जाते हैं। आगे मंदिर के सामने तो पूरी-पूरी ट्रे इन दीपकों से भरी दिखी। बहुत खूबसूरत था इन दीपकों को देखना।
स्तूप के सामने पहुँचने पर देखा कि सैकड़ों लोग स्तूप की परिक्रमा कर रहे थे। परिक्रमा करते हुए स्तूप की चहारदीवारी में लगे चक्र को घुमाते जा रहे थे। जगह -जगह हवन सामग्री से हवन हो रहा था। स्तूप के ऊपर पक्षी मजे उसे उड़ते हुए आनंदित हो रहे थे।
वहीं स्तूप के सामने बने मंदिर सी सीढ़ियों पर तमाम लोग बैठे चाय पी रहे थे। हमने भी एक चाय ली। महिला एक बड़े कंटेनर में चाय लिए सबको चाय पिला रही थी। 20 रुपए की एक चाय। चाय पीकर हमने महिला की फ़ोटो लेने के लिए पूछा। वह कुछ कहे तब तक साथ के आदमी ने बरज दिया -'नहीं, फ़ोटो नहीं लेना का।'
हम अपना मोबाइल नीचे करते तब तक चाय वाली महिला ने साथ के पुरुष की बात काटते हुए ह कहा -'ले लो फ़ोटो।' आदमी बेचारा चुप दूसरी तरफ देखने लगा। महिला सामने देख रही थी। हमने उसकी फ़ोटो ली। उसको दिखाई। उसने मुस्कराते हुए कहा -'बढ़िया है।'
हम भी खुश होकर आगे बढ़ गए। यह नेपाल की एक खुशनुमा सुबह की शुरुआत थी।

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Wednesday, December 14, 2022

काठमांडू में कैसिनो



‘यात्राओं में बेवकूफियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं। ‘
होटल लौटते हुए बहुत पहले की यह बात फिर याद आई। लेकिन इस बार यह घटना यात्रा शुरू करने के पहले ही घट गई।
हुआ यह कि चलने के पहले होटल बुकिंग कराई तो जो पासपोर्ट में लिखा था वह लिखा -अनूप कुमार शुक्ला। आगे सरनेम का खाना था। हमने लिख दिया -शुक्ला। बुकिंग के लिए भुगतान कर दिया। बुकिंग हो गयी। नाम लिखा था -'अनूप कुमार शुक्ला शुक्ला।'
बुकिंग की तसल्ली का लुत्फ अभी पूरी तरह ले भी नहीं पाए थे कि शंका हुई कि यार यह नाम तो पासपोर्ट से अलग है। एक शुक्ला ज्यादा हो गया। बुकिंग कराने वाली साइट में लिखा था -नाम पासपोर्ट से वेरिफाई होगा। यह बात देखते ही शंका गहरी हुई कि कहीं होटल वाला घुसने न दे कि बुकिंग 'अनूप कुमार शुक्ला शुक्ला' की है और आप ‘अनूप कुमार शुक्ला’हैं। हम एक अतिरिक्त शुक्ला से मुक्त होने को बेताब होने लगे। नाम का जो अंश हमारी पहचान है वही ज़्यादा होने पर बवाल लगने लगा।
बुकिंग एजेंसी को फोन किया तो उसने बताया कि होटल वाला मान भी सकता है, मना भी कर सकता है वैसे परेशानी होनी नहीं चाहिए।
हमारे पास और कोई काम था नहीं इसलिए शंका और चिंता ही करने लगे। खाली समय चिंता की खाद-पानी होता है। हम कल्पना करने लगे कि नेपाल पहुंचे और होटल वाले ने कमरा देने से इनकार कर दिया।
साइट वाले से समस्या बताई तो उसने कहा नाम में सुधार होने में 24 से 48 घण्टे लग सकते हैं। वो लोग कर भी सकते हैं , मना भी कर सकते हैं। अजब ढुलमुल विनम्रता।
हमने सोचा कि बुकिंग कैंसल करके दुबारा करा लें। रात बारह बजे तक मुफ्त कैन्सलिंग की सुविधा थी। पता किया तो उसने बताया कि बुकिंग निरस्त करने पर पैसे हफ्ते भर में वापस आएंगे। हमने कहा कि आप नाम ठीक करवाओ, शाम तक हो गया तो ठीक नहीं तो बुकिंग कैंसल कर देंगे।
बहरहाल, दो घण्टे बाद एजेंसी के लोगों ने मेहनत करके नाम ठीक करवाया। इसके बाद कई लोगों ने पूछा -'आप हमारी सेवाओं से संतुष्ट हैं?' हमने कहा -हां। शाम तक तीन-चार लोगों ने सेवाओं से संतुष्टि की बात पूछी। सबने कहा -'फ़ीडबैक में लिख दीजिएगा।'
एक सुधार की तारीफ के तमाम तकादे। लगता है कि किसी एक काम के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने श्रेय लेने की कला इन एजेंसियों से ही सीखा है।
बहरहाल रात में जब होटल वापस पहुंचे तो देखा एक कोना थोड़ा ज्यादा गुलजार था। कुछ गाड़ियां भी खड़ीं थीं। गए तो देखा वह कैसिनो था। कैसिनो मतलब जुआघर।
कैसिनो के बाहर ही बोर्ड में लिखा था -'केवल विदेशी नागरिकों के लिए। नेपाली लोगों का प्रवेश वर्जित है।'
मतलब नेपाल में हैं लेकिन नेपाली जुआ नहीं खेल सकते। शायद ऐसा नेपाली लोगों के भले के लिए किया गया हो। देखिए नियम क्या लिखे थे:
1. प्रवेश प्रतिबंधित है।
2. नेपाल सरकार द्वारा नेपाली नागरिकों को जुआ खेलने वाले हिस्से में प्रवेश प्रतिबंधित है।
3. प्रवेश के समय परिचय पत्र (पासपोर्ट, वोटर आई डी आदि प्रस्तुत किया जाए ।
4. ड्रेस कोड : स्मार्ट कैजुअल। चप्पल और घुटन्ना पहने लोग अंदर न जा पाएंगे।
5. सुरक्षा वाले कोई भी तलाशी कर सकते हैं।
6. गोला बारूद अंदर ले जाने की मनाही है।
7. अंदर जाने वाले की सुरक्षा उसकी अपनी जिम्मेदारी है। अपने रिस्क पर अंदर जाएं।
8. अंदर कोई दुर्घटना हो जाये उसके लिए कैसिनो के लोग या नेपाल सरकार जिम्मेदार नहीं होगी।
9. मैनेजमेंट ऊपर दिए नियमों में से कोई भी कभी भी बदल सकता है।
10. कैसिनो के अंदर फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी मना है।
जुआ तो वैसे भी हमको नहीं खेलना था। कभी खेला भी नहीं , न मन क़िया। बिना मेहनत की कोई भी कमाई अंततः बर्बादी की तरफ ही ले जाती है। महाभारत जुआ का अपरिहार्य उत्पाद है। लेकिन मन किया कि देखें कि लोग कैसे खेलते हैं जुआ कैसिनो में। कैसे समाज की बर्बादी का ड्राफ्ट लिखा जाता है।
दरबान को बताया कि खेलना नहीं है, बस देखना है। जा सकते हैं?
जितने भोलेपन से हमने पूछा उससे दोगुने भलेपन से उसने कहा -'देख लीजिए। यहां इंट्री कर दीजिए। पासपोर्ट नम्बर और विवरण भर दीजिए।'
इंट्री की बात सुनते ही हमारा देखने का कौतूहल हवा हो गया। हम लौट लिए। जिस गली जाना नहीं उसके कोस गिनने से क्या फायदा? कौन सफाई देता कि खेलने नहीं देखने गए थे। तमाम लफड़े हैं शरीफ नागरिक बने रहने के। कितने कौतूहल कत्ल हो जाते हैं एक नागरिक को शरीफ बनाये रखने में। अगर 'कौतूहल कत्ल' की कोई सजा होती तो हर सभ्य समाज अनगिनत सजाएं भुगत रहा होता। वैसे देखा जाए तो भुगत तो रहे ही हैं लोग तमाम सजाएं, बस दर्ज नहीं हो रहीं।
वापस लौटकर रिसेप्शन पर आए। काउंटर पर मौजूद रिसेप्शनिस्ट से होटल और आसपास की जानकारी ली। नेपाल के बारे में भी। बात करते हुए जानकारियां अपने आप उद्घाटित होती हैं। उसकी ड्यूटी रात ग्यारह बजे तक थी। वह उस होटल की अकेली स्थायी कर्मचारी है। बाकी सब दिहाड़ी पर। रात की ड्यूटी में छोड़ने के लिए होटल का वाहन जाता है।
पास में स्थित बौद्ध स्तूप का रास्ता भी बताया महिला रिसेप्सनिष्ट ने इस हिदायत के साथ कि देर होने पर इधर से मत जाइयेगा। सुबह जाइयेगा। बताकर वह दिन भर की कमाई गिनने लगी। उसको घर जाना था।
सुबह बौद्ध स्तूप जाने की बात तय करके हम कमरे आ गए।’

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