प्रश्न : आर. एस. एस. ने प्रोपेगंडा किया है कि एक मुसलमान चार शादियाँ करता है तथा हिंदू से चार गुना ज़्यादा बच्चे पैदा करता है। जबकि वैज्ञानिक पहलू यह है कि किसी भी समुदाय में उत्पादन इकाई महिला होती है। अब अगर 4 महिलाएँ 4 पुरुषों से गर्भवती हों या एक पुरुष से, क्या फ़र्क़ पड़ता है? दूसरी बात यह कि एक से ज़्यादा शादियाँ करने वाले मुस्लिम भी गिने-चुने होते हैं, वह भी तब जबकि पहली पत्नी नि:संतान रहे।
( दिनांक 17 जून,1984 के देशबंधु समाचार पत्र में 'पूछो परसाई से' स्तम्भ के अंतर्गत रायपुर से एस.के.)
उत्तर: हिंदू और मुसलमान की संख्या बढ़ाने का आग्रह दोनों सम्प्रदायों के संकीर्ण दिमाग़ के नेता करते हैं। ये लोग न इतिहास पढ़े, न समाजशास्त्र और न अर्थशास्त्र। दो सूट और टाई पहने हुए तरुण हों जिनमें एक मुसलमान हो और दूसरा हिंदू तो न मुसलमान नेता और न हिंदू नेता बता सकता है कि दोनों में कौन हिंदू है और कौन मुसलमान। मुसलमानों में मुल्ला, मौलवी तथा जमायते इस्लामी नेता आग्रह करते हैं कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करें और परिवार नियोजन न कराएँ।
इधर आर. एस. एस. और विश्व हिंदू परिषद भी यही कहते हैं कि हिंदुओ की संख्या बढ़ाना चाहिए। इनकी शिकायत है कि मुसलमान को तीन शादियाँ करने की इजाज़त है जबकि हिंदू को नहीं। ये ज़रा पूछकर देखें कि कितने संघ के स्वयंसेवक तीन पत्नियाँ रखने को तैयार हैं और उनके बच्चों को पालने का उनके पास क्या इंतज़ाम है। एक पत्नी के बच्चों का पेट भरने और कपड़े पहनाना तो मुश्किल होता है।
मुसलमानों में सर्वेक्षण करके देख लिया जाए कि कितने फ़ीसदी मुसलमान एक से अधिक पत्नियाँ रखते हैं। मुश्किल से हज़ार में कोई एक मिलेगा।
आपका यह सोचना ग़लत है कि स्त्री बच्चे तो उतने ही पैदा करेगी जितनी उसकी क्षमता है। यह ठीक है पर तीन बीबियों से एक ही पुरुष तीन गुनी संताने पैदा कर सकता है। मुसलमानों को तीन बीबी रखने का जो नियम पैग़म्बर मोहम्मद के समय बना था वह कोई विशेष सुविधा और अधिकार नहीं था। यह कटौती है, प्रतिबंध है।
छठी सदी में कबीलों में लड़ाइयाँ होतीं थी और हारे हुए कबीले की औरतें जीते हुए कबीले के मुख्य पुरुष रख लेते थे। एक-एक की तीस-चालीस बीबियाँ होती थीं। घर में पिंजरापोल खुला रहता था। तब यह प्रतिबंध लगा कि तीन से ऊपर बीबियाँ कोई नहीं रख सकता।
वात्सव में सामाजिक-राजनीतिक मसलों को हिंदू और मुसलमान साम्प्रदायिक नज़रों से देख रहे हैं,बहुत खरनाक नासमझी है। क्या हिंदू और मुसलमान को कोई भगवान का आदेश है कि तुम आगामी हज़ार साल तक लड़ते रहो।
यह पूरा प्रचार ही पूरे देश में साम्प्रदायिक द्वेष को जीवित रखने के लिए स्वार्थी लोग चलाते हैं।
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राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब -'पूछो परसाई से'
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