http://web.archive.org/web/20110925123200/http://hindini.com/fursatiya/archives/35
पिछली पोस्ट में गोरख पांडेय के बारे में पूछा था-अनामजी ने। गोरख पांडेय संवेदनशील ,जनता के कवि माने जाते हैं। आम जनता की आवाज उनकी कविता का मूल स्वर है।
उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले में १९४५ को जन्मे गोरख पांडेय ने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य हुये। वहां के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। १९७३ में काशी हिंदू विशश्वविद्यालय से एम.ए.(दर्शन शास्त्र) । ‘धर्म की मार्क्सवादी धारणा’ शीर्षक लघु शोध प्रबंध।
१९६९ से ही नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में हिंदी कविता की अराजक धारा से अलगाव,किसान आंदोलन से प्रत्यक्ष जुड़ाव,ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यकर्ता के बतौर कामकाज। इलाहाबाद,बनारस ,लखनऊ मुख्य गतिविधि के क्षेत्र ।आंदोलन के लिये अनेक गीत,कवितायें लिखीं।नये चेहरों को जोड़ा।
१९७० के बाद वाले दशक में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘ज्याँ पाल सात्र के अस्तित्वबाद में अलगाव के तत्व ‘ पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया।१९८३ में ‘जागते रहो सोने वालों’ शीर्षक काव्य -संग्रह प्रकाशित।१९८५ में ‘जन संस्कृति मंच ‘के संस्थापक महासचिव ।
दिमागी बीमारी सिजोफ्रेनिया से परेशान होकर२९ जनवरी,१९८९ को जवाहरलाल विश्वविद्यालय,दिल्ली में आत्महत्या कर ली।उस समय वे विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसियेट थे।
मृत्यु के बाद कविता संग्रह ‘स्वर्ग से विदाई’(१९८९) कविता व गद्य चयन ‘लोहा गरम हो गया है’ (१९९०) जन संस्कृति मंच द्वारा प्रकाशित।
गोरख पांडेय की कुछ कवितायें यहां दी जा रही हैं।
१.आशा का गीत
आयेंगे ,अच्छे दिन आयेंगे
गर्दिश के दिन कट जायेंगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहायेंगे
सपनों की सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहरायेंगे।
२. तुम्हें डर है
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत
मैं तो सिर्फ़
उनके बिखरे हुये शब्दों को
लय और तुक के साथ
लौटा रहा हूं
तुम्हें डर है कि मैं
आग़ भड़का रहा हूं।
३. आंखें देखकर
ये आंखें तुम्हारी
तक़लीफ का उमड़ता हुआ समंदर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिये।
४.बंद खिड़कियों से टकराकर
घर-घर दीवारे हैं
दीवारों में बंद खिड़कियां हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह
नई बहू है, घर की लक्ष्मी है
इनके सपनों की रानी है
कुल की इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह।
क़ानून समान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े बड़ों की नज़रों में तो
धन का एक यंत्र भी है वह
भूल रहे वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है
उसे चाहिये प्यार
चाहिये खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह।
चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुटकर मरना भी
क्या जीना?
घर-घर में श्मशान घाट हैं
घर-घर में फांसी- घर हैं
घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह
गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दंडित हैं।
५.सच्चाई
मेहनत से मिलती है
छिपाई जाती है स्वार्थ से
फिर,मेहनत से मिलती है।
६.समकालीन
कहीं चीख़ उठी है अभी
कहीं नाच शुरु हुआ है अभी
कहीं बच्चा पैदा हुआ है अभी
कहीं फौजें चल पड़ीं हैं अभी।
७ .भेड़िया
i)पानी पिये
नदी के उस पार या इस पार
आगे-नीचे की ओर
या पीछे और ऊपर
पिये या न पिये
जूठा हो ही जाता है पानी
भेड़ गुनहगार ठहरती है
यकीनन भेड़िया होता है
ख़ून के स्वाद का तर्क।
ii)शेर जंगल का राजा है
भेड़िया क़ानून -मंत्री
ताक़तवर और कमज़ोर के बीच
दंगल है
जगह-जगह बिखरे पड़े हैं
खून के छींटे
और हड्डियां
जंगल में मंगल है।
iii)भेड़िया गुर्राता है
ध्यान से सुनकर
आत्मा की आवाज़
भेड़ को खा जाता है।
iv)शिकार पर निकला है भेड़िया
भूगोल के अंधेरे हिस्सों में
भेड़ की खाल ओढ़े
जागते रहो, सोने वालों
भेड़िये से बच्चों को बचाओ।
८.समाजवाद
समाजवाद बबुआ,धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई
घोड़ा से आई
अगरेजी बाजा बजाई समाजवाद…
नोटवा से आई
वोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई,समाजवाद…
गांधी से आई
आंधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद…
कांग्रेस से आई
जनता से आई
झंडा के बदली हो जाई, समाजवाद…
डालर से आई
रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद…
वादा से आई
लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद…
लाठी से आई
गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई, समाजवाद…
महंगी ले आई
ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद…
छोटका के छोटहन
बड़का के बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद…
परसों ले आई
बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद…
धीरे -धीरे आई
चुपे-चुपे आई
अंखियन पर परदा लगाई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई।
९.मेहनतकशों का गीत
किसकी मेहनत और मशक्कत
किसके मीठे-मीठे फल हैं?
अपनी मेहनत और मशक्कत
उनके मीठे-मीठ फल हैं।
किसने ईंट-ईंट जोड़ी है
किसके आलीशान महल हैं?
हमने ईंट-ईंट जोड़ी है
उनके आलीशान महल हैं।
आज़ादी हमने पैदा की
क्यों गुलाम हैं ,क्यों निर्बल हैं?
धन-दौलत का मालिक कैसे
हुआ निकम्मों का दल है?
कैसी है यह दुनिया उनकी
कैसा यह उनका विधान है?
उलटी है यह दुनिया उनकी
उलटा ही उनका विधान है।
हम मेहनत करने वालों के
ही ये सारे मीठे फल हैं
ले लेंगे हम दुनिया सारी
जान गये एका में बल है।
१०.समझदारों का गीत
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले में १९४५ को जन्मे गोरख पांडेय ने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य हुये। वहां के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। १९७३ में काशी हिंदू विशश्वविद्यालय से एम.ए.(दर्शन शास्त्र) । ‘धर्म की मार्क्सवादी धारणा’ शीर्षक लघु शोध प्रबंध।
१९६९ से ही नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में हिंदी कविता की अराजक धारा से अलगाव,किसान आंदोलन से प्रत्यक्ष जुड़ाव,ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यकर्ता के बतौर कामकाज। इलाहाबाद,बनारस ,लखनऊ मुख्य गतिविधि के क्षेत्र ।आंदोलन के लिये अनेक गीत,कवितायें लिखीं।नये चेहरों को जोड़ा।
१९७० के बाद वाले दशक में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘ज्याँ पाल सात्र के अस्तित्वबाद में अलगाव के तत्व ‘ पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया।१९८३ में ‘जागते रहो सोने वालों’ शीर्षक काव्य -संग्रह प्रकाशित।१९८५ में ‘जन संस्कृति मंच ‘के संस्थापक महासचिव ।
दिमागी बीमारी सिजोफ्रेनिया से परेशान होकर२९ जनवरी,१९८९ को जवाहरलाल विश्वविद्यालय,दिल्ली में आत्महत्या कर ली।उस समय वे विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसियेट थे।
मृत्यु के बाद कविता संग्रह ‘स्वर्ग से विदाई’(१९८९) कविता व गद्य चयन ‘लोहा गरम हो गया है’ (१९९०) जन संस्कृति मंच द्वारा प्रकाशित।
गोरख पांडेय की कुछ कवितायें यहां दी जा रही हैं।
१.आशा का गीत
आयेंगे ,अच्छे दिन आयेंगे
गर्दिश के दिन कट जायेंगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहायेंगे
सपनों की सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहरायेंगे।
२. तुम्हें डर है
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत
मैं तो सिर्फ़
उनके बिखरे हुये शब्दों को
लय और तुक के साथ
लौटा रहा हूं
तुम्हें डर है कि मैं
आग़ भड़का रहा हूं।
३. आंखें देखकर
ये आंखें तुम्हारी
तक़लीफ का उमड़ता हुआ समंदर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिये।
४.बंद खिड़कियों से टकराकर
घर-घर दीवारे हैं
दीवारों में बंद खिड़कियां हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह
नई बहू है, घर की लक्ष्मी है
इनके सपनों की रानी है
कुल की इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह।
क़ानून समान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े बड़ों की नज़रों में तो
धन का एक यंत्र भी है वह
भूल रहे वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है
उसे चाहिये प्यार
चाहिये खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह।
चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुटकर मरना भी
क्या जीना?
घर-घर में श्मशान घाट हैं
घर-घर में फांसी- घर हैं
घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह
गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दंडित हैं।
५.सच्चाई
मेहनत से मिलती है
छिपाई जाती है स्वार्थ से
फिर,मेहनत से मिलती है।
६.समकालीन
कहीं चीख़ उठी है अभी
कहीं नाच शुरु हुआ है अभी
कहीं बच्चा पैदा हुआ है अभी
कहीं फौजें चल पड़ीं हैं अभी।
७ .भेड़िया
i)पानी पिये
नदी के उस पार या इस पार
आगे-नीचे की ओर
या पीछे और ऊपर
पिये या न पिये
जूठा हो ही जाता है पानी
भेड़ गुनहगार ठहरती है
यकीनन भेड़िया होता है
ख़ून के स्वाद का तर्क।
ii)शेर जंगल का राजा है
भेड़िया क़ानून -मंत्री
ताक़तवर और कमज़ोर के बीच
दंगल है
जगह-जगह बिखरे पड़े हैं
खून के छींटे
और हड्डियां
जंगल में मंगल है।
iii)भेड़िया गुर्राता है
ध्यान से सुनकर
आत्मा की आवाज़
भेड़ को खा जाता है।
iv)शिकार पर निकला है भेड़िया
भूगोल के अंधेरे हिस्सों में
भेड़ की खाल ओढ़े
जागते रहो, सोने वालों
भेड़िये से बच्चों को बचाओ।
८.समाजवाद
समाजवाद बबुआ,धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई
घोड़ा से आई
अगरेजी बाजा बजाई समाजवाद…
नोटवा से आई
वोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई,समाजवाद…
गांधी से आई
आंधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद…
कांग्रेस से आई
जनता से आई
झंडा के बदली हो जाई, समाजवाद…
डालर से आई
रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद…
वादा से आई
लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद…
लाठी से आई
गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई, समाजवाद…
महंगी ले आई
ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद…
छोटका के छोटहन
बड़का के बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद…
परसों ले आई
बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद…
धीरे -धीरे आई
चुपे-चुपे आई
अंखियन पर परदा लगाई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई।
९.मेहनतकशों का गीत
किसकी मेहनत और मशक्कत
किसके मीठे-मीठे फल हैं?
अपनी मेहनत और मशक्कत
उनके मीठे-मीठ फल हैं।
किसने ईंट-ईंट जोड़ी है
किसके आलीशान महल हैं?
हमने ईंट-ईंट जोड़ी है
उनके आलीशान महल हैं।
आज़ादी हमने पैदा की
क्यों गुलाम हैं ,क्यों निर्बल हैं?
धन-दौलत का मालिक कैसे
हुआ निकम्मों का दल है?
कैसी है यह दुनिया उनकी
कैसा यह उनका विधान है?
उलटी है यह दुनिया उनकी
उलटा ही उनका विधान है।
हम मेहनत करने वालों के
ही ये सारे मीठे फल हैं
ले लेंगे हम दुनिया सारी
जान गये एका में बल है।
१०.समझदारों का गीत
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
Posted in कविता, मेरी पसंद | 16 Responses
यह सब संकलन आया कहां से आपके पास?
प्रत्यक्षा
कविता नम्बर दस (शीर्षकः समझदारों का गीत) , अंतिम सात पंक्तियों की प्रारम्भिक तीन पंक्तियाँ दोहरायी जा रही हैं। वो ऐसे , कि ,इन्हीं पंक्तियों से मिलती-जुलती पंक्तियों के बारे में वर्णन करते हुए , ठेलुहई के पीठाध्यक्ष श्री इन्द्र अवस्थी अपने चिठ्ठे “सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान ” में लिखते हैं , कि , ” गोपाल सिंह कहते हैं ;
करने को तो हम भी कर सकते हैं क्रांति
अगर सरकार हो कमज़ोर
और जनता समझदार”
तो, सवाल और बवाल यह है , कि इन पंक्तियों की कापीराइट किस के पास है ?
मेरे ख्याल से , नाम को ले कर , श्रीयुक्त इन्द्र जी को गलतफहमी हुई है । पढ़ने वालों को , हालाँकि , नाम से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है , फिर भी , किसी एक स्थान पर , संशोधन आवश्यक है (चाहे यहाँ या वहाँ)।
-राजेश
(सुमात्रा)
ठाकुर को धन्यवाद सजगता के लिये
हिंदी के ज्यादातर चर्चित कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के
संकलन हैं.गोरख पांडेय की कवितायें भी पढ तो काफी चुका था
तमाम पत्रिकाओँ मेँ .पिछले ह्फ्ते ‘पुस्तक मेले’ में संकलन
मिला -समय का पहिया.सो उसी से जो कवितायें ज्यादा
उपयुक्त लगीं वे यहां लिखीं.
रवि कामदारजी,प्रेमचन्द के बारे में गूगल सर्च करिये ,
तमाम साहित्य मिल जायेगा.वैसे बचपन में नहीं पढा तो
क्या हुआ अभी तो पढा जा सकता है बाकी भी लेखकों को.
प्रत्यक्षाजी,पसंद का शुक्रिया(गोरख जी की तरफ से?)
राजेश ,ठेलुहा नरेश की टिप्पणी के बाद तुम्हारी शंका तो
वीरगति को प्राप्त हो गयी होगी.वैसे हम तो कवि हैं नहीं
लेकिन जो मुझे लगता है वो यह है कि समय काल के
अनुसार कुछ चीजें जनता की हो जाती हैं. ये तीन लाइनें
भी इसी तरह की है.पहले किसने लिखीं कहना मुश्किल है.
गोरख पांडेय ने भी लिखा है.दूसरे लोगो ने भी लिखा होगा
मिलता-जुलता.चौथी कविता में
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है
जैसी लाइने सैकडोँ सालोँ से लोग प्रयोग करते आ रहे है.
समाजवाद वाला जो गीत है,उस तरह के कई गीत तमाम
दुसरे कवियोँ(नागार्जुन आदि) ने लिखे हैं.भेडिया कविता
की तर्ज की कई कवितायें अशोकचक्रधर लिखचुके हैं.
तो राजा साहेब ,लब्बो-लुआब में यही कहना चाहते हैं
कि यह सँयोग भी हो सकता है कि और दूसरों के चल
गये शब्द समूह को लपक लेने का लोभ भी.तीन्-चार
लाइने किसी की कहीं इधर -उधर हो जाने से किसी
कविता को टोपने का आरोप कम से कम मेरे जैसा
अकवि तो नही लगा सकता.ज्यादा दूर काहे जाते हो
ठेलुहा के गलियोन्मुख,किचनोन्मुख जैसे शब्द् तो
हम टोप सकते हैं लेकिन ठेलहई का पूरा मजा हम
पाने के लिये ठेलुहा के आलस्य-त्याग का ही इन्तजार्
करना पडेगा.इतना ध्यान से पढने के लिये जहां खुशी है
वहीं यह भी लगता है पहले इतना ध्यान से पढे होते तो
अब तक यह आदत छूट चुकी होती तथा हमें इतना
टाइपिंग न करनी पडती.
में कहानियां तथा उपन्यास भी मिलेंगे इस लिंक पर-प्रेमचन्द के.
Today i have seen first time this site, but it is really interesting. Following poem are true picture of real india And it is really a picture of mass .