ओरछा के महल देखते हुए दोपहर हो गयी थी । धूप तेज । बाहर निकलकर हम उधर गए जिधर हमारी गाडी खडी थी । हमारे ड्राइवर संजय धूप में गाडी खडी किये हमारा इन्तजार कर रहे थे । हमने उनको साथ लिया और आगे बढे । अब ऑटो हमारा पायलट वाहन था और हम अपनी गाडी में ।
थोड़ी दूर पर ही लक्ष्मी नारायण मंदिर था । पवन हमको मंदिर के पास छोड़कर अपना ऑटो लेकर अपनी दूसरी सवारी को किले तक छोड़ने चले गए । अपन मंदिर देखने लगे ।
लक्ष्मी नारायण मंदिर 1622 ई. में वीरसिंह देव ने बनवाया था। पूरे देश में यह इकलौता मंदिर है जिसका निर्माण तत्कालीन विद्वानों द्वारा श्रीयंत्र के आकार में उल्लू की चोंच को दर्शाते हुए किया गया है। इस मंदिर की मान्यता है कि दीपावली के दिन इस सिद्ध मंदिर में दीपक जलाकर मां लक्ष्मी की पूजा करने से वह प्रसन्न होती हैं। 1983 में मंदिर में स्थापित मूर्तियों को चोरों ने चुरा लिया था। तब से आज तक मंदिर के गर्भगृह का सिंहासन सूना पड़ा है।
कहते हैं कि मंदिर से मूर्तियां चोरी होने के कुछ समय बाद ही लक्ष्मी नारायण की प्रतिमाएं बरामद कर ली थी, लेकिन मूर्तियां खंडित होने के चलते दोबारा स्थापित नहीं हो सकीं।
इस मंदिर में सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के चित्र बने हुए हैं। चित्रों के चटकीले रंग इतने जीवंत लगते हैं। जैसे वह हाल ही में बने हों। मंदिर में झांसी की लड़ाई के दृश्य और भगवान कृष्ण की आकृतियां बनी हैं।
मंदिर से बाहर आते हुए जैसे ही हम गाडी में बैठे वैसे ही मंदिर दर्शन करके निकलने वाले एक परिवार के मुखिया ने हमने अनुरोध किया कि हम उनको , जहां तक जा रहे हों वहां तक छोड़ दें। धूप तेज थी। कोई सवारी थी नहीं। अपन ने उनको गाडी में बैठाया और बस स्टैंड तक छोड़ दिया। रास्ते में बतियाते हुए उनके बारे में जाना।
पता चला कि परिवार सूरत से आया था ओरछा दर्शन को। मेवों का व्यापार करते हैं वो। काजू, किसमिस, अखरोट आदि खरीदना, बेंचना। पांच मिनट के लगभग लगे इनको बस स्टैंड तक छोड़ने में। इतने में ही ढेर सारे धन्यवाद और सूरत आने और उनके घर ठहरने का निमंत्रण मिल गया। देखिये कब जाना होता है सूरत।
लक्ष्मी नारायण मंदिर देखने के बाद कल्पवृक्ष देखने गए। शहर के बाहर स्थित यह पेड़ लगभग पांच सौ साल पुराना बताया जाता है। कहते हैं कि इसके नीचे खड़े होकर जो मुराद मानो पूरी होती है। इसे मनोकामना पेड़ भी कहा जाता है। पेड़ दो हिस्सों में है। लगभग एकरूप हैं दोनों हिस्से। एक का कोई भी हिस्सा हिलाओ तो दूसरा हिस्सा भी हिलता है। पवन ने हिलाकर भी दिखाया।
हमने पूछा पवन से कि तुमने भी कोई मनोकामना की होगी इस पेड़ के नीचे। बोले –‘की थी लेकिन अभी पूरी नहीं हुई है।‘ हमने पूछा क्या थी मनोकामना ? तो बोले –‘बताई थोड़ी जाती है मनोकामना। बताने से पूरी नहीं होती।'
इस बीच पवन ने अपने बारे में बताया कि वे गुजरात में एक जगह खाना बनाने का काम करते थे। कोरोना काल में सब ठप्प हो गया। घर वापस आना पड़ा। यहाँ भी कोई काम नहीं था शुरू में । फिर ऑटो चलाना शुरू किया। दिन में दो टूर तक मिल जाते हैं लोकल के। उसी से काम चलता है। कभी-कभी नहीं भी मिलता है काम। लेकिन ठीक है।
मनोकामना वृक्ष देखने के बाद अपन बेतवा तट की तरफ बढे। बेतवा नदी के पास ही छतरियां बनी हुईं थी। पवन हमको बेतवा किनारे छोड़कर चले गए।
बेतवा नदी में लोग नहा रहे थे। अपन का भी मन हुआ नहाने का। पानी में उतरकर खड़े हो गए। गाडी से अटैची मंगवाई। उसमे कपडे थे। लेकिन तौलिया नहीं थी। सोचा कि नहाने के बाद कपडे कैसे बदलेंगे। तमाम तरकीबें सोचते रहे लेकिन कोई उपाय सूझा नहीं। यह भी सोचा कि कहीं आड़ में खड़े होकर बदल लेंगे कपडे, गाडी में बदल लेंगे। लेकिन संकोच ने हमला कर दिया। हम संकोच-घायल हो गये। पानी के अन्दर उतरकर नहाए नहीं। लोगों को मस्ती से नहाते देखते रहे।
नहाए भले नही लेकिन काफी देर तक बेतवा के पानी में घुटने तक भीगे खड़े रहे। पानी में तमाम लोग नहाते रहे हैं। पानी में कई टूटी हुई चूड़ियाँ और इसी तरह के श्रृंगार के सामान दिख रहे थे। लोग वहां नहा रहे थे, मोटर वोट में लोग बेतवा दर्शन कर रहे थे। अपन पानी में खड़े-खड़े सबको देखते हुए आनंदित होते रहे।
बेतवा नदी से निकलकर बाहर आये और वहां पास ही बनी छतरियां देखी। ओरछा के राजाओं के स्मारक उनके वैभव की कहानी कहते हैं। शानदार इमारतों में कोई रहता नहीं लेकिन राजाओं की कहानी किस्से चलते रहते हैं इसी बहाने।
लौटते समय गाडी में बैठे तो देखा कि सीट पर तौलिया लगी थी। आगे भी तौलिया। जिस तौलिया के न होने के कारण बेतवा नहान से वंचित रह गए वे तो अनेक थीं गाडी में। लेकिन अपन केवल अपनी अटैची ही देखते रह गए। ऐसी ही संकुचित खोज के कारण जीवन में अनगिनत चीजों से अपन वंचित रह जाते हैं।
लेकिन बेतवा अभी कहीं गयी नहीं है। फिर जायेंगे और जी भरकर नहायेंगे बेतवा में।
लौटते समय रास्ते एक एक जगह चाय पी। वहां एक मोटर साइकिल वाले ने बताया कि उसका लाइसेंस नहीं है। इस चक्कर में पिछले सालों में वह दसियों हजार घूस/नजराने के रूप में दे चुका है पुलिस वालों को। पुलिस वाले कभी कोल्डड्रिंक मंगा लेते हैं, कभी पानी की बोतल , कभी कोई और सामान। हमने पूछा तो लाइसेंस बनवा काहे नहीं लेते? पता चला कि उसका घर गोरखपुर में हैं। पता वहां का है। जब जाएगा तब बनवाएगा।
हमको लगा कि बताओ भला एक लाइसेंस न होने के चलते कोई हजारों रुपये हलाक करा सकता है। लेकिन हमारे सोचने से क्या होता है? दुनिया में न जाने कितने काम होते हैं जिनके बारे में अपन सोच भी नहीं सकते। सोचते भी नहीं। लेकिन वे हुए चले जा रहे हैं धड़ल्ले से। बिना हमसे पूछे। क्या कर सकते हैं अपन। कुछ भी तो नहीं।
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