शहर में बहुत भीड़ है। सड़कें गाड़ियों के नीचे दबी हैं। फुटपाथ पर या तो दुकानदारों का क़ब्ज़ा है या बेघरबार लोग अपना अस्थाई ठिकाना बनाए हुए हैं।
जहां-जहां मेट्रो बन रही है वहाँ सड़क तीन भागों में बंट गयी है। बीच का भाग मेट्रो बनाने के लिए घेरा गया है। बाक़ी सड़क आने-जाने के लिए छोड़ दी गयी है। चलो रेंगते हुए, बचते-बचाते।
कल सीटीआई चौराहे से विजय नगर की तरफ़ आते हुए देखा बड़ा गड्ढा ख़ुदा हुआ है। विजय नगर के नाले (गंदा नाला) समानांतर दस मीटर लम्बा गड्ढा। एक बच्ची वहाँ कुर्सी पर बैठी उबासी लेती सड़क से लोगों, वाहनों को गुजरते देख रही थी। बग़ल में कई झोपड़ियाँ बनी हैं। एकदम नाले के ऊपर। वर्षों से ये झोपड़ियाँ ऐसे ही ही बनी हुई हैं। किसी भी तरह के परिवर्तन, विकास-विकास की औक़ात नहीं क़ि इनका बाल-बाँका कर सके।
बच्ची से झोपड़ी के बग़ल में खुदे गड्डे के बारे में पूछा तो उसने बताया -'यहाँ स्टेशन निकल आया है। वही बनेगा।'
स्टेशन निकल आया मतलब मेट्रो स्टेशन। शायद विजय नगर मेट्रो स्टेशन। स्टेशन बनेगा तो झोपड़ियाँ हटेंगी। कुछ नया बनने के लिए पुराना हटेगा ही। हटाने से याद आया कि इस बीच विजय नगर चौराहे पर लगी महाकवि भूषण की मूर्ति भी हट चुकी है।
बच्ची से पूछा कि फिर तुम कहाँ जाओगी? उसने कुछ जवाब नहीं दिया। सोच रही होगी शायद -'इस बेवक़ूफ़ी भरी बात का क्या जवाब दिया जाए?'
वहीं पास खटिया पर लेते एक आदमी से बात की। पता चला पास बैठी बच्ची और बग़ल में खेलते बच्चे का पिता है वह। खटिया और उसपर के बिस्तर वर्षों से ऐसे ही पड़े लग रहे थे।
पता चला वो 42 साल से यहीं रह रहा है । बस्ती घर है लेकिन रहता यहीं है। पत्नी बस्ती में है। बच्चे इसके साथ। होटल में खाना बनाने का काम करता है। बच्चों के लिए भी वही बनाता है। बच्चे पढ़े नहीं। स्कूल गए होंगे लेकिन स्कूल और बच्चे एक-दूसरे को रास नहीं आए होंगे।
स्टेशन बनाने के लिए झोपड़ी हटेगी तो कहाँ जाओगे पूछने पर बताया -'देखेंगे कहीं जुगाड़। अभी तो हफ़्ते भर की मोहलत मिली है।
हफ़्ते भर बाद जिसका ठीहा उजड़ने वाला है वो आराम से खटिया पर लेता हुआ है। पता चला -' कंधे पर चोट लग गयी । इसलिए काम पर भी नहीं जा पाया।'
आदमी से पूछने पर पता चल कि उसका न आधार कार्ड है , न राशन कार्ड , न वोटर कार्ड। अलबत्ता मोबाइल है पास में। बिना किसी पहचान के ज़िंदगी जी रहा है बंदा।
आधार कार्ड न बनवाने के पीछे कारण बताया -'काम में लगे रहे। बनवा ही नहीं पाए।अब बताते हैं लोग कि दो हज़ार रुपए लगेंगे बनवाने के।'
आगे एक झोपड़ी के बाहर तीन महिलाएँ-बच्चियाँ एक के पीछे एक बैठी-खड़ी बाल काढ़ रहीं थीं, जुएँ बिन रहीं थीं। सबसे आगे वाली महिला ज़मीन पर बैठी थी, उसके पीछे बच्ची खटिया पर बैठी उसके बाल संवार रही थी, उसके पीछे खड़ी बालिका उसके जुएँ बिन रही थी। सब मिलकर अपने समय का दिन दहाड़े क़त्ल कर रहीं थीं।
समय काटने के समाज के हर वर्ग के अपने-अपने उपाय होते हैं। कोई जुएँ बीनते हुए बाल बनाते हुए , कोई लड़ते-झगड़ते, कोई बुराई-भलाई करते, कोई हऊजी-पपलू खेलते पार्टी करते , कोई रोते-झींकते, कोई दुनिया को बरबाद करते और कोई दुनिया की चिंता करते हुए समय बिताता है। हरेक के अपने जायज़ बहाने होते हैं समय बिताने के।
आगे सिग्नल लाल था। एक बच्ची लपक-लपक कर गाड़ियों की खिड़कियाँ खटखटा कर माँग रही थी। हमारी दायीं तरफ़ की खिड़की खुली थी वह उससे सटकर कुछ माँगने लगी।
बच्ची ने बताया-' सुबह से कुछ खाया नहीं। भूख लगी तो माँगने आ गए।'
'सुबह की बजाय दोपहर में क्यों आई माँगने?' -हमने ऐसे पूछा गोया हम उसकी अटेंडेंस लगा रहा हों।
'हमने सोचा घर में होगा कुछ खाने को। इसलिए सुबह नहीं आए। अभी मम्मी से से पूछा तो उसने बताया कुछ है नहीं तो आ गए माँगने।'- बच्ची ने बताया।
मम्मी किधर हैं? मेरे पूछने पर बच्ची बच्ची ने बताया -' बहन को नहला रही हैं हैण्डपम्प पर।'
पास में हैण्डपम्प पर एक महिला बच्ची के सर पर पानी डालकर नहलाती दिखी।
बच्ची मेरी खिड़की से सटी खड़ी थी। उसके माँगने की बात मेरे ज़ेहन में थी लेकिन देने की इच्छा कमजोर सी क्योंकि पर्स पीछे था। बग़ल में रखे होते पैसे तो शायद फ़ौरन दे भी देते। दिमाग़ ने हाथ को आदेश दिया पर्स निकालने के लिए लेकिन हाथ ने आदेश के पालन में लालफ़ीताशाही का मुजाहरा किया। टाल गया दिमाग़ का आदेश। दिमाग़ को लगा उसने आदेश कर दिया अब उसकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हुई। दुनिया में परोपकार के तमाम काम इसी तरह टलते रहते हैं।
इस बीच दिमाग़ में फिर कुलबुलाहट हुई और बच्ची से पूछा -' स्टेशन बनने पर झोपड़ी हटेंगी तो कहाँ जाओगी तुम लोग?'
उसने कहा -' कहीं डाल लेंगे पन्नी।'
इस बीच सिग्नल हरा हो गया। हम गाड़ी हांक कर आगे बढ़ गए। बच्ची दूसरे लोगों के आगे-पीछे घूमते हुए माँगने लगी।
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