http://web.archive.org/web/20110926075915/http://hindini.com/fursatiya/archives/135
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा…
दिल्ली से मुंबई
के लिये जहाज मिला रात के साढ़े दस बजे।मुंबई पहुँचे रात के सवा बजे।
टैक्सी ड्राइवर हमारा इंतजार कर रहा था। तुरंत पूना के लिये चल दिया।
मुंबई-पूना हाईवे पर झारखंडी ड्राइवर की मुंबइया हिंदी में पिछले बरस मंबई
की बाढ़ के किस्से सुनते हुये हम नींद में डूब गये। नींद खुली तो वो अपने
झारखंड के बचपन के किस्से सुना रहा था तथा बता रहा था कि जन्मभूमि को कोई
कैसे भूल सकता है!
बहरहाल किस्सों में डूबते उतराते जब हम अपने गेस्ट हाउस के कमरे में पहुँचे तो घड़ी चार बजा रही थी। यह समय हमारे बुजुर्गों ने जागने के लिये तय किया है। लेकिन बुजुर्गों से माफी मांगते हुये हम खर्टारे भरने लगे। यह क्रम टूटा सबेरे सात बजे जब चाय आई।चाय आई तो साथ में देबाशीष की याद लाई। हमहू सोचा ,लाओ यार कुछ देर देबू से बतियाई।
बात हुई तो पता चला कि देबू ‘पत्नी विछोह सुख’ लूट रहे हैं। अब मुझे कारण समझ में आया कि कैसे मेरी पूना पहुँचने की मेल की सूचना के जवाब में तुरंत देबू ने मुझे अपने घर में ठहराने का वीरता पूर्ण निमंत्रण दे डाला था-बिना पत्नी से पूछे। पत्नी की अनुपस्थिति में पति ,भले ही वो बंगाली ही क्यों न हो,कितना उदार/बहादुर हो जाता है!
बहरहाल हम पहले से ही दाल में काला भांपते हुये अपने गेस्ट हाउस में रुके। कारण यह भी लालच था कि अपने तमाम दोस्तों से मुलाकात हो जायेगी। जानकारी के लिये बता दूँ कि आयुध निर्माणियों की तीन फैक्ट्रियाँ पूना में हैं। जिनमें से एक तो सन् १८२५ को संस्थापित है। यहाँ सेना के लिये विस्फोटक बनते हैं। यहाँ देश की सबसे पुरानी तथा सबसे आधुनिक तकनीक का अनूठा सम्मिश्रण है।
बहरहाल देबाशीष से हमने कहा,’ भइये तुम्ही अपने को उठा के यहाँ ले आओ। ताकि तुम्हारा कष्ट भी कम हो ,हमारा भी।’
देबू ने हमारा अनुरोध मान लिया-बिना नखरे किये । हम चाय-पीकर राजा बेटा बन कर देबाशीष का इंतजार करने लगे।इंतजार करते-करते आसपास के फोटो भी ‘खैंचे’। उन फोटो में गुलमोहर का भी एक फोटो था।
देबाशीष गेस्ट हाउस के पास ही रहते हैं। सो ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। कुछ ही देर में हम देबाशीष से हाथ मिला रहे थे-दिल पहले ही मिल चुका था।
कुछ देर की गुफ्तगू के बाद हमने देबाशीष को दो किताबें सौंप दीं। रागदरबारी तथा आधा गांव। तीसरी कसप अभी बकाया है। वो भी जल्द ही भेंट की जायेगी।देबू ने एक किताब पर क्या लिखा है बता दिया लेकिन दूसरी के बारे में छिपा गये। दूसरी किताब पर हमने लिखा था-‘ हिंदी ब्लागजगत के पितामह के नाम से विख्यात/कुख्यात देबाशीष के लिये तमाम शुभकामनाओं मंगलकामनाओं के साथ।’
देबू को’ब्लागजगत के पितामह’ की पदवी दी है रविरतलामी ने । यह भी संयोग है कि हमको ब्लाग जगत के महासागर में धकेलने वाले रविरतलामी थे तथा शुरूआत हमने देबाशीष के ब्लाग पर उपलब्ध की बोर्ड से की सहायता से कि थी। पहली पोस्ट में बहुत देर की मेहनत के बाद लिखा था-
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है
फिर तो पता नहीं कहां-कहां की बातें होती रहीं। हमने नाश्ता किया । पता चला कि जहाँ हमें जाना था वह जगह देबाशीष के आफिस के पास ही है। फिर तो हमने अपने लिये जो गाड़ी आनी थी उसे मना कर दिया । सोचा कि देबाशीष के साथ बतियाये हुये जायेंगे।
देबाशीष के स्कूटर पर बैठने से पहले हमने हवा के बारे में पूछ लिया । स्कूटर तथा देबू दोनों की हवा सलामत थी। देबू खरामा-खरामा बंगाली स्पीड में स्कूटर चलाते हुये हमें लेकर चल दिये। हम रास्ते भर बतियाते रहे। देबू चूंकि आवारा टाइप के नहीं हैं लिहाजा उनको अपने आफिस के आस-पास की भी तमाम जगहों का अंदाजा नहीं है। हम जब होटल पहुंचे जहां हमारी ट्रेनिंग होने वाली थी तो दस बज रहे थे। देबू हमें छोड़कर आफिस चले गये।
बीच में एकाध बार बात हुई। शाम को जब मेरी क्लास छूटी तो देबू से फिर बात हुई। हमने कहा कि तुम अपना काम करो। शाम को मिलते हैं। देबू मान से भी गये तथा हमें जाने के दो-तीन रास्ते, तरीके बता दिये।इस बीच हम वहीं ‘सोहराब हाल’ में देबाशीष की बताई किताब की दुकान ‘क्रासवर्ड’ में भी टहल आये। वहाँ हर तरफ अंग्रेजी की किताबें पसरी थीं। हम बिना हल किये ‘क्रासवर्ड’ से बाहर आ गये।
इसके बाद हम जाने के सबसे फुरसतिया तथा फोकटिया तरीके का विचार करते बस का इंतजार करते रहे। हम प्रस्थान करने ही वाले थे कि देबाशीष पर ‘अतिथि देवो भव’ के वायरस ने हमला कर दिया। देवता के रोमिंग पर आ चुके मोबाइल के दस रुपये फूंकते हुये वो बोले-आप वहीं रुको मैं आता हूँ।
हम रुक गये। मैं देबाशीष के आने की राह तथा सड़क पर गुजरती सुंदरियों को ताकने लगा। कुछ देर में देबू ने हमारी तपस्या भंग की। तथा हमें तपस्या के फल के रुप में चाय पिलाने का आग्रह किया।आदमी किसी प्रिय से मिलने पर भावविभोर हो जाता है। सुदामा जब कृष्ण से मिले तो कृष्ण वावरे हो गये थे तथा पानी की जगह आँसुओं से ही उनके पैर धोने लगे-
चाय के एक कप की कीमत देखते ही हमें जो चाय अभी तक सर्व भी न की गई थी -उसका स्वाद खराब लगने लगा। मुझे लगता है कि देश के किसी भी हिस्से में चाय की कीमत अगर रुपयों में दो अंको से अधिक है तो वह चाय पीना बेवकूफी है। लेकिन देबू के कारण यह बेवकूफी करनी पड़ी।वैसे हमने कहा भी -आओ यार,कहीं ढाबे पर पीते हैं चाय।लेकिन देबू का सिस्टम अभी तक ‘अतिथि देवो भव’ के वायरस की चपेट में था।
बहरहाल ,हमने चाय तो पी ही। वातानुकूलित हवा का आनंद लेते हुये ढेर सारी बातें की। पता नहीं किन-किन मुद्दों पर,किन-किन लोगों के बारे में। देबाशीष ने कई लोगों की बहुत तारीफ की। जिनमें आलोक,रमन,पंकज,सुनीलदीपक,हिंदीब्लागर आदि इत्यादि के नाम प्रमुख । जीतू की उछल-कूद भी चर्चा से बाहर कैसे रह सकती है(ये नाम मैंने स्मृति के आधार पर लिखे और लोग अपना नाम सुविधानुसार जोड़ लें)। रवि रतलामी भी थे भाई समय बरवाद करने वाली चर्चा में थी इनकी टाइपिंग स्पीड तथा देबाशीष का बयान-’रवि भाई,पता नहीं कहां-कहां लिखते रहते हैं। गजब की स्पीड है भाई।’ तमाम बातें होतीं रहीं। घंटों। शाम होने पर मैं लौट आया। देबू अपने आफिस चले गये। बाद में रात को फिर गेस्ट हाउस में मिलना तय हुआ ।
रात को हम देबू का इंतज़ार करते रहे। आना करीब साढ़े नौ पर तय हुआ था। खाने वाला बार-बार घंटी बजा बजा रहा था-साहब,खाना तैयार है। हम बार-बार कह रहे थे -खाने वाले तो आ जायें।
बहरहाल, खाने वाले समय पर आये । हम खाना खाने के लिये डाइनिंग हाल में गये। खाकर फिर कमरे में आ गये। बतकही होने लगी। हम दोनों ‘दून की’ हाँकने लगे।
इस बीच हमने एक किताब पढ़ी थी ‘हरसूद-३० जून’ । यह वह कस्बा है जो कि तीस जून,२००४ को नर्मदा सागर बाँध परियोजना में डूब गया। सहारा समय के पत्रकार विजय मनोहर तिवारी ने डूब क्षेत्र के लोगों की परेशानियों का प्रत्यक्ष रिपोर्टिंग के बाद के अनुभव इस किताब में लिखे हैं।जो लोग बिना दूसरों की परेशानी जाने मेधा पाटकर या किसी दूसरे पर्यावरणविद को विकास विरोधी बताते हुये बेसाख्ता कोसते हैं उनको ‘हरसूद-३० जून’ तथा वीरेंद्र जैन का उपन्यास ‘डूब’ पढ़ना चाहिये तथा बशीर बद्र का शेर याद करना चाहिये-
इस बीच अतुल,देबू,स्वामी के रिश्ते भी कुछ गरमाहट भरे रहे। हमनें बहुत देर इस मुद्दे पर बातचीत की। संयोग कुछ ऐसा है कि ये तीनों ही हमारे बहुत प्यारे दोस्त हैं। यह भी संयोग है कि मुझे लगता है कि मैं सबके व्यक्तित्व की ‘केमेस्ट्री’ से बहुत हद वाकिफ हूँ।
मजे की बात कि अतुल के लेखन के देबाशीष मुरीद हैं,देबू के तकनीकी कौशल और तमाम दूसरी बातों का लोहा स्वामी तथा अतुल मानते हैं स्वामी के दिल के खरे होने की कसमें अतुल खाते हैं( जिनको स्वामी के साथ ईमेलिया मल्ल का बेहतरीन अनुभव है)। सच तो यह है कि इन बेचारों के पास अपनी अइसी कोई बुरी आदत नहीं है जिसकी ढील देते हुये लेकर ये अपने गरमाहट के पेंच बहुत देर तक लड़ा सकें। लेकिन लगता है कि दूरियाँ कुछ दरार बना ही देती है। इसीलिये कहते हैं मिलते रहा करो- दिल मिले न मिले ,हाथ मिलाते रहिये।
दिल-हाथ मिलाते रहना जरूरी भी है। नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि इधर आप पेंच लड़ाने में मसगूल रह जाओ और उधर को लंगड़ डाल के सारा मंझा तथा पतंग लूट ले जाये।
इस मुद्दे पर बतियाते हुये हमने अइसे-अइसे सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विष्लेषण किये कि अगर कहीं उन सबको नेट पर प्रकाशित करा दें तो तमाम समाजविज्ञानी-मनोवैज्ञानिक गण्डा बँधाने चले आयें।लेकिन कौन पड़े झमेले में! आसान नहीं है खलीफागिरी आजकल।
निष्कर्षत: हमने बयान जारी किया –
अगले दिन दोपहर के बाद हमारा काम खतम हो गया। चार बजे हमने देबू को बताया । फिर से हम चल दिये अड्डेबाजी के लिये। इस बार अड्डा बना देबाशीष के आफिस के पास का होटल-मधुबन। अड्डे की तरफ जाते हुये देबू ने दूर से अपना आफिस भी दिखाया। हमने कहा कि चलो जरा उसकी भी खिंचाई(फोटो) कर लेते हैं। लेकिन देबू बोले-चलिये पहले चाय पी लेते हैं। तब आराम से बैठेंगे आफिस में।
वैसे हम पहले एक लखनवी चाट की दुकान में चाय पीने गये। वहां देबू ने होटलवाले को मेज साफ करने के लिये कहा। वेटरों में शायद ‘पहले आप,पहले आप’ शुरू हो गया होगा। लिहाजा मेज पर न्यूटन का पहला नियम लग गया।उसकी स्थिति बहुत देर तक जस की तस बनी रही।
चाय की दुकान हमें बहुत भली लगी। काहे से कि चाय की कीमत चार रुपये थी। दूसरी बात पर्याप्त भीड़ भी थी दुकान में । लुटने का कोई खतरा नहीं था। वेटर ने फोटो भी मुफ्त में खींचा।
यहाँ होटल मधुबन में भी ऐतिहासिक वार्ता हुई। देबू ने हमें ‘इंडीब्लागर अवार्ड’ की बची हुई ‘टी शर्ट’ भेंट की। यह तय था कि यह तो मुझे लेनी ही है,लिहाजा मैंने थोडी़ देर ना-नुकर भी की। फिर बिना शरमाये ग्रहण कर ली।
यहीं देबाशीष ने निरंतर को दुबारा चलाने के बारे में फिर से विस्तार से बातें कीं। निरंतर लगता है देबू के लिये वह तोता हो गया है जिसमें देबू की जान बसती है। देबाशीष ने फिर रमन की तारीफ की निरंतर का डोमैन खतम होने के बहुत पहले उन्होंने देबाशीष को सारे पासवर्ड वगैरह दे दिये थे ताकि देबू निरंतर का डोमैन ‘रिन्यू’ करा ले।
देबाशीष ने मुझसे निरंतर के संचालन के लिये सहयोग मांगा। देबाशीष दूरदर्शी भी हैं। सहयोग की बात करने के पहले इसके पहले आलू चिप्स में नमक मिलाकर खिला चुके थे। अब जिस शहर के लाड़ले का नमक खा लिया तो उसको कैसे मना किया जा सकता है! लिहाजा हम बोले-तथास्तु!
हमने सोचा मौका ऐतिहासिक बनाने के लिये एकाध डायलाग मारने की परम्परा है सो मार दिया जाय।सो हमने – मेरा हर तरह का सहयोग तुम्हारे साथ है। हो सकता है कि हमारे-तुम्हारे कुछ मतभेद बनें रहें लेकिन मतभेद रहें या न रहें सहयोग हमेशा बना रहेगा- अनकंडीशनल मतलब बिना शर्त का।
देबू ने हमारे सहयोग के ठीकरे को बिना भावुक हुये समेट लिया यह कहते हुये कि जब कोई मतभेद की बात हो तो मन में मत रखना,बता जरूर देना।
पता नहीं ससुरे समय को क्या जल्दी पड़ी थी। सरकता जा रहा था-सरपट। कुछ ही देर में हम विदा हुये।तमाम सारी यादें समेटे हुये। इस विदा बेला की हड़बड़ी में देबू के आफिस की फोटो छूट गयी।
अपनी बात खतम करूँ उसके पहले देबू नेझूठी तारीफ करते हुये जो अन्याय हमारे साथ किया उसका जरा कुछ बदला चुका लूँ।
हमारे ख्याल में सबसे पहली खटपट देबू से हमारी ही हुई थी। हमारे ब्लाग का स्वागत करते हुये हमारी भाषा के बारे में कुछ टिप्पणी देबू ने की थी। हमने देबू की खूब खिंचाई की। देबू ने अपनी टिप्पणी में सुधार कर लिया। लेकिन जो चोट देबू ने अपने टिप्पणी वापस लेकर हमें दी वह आजतक कसकती है। तथा हमें अपनी सबसे खराब पोस्ट वही लगती है जिसमें हमने देबू की खिंचाई की थी तथा जिसमें देबू की अफसोसनामे की टिप्पणी है।। लेकिन हमने यह पोस्ट हटाई नहीं -ताकि सनद रहे(सुन रहे हो अतुल)।
यह वह समय था जब हिंदी ब्लागजगत की हवायें देबू के इशारे पर बहतीं थीं।
समय के साथ हमारा देबू के साथ याराना बढ़ता गया। तमाम यादगारें जुड़ीं।बहुत कँजूस तारीफ करने वाला होने के बावजूद देबू हमारे लेखन के मुरीद होते गये (ऐसा वही कहते हैं)तथा यदाकदा तारीफ भी करते पाये गये। तथा हम देबू के उस तकनीकी कौशल के प्रशंसक होते गये जो हमारे पल्ले ही नहीं पड़ता था।
अभी देबू की पोस्ट से यह भी पता चला कि हमारा लिखा भी बहुत कुछ उनके पल्ले नहीं पड़ता है। इस लिहाज से हम दोनों बराबर के धरातल पर हैं -दोनों को एक दूसरे का बेहतरीन पक्ष समझ नहीं आता इसलिये एक-दूसरे के मुरीद हैं।
तमाम उतार चढ़ाव के साथ नये लोग जुड़ते चले गये। फिर निरंतर का प्रकाशन शुरू हुआ। लगभग सभी लोग जुड़े थे इसमें लेकिन मुझे लगता है सबसे ज्यादा मेहनत इसमें देबू ने तथा फिर रमन ने की। जुड़े हम भी थे लेकिन तकनीकी तंगी का बहाना करते हुये कई बार बच निलतते थे। देबू को मेहनत बहुत पड़ गई।देबाशीष ने सँपादन का भार किसी और से संभालने की बात कहते हुये संपादन का काम रोक दिया। देबाशीष के बाद सँपादक मँडल में सभी के सामने खुली चुनौती थी, पत्रिका कोचलाने की,लेकिन देबू के बाद पत्रिका चल नहीं सकी।
नतीजतन अगस्त के महीने में निरंतर की स्थिति भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की तरह हो गई। उसकी तमाम खुशनुमा यादें तो बनी रहीं लेकिन पत्रिका निकल नहीं पाई।
बाद में पत्रिका बंद होने के तमाम कारणों में देबू का अपनी बात मनवाने पर अड़ने के रवैया तथा दंभी स्वभाव भी चर्चा में रहा। इसके बाद भी इंडीब्लागीस के समय भी हमने भी देबू को कुछ बातों के लिये कोसा । लेकिन देबू ने जो ठीक समझा, किया। सफलतापूर्वक किया।
देबू से मैंने इस मुद्दे पर बात नहीं की लेकिन जितना मैं जानता हूँ और जितना मैं दो दिन में समझ पाया मुझे लगता है कि
ये ‘बच्चा’ अड़ियल हो सकता है ,दंभी कतई नहीं है।
देबाशीष ने अपनी व्यस्तता का जिक्र करते हुये बताया कि वो सबेरे दस बजे आफिस के लिये निकलकर रात को नौ कभी-कभी दस बजे तक घर पहुँचते हैं। डेस्क पर बैठे-बैठे गरदन अकड़ जाती है। आजकल गरदन के दर्द के कारण हेलमेट तक नहीं लगा पाते।ऐसे में मनचाहा काम करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
देबू बोलते हैं तो बहुत नापतौल कर। यह आदत न बंगालियों से मेल खाती है न बनारसी से-जो बोलते हैं तो बिन्दास बोलते हैं। आवाज का उतार चढ़ाव भी एकदम ‘कंट्रोल्ड’।
मुझे लगा कि अगर संभव होता तो मैं स्वामी की उद्दंडता( कहना मैं शरारत चाहता हूं लेकिन उद्दंडता का मजा ही कुछ और स्वामीजी इसे बिना बुरा माने ग्रहण करें । बुरा मानने की स्थिति में सूचित करें व उद्दंडता को समुचित शब्द से बदलने का सुझाव भी भेजें।),अतुल की कुछ किस्सा गोई जीतेंदर का कुछ गैरजिम्मे दाराना अंदाज़ देबाशीष को ट्रांसफर कर देता। मेरे पास देने को कुछ है नहीं सिवा आवारगी के जज्बे के। लेकिन खुदा गंजे को नाखून नहीं देता।सो जैसा है उसी से काम चलाना पड़ेगा।
देबाशीष ने मेरी बहुत तारीफ कर दी । बहुत झूठ बोला। मैं झूठी तारीफ करके देबू को पानी पर नहीं चढ़ाना चाहता । लेकिन सच यह है कि देबाशीष से मिलना मेरे लिये एक उपलब्धि रही। जाने- अनजाने तमाम अवसरों पर किये देबाशीष की खिंचाई याद आई तथा यह सोचकर अफसोस हुआ कि सही या गलत उस समय देबाशीष अकेला था। तमाम मतभेदों पर बातचीत करते हुये देबू के लहजे में किसी के भी प्रति किसी किसिम की कटुता नहीं थी। अपनी कमजोरी भी बताई देबू ने -मैं किसी से बहुत दिन तक नाराज नहीं रह सकता।
मैं जब गया था पूना तो एक ब्लागर से मिलने गया था। लेकिन वहाँ मिले ‘छुटभैये’ ।’छुटभैये’ बड़े खतरनाक होते हैं।लेकिन ज्ञान,समझ,तकनीकी अनुभव,उत्साह में हमसे मीलों आगे खड़े ये ‘छुटभैयों’ से बचा भी तो नहीं जा सकता है।इनके साथ का भी मजा ही कुछ और है। इनके साथ का सुख तो ‘गूंगे का गुड़’ होता है। बयान नहीं किया जा सकता है,अनुभव किया जा सकता है।
मेरी चाहना सिर्फ यही है कि देबाशीष ने जो ‘बड़प्पन’ मेरे ऊपर थोपा है मैं उसके भ्रम की की निरंतरता बनाये रखने में सहयोग कर सकूँ।
तो यह रही पूना ब्लागर कथा जैसे मुझे याद रही तथा जैसी हमने महसूस करी। कुछ आप बतायें कैसी लगी भेंटवार्ता।
मेरी पसन्द
बहरहाल किस्सों में डूबते उतराते जब हम अपने गेस्ट हाउस के कमरे में पहुँचे तो घड़ी चार बजा रही थी। यह समय हमारे बुजुर्गों ने जागने के लिये तय किया है। लेकिन बुजुर्गों से माफी मांगते हुये हम खर्टारे भरने लगे। यह क्रम टूटा सबेरे सात बजे जब चाय आई।चाय आई तो साथ में देबाशीष की याद लाई। हमहू सोचा ,लाओ यार कुछ देर देबू से बतियाई।
बात हुई तो पता चला कि देबू ‘पत्नी विछोह सुख’ लूट रहे हैं। अब मुझे कारण समझ में आया कि कैसे मेरी पूना पहुँचने की मेल की सूचना के जवाब में तुरंत देबू ने मुझे अपने घर में ठहराने का वीरता पूर्ण निमंत्रण दे डाला था-बिना पत्नी से पूछे। पत्नी की अनुपस्थिति में पति ,भले ही वो बंगाली ही क्यों न हो,कितना उदार/बहादुर हो जाता है!
बहरहाल हम पहले से ही दाल में काला भांपते हुये अपने गेस्ट हाउस में रुके। कारण यह भी लालच था कि अपने तमाम दोस्तों से मुलाकात हो जायेगी। जानकारी के लिये बता दूँ कि आयुध निर्माणियों की तीन फैक्ट्रियाँ पूना में हैं। जिनमें से एक तो सन् १८२५ को संस्थापित है। यहाँ सेना के लिये विस्फोटक बनते हैं। यहाँ देश की सबसे पुरानी तथा सबसे आधुनिक तकनीक का अनूठा सम्मिश्रण है।
बहरहाल देबाशीष से हमने कहा,’ भइये तुम्ही अपने को उठा के यहाँ ले आओ। ताकि तुम्हारा कष्ट भी कम हो ,हमारा भी।’
देबू ने हमारा अनुरोध मान लिया-बिना नखरे किये । हम चाय-पीकर राजा बेटा बन कर देबाशीष का इंतजार करने लगे।इंतजार करते-करते आसपास के फोटो भी ‘खैंचे’। उन फोटो में गुलमोहर का भी एक फोटो था।
देबाशीष गेस्ट हाउस के पास ही रहते हैं। सो ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। कुछ ही देर में हम देबाशीष से हाथ मिला रहे थे-दिल पहले ही मिल चुका था।
कुछ देर की गुफ्तगू के बाद हमने देबाशीष को दो किताबें सौंप दीं। रागदरबारी तथा आधा गांव। तीसरी कसप अभी बकाया है। वो भी जल्द ही भेंट की जायेगी।देबू ने एक किताब पर क्या लिखा है बता दिया लेकिन दूसरी के बारे में छिपा गये। दूसरी किताब पर हमने लिखा था-‘ हिंदी ब्लागजगत के पितामह के नाम से विख्यात/कुख्यात देबाशीष के लिये तमाम शुभकामनाओं मंगलकामनाओं के साथ।’
देबू को’ब्लागजगत के पितामह’ की पदवी दी है रविरतलामी ने । यह भी संयोग है कि हमको ब्लाग जगत के महासागर में धकेलने वाले रविरतलामी थे तथा शुरूआत हमने देबाशीष के ब्लाग पर उपलब्ध की बोर्ड से की सहायता से कि थी। पहली पोस्ट में बहुत देर की मेहनत के बाद लिखा था-
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है
फिर तो पता नहीं कहां-कहां की बातें होती रहीं। हमने नाश्ता किया । पता चला कि जहाँ हमें जाना था वह जगह देबाशीष के आफिस के पास ही है। फिर तो हमने अपने लिये जो गाड़ी आनी थी उसे मना कर दिया । सोचा कि देबाशीष के साथ बतियाये हुये जायेंगे।
देबाशीष के स्कूटर पर बैठने से पहले हमने हवा के बारे में पूछ लिया । स्कूटर तथा देबू दोनों की हवा सलामत थी। देबू खरामा-खरामा बंगाली स्पीड में स्कूटर चलाते हुये हमें लेकर चल दिये। हम रास्ते भर बतियाते रहे। देबू चूंकि आवारा टाइप के नहीं हैं लिहाजा उनको अपने आफिस के आस-पास की भी तमाम जगहों का अंदाजा नहीं है। हम जब होटल पहुंचे जहां हमारी ट्रेनिंग होने वाली थी तो दस बज रहे थे। देबू हमें छोड़कर आफिस चले गये।
बीच में एकाध बार बात हुई। शाम को जब मेरी क्लास छूटी तो देबू से फिर बात हुई। हमने कहा कि तुम अपना काम करो। शाम को मिलते हैं। देबू मान से भी गये तथा हमें जाने के दो-तीन रास्ते, तरीके बता दिये।इस बीच हम वहीं ‘सोहराब हाल’ में देबाशीष की बताई किताब की दुकान ‘क्रासवर्ड’ में भी टहल आये। वहाँ हर तरफ अंग्रेजी की किताबें पसरी थीं। हम बिना हल किये ‘क्रासवर्ड’ से बाहर आ गये।
इसके बाद हम जाने के सबसे फुरसतिया तथा फोकटिया तरीके का विचार करते बस का इंतजार करते रहे। हम प्रस्थान करने ही वाले थे कि देबाशीष पर ‘अतिथि देवो भव’ के वायरस ने हमला कर दिया। देवता के रोमिंग पर आ चुके मोबाइल के दस रुपये फूंकते हुये वो बोले-आप वहीं रुको मैं आता हूँ।
हम रुक गये। मैं देबाशीष के आने की राह तथा सड़क पर गुजरती सुंदरियों को ताकने लगा। कुछ देर में देबू ने हमारी तपस्या भंग की। तथा हमें तपस्या के फल के रुप में चाय पिलाने का आग्रह किया।आदमी किसी प्रिय से मिलने पर भावविभोर हो जाता है। सुदामा जब कृष्ण से मिले तो कृष्ण वावरे हो गये थे तथा पानी की जगह आँसुओं से ही उनके पैर धोने लगे-
‘पानी परात को हाथ छुओ नहिं नैनन के जल सों पग धोये।’यहाँ हम दोनों ही पर्याप्त बौराये थे सो बिना कुछ बिचारे बियर की दुकान में चाय पीने घुस गये। और जब बिना बिचारे का इनपुट दिया जायेगा तो पछताने का आउटपुट आना लाजिमी था। चाय की कीमत साठ रुपये!
चाय के एक कप की कीमत देखते ही हमें जो चाय अभी तक सर्व भी न की गई थी -उसका स्वाद खराब लगने लगा। मुझे लगता है कि देश के किसी भी हिस्से में चाय की कीमत अगर रुपयों में दो अंको से अधिक है तो वह चाय पीना बेवकूफी है। लेकिन देबू के कारण यह बेवकूफी करनी पड़ी।वैसे हमने कहा भी -आओ यार,कहीं ढाबे पर पीते हैं चाय।लेकिन देबू का सिस्टम अभी तक ‘अतिथि देवो भव’ के वायरस की चपेट में था।
बहरहाल ,हमने चाय तो पी ही। वातानुकूलित हवा का आनंद लेते हुये ढेर सारी बातें की। पता नहीं किन-किन मुद्दों पर,किन-किन लोगों के बारे में। देबाशीष ने कई लोगों की बहुत तारीफ की। जिनमें आलोक,रमन,पंकज,सुनीलदीपक,हिंदीब्लागर आदि इत्यादि के नाम प्रमुख । जीतू की उछल-कूद भी चर्चा से बाहर कैसे रह सकती है(ये नाम मैंने स्मृति के आधार पर लिखे और लोग अपना नाम सुविधानुसार जोड़ लें)। रवि रतलामी भी थे भाई समय बरवाद करने वाली चर्चा में थी इनकी टाइपिंग स्पीड तथा देबाशीष का बयान-’रवि भाई,पता नहीं कहां-कहां लिखते रहते हैं। गजब की स्पीड है भाई।’ तमाम बातें होतीं रहीं। घंटों। शाम होने पर मैं लौट आया। देबू अपने आफिस चले गये। बाद में रात को फिर गेस्ट हाउस में मिलना तय हुआ ।
रात को हम देबू का इंतज़ार करते रहे। आना करीब साढ़े नौ पर तय हुआ था। खाने वाला बार-बार घंटी बजा बजा रहा था-साहब,खाना तैयार है। हम बार-बार कह रहे थे -खाने वाले तो आ जायें।
बहरहाल, खाने वाले समय पर आये । हम खाना खाने के लिये डाइनिंग हाल में गये। खाकर फिर कमरे में आ गये। बतकही होने लगी। हम दोनों ‘दून की’ हाँकने लगे।
इस बीच हमने एक किताब पढ़ी थी ‘हरसूद-३० जून’ । यह वह कस्बा है जो कि तीस जून,२००४ को नर्मदा सागर बाँध परियोजना में डूब गया। सहारा समय के पत्रकार विजय मनोहर तिवारी ने डूब क्षेत्र के लोगों की परेशानियों का प्रत्यक्ष रिपोर्टिंग के बाद के अनुभव इस किताब में लिखे हैं।जो लोग बिना दूसरों की परेशानी जाने मेधा पाटकर या किसी दूसरे पर्यावरणविद को विकास विरोधी बताते हुये बेसाख्ता कोसते हैं उनको ‘हरसूद-३० जून’ तथा वीरेंद्र जैन का उपन्यास ‘डूब’ पढ़ना चाहिये तथा बशीर बद्र का शेर याद करना चाहिये-
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने मेंहम लोग विजय मनोहर तिवारी से बातचीत के बारे में योजना बनाते रहे।
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने (उजाड़ने)में।
इस बीच अतुल,देबू,स्वामी के रिश्ते भी कुछ गरमाहट भरे रहे। हमनें बहुत देर इस मुद्दे पर बातचीत की। संयोग कुछ ऐसा है कि ये तीनों ही हमारे बहुत प्यारे दोस्त हैं। यह भी संयोग है कि मुझे लगता है कि मैं सबके व्यक्तित्व की ‘केमेस्ट्री’ से बहुत हद वाकिफ हूँ।
मजे की बात कि अतुल के लेखन के देबाशीष मुरीद हैं,देबू के तकनीकी कौशल और तमाम दूसरी बातों का लोहा स्वामी तथा अतुल मानते हैं स्वामी के दिल के खरे होने की कसमें अतुल खाते हैं( जिनको स्वामी के साथ ईमेलिया मल्ल का बेहतरीन अनुभव है)। सच तो यह है कि इन बेचारों के पास अपनी अइसी कोई बुरी आदत नहीं है जिसकी ढील देते हुये लेकर ये अपने गरमाहट के पेंच बहुत देर तक लड़ा सकें। लेकिन लगता है कि दूरियाँ कुछ दरार बना ही देती है। इसीलिये कहते हैं मिलते रहा करो- दिल मिले न मिले ,हाथ मिलाते रहिये।
दिल-हाथ मिलाते रहना जरूरी भी है। नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि इधर आप पेंच लड़ाने में मसगूल रह जाओ और उधर को लंगड़ डाल के सारा मंझा तथा पतंग लूट ले जाये।
इस मुद्दे पर बतियाते हुये हमने अइसे-अइसे सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विष्लेषण किये कि अगर कहीं उन सबको नेट पर प्रकाशित करा दें तो तमाम समाजविज्ञानी-मनोवैज्ञानिक गण्डा बँधाने चले आयें।लेकिन कौन पड़े झमेले में! आसान नहीं है खलीफागिरी आजकल।
निष्कर्षत: हमने बयान जारी किया –
वो बरतन क्या जो खटके न, वो दोस्त क्या जो भड़के न।बात करते-करते आधी रात से ज्यादा हो गयी।बातें थीं कि खतम हीं नहीं हो रहीं थी। इसी के लिये शायद किसी ने लिखा है-
रात-रात भर बातें की हैं,बहरहाल अगले दिन फिर मिलने का वायदा होकर हमने सभा बरखास्त की।
बात-बात पर रातें की हैं।
अगले दिन दोपहर के बाद हमारा काम खतम हो गया। चार बजे हमने देबू को बताया । फिर से हम चल दिये अड्डेबाजी के लिये। इस बार अड्डा बना देबाशीष के आफिस के पास का होटल-मधुबन। अड्डे की तरफ जाते हुये देबू ने दूर से अपना आफिस भी दिखाया। हमने कहा कि चलो जरा उसकी भी खिंचाई(फोटो) कर लेते हैं। लेकिन देबू बोले-चलिये पहले चाय पी लेते हैं। तब आराम से बैठेंगे आफिस में।
वैसे हम पहले एक लखनवी चाट की दुकान में चाय पीने गये। वहां देबू ने होटलवाले को मेज साफ करने के लिये कहा। वेटरों में शायद ‘पहले आप,पहले आप’ शुरू हो गया होगा। लिहाजा मेज पर न्यूटन का पहला नियम लग गया।उसकी स्थिति बहुत देर तक जस की तस बनी रही।
चाय की दुकान हमें बहुत भली लगी। काहे से कि चाय की कीमत चार रुपये थी। दूसरी बात पर्याप्त भीड़ भी थी दुकान में । लुटने का कोई खतरा नहीं था। वेटर ने फोटो भी मुफ्त में खींचा।
यहाँ होटल मधुबन में भी ऐतिहासिक वार्ता हुई। देबू ने हमें ‘इंडीब्लागर अवार्ड’ की बची हुई ‘टी शर्ट’ भेंट की। यह तय था कि यह तो मुझे लेनी ही है,लिहाजा मैंने थोडी़ देर ना-नुकर भी की। फिर बिना शरमाये ग्रहण कर ली।
यहीं देबाशीष ने निरंतर को दुबारा चलाने के बारे में फिर से विस्तार से बातें कीं। निरंतर लगता है देबू के लिये वह तोता हो गया है जिसमें देबू की जान बसती है। देबाशीष ने फिर रमन की तारीफ की निरंतर का डोमैन खतम होने के बहुत पहले उन्होंने देबाशीष को सारे पासवर्ड वगैरह दे दिये थे ताकि देबू निरंतर का डोमैन ‘रिन्यू’ करा ले।
देबाशीष ने मुझसे निरंतर के संचालन के लिये सहयोग मांगा। देबाशीष दूरदर्शी भी हैं। सहयोग की बात करने के पहले इसके पहले आलू चिप्स में नमक मिलाकर खिला चुके थे। अब जिस शहर के लाड़ले का नमक खा लिया तो उसको कैसे मना किया जा सकता है! लिहाजा हम बोले-तथास्तु!
हमने सोचा मौका ऐतिहासिक बनाने के लिये एकाध डायलाग मारने की परम्परा है सो मार दिया जाय।सो हमने – मेरा हर तरह का सहयोग तुम्हारे साथ है। हो सकता है कि हमारे-तुम्हारे कुछ मतभेद बनें रहें लेकिन मतभेद रहें या न रहें सहयोग हमेशा बना रहेगा- अनकंडीशनल मतलब बिना शर्त का।
देबू ने हमारे सहयोग के ठीकरे को बिना भावुक हुये समेट लिया यह कहते हुये कि जब कोई मतभेद की बात हो तो मन में मत रखना,बता जरूर देना।
पता नहीं ससुरे समय को क्या जल्दी पड़ी थी। सरकता जा रहा था-सरपट। कुछ ही देर में हम विदा हुये।तमाम सारी यादें समेटे हुये। इस विदा बेला की हड़बड़ी में देबू के आफिस की फोटो छूट गयी।
अपनी बात खतम करूँ उसके पहले देबू नेझूठी तारीफ करते हुये जो अन्याय हमारे साथ किया उसका जरा कुछ बदला चुका लूँ।
हमारे ख्याल में सबसे पहली खटपट देबू से हमारी ही हुई थी। हमारे ब्लाग का स्वागत करते हुये हमारी भाषा के बारे में कुछ टिप्पणी देबू ने की थी। हमने देबू की खूब खिंचाई की। देबू ने अपनी टिप्पणी में सुधार कर लिया। लेकिन जो चोट देबू ने अपने टिप्पणी वापस लेकर हमें दी वह आजतक कसकती है। तथा हमें अपनी सबसे खराब पोस्ट वही लगती है जिसमें हमने देबू की खिंचाई की थी तथा जिसमें देबू की अफसोसनामे की टिप्पणी है।। लेकिन हमने यह पोस्ट हटाई नहीं -ताकि सनद रहे(सुन रहे हो अतुल)।
यह वह समय था जब हिंदी ब्लागजगत की हवायें देबू के इशारे पर बहतीं थीं।
समय के साथ हमारा देबू के साथ याराना बढ़ता गया। तमाम यादगारें जुड़ीं।बहुत कँजूस तारीफ करने वाला होने के बावजूद देबू हमारे लेखन के मुरीद होते गये (ऐसा वही कहते हैं)तथा यदाकदा तारीफ भी करते पाये गये। तथा हम देबू के उस तकनीकी कौशल के प्रशंसक होते गये जो हमारे पल्ले ही नहीं पड़ता था।
अभी देबू की पोस्ट से यह भी पता चला कि हमारा लिखा भी बहुत कुछ उनके पल्ले नहीं पड़ता है। इस लिहाज से हम दोनों बराबर के धरातल पर हैं -दोनों को एक दूसरे का बेहतरीन पक्ष समझ नहीं आता इसलिये एक-दूसरे के मुरीद हैं।
तमाम उतार चढ़ाव के साथ नये लोग जुड़ते चले गये। फिर निरंतर का प्रकाशन शुरू हुआ। लगभग सभी लोग जुड़े थे इसमें लेकिन मुझे लगता है सबसे ज्यादा मेहनत इसमें देबू ने तथा फिर रमन ने की। जुड़े हम भी थे लेकिन तकनीकी तंगी का बहाना करते हुये कई बार बच निलतते थे। देबू को मेहनत बहुत पड़ गई।देबाशीष ने सँपादन का भार किसी और से संभालने की बात कहते हुये संपादन का काम रोक दिया। देबाशीष के बाद सँपादक मँडल में सभी के सामने खुली चुनौती थी, पत्रिका कोचलाने की,लेकिन देबू के बाद पत्रिका चल नहीं सकी।
नतीजतन अगस्त के महीने में निरंतर की स्थिति भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की तरह हो गई। उसकी तमाम खुशनुमा यादें तो बनी रहीं लेकिन पत्रिका निकल नहीं पाई।
बाद में पत्रिका बंद होने के तमाम कारणों में देबू का अपनी बात मनवाने पर अड़ने के रवैया तथा दंभी स्वभाव भी चर्चा में रहा। इसके बाद भी इंडीब्लागीस के समय भी हमने भी देबू को कुछ बातों के लिये कोसा । लेकिन देबू ने जो ठीक समझा, किया। सफलतापूर्वक किया।
देबू से मैंने इस मुद्दे पर बात नहीं की लेकिन जितना मैं जानता हूँ और जितना मैं दो दिन में समझ पाया मुझे लगता है कि
ये ‘बच्चा’ अड़ियल हो सकता है ,दंभी कतई नहीं है।
देबाशीष ने अपनी व्यस्तता का जिक्र करते हुये बताया कि वो सबेरे दस बजे आफिस के लिये निकलकर रात को नौ कभी-कभी दस बजे तक घर पहुँचते हैं। डेस्क पर बैठे-बैठे गरदन अकड़ जाती है। आजकल गरदन के दर्द के कारण हेलमेट तक नहीं लगा पाते।ऐसे में मनचाहा काम करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
देबू बोलते हैं तो बहुत नापतौल कर। यह आदत न बंगालियों से मेल खाती है न बनारसी से-जो बोलते हैं तो बिन्दास बोलते हैं। आवाज का उतार चढ़ाव भी एकदम ‘कंट्रोल्ड’।
मुझे लगा कि अगर संभव होता तो मैं स्वामी की उद्दंडता( कहना मैं शरारत चाहता हूं लेकिन उद्दंडता का मजा ही कुछ और स्वामीजी इसे बिना बुरा माने ग्रहण करें । बुरा मानने की स्थिति में सूचित करें व उद्दंडता को समुचित शब्द से बदलने का सुझाव भी भेजें।),अतुल की कुछ किस्सा गोई जीतेंदर का कुछ गैरजिम्मे दाराना अंदाज़ देबाशीष को ट्रांसफर कर देता। मेरे पास देने को कुछ है नहीं सिवा आवारगी के जज्बे के। लेकिन खुदा गंजे को नाखून नहीं देता।सो जैसा है उसी से काम चलाना पड़ेगा।
देबाशीष ने मेरी बहुत तारीफ कर दी । बहुत झूठ बोला। मैं झूठी तारीफ करके देबू को पानी पर नहीं चढ़ाना चाहता । लेकिन सच यह है कि देबाशीष से मिलना मेरे लिये एक उपलब्धि रही। जाने- अनजाने तमाम अवसरों पर किये देबाशीष की खिंचाई याद आई तथा यह सोचकर अफसोस हुआ कि सही या गलत उस समय देबाशीष अकेला था। तमाम मतभेदों पर बातचीत करते हुये देबू के लहजे में किसी के भी प्रति किसी किसिम की कटुता नहीं थी। अपनी कमजोरी भी बताई देबू ने -मैं किसी से बहुत दिन तक नाराज नहीं रह सकता।
मैं जब गया था पूना तो एक ब्लागर से मिलने गया था। लेकिन वहाँ मिले ‘छुटभैये’ ।’छुटभैये’ बड़े खतरनाक होते हैं।लेकिन ज्ञान,समझ,तकनीकी अनुभव,उत्साह में हमसे मीलों आगे खड़े ये ‘छुटभैयों’ से बचा भी तो नहीं जा सकता है।इनके साथ का भी मजा ही कुछ और है। इनके साथ का सुख तो ‘गूंगे का गुड़’ होता है। बयान नहीं किया जा सकता है,अनुभव किया जा सकता है।
मेरी चाहना सिर्फ यही है कि देबाशीष ने जो ‘बड़प्पन’ मेरे ऊपर थोपा है मैं उसके भ्रम की की निरंतरता बनाये रखने में सहयोग कर सकूँ।
तो यह रही पूना ब्लागर कथा जैसे मुझे याद रही तथा जैसी हमने महसूस करी। कुछ आप बतायें कैसी लगी भेंटवार्ता।
मेरी पसन्द
राज जो कुछ हो इशारों में बता भी देना-राहत इंदौरी
हाथ जब उससे मिलाना तो दबा भी देना।
वैसे तो इस खत में कोई बात नहीं है
फिर भी एहतियातन इसे पढ़ लो जला भी देना।
यूँ तो हर फूल पर लिखा है कि तोड़ो मत
दिल जब मचलता है तो कहता है छोड़ो मत।
इश्क ने गूंथे थे जो गजरे नुकीले हो गये
तेरे हाथों में तो ये कंगन भी ढीले हो गये।
फूल बेचारे अकेले रह गये हैं साख पर
गांव की सब तितलियों के हाथ पीले हो गये।
पर्वतों पर बर्फ चमकी खेत में मोती उगे
मौसमों की चोलियों बंद ढीले हो गये।
क्या जरूरी करें विषपान हम शिव की तरह
सिर्फ जामुन खा लिये और होंठ नीले हो गये।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 18 Responses
यार तुम लोग इत्ते दिनो बाद मिले, मेरी बुराई बुराई भी नही खेली, ये अच्छी बात नही।
अब दोबारा मिलना तो विशेष तौर पर मेरी आलोचना का एजेन्डा होना ही चाहिए, इससे कम पर ब्लॉग मीट का आयोजन नही हो सकता।
और शुकुल तुम, सही सलामत वापस आ गये,ये अच्छा रहा। वापसी मे एयरहोस्टेज ने इस्माइल मारी कि नही? लिखना।
अनूप जी, देबू दा ने आपको जो टी-शर्ट भेंट की है, उसे पहनकर एक फ़ोटो खिंचवाएँ और उसे भी पोस्ट करें। इंडी-ब्लॉगर वाली टी-शर्ट पहन मस्त लगेंगे।
गुलमोहर का एक क्लोज़् अप भी खींच लेते. वैसे शायद ठीक ही किया. वहाँ भी अन्दाज़ ही लगाना पडता
आप चाहे जितनी प्रशंसा फ़ुरसतिया जी की करें परंतु वे स्वयं कोई दर्जन बार अपने लेखन की शुरुआत का श्रेय मुझे दे चुके हैं.
तो, अब इस असली प्रशंसा का हकदार कौन हुआ?
बहुत बढ़िया वृत्तान्त लिखा है, हमेशा की तरह्। बहुत अच्छा लगा।
महेश परिमल