पिछले दिनों शक्तिनगर जाना हुआ। मौक़ा था कालेज के दिनों के साथी रहे और बाद में रिश्तेदार बने विनय अवस्थी के रिटायरमेंट का।
विनय और हम 1981 में मोनेरेको, इलाहाबाद में मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में एडमिशन पाए थे। नाम के शुरुआती अक्षर हिसाब से ग्रुप एलाट होने के कारण हम लोगों के ग्रुप अलग-अलग थे। मेरा ग्रुप एम -1 था और विनय का एम-3। लेकिन शुरुआती दिनों में हम लोग एक ही हास्टल (तिलक छात्रावास) की एक ही विंग (बी विंग, ग्राउंड फ़्लोर) में रहते थे। एक विंग में 15 लड़के रहते थे। उन दिनों एक कमरे में एक छात्र की व्यवस्था थी। बाद में एक में दो रहने लगे। हम कमरा नम्बर सत्तावन में, विनय कमरा नम्बर 59 में। दोनों के बीच सैंडविच के रूप में बिनोद गुप्ता कमरा नम्बर 58 में रहते थे।
रैगिंग के दिनों में जब बाक़ी छात्र रैगिंग में रगड़े जाते थे तब विनय अवस्थी अपने पारिवारिक बुजुर्ग प्रसिद्ध ओज कवि स्व ब्रजेंद्र अवस्थी की वीर रस की कविताएँ सुनाकर कालेज में विख्यात हो गए थे। देखने में छोटे क़द के लगते विनय अपनी ओजपूर्ण आवाज़ में, आँख मूँदकर, अपने घुंघराले बाल झटकते वीर रस की कविता सुनाते :
जिस धरती का कण-कण त्यागी बलिदानी है
ऐसी धरती को कौन ग़ुलाम बना सकता,
शोणित से धोया जिसका अंचल धानी है
ऐसी धरती को कौन ग़ुलाम बना सकता।
साँस की तकलीफ होने के कारण जाड़े में विनय की तकलीफ़ बढ़ जाती। देर तक और कभी-कभी रात भर खांसते बीतती । तबियत बिगड़ी रहती लेकिन क्या मजाल जो कभी अनुशासन और परहेज़ का दामन थामा हो विनय ने। छात्रावासीय अन्दाज़ में बिंदास जीते हुए विनय अक्सर हम लोगों को सेवा का मौक़ा देते रहे।
अपने घर के सभी सदस्यों की तरह राइटिंग बहुत अच्छी है विनय की। खूबसूरत हस्तलेख जैसा कि छपाई हो। इसके पीछे प्रेरणा उनकी माता-पिता की रही। पिताजी तो कम उमर में चले गए। माताजी ने अपने सभी बच्चों को पाल-पोष कर लायक़ बनाया। वे स्वयं विदुषी अध्यापिका थीं। उन्होंने अपने सभी बच्चों के हस्तलेख अच्छे करने और साहित्यिक संस्कार देने पर ज़ोर दिया।
उन दिनों कालेज में परीक्षाएँ वार्षिक आधार पर होती। किसी छात्र का इंजीनियरिंग कालेज में दाख़िला जितना मुश्किल होता था उससे कई गुना कठिन होता उसका वहाँ फेल होना। एक बार जो बच्चा घुस जाता कालेज में तो कालेज बिना इंजीनियरिंग की डिग्री दिए उसको बाहर नहीं निकलने देता।
उन दिनों समय बहुत इफ़रात था हमारे पास। कोई बहुत ऊँची तमन्ना थी नहीं थी । ऐसा माहौल ही नहीं था शायद। थोड़ा पढ़ते हुए, थोड़ा क्लास बंक करते हुए साल गुजर जाता। टेस्ट वग़ैरह के बाद फ़रवरी-मार्च में बच्चे किताबें खोलते और कई महीने तक चलते इम्तहान पास करके अगले क्लास में चले जाते। चार साल में डिग्री और तमाम ख़ुशनुमा यादों के साथ कालेज से निकलते। बाद में किसी न किसी नौकरी में लग जाते। अधिकतर सरकारी संस्थानों में। उन दिनों सरकारी नौकरियाँ इतनी कम नहीं थीं। जो बच जाते वे कालेज के डीन गोयल साहब के प्रताप से किसी न किसी प्राइवेट कम्पनी में लग जाते। बाक़ी बचे लोग एमई करते और आगे के लिए तैयारी करते।
गोयल साहब की याद आयी तो उनके बारे कुछ। गोयल साहब कालेज के डीन थे। उनका तकिया कलाम था 'यू नो'। अक्सर हर वाक्य के बाद कहते 'यू नो'। यू हैव टू ओपेन ए कैंटीन, यू नो। यू हैव टू वर्क , हार्ड यू नो। कालेज के किसी छात्र के लिए उनके दफ़्तर और घर के दरवाज़े हमेशा खुले रहते। उनके दफ़्तर के दरवाज़े किसी ने उनका तकिया कलाम गोद दिया था - 'यू नो, यू डोंट नो।'
कालेज में इफ़रात समय का सदुपयोग करने के तरीके लोग अपने-अपने हिसाब खोजते। हम लोगों ने अपनी राइटिंग और पढ़ाई-लिखाई में रुचि के चलते साप्ताहिक वाल मैगज़ीन निकाली। नाम रखा -सृजन। अपनी राइटिंग में कालेज की साप्ताहिक गतिविधियाँ और दीगर बातें, साहित्यिक और चटपटी छौंक के साथ लिखकर इतवार की सुबह मेस के नोटिस बोर्ड पर चिपका देते। लोग पढ़ते। मज़ेदार कमेंट करते। बहुत दिन तक लोगों को पता नहीं चला कि यह ख़ुराफ़ात विनय-अनूप की है। हम उनके बीच खड़े होकर उनके कमेंट सुनते हुए मज़े लेते। अगले हफ़्ते फिर 'सृजन' निकालते। काफ़ी दिन चलता रहा यह सिलसिला।
कालेज के दिनों के वाल मैगज़ीन निकालने के अनुभव का उपयोग अपन ने बाद में नौकरी में आने पर अपने स्टाफ़ कालेज में, इंक ब्लागिंग और फैक्ट्री की पत्रिका निकालने में भी किया। एक बार मित्र नीरज केला के शाहजहाँपुर से इटारसी तबादले पर हाथ से लिखकर 'शाहजहाँपुर टाइम्स' निकाला।
बचपन में की गयी ख़ुराफ़ातें बहुत दिन तक याद रहती हैं और मौक़ा मिलने पर अपने को नए रूप में दोहराती हैं।
कालेज के दूसरे साल के इम्तहान के बाद तमाम बच्चे अलग-अलग जगहों पर ट्रेनिंग करने जाते हैं। हम लोगों ने भी ऐसा सोचा। हम और विनय एक साथ कालेज से प्रमाण पत्र लेने गए। लेकिन लौटते समय कुछ ऐसा हुआ कि हमने सोचा इस बार ट्रेनिंग में नहीं जाएँगे। साइकिल से आल इंडिया टूर करेंगे। हमने दोस्तों को बताया। शाम को चाय की दुकान पर चर्चा हुई । दोस्तों ने प्रस्ताव पास करते हुए हमारा हौसला बढ़ा दिया। तमाम परेशानियों को बिना समझे-बूझे हम लोगों को पानी पर चढ़ा दिया। हम भी चढ़ गए।
तय हुआ कि गर्मी की छुट्टियों में साइकिल से भारत दर्शन करेंगे ।
'कोई काम नहीं है मुश्किल जब किया इरादा पक्का' का नारा लगाते हुए हम लोगों ने तैयारी शुरू की। इम्तहान के दो पेपर्स के बीच तीन-चार दिन के गैप में दो-तीन दिन टूर की तैयारी करते। एक दिन इम्तहान की तैयारी। हमारी तैयारी से उत्साहित होकर हमारे साथ हमारे मित्र दिलीप गोलानी भी जुड़ गए।
टूर की तैयारी के लिए ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन आफ इंडिया का नक़्शा लाए। गिन -गिन कर किलोमीटर के हिसाब से रास्ता तय किया। कब-कहाँ रुकेंगे। औसतन एक दिन में सौ किलोमीटर का रास्ता तय करने की सोची थी। रास्ते में जिन भी दोस्तों के घर पड़ते थे उनके पते लिए। रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज होने के कारण पूरे देश के बच्चे आते थे पढ़ने। टूर के दौरान उनके यहाँ रुके। कुछ जगह ऐसा हुआ कि जिस समय दोस्त लोग छुट्टी ख़त्म होने पर कालेज लौट चुके थे उस समय हम उनके घर में शानदार खातिरदारी का लुत्फ़ उठा रहे। तमाम दोस्तों ने अपने जेब खर्च से चंदा दिया।
आख़िर में हम लोग एक जुलाई,1983 को कालेज के मुख्य द्वार से निकले। कुछ सीनियर और कालेज शिक्षक गेट तक विदा करने आए। जब हम निकल रहे थे तब 'भारत दर्शन' के बारे में अख़बार में छपी खबर पढ़कर एक बुजुर्ग दम्पति कार से वहाँ आए। उन्होंने यात्रा की सफलता के लिए आशीर्वाद दिया और कुछ पैसे भी।
इलाहाबाद से चलकर हम लोग बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, पाण्डिचेरी , तमिलनाडु होते हुए कन्याकुमारी पहुँचे। अपने प्रोग्राम के हिसाब से हमको 15 अगस्त को कन्याकुमारी पहुँचना था। हम 14 अगस्त , 1983 की रात को कन्याकुमारी में दाखिल हो गए थे। हम मतलब विनय अवस्थी और अनूप शुक्ल। तीसरे साथी दिलीप गोलानी यात्रा का अनुभव लेकर मद्रास से वापस घर लौट आए थे।
तय समय पर कन्याकुमारी पहुँचने के लिए कई बार हमने रात में भी साइकिल चलाई। थक जाने पर सड़क किनारे की पुलिया पर सोए।
लौटते में केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश होते हुए वापस 2 अक्तूबर को कालेज पहुँचे। कुछ दिन बाद पहले दशहरे / दीपावली छुट्टी हुई फिर कालेज एक बवाल के चलते अनिश्चित काल के लिए बंद हो गया। उस साल कुछ ही दिन क्लास की हमने। लगभग पूरा साल या तो ग़ायब रहे क्लास से या छुट्टी रही कालेज में। फिर भी अपन अच्छे नम्बरों से पास हुए। उसके बाद से ही बिना क्लास गए अच्छे नम्बर पाने में कारण अपन का पढ़ाई -लिखाई से जी उचट गया।
आज इम्तहान में बैठने के लिए 75 % हाज़िरी ज़रूरी होती है। हमारे जमाने में ऐसा होता तो कैसे घूम पाते भारत साइकिल पर।
बाद में हमारी साईकिलिंग अपने शहर तक सीमित रही। विनय ने अलबत्ता एक साइकिल यात्रा रेणूसागर से काठमांडू तक की ।
कालेज की पढ़ाई के बाद हम और विनय अलग-अलग दिशाओं में चले गए। अपन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय चले गए उच्च शिक्षा के लिए। वहाँ से एक साल उत्तर प्रदेश विद्युत परिषद में रहने के बाद आयुध निर्माणी में आए। वहीं से अप्रैल, 2024 में रिटायर हुए।
विनय पहले रेनुसागर पावर प्लांट और फिर एनटीपीसी में आ गए। वहीं विभिन्न पदों पर रहते हुए इसी 31 जुलाई को अपर महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुए। जुलाई , 1985 शुरू करके क़रीब 39 साल की सेवा के बाद 31 जुलाई , 2024 को, बक़ौल दीदी निरुपमा अशोक Nirupma Ashok विनय का कृतकार्य दिवस सम्पन्न हुआ।
इस बीच साईकिलिंग भले विनय की कम होते हुए छूट गयी हो लेकिन लिखना उनका जारी रहा। लिखना मतलब कविता लेखन। इस सिलसिले में उनका छह किताबों का मसाला जमा हो गया। जिसमें से तीन किताबें छप चुकी।तीन प्रेस में हैं। अपने लिखे को विनय उदार भाव से, नियमित, अपने से जुड़े हर मित्र को अपना नियमित लेखन टाइप किया हुआ और अब तो उसका वीडियो भी भेजते रहते हैं। आपको भी उनकी कवितायें सुननी-पढ़नी हों तो अपना नंबर सूचित करें। हम विनय से सिफ़ारिश करके आपको भेजने की व्यवस्था करेंगे।
44 साल के साथ वाले ऐसे 'जिज्ञासु यायावर' साथी विनय के रिटायरमेंट के मौक़े पर हम शक्तिनगर गए। हमारी श्रीमती जी (विनय की बहन) विनय की बेटियाँ, दामाद भी थे साथ में। दफ्तर में विनय के काम की सराहना के साथ उनके साहित्यिक योगदान की भी चर्चा हुई। हम सब उनको साथ लेकर वापस लौटे।
विनय की सारी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो चुकी हैं। अब हमेशा की तरह उनका ख़्याल रखने के लिए उनकी पत्नी डा रोली अवस्थी उनके साथ हैं। आशा है उनका आगे का जीवन भी ख़ुशनुमा रहेगा।
विनय को उनके रिटायरमेंट के बाद के दिनों सुखमय, संतुष्टि प्रद रहने के लिए अनेकानेक शुभकामनाएँ।
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