कल शहर जाना हुआ। शहर में रहते हुए शहर जाने की बात करना अटपटी बात है। लेकिन बात सही ही है। आर्मापुर शहर में होते हुए भी शहर से बाहर लगता है। वैसे है नहीं। शहर तो आर्मापुर से और दूर तक पसर गया है। लेकिन लगता है शहर के बाहर रहते हैं। लगना होने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
हमको लगा दस रुपए में भले आदमी का तमग़ा बुरा सौदा नहीं है। लोग तो करोड़ों , अरबों खर्च कर देते हैं अपनी इमेज चमकवाने में। जितनी बड़ी इमेज उतना ज़्यादा खर्च। इसी तरीक़े तमाम फ़र्ज़ी लोग न जाने कितने महान, क्रांतिकारी बन गए हैं।
डिस्पेंसरी में बोर्ड आधा उजड़ा हुआ था। उजड़ा नहीं उधड़ा हुआ। लगता है किसी ने नोच दिया हो। मानो सबूत नष्ट करने की कोशिश हो कि यहाँ कोई डिस्पेंशरी है।
डाक्टर से दवाई लिखवाने गए थे। दस मिनट में नम्बर आ गया। डाक्टर को दवाई के बारे में बताया। तीन साल से ले रहे हैं। बाहर से लेते हैं। आप लिख दीजिए। यहीं से मिलने लगे। दवा के महीने भर की 200 रुपए की पड़ती है। किराए का खर्च दवा से ज़्यादा है। लेकिन सिलसिला बना रहे इसलिए वहीं से लेना बेहतर।
रजिस्ट्रेशन करवाने में एक मिनट लगा। मोबाइल पर नम्बर आ गया। आधे घंटे बाद डाक्टर के पास जाने की बात थी। यह समय किसी भी डाक्टर के पास के इंतज़ारी समय से कम था। तीन से चार घंटे का वेटिंग टाईम मामूली बात है।
आधे घंटे से कुछ पहले ही हम चेम्बर में घुस गए। घुसते ही डाक्टर ने नाम पुकारा -'अनूप कुमार शुक्ला।' हम 'हाँ' कहते हुए डाक्टर के बग़ल के स्टूल पर बैठ गए। डाक्टर ने बीमारी पूछी। हमने बीमारी और दवा का विवरण बता दिया। यह भी कि तीन साल से ले रहे हैं। डाक्टर ने कंप्यूटर पर दवा देखी। दुविधा ज़ाहिर की -'पहली बार आए हैं। कैसे लिख दें दवा बिना जाँच के।' लेकिन फिर कुछ सोचकर दवा लिख दी।महीने भर की। बोले दो दिन बाद मिलेगी। ले लीजिएगा। हम उनको धन्यवाद देते हुए बाहर निकल आए।
दवा जहां मिलती है वहाँ पूछने गए। एक महिला पर सामने मेज़ पर रखे टिफ़िन से कुछ खाती हुई दिखी। इनका लंच चल रहा है सोचते हुए हमने अफ़सोस ज़ाहिर किया। लेकिन उन्होंने -'लंच नहीं, प्रसाद का रहे हैं। जन्माष्टमी का।लेव आपौ खाओ।' कहते हुए उन्होंने टिफ़िन हमारे आगे कर दिया।
हमने बिना प्रसाद ग्रहण किए धन्यवाद देते हुए दवा के बारे में जानकारी ली। बोली परसों मिलेगी। फिर दवा का डब्बा उठाते-धरते सहायक से पूछा -'परसों बुलाई कि नरसों? बताओ।' उसने कहा -'परसों। दस बजे।' हमने दोनों को संयुक्त धन्यवाद दिया। एक ही धन्यवाद में दोनों लोग निपटो। बाहर निकल आए।
बाहर एकदम नुक्कड़ पर चाय की दुकान थी। कुल्हड़ सजे थे। किसी सत्ताधारी पार्टी के बाहुबलियों सरीखे। (निरीह हुंडो को बाहुबली कहना ठीक नहीं। बाहुबली की जगह प्रवक्ता पढ़ें)
मन किया चाय पिया जाए। चाय का आर्डर दिया। इंतज़ार करने लगे चाय बनने का।
दुकान में दो लोग एक मोबाइल पर झुके कोई खेल खेल रहे थे। हमने भी झुककर देखा। वो दोनों लूडो खेल रहे थे। हमने पूछा -'फ़ोटो ले लें? वो बोले नहीं।' कहते हुए वे फिर झुक गए मोबाइल में। उनकी तल्लीनता देखकर लगा कि शायद वे कोई दांव भी लगा रहे थे।
कुछ देर बाद चाय बन गयी। हम खड़े-खड़े चाय पीते हुए उनको लूडो खेलते रहे। इस बीच हमने उनके फ़ोटो भी ले लिए। उनको दिखाए भी लेकिन वे इससे बेख़बर पाँसे फेंकने में जुटे रहे। चाय वाले ने फ़ोटो देखकर पास कर दिए।
वे सिर्फ़ लूडो खेल रहे थे या जुआँ हमको पता नहीं। लेकिन हमने यही सोचा कि जुआँ ही खेल रहे थे। दूसरे किसी के बारे में कोई अनुमान लगाना हो, ख़ासकर अनजान इंसान के बारे में, तो शुरुआत खराब माने जाने वाले से ही की जाती है। बाद में सही निकले तो क्लीन चिट दे दी। इस तरह दुनिया में अनगिनत आदमी अनजान लोगों के द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के इंतज़ार में जी रहे हैं ।
आज अख़बार में यह भी खबर पढ़ी कि देश में पाबंदी के बावजूद जुए का कारोबार बढ़ रहा है। यह लगा कि अगर वे लोग जुआँ खेल भी रहे थे तो देश का कारोबार ही बढ़ा रहे थे।
उन लोगों को लूडो खेलते देखकर ऐसे अनगिनत दृश्य याद आए जिनमें लोग अपने मोबाइल में डूबे दिखते हैं। समय गुज़ार रहे हैं, बिता रहे हैं। न जाने कितना समय बरबाद होता है देश में रोज़। परसाई जी ने एक लेख में लिखा था -'पूरा देश खाने के बाद कम से कम दो घंटे ऊंघता है।' आज परसाई जी होते तो लिखते -'आज देश की आबादी का बड़ा हिस्सा मोबाइल में घुसा जागते हुए सो रहा है। कुछ और करने को नहीं है तो यही कर रहा है।'
चाय की दुकान से पैदल वापस चले। हर गली में आगे बढ़ने पर रास्ता पूछते हुए। अपने शहर के बारे में कितना कम जानते हैं हम। पूछपूछ कर आगे बढ़ते हुए देश के बारे में भी सोचते रहे। देश के बारे में निर्णय लेने वाले भी अपने मालिकों से पूछपूछकर ही निर्णय लेते हैं। कभी हल्ला मचता है तो कदम वापस खींच लेते हैं।
एक गली में सड़क पर एक बच्चा पतंग लिए खड़ा था। हाथ में माँझा। वह एक दूसरी पतंग को पाने की फ़िराक़ में था। दूसरी पतंग के दुकान के छज्जे में फँसी थी। बच्चे की पहुँच छज्जे तक नहीं थी। आने-जाने वालों से पतंग निकालने के लिए अनुरोध कर रहा था। पतंग बच्चे की नहीं थी लेकिन उसको निकालने का अनुरोध करते हुए उस पर अपना मालिकाना हक़ उसने जमा लिया था।
पूरी दुनिया में यही हो रहा है। जो चीज़ पूरे देश/दुनिया की है उसकी रक्षा करने का हल्ला मचाते हुए उस पर क़ाबिज़ हुए जा रहे हैं। एक से एक लफ़ंडर, आवारा, बाहुबली लोग देश की रक्षा का नारा लगाते हुए देश की फ़िज़ा को बरबाद कर रहे हैं।
बहरहाल कुछ देर तक बच्चे की कोशिश को नाकाम होते देखने के बाद अपन ने भी डंडा हाथ में लिया । तीन -चार कोशिश के बाद पतंग नीचे आ गयी। बच्चे ने उसको अपने क़ब्ज़े में लिए और खुश हो गया।
हमने बच्चे की फ़ोटो लेने के लिए कहा। वह सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया। हमने उससे पतंग सीने पर लगाने को कहा। उसने सीना फुलाकर गरदन ऊँची कर ली। इतनी ऊँची कि वह ऊपर की तरफ़ कुछ टेढ़ी सी हो गयी। अकड़ सी गयी। एकदम गर्वीली मुद्रा। हमने सहज मुद्रा में खड़े होने को कहा। उसने फ़ोटो खिंचाई और भागता चला गया। दो पतंग क़ब्ज़े में लेने का सुख उसके चेहरे पर चमक रहा था।
आगे पैदल चलते हुए हम विजय नगर तक आए। हर जगह लोग ऊँधते-सूंघते दिखे। पैदल चलते हुए यह दिखा। पैदल चलते हुए अलग नज़ारे दिखते हैं। गाड़ी से आते-जाते नहीं दिखते। शहर में गाड़ी से घूमना ऐसा ही है जैसा महानुभाव का किसी प्रदेश की बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण।
विजय नगर तक हमारी काम भर की टहलाई हो गयी थी। अपन ने फिर उबर से ओला ख़रीदा और घर आ गए।
घर पहुँचकर सोचा किसी मित्र को पत्र लिखें। पत्र की शुरुआत करते हुये लिखें -‘अत्र कुशलम तत्रास्तु।’ लेकिन नहीं लिख पाए। कुछ आलस्य और बाक़ी कुछ बेवक़ूफ़ी में दिन बीत गया।ऐसे ही जीवन बीत जाता है।
https://www.facebook.com/share/p/2u5fijbe9vHpaEcw/
No comments:
Post a Comment