पिछले दिनों पंकज बाजपेयी से मुलाक़ात हुई। बहुत दिन बाद। वहीं मामा चाय वाले की दुकान के पास टहल रहे थे। गाड़ी से उतरकर हमने हाथ हिलाया तो लपककर पास आए। बोले -'आफ़्टर के लाँग टाईम यू हैव कम।'
हमने सोचा कहीं 'कारण बताओ नोटिस' न जारी कर दें इसलिए बात घुमाने के लिए पूछा -'क्या हाल हैं?'
आजकल तो कहीं से भी कोई भी नोटिस जारी कर देता है। क्या पता कि कहीं इस बात का नोटिस न जारी हो जाए -'आपने पिछले मिनट में बहत्तर की बजाए छिहत्तर बार साँस ली। चार अतिरिक्त साँसों के लिए 'साँसकर' जमा कीजिए। आप पिछले तीन दिनों से दिन में पाँच दिन की सीमा से अधिक मुस्करा रहे हैं। क्यों न आपके ख़िलाफ़ मुस्कान विधेयक के अंतर्गत कार्यवाही की जाए?' लेकिन पंकज बाजपेयी ने ऐसा कुछ नहीं किया। एक इंसान और सत्ता में यही फ़र्क़ होता है।
पंकज बाज़पेयी बोले-'बढ़िया है।'
इस बीच गाड़ी का ना 'नज़र मुआइना' करते हुए बोले-'गाड़ी बढ़िया है।' इसके बाद कोई डिवाइस लगवाने की सलाह देते हुए बोले -'दिल्ली से लगवाना। वहाँ बढ़िया मिलता है।'
हमको पता भी नहीं था कि किस डिवाइस की बात कर रहे थे पंकज । अब तो याद भी नहीं कि दोस्तों से पूछ लें -'ये डिवाइस लगवाने के बारे में बारे में आपका क्या विचार है?'
आजकल घर परिवार की तमाम चीजें, ख़ासकर इलेक्ट्रानिक सामान, के बारे में लोग सोशल मीडिया पर राय पूछते हैं। क्या पता कल को धनिया/मिर्च के ब्रांड पर भी लोग राय माँगते हुए पूछें - 'ये रंगा/बिल्ला चाय किसी ने इस्तेमाल की है? कैसा स्वाद है?'
बहरहाल पंकज बाजपेयी से हाल-चाल के फ़ौरन बाद उन्होंने फ़रमाइश की -'आज नोट जलाने के लिए दे जाना। हम तुमको नंबर देंगे। बदल लेना। नए नोट मिलेंगे।'
पहले जब पंकज नोट जलाने की बात करते थे तो मुझे लगता था कि ऐसे ही उल्टी -सीधी बातों का सिलसिला है। लेकिन बाद में एहसास हुआ कि यह उनका पैसे माँगने का अन्दाज़ है। पहले तो देते भी नहीं थे। लेकिन बाद में मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ा, नियमित हुआ तो कुछ न कुछ ले ही लेते हैं नोट -'जलाने के लिए।'
यह बीते छह-सात की जानपहचान के कारण है। उनसे अपनापा हो गया है। इसलिए कुछ पैसे दे देना ऐसा लगता है मानो कोई परिचित अपना हक़ माँग रहा है। अनजान लोगों को अभी भी कुछ मुफ़्त देने में संकोच रहता है। किसी को कुछ टिप दे देना, ज़रूरत मंद को अपनी तरफ़ से देना अलग बात।
ऐसे ही एक दिन दवा लेने गए। दुकान के बाहर एक बच्चा, जिसके होंठ ऐसे लाल थे मानो गुलाबी लिपस्टिक लगी हो, मिला।हमने साइकिल खड़ी की। मुझे देखते ही बोला -'बीस रुपए दे दो। टिक्की खानी है।'
बच्चा देखने में बच्ची सरीखा भी लग रहा था। उसके पैसे माँगने पर मैंने दिए नहीं। दवा लेकर बाहर आया तो बच्चा वहीं टहल रहा था। हमने उससे पूछा -'कहाँ रहते हो? घर में कौन है? यहाँ पैसे क्यों माँग रहे हो?'
लेकिन बच्चे ने कोई जबाब नहीं दिया। चुपचाप इधर-उधर चला गया। लेकिन हमको रास्ते भर यह लगता रहा कि उसको पैसे न देते लेकिन टिक्की खिला देते। वहीं पास ही दुकान है। यह बात अगले दिन तक ध्यान रही।
दो दिन बाद फिर दवा लेने उसी दुकान गए। बच्चा वहीं टहल रहा था। लेकिन वह कुछ बोला नहीं। हमने दुकान वाले से पूछा कि यह बच्चा कौन है ? वह बोला -'ऐसे ही घूमता रहता है। मुझे पता नहीं।'
दुकान से निकलकर बच्चे दिखा तो मैंने उससे पूछा -'कहाँ रहते हो यहाँ?'
उसने चिढ़कर जबाब दिया -'तुमसे क्या मतलब? '
यह कहकर वह इधर-उधर हो गया। हम चुपचाप साइकिल स्टार्ट करके चले आए। रास्ते में और अभी भी सोच रहे हैं कि उसके बारे में जानकारी लिए बिना उसको चुपचाप टिक्की खिला देनी चाहिए। अब तय किया कि अगली बार बच्चा मिला तो उसके बारे में बिना कोई सवाल किए अगर वो कहेगा तो टिक्की खिला देंगे।
बहरहाल बात पंकज बाजपेयी की हो रही थी। वो जहां घूमते-टहलते हैं वहाँ उनको लोग अच्छे से जानते हैं। उसके बारे में अच्छी राय रखते हैं। पंकज भी हर गुजरने वाले से नहीं माँगते। उनका अपना स्टेटस है। उनको देने वाले नियत हैं। आसपास के लोगों ने बताया कि दस-बीस लोग उनको कुछ न कुछ दे जाते हैं। उनको देखते ही पंकज लपककर उनसे मिलते हैं और अपना हक़ लेकर वापस अपने ठीहे पर वापस आ जाते हैं।
पहले जब मैं मिला था उनसे तो सोचता था कि उनका इलाज करवाना चाहिए। लेकिन अब लगता है ये ऐसे ही ठीक हैं। इलाज के बाद अगर ठीक हो गए तो इनका जीना मुहाल हो जाएगा।
साथ चाय पी मामा की दुकान पर पंकज ने। अपने थैले में रखे बड़े कप में चाय लेकर पंकज वहीं टहलते हुए चाय पीने लगे। मामा चाय वाले और अग़ल-बग़ल के लोग पंकज बाजपेयी से चुहल करते रहे। वैसे तो मामा चाय वाले पंकज को चाय मुफ़्त पिलाते हैं लेकिन हमारे साथ पी पंकज की चाय के पैसे मुझसे ही लिए उन्होंने।
पंकज बाजपेयी ने शिकायत की मुझसे -'माल नहीं लाए इस बार भी।'
माल मतलब दही, जलेबी,समोसा। पहले जब कैंट से जाते थे तो ले जाते थे -'तिवारी स्वीट हाउस से।' रास्ते में पड़ती थी दुकान। अब जाते हैं तो ध्यान से उतर जाता है।कोई दुकान भी नहीं मिलती। अगली बार ले जाएँगे।
चलते समय बग़ल की मिठाई की दुकान पर बैठने वाले नीरज की शिकायत की पंकज ने -'ये हमको मिठाई नहीं देते।इनसे कह दो दे दिया करें।'
नीरज के बग़ल की दुकान पर 'कनपुरिया चाय वाला' का बोर्ड लग गया था। कानपुर के नाम पर तमाम दुकाने होंगी कानपुर। हर शहर तरह-तरह से लोगों के पेट पालने में सहयोग करता है। कुछ दुकाने कानपुर के परिवहन के कोड ( 78) के नाम हैं। तमाम किताबें, लेख के शीर्षक कनपुरिया जुमले 'झाड़े रहो कलट्टरगंज' के नाम हैं। मेरी भी एक किताब का नाम है -'झाड़े रहो कलट्टरगंज'। Shambhunath Shukla जी ने भी अपने चैनल का नाम 'झाड़े रहो कलट्टरगंज' रखा है।
किसी शहर का नाम और उससे जुड़े जुमलों/क़िस्सों का कोई कापी राइट नहीं होता। हर शहर अपने लोगों के लिए माँ के आँचल की तरह होता है जिससे उसके रहने वाले सहज रूप से जुड़ना चाहते हैं।
नीरज की और मामा की दुकान के बीच में अनवरगंज स्टेशन को जाने वाली सड़क है। बचपन में अपन इस स्टेशन से ही गाँव जाने के लिए ट्रेन पकड़ते थे। अब तो वर्षों हुए यहाँ आए। बाहर से ही देख लेटे हैं। आना-जाना तो गाड़ी से होता है।
कोहली के बारे में पूछा।कोहली नाम न जाने कैसे पंकज के दिमाग़ में समाया हुआ है। वे अक्सर कहते हैं -'कोहली बच्चा पकड़कर ले जाता है। लड़कियों के साथ गंदा काम करता है। कोहली को पकड़वाओ।'
पंकज ने अपने हाथ में पहनी प्लास्टिक की अंगूठी भी दिखाई। अंगूठी में दिल का आकार बना था।
चलते समय पंकज को 'जलाने के लिए कुछ नोट' नोट दिए।अगली बार जल्दी आने का वायदा किया और चल दिये।
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