कल तेजस से दिल्ली आए। जिस बोगी में हम लोग थे वो आधी खाली थी। कानपुर दिल्ली शताब्दी इसके पहले चलती है। तेजस का किराया शताब्दी के किराए से ड्योढ़ा है। ज्यादातर लोग उसी से निकल जाते होंगे। तेजस से वही लोग चलते होंगे जिनको शताब्दी में रिजर्वेशन नहीं मिलता होगा या फिर जिनको सुबह उठना खलता होगा।
सुबह निकल तो लिए समय पर। लेकिन आगे जरीब चौकी रेलवे क्रासिंग बंद मिली। समय पर्याप्त बचा था लेकिन फिर भी जब तक क्रासिंग खुली नहीं, सोचते रहे कहीं गाड़ी छूट न जाये।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक मालगाड़ी गुजरने के बाद क्रासिंग खुल गयी। आगे अनवरगंज के पास पंकज बाजपेई सड़क पर टहलते दिखे। पहली बार ऐसा हुआ कि उनको देखकर , उनसे मिलने के लिए रुके नहीं।
गाड़ी समय पर थी। रास्ता आराम से कटा। साथ लाई किताबों में से एक पढ़ने के लिए खोली। चार पन्ने पढ़े। बंद करके अखबार बांचा। इसके बाद आंख बंद करके सोते हुए यात्रा पूरी कर ली।
दिल्ली में ठहरने की जगह के लिए टैक्सी खोजी। दाम देखे। सोचा उतरकर ओला या उबर से टैक्सी करेंगे। लेकिन ट्रेन से उतरते ही लोकल टैक्सी वाले पीछे लग लिए। हर कदम पर हमको समझाते रहे कि हमारा सामान ज्यादा है। ओला में आएगा नहीं। हम उनकी बात सुनी-अनसुनी करके बाहर आ गए। वे भी साथ लगे रहे।
उबर बुक की तो टैक्सी वाले बोले वो अंदर आएगी नहीं। यहाँ का भी किराया देना होगा उसे। हमने उबर वाले से पूछा तो उसने भी बताया कि अंदर स्टैंड का किराया पड़ता है।
इस बीच एक टैक्सी वाले ने हम लोगों को कंजूस मानते हुए कहा-'दिल्ली आए हो तो पैसा तो खर्च करना होगा।'
उबर वाले ने आने में देरी की। इस बीच मोलभाव भी चलता रहा। आखिर में भावताव के बाद स्टेशन पर मौजूद टैक्सी से चलने की बात तय हो गई। सामान लादकर हम चल दिये।
टैक्सी चलने पर गर्मी लगी। हमने एसी चलाने को कहा। ड्राइवर ने कहा -'200 रुपये एक्स्ट्रा लगेगें।' हमने खिड़कियां खोल लीं। दुनिया का सबसे बड़ा एयरकंडीशनर हमारे लिए खुल गया। मुफ्त में।
ड्राइवर मजेदार अंदाज में अगल-बगल गुजरती गाड़ियों के ड्राइवरों पर कमेंट करता रहा। एक गाड़ी आगे रुकी थी। उसको देखकर बोला -'ये लगता है पूरी दिल्ली का ट्रैफिक निकाल कर ही आगे बढ़ेगा।'
एक ऑटो वाले को मच्छर कहकर मजाक किया। दोनों काफी दूर तक एक-दूसरे का पीछा करते हुए एक-दूसरे से हंसी-मजाक करते रहे। इस दौरान गाड़ी दाएं-बाएं भी घुमाते रहे सड़क पर। एक कार वाले ने टोंका इसके लिए तो बोले-'यहां आगे कोई बढ़ता ही नहीं तो क्या करें।'
एक जगह गाड़ी रोककर कुछ लेने गए। पान-मसाले की पूड़िया लटकी थीं दुकान पर। हमको लगा कि मसाले की पुड़िया लेने गए हैं। लेकिन लौटने पर देखा कि उनके हाथ में एक बिस्कुट का पैकेट था। उसे खाते हुए गाड़ी चलाते हुए वे हमको गेस्ट हाउस विदा करके चले गए।
जाते समय उनको भुगतान करने की बारी आई तो लगा कि जो पैसा वो शुरु में कह रहे थे वही जायज था। उसी हिसाब से भुगतान भी किया तो वे खुश हो गए और शुक्रिया कह कर गए।
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