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सुदामाप्रसाद पाण्डेय’धूमिल’ मेरे पसंदीदा कवि हैं। धूमिल की कविताओं के संकलन ‘संसद से सडक तक’ तथा ‘कलसुनना मुझे’ समकालीन कविता में उल्लेखनीय माने जाते हैं। धूमिल की कविताओं के अंश लोग अपने लेखों ,भाषणों को असरदार बनाने के लिये करते हैं।
धूमिल का जन्म वाराणसी के खेवली गांव में हुआ था। पढ़ने में मेधावी थे लेकिन शिक्षा दसवीं तक ही हुई। दसवीं के बाद आई टी आई वाराणसी से विद्युत प्राप्त करके इसी संस्थान में विद्युत अनुदेशक के रूप में कार्यरत रहे।
३८ वर्ष की अल्पायु में धूमिल की मष्तिष्क ज्वर से मृत्यु हो गयी।
प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह धूमिल के मित्रों में से थे । उन्होंने धूमिल पर बेहद आत्मीय लेख लिखे हैं।जिससे धूमिल की सोच का पता चलता है। धूमिल के बारे में एक लेख प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल ने भी लिखा है जब धूमिल अपने इलाज के सिलसिले में लखनऊ थे। अशोक चक्रधर के संस्मरणात्मक लेख से उनके व्यक्तित्व का अंदाजा लगता है।
धूमिल की कुछ कवितायें अनुभूति में संकलित हैं। लेकिन जिन कविताओं के लिये धूमिल जाने जाते हैं-मोचीराम, राजकमलचौधरी के लिये,अकाल-दर्शन,प्रोढ़ शिक्षा तथा पटकथा, उनमें से कोई कविता यहां उपलब्ध नहीं है।
धूमिल की कुछ कविताओं के अंश यहां मैं दे रहा हैं। शायद आपको पसन्द आयें ।
कविता के बारे में धूमिल का विचार है:-
धूमिल की कवितायें
By फ़ुरसतिया on May 10, 2006
सुदामाप्रसाद पाण्डेय’धूमिल’ मेरे पसंदीदा कवि हैं। धूमिल की कविताओं के संकलन ‘संसद से सडक तक’ तथा ‘कलसुनना मुझे’ समकालीन कविता में उल्लेखनीय माने जाते हैं। धूमिल की कविताओं के अंश लोग अपने लेखों ,भाषणों को असरदार बनाने के लिये करते हैं।
धूमिल का जन्म वाराणसी के खेवली गांव में हुआ था। पढ़ने में मेधावी थे लेकिन शिक्षा दसवीं तक ही हुई। दसवीं के बाद आई टी आई वाराणसी से विद्युत प्राप्त करके इसी संस्थान में विद्युत अनुदेशक के रूप में कार्यरत रहे।
३८ वर्ष की अल्पायु में धूमिल की मष्तिष्क ज्वर से मृत्यु हो गयी।
प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह धूमिल के मित्रों में से थे । उन्होंने धूमिल पर बेहद आत्मीय लेख लिखे हैं।जिससे धूमिल की सोच का पता चलता है। धूमिल के बारे में एक लेख प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल ने भी लिखा है जब धूमिल अपने इलाज के सिलसिले में लखनऊ थे। अशोक चक्रधर के संस्मरणात्मक लेख से उनके व्यक्तित्व का अंदाजा लगता है।
धूमिल की कुछ कवितायें अनुभूति में संकलित हैं। लेकिन जिन कविताओं के लिये धूमिल जाने जाते हैं-मोचीराम, राजकमलचौधरी के लिये,अकाल-दर्शन,प्रोढ़ शिक्षा तथा पटकथा, उनमें से कोई कविता यहां उपलब्ध नहीं है।
धूमिल की कुछ कविताओं के अंश यहां मैं दे रहा हैं। शायद आपको पसन्द आयें ।
कविता के बारे में धूमिल का विचार है:-
एक सही कविताजीवन में कविता की क्या अहमियत है-
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।
कवितालेकिन आज के हालात में -
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।
कवितातथा
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
कविताबुद्धजीवियों,कवियों के बारे में लिखते हुये वे सवाल करते हैं:-
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।
आखिर मैं क्या करूँआज के कठिन समय में प्यार के बारे में लिखते हुये धूमिल कहते हैं:-
आप ही जवाब दो?
तितली के पंखों में
पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में
कौन सा गुल खिला दूँ
जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
हाशिये पर चुटकुला बन रहा है
क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बाँधकर
निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दँ?
एक सम्पूर्ण स्त्री होने केबेकारी, गरीबी, बढ़ती जनसंख्या के बारे में लिखते हुये कहते हैं धूमिल-
पहले ही गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुये
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है।
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुये कहा-देश में एकता ,क्रान्ति के क्या मायने रह गये हैं:-
‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर,खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे हमें
बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
वे चुपचाप सुनते हैंअपराधी तत्वों के मजे हैं आज की व्यवस्था में:-
उनकी आँखों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता
वे इस कदर पस्त हैं-
कि तटस्थ हैं
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति -
यहाँ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।
….और जो चरित्रहीन हैसबसे प्रसिद्ध कविता पंक्तियां धूमिल ने अपनी लंबी कविता पटकथा में लिखीं हैं।इस कविता में आजादी के बाद से सत्तर के दशक तक का देश के हालात का बेबाक लेखा- जोखा है:-
उसकी रसोई में पकने वाला चावल
कितना महीन है।
मुझसे कहा गया कि संसदअंत में धूमिल की लंबी कविता ,मोचीराम, पूरी की पूरी यहां दी जा रही है:-
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।
और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।
एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।
मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।
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Posted in कविता, मेरी पसंद | 31 Responses
स्व. धूमिल जी की कविता कि ये पंक्तियाँ बहुत कुछ जाती हैं।
“और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है”
पढ़कर अच्छा लगा, धूमिल की रचनाएँ कभी धूमिल ना होने वाले भावों से बनीं हैं। वैसे अपने मुक्तिबोध जी भी कुछ कुछ इसी लीक पर लिखते थे और भी अनेक समाजवादी तेवर के कवि इन भावों पर अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं।
आशा है कि आपके अन्य पसंदीदा कवियों के विषय में भी जनता जनार्दन को पढ़ने को मिलेगा। रमानाथ जी के गीत की कुछ पंक्तियां आपने पहले एक बार पोस्ट करीं थीं, “शहनाई सारी रात”, यदि वो गीत याद हो तो कृपया सुनाइएगा।
धूमिल जी से परिचय कराने के लिये धन्यवाद। मुझे इनके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। ‘मोचीराम’बहुत प्रभावशाली और सशक्त रचना है।
Saadhvad.
Dhhomil ki kavitaon me gajab ka khichav hai. Main MA-1st Hindi Literature ke liye mochiram kavita dhoond raha tha. Laga nahi tha ki itni prabhavshali hogi.
Yeh panktiyan sidhe dil par dastak deti hain.
“और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है ”
Aise hi hum sabhi ka ghan vardhan karte rahiye.
Dhanyavad.
उनके नाम पर उनकी रचनाओं के लिए गूगल किया तो यह लिंक मिला. शायद आपको मालूम हो.
http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/dhoomil/index.htm
Namastey,
dhumil is really a exemplary poet, with emotional touch as well a feeling for a gentle and common man, expressing his aspirations and trying to highlight sanctity of his dreams.
congratulation for such a nice blog containin…g beautiful poems/articles etc.
regards,
-om sapra, delhhi-9
9818180932
Namastey,
dhumil was really a exemplary poet, with emotional touch as well a feeling for a gentle and common man, expressing his aspirations and trying to highlight sanctity of his dreams.
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regards,
-om sapra, delhhi-9
9818180932
धन्यवाद