Saturday, July 01, 2006

कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा

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कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा


मामा-मामी
कल शहर गया था कुछ व्यक्तिगत काम से। काम होगा या नहीं होगा यह सोचकर कुछ बेचैनी भी थी। मन में अनायास कन्हैयालाल नंदन जी की कविता गूंजने लगी:-
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन,बेचैनी
समझ लो साधना की अवधि पूरी है।
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है।
डा.कन्हैयालालनंदन:
जन्म १ जुलाई सन १९३३ में,उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले के एक गांव परसदेपुर में हुआ।डी.ए.वी.कालेज,कानपुर से बी.ए,,प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए और भावनगर युनिवर्सिटी से पीएच.डी.। चार वर्षों तक बंबई विश्वविद्यालय से संलग्न कालेजों में हिंदी-अध्यापन के बाद १९६१ से १९७२ तक टाइम्स आफ इंडियाप्रकाशन समूह के ‘धर्मयुग’ में सहायक संपादक रहे। १९७२ से दिल्ली में क्रमश:’पराग’,'सारिका’ और दिनमान के संपादक रहे। तीन वर्ष दैनिक नवभारत टाइम्स में फीचर सम्पादन किया। छ: वर्ष तक हिंदी ‘संडे मेल’ में प्रधान संपादक रह चुकने के बाद १९९५ से ‘इंडसइंड मीडिया’ में डायरेक्टर रहे। डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित जिनमें ‘लुकुआ का शाहनामा’,'घाट-घाट का पानी’,'अंतरंग’,नाट्य-परिवेश’,'आग के रंग’,'अमृता शेरगिल,’समय की दहलीज’,'ज़रिया-नजरिया’ और ‘गीत संचयन’ बहुचर्चित और प्रशंसित। अनेकानेक पुरस्कारों के साथ साहित्य में अवदान के लिये ‘परिवार-पुरस्कार’ से पुरस्कृत,’पद्मश्री’ से अलंकृत और नेहरू फेलोशिप से सम्मानित।
मैं अपने ब्लाग पर अक्सर नंदनजी की कवितायें पोस्ट करता रहता हूँ। कारण यह है कि उनकी सबसे ज्यादा कवितायें मुझे याद हैं। उनकी लगभग हर कविता आधे या पूरे रूप में मेरे जेहन में दर्ज है। नंदनजी की कवितायें याद होने का कारण यह है कि बचपन से उनकी कवितायें सुनता आया हूँ। तब से जबसे कविता का ककहरा तक मुझे नहीं पता था। आखिरकार वो हमारे मामाजी हैं।
हालांकि नंदनजी मेरे मामा हैं लेकिन उनसे कुल जमा मुलाकात के घंटे अगर जोड़े जायें तो वो कुल मिलाकर महीने भर भी न हों पायें शायद! कुछ ऐसा रहा कि जब हम बच्चे थे तब वे बंबई में धर्मयुग में थे। कानपुर उनका आना-जाना बहुत कम तथा बहुत संक्षिप्त होता रहा। किसी दिन शाम को पता चलता कि मामाजी अपने हवाई दौरे पर आये तथा कुछ देर घर में रहने के बाद चले गये। अगले दिन अखबारों से पता चलता कि नंदनजी कविसम्मेलन में या किसी दूसरे कार्यक्रम में श्रोताओं की तालियाँ बटोर के चले गये। अब चाहे वह धर्मयुग के उपसंपादक होने के कारण हो या उनका रसूख कि अखबारों में उनके बारे में खासतौर से लिखा जाता। हम भी गर्व करते देखो ये हमारे मामा की फोटो छपी है अखबार में।
कुछ दिन बाद जब वे बंबई के धर्मयुग से दिल्ली में बच्चों की पत्रिका पराग के संपादक हो गये तो हम पराग के नियमित पाठक हो गये। वहीं से सिलसिला शुरू हुआ मामाजी की रचनाओं को पढ़ने का तथा सहेजने का। पराग में तमाम बातों के
संचार माध्यमों से परे है एक कवि और रचनाकार नंदन जो वक्त की रेत पर अपने कदमों के निशान अमिट रूप में छोड़ता जा रहा है। जब भी मेरे आगे कोई चुनौती भरी घड़ी आ जाती है तब मैं उनकी कविता की कोई न कोई पंक्ति याद कर लिया करता हूँ। -इंद्रकुमार गुजराल
अलावा मामा जी के यात्रा विवरण भी छपते थे। हमें ताज्जुब तथा गर्व भी होता कि हमारे मामा फ्रैंकफुर्त,सैनफ्रान्सिको, बर्लिन,मास्को,न्यूयार्क और न जाने कहाँ-कहाँ तो ऐसे आते-जाते हैं जैसे एक कमरे से दूसरे कमरे जा रहे हों।दुनिया के जितने देश वे घूमे हैं उनकी सूची बनाने के मुकाबले उन देशों की सूची बनाना शायद ज्यादा आसान होगा जहाँ वे नहीं जा पाये।
जहाँ वे जाते वहाँ के यात्रा विवरण पराग तथा अन्य पत्रिकाओं में हम पढ़कर कल्पनाओं में उन देशों की सैर कर लेते।बकौल रवीन्द्र कालिया:-
विश्व का ऐसा कौन सा कोना है जहां नंदनजी ने उड़ान न भरी हो। नंदनजी व्यस्त से वयस्ततर होते चले गये।जब-जब उनसे भेंट हुई मालूम पड़ता कि वे कहीं से आ रहे हैं या कहीं जा रहे हैं। उनकी दुनिया बदल गई,उनके ब्रजलाल वर्मा बदल गये,उनके जगदीश गुप्त बदल गये। उनका संसार बदल गया। नहीं बदली तो उनकी गर्मजोशी,उनकी आत्मीयता,उनकी जिजीविषा और साहित्य के प्रति उनका अनुराग। अपनी व्यस्त दिनचर्या में भी वे अब भी कोई न कोई पंक्ति गुनगुनाने का वक्त निकाल ही लेते हैं।
नंदन उन कवियों में से हैं जो कविता के एकांत में नहीं मंझधार में उपस्थित रहते हैं।और कविता में उसी तरह भीगते रहते हैं,जैसे नदी अपने पानी में भीगती रहती है और कविता-हीनता के बीच कविता लगातार बनी रहती है-कमलेश्वर।
पराग के बाद फिर सारिका तथा दिनमान में उन्होंने अपने सम्पादन के जौहर दिखाये। हम तब तक इन पत्रिकाओं को पढ़ने तथा कुछ-कुछ समझने लगे थे। बाद में जब वे नवभारत टाइम्स के फीचर सम्पादक बने । हम उसे भी पढ़ने लगे। एक दिन आश्चर्य के साथ देखा कि हमारी तीन कवितायें,जो हमने कभी ऐसे ही भेज दी थीं मामाजी के पास देखने के लिये,वे बीच के पेज में छपीं थीं। हमारे लिये यह बहुत खुशी का मौका था। कुछ दिन बाद डाक से सौ रुपये का मनीआर्डर भी मिला। वह अपनी रचनाओं पर हमारा पहला और अभी तक का अंतिम पारिश्रमिक था। इस तरह हमारे मामाजी हमारे लिये वे पहले सम्पादक हैं जिन्होंने हमारी पहली रचना छापी।
चूंकि मामाजी शुरू से, जबसे हम भाई-बहनों ने होश संभाला , बंबई में रहे लिहाजा वे हमारे लिये हमेशा बंबई वाले मामा बने रहे। आज भी कभी-कभी हम लोग कहते हैं कि हमारे बंबई वाले मामा दिल्ली में रहते हैं।
मैं नंदन जी की शायरी से लुत्फ़अंदोज़ हो चुका हूँ और उनसे मिलकर बेहद मसर्रत हासिल होती है। वह एक रोशन ख़याल और भरपूर शख्सियत के मालिक हैं।मेरी दुआ है कि उनकी कलम हक़गोई और बेबाकी के साथ चलती रहे। मेरी दिली ख्‍़वाहिश है कि उनकी किताबें उर्दू में शाया की जायें- अली सरदार जाफरी।
दिल्ली में दिनमान,सारिका तथा संडेमेल के दिनों में हमारे मामाजी सक्रियता,प्रभाव तथा रसूख के मामले में शायद अपने शीर्ष पर थे। हम हर अगले दिन देखते कि टीवी पर मामाजी किसी न किसी मामले में अपने राय देने के लिये स्टूडियो में मौजूद हैं। रेडियो पर भी भारत संबंधी समाचारों में वायस आफ अमेरिका में हम हफ्ते में दो बार मामाजी की आवाज सुनते।
मामा हमारे हरफनमौला हैं। बचपन में गांव की रामलीला में वर्षों लक्ष्मण का पाठ करते रहे।
“जो आदमी आधे मिनट में अजनबी से दोस्त बन जाये,जो इंसान वाकयुद्ध में हार जाने पर खुश हो जाये,वह प्यारा व्यक्ति केवल कन्हैयालाल नंदन ही हो सकता है।”- सुरिन्दर सिंह सचदेव
अपनी आवाज और अभिनय के लिये दूर-दूर तक मशहूर रहे। लोग छुटपन से इनको इनके पिताजी के पुत्र के रूप में नहीं वरन्‌ नानाजी को लक्ष्मण के पिताजी के पिताजी के नाम से जानते रहे। ये लक्ष्मण के पिताजी हैं,ये लक्ष्मण की बहन हैं। यह जानकारी अभी हमारी अम्मा हमें बगल में बैठे दे रहीं थीं।
कसाले बहुत सहे उन्होंने,किंतु कड़वाहट नहीं है उनके विचार में। पद प्रतिष्ठा,अधिकार और सम्पन्नता उनको अपना ज़रखरीद बंदी नहीं बना पाये। वे एक समर्थ, स्वाभिमानी, साहित्यकार हैं जो कभी टूटा नहीं,झुका भी नहीं- डा.लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ।
बचपन से ही पढ़ने में मेधावी रहे मामाजी बचपन बेहद अभावों में बीता। घर के सबसे बड़े भाई थे तथा मां-बाप को इनकी मेधा ,प्रतिभा पर नाज था। भीषण अभावों के बावजूद प्रगति की राह बंद नहीं हुई । कोई न कोई रास्ता निकलता गया। बचपन के अभावों की कहीं न कहीं याद जरूर रही होगी जब उन्होंने लिखा:-

मैंने तुम्हें पुकारा
लेकिन पास न आ जाना
मैं अभाव का राजा बेटा
पीड़ायें निगला
भटके बादल की प्यासों सा
दहका हुआ अंगारा
मैंने तुम्हें पुकारा
लेकिन पास न आ जाना।
किसी एक आशा में चहका मन
तो ताड़ गयी
एक उदासी झाडू़ लेकर
सारी खुशियां झाड़ गयी
वही उदासी तुमको छू ले
यह मुझको नहीं गवारा
मैंने तुम्हे पुकारा
लेकिन पास न आ जाना।
“नंदन में ग्रामीण गरिमा और शहरी शरारत का अद्‌भुत समन्वय है-नायाब रिश्ता है इसलिये जब खड़ी बोली छोड़कर अवधी में बतियाना शुरू करते हैं और जब अवधी के टकसाली शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल करते हैं तो आश्चर्य होता है कि लगभग आधी शताब्दी पहले गांव छोड़कर आया हुआ यह शहरी व्यक्ति अब भी अपने मन के कोने में कैसे अपना गांव बसाये हुये है।”-डा.राममनोहर त्रिपाठी

रजनी-अनूप भार्गव-कन्हैयालाल नंदन
कानपुर से बी.ए. करने के बाद वे इलाहाबाद गये एम.ए. करने के लिये। उन दिनों इलाहाबाद साहित्य का केन्द्र था । वहीं तमाम साहित्यिक मित्र बने जो ताजिन्दगी बने रहे। रमानाथ अवस्थी ,धर्मवीर भारती वगैरह इनमें प्रमुख थे। रमानाथ जी से तो मामाजी के पारिवारिक सम्बन्ध अंत तक बने रहे। रमानाथ जी बाद के दिनों में केवल वहीं कविता पाठ करने जाते
थे जहां नंदनजी को भी बुलाया जाय। एक तरह से उनकी यह शर्त होती थी कि हमें बुलाना है तो नंदनजी को बुलाओ।
“नंदन ने सब कुछ सहा,झेला किंतु अपनी मधुर मुस्कराहट में रत्ती भर भी कमी नहीं आने दी और अत्यंत पीडा़जनक स्थितियों में भी कनपुरिया मस्ती नहीं छोड़ी।” डा.महीप सिंह
इसका अनुभव हमें सन्‌ १९९८ में हुआ। शाहजहाँपुर में हम हर साल दशहरे के बाद कवि-सम्मेलन तथा मुशायरे का आयोजन किया करते थे। हम ६ -७ कवि,६-७ शायर बुलाते। आर्थिक मजबूरियों के चलते हम हर साल एक बडे़ कवि ,शायर को तथा बाकी ठीक-ठाक लोगों को बुलाकर काम चलाते। मैं इस आयोजन से सन्‌ १९९२ से सन्‌ २००० तक जुड़ा रहा।
तो सन्‌ १९९८ में हमने बड़े कवि के रूप में रमानाथ अवस्थीजी को बुलाने का तय किया। उनको फोन किया तो उन्होंने कहा कि हमें बुलाना है तो नंदन जी को भी बुलाओ। उनके बगैर वे कहीं जाते नहीं थे। उन दिनों उनकी बाइपास सर्जरी हुई थी
“वे कल-साहित्य के मर्मज्ञ हैं-अखाड़ेदार पत्रकार हैं-धारदार कवि हैं-फिर नंदनजी ‘साहित्यिक माफियायों’ के काम के क्यों नहीं हैं? इस यक्ष प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है।”-डा.कृष्णदत्त पालीवाल
इसीलिये वे एहतियातन बिना विश्वसनीय साथी के कहीं आते-जाते नहीं थे। खैर जब हमें पता लगा कि रमानाथजी
नंदनजी के बिना नहीं आयेंगे तो हमने नंदनजी को भी बुलाया। असल में मैं उनको बुलाना तो बहुत पहले चाहता था लेकिन आयोजक होने के नाते किसी को यह कहने का मौका नहीं देना चाहता कि इन्होंने अपने मामाजी को बुला लिया। इस तरह मजबूरी के चलते मेरे मनोकामना पूरी हुई।
मेरे मामाजी तथा रमानाथ जी के ठहरने की व्यवस्था मेरे घर में ही थी। वे लगभग दो दिन हमारे घर रहे शाहजहाँपुर में। रमानाथजी हमारे खूब खुले हुये बंगले को देखकर बहुत खुश हुये। बार-बार कहते रहे कि जाड़े में कुछ दिन आऊँगा तब धूप में बैठूंगा। मामाजी ने कवि सम्मेलन में आखिरी दौर में कविता पढ़ी। खूब कवितायें पढ़ीं। जिस समय वे पढ़ रहे थे सबेरे के पांच बज रहे थे। खुद के पढ़ने के पहले किसी श्रोता ने स्व.वली असी की हूटिंग कर दी तो उन्होंने माइक पर आकर ऐसी डांट पिलाई की पंडाल में सन्नाटा छा गया।उन्होंने शेर भी पढ़ा था:-
कश्ती का जिम्मेदार फकत नाखुदा (मल्लाह)नहीं,
कश्ती में बैठने का सलीका भी चाहिये।
“नंदन को परिश्रम करते देखा है।जिस किसी पत्रिका में रहे उसके लिये खूब जूझते रहे।नंदन में सम्पादकीय साहस भी गजब का देखा। वे पत्रिका में जो कहना चाहते थे उसे निर्भीक भाव से कह देते थे,इसके लिये उन्हें कई बार नामी -गिरामी लेखकों से टकराना भी पड़ा, वे लहू-लुहान भी हुये ,किंतु घबराये नहीं,पीछे भी नहीं ।”डा.रामदरस मिश्र
मेरे होशोहवास में शाहजहाँपुर के उस प्रवास में यह पहला मौका था जब हमारा मामाजी का साथ घंटो की सीमा पार करके दिन तक पहुंचा। दो दिन वे मेरे घर रहे यह अभी तक का रिकार्ड है। वहीं शायद मेरी पत्नी ने पहली बार अपने ममिया ससुर के दर्शन किये।
कुछ ऐसा रहा कि हम दूरी,समय तथा उमर के अंतर के कारण वे मजे अपने बंबई वाले मामा से न लूट सके जो आमतौर पर भांजे मामा लोगों से पा लेते हैं। यह खलने की बात है।लेकिन है तो है।उन दिनों हमारे लिये बंबई पहुंचना बहुत बड़ी बात होती थी। तथा मामा जब भी कानपुर आते तो तुरंत घंटे -आध घंटे जाने के लिये।
“भौतिक अर्द्धग्लोब के बीच वह एक चिंतक एवं साहित्यकार समझा जाता है और आध्यात्मिक अर्द्धग्लोब में सृजनकर्ताओं के बीच वह एक भौतिकतावादी चतुर चालाक है। इस परिंदे को दोनों तरफ की दुनिया वाले ‘ओन’ करना चाहते हैं मगर दोनों की पकड़ से दूर वह बेचैन रूह का परिंदा निरंतर यात्रा में है।”- नासिरा शर्मा
लेकिन इस मिला-भेंटी की भरपाई हमने उनका सारा साहित्य पढ़कर की। उनके बारे में अधिकांश जानकारियाँ हमें उनके बारे में लिखे लेखों से तथा शुरुआती जानकारियाँ अपनी अम्मा से मिलती हैं।
मामाजी जब बंबई में थे तो उनके रोल माडल रहे स्व.रामावतार चेतन भी थे वहाँ। जब छुटपन में वे लोग गाँव में थे तो हस्तलिखित पत्रिका ‘क्षितिज’ निकालते थे। मैंने बेहद खूबसूरत हस्तलेख में निकली यह पत्रिका छुटपन में मामा के गाँव परसदेपुर में देखी है।
“नौकुचिया ताल के बारे में किंवदंती है कि उसके नौ कोने एक साथ नहीं देखे जा सकते;नंदन जी वही नौ कोनेवाली झील हैं और उसी झील की तरह अनसमझा रह जाने को अभिशप्त हैं।” धीरेंन्द्र अस्थाना
जब मामाजी बंबई में थे तो वहीं चेतनजी की बहन से विवाह किया। यह विवाह अंतर्जातीय विवाह था। बंबई के लिये यह बहुत सामान्य बात थी। मामाजी के लिये यह अपने आदर्शों पर चलने की बात थी ।लेकिन गांव में लोगों के लिये यह भयंकर निंदनीय काम था। गांव के पंडितों ने मामाजी घर वालों का मूक बहिष्कार कर दिया। नानाजी हलवाई का काम करते थे
“नंदनजी की रचनाओं में जिस इंसान का चेहरा उभरता है वह जात और इलाकों की सीमाओं से मुक्त होकर पूरे आकाश और पूरी धरती के बीच सांस लेता नजर आता है।”-निदा फ़ाज़ली
। गांव में किसी बिटिया की शादी होती तो मुफ्त सेवायें देते, वहाँ पानी तक न पीते। लोगों ने नाना जी से खाना बनवाना बंद कर दिया। यह सारा विवरण याद करके मैं सोचता हूं जो परिवर्तन के वाहक होते हैं उनके साथ जुड़े लोगों को भी कम नहीं झेलना पड़ता।
शुरू में बहुत कम मुलाकात होने के कारण हमारे मामाजी हमें किसी दूरदेश से आये किसी बहुत खास जीव सरीखे लगते जो कुछ देर के लिये सालों में कुछेक बार अपने दर्शन देने आ जाता है। समय के साथ-साथ मुलाकातें बढ़तीं गईं तथा हमारे मामाजी हमें वापस मिलते गये। अब तो ऐसा है कि जैसे ही उनकी कानपुर-लखनऊ या आसपास के किसी भी इलाके में आने की खबर मिलती है हम झपटकर उनपर कब्जा सा कर लेते हैं। पूरे समय उनके साथ का मजा लेते हैं। उनके कानपुर के इलाके के पीआरओ हमारे बड़े भाई किशोर रहते हैं।एकतरह से हमें हमारा एरियर का भुगतान होना अब शुरू हुआ है।
“गुनगुनाना नंदन जी का शौक भी है और अदा भी। प्यारे-प्यारे गीत -अपने और दूसरों के -वे अक्सर गुनगुनाते-सुनाते रहते हैं। टेलीफोन पर भी। सच तो यह है कि कई बार टेलीफोन की घंटी बजती है।आप फोन उठाकर ‘हलो’ कहते हैं तो उत्तर में किसी गीत और किसी कविता की पंक्तियां सुनायी देने लगती हैं। यह काम सिर्फ नंदन जी ही कर सकते हैं।अक्सर बात खत्म होती है उनके इस वाक्य से…’क्या कर लोगे’?-विश्वनाथ सचदेव
अभी पिछले दिनों जब लखनऊ आना हुआ था तब उनसे मिलने जाना था लेकिन उनका कार्यक्रम एक दिन टल गया। वे आये तथा हिंदी संस्थान से संबंधित पुरस्कार तय करने वाली मीटिंग में भाग लेकर चले गये।मैं जाता तो शायद अनूप भार्गव को बी.बी.सी. पहले सूचना तथा बधाई देता।
मामाजी के दोस्तों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। कछ बेहद अजीज दोस्त हैं जिनसे दोस्ती के किस्सों पर तमाम लेख लिखे गये हैं। रवीन्द्र कालिया जी भी उनमें से एक हैं। कालियाजी धर्मयुग में मामाजी के साथ थे। वहाँ सम्पादक थे धर्मवीर भारती जो कि तानाशाह सम्पादक के रूप में जाने जाते थे। कुछ रहा होगा कि वे सबको दबा कर रखते थे।
“इस प्रेस में नंदन जी मेरे पार्टनर थे,इसे आजतक कोई नहीं जानता । इस तथ्य को छिपाकर रखना इसलिये भी जरूरी था कि वे टाइम्स आफ इंडिया की सेवा में थे।पत्र व्यवहार के लिये हम लोगों ने अपना नाम लार्सेन और टुबरो रख लिया। मेरे पास लार्सेन के और लार्सेन के पास टुबरो के इतने पत्र होंगे कि कि अभी हाल में ममता के हाथ पत्रों का पुलिंदा पड़ने पर उसने कहा कि इतने पत्र तो मैंने जीवन में उसे भी न लिखे होंगे।” रवीन्द्र कालिया
मामाजी के मंच यश तथा कवि रूप में प्रसिद्ध रही हो या कुछ और धर्मवीर भारती जी ने कालिया जी से कहा-तुम नंदन के खिलाफ लिखवा कर दे दो कि वह तुम सबको भड़काता है तो मैं तुमको उसको जगह उपसंपादक बनवा दूंगा। कालियाजी ने शराब के नशे में भारतीजी को खूब खरी-खोटी सुनाई तथा यह गलतबयानी करने से मना कर दिया। बाद में नौकरी से इस्तीफा भी दे दिया।फिर इलाहाबाद में रानीमण्डी में प्रेस लगाया। उसमें हमारे मामाजी की भी भागेदारी थी। चूँकि मामाजी टाइम्स ग्रुप में थे इसलिये खुले आम भागेदारी की बात नहीं बता सकते थे लिहाजा कालियाजी ने तथा नंदनजी ने पत्र व्यवहार के लिये अपने नाम रखे लार्सेन तथा
टुब्रो। इस बारे में कालिया जी ने लिखा है:-
इस प्रेस में नंदन जी मेरे पार्टनर थे,इसे आजतक कोई नहीं जानता । इस तथ्य को छिपाकर रखना इसलिये भी जरूरी था कि वे टाइम्स आफ इंडिया की सेवा में थे।पत्र व्यवहार के लिये हम लोगों ने अपना नाम लार्सेन और टुबरो रख लिया। मेरे पास लार्सेन के और लार्सेन के पास टुबरो के इतने पत्र होंगे कि कि अभी हाल में ममता के हाथ पत्रों का पुलिंदा पड़ने पर उसने कहा कि इतने पत्र तो मैंने जीवन में उसे भी न लिखे होंगे।
“संप्रेषण का संकट उनके सामने आता ही नहीं है। तीन से लेकर तिरसठ साल तक के प्राणी से वे बड़े आराम से संवाद स्थापित कर लेते हैं। इस दृष्टि से वे न केवल एक कामयाब जन-संपर्क अधिकारी,वरन मन- संपर्क अधिकारी भी कहे जा सकते हैं। अजनबी से अजनबी इंसान को ‘साइज़अप’ करने के लिये कोई फीता है जो उनके गले में हरवक्त पड़ा रहता है। अजनबी को खबर भी नहीं होती और उसका माप ले लिये जाता है।”ममता कालिया
कालिया जी से मेरी पहली मुलाकात मेरी ही बेवकूफी से हुई। मुझे याद है कि मैं इंटर के बाद इलाहाबाद गया था इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा देने। हमारे शहर से यह बाहर अकेले यह मेरी पहली रेल यात्रा थी। सोचकर गया था कि वहाँ किसी होटल में रुकूंगा लेकिन पता नहीं किस सोच में मैं सीधे ३७० ,रानीमण्डी पहुंच गया जहाँ कालिया जी का प्रेस था। मैं सीधे कालियाजी से मिला तथा अपने आने का कारण बताया। बात यह भी कह दी कि दो दिन इलाहाबाद में रुकना है। अब मैं कभी पहले कालियाजी से तो मिला नहीं था तो वे असमंजस में। लेकिन मुझे अकल नहीं थी कि मैं उनके लिये क्या परेशानी पैदा कर रहा हूँ। मुझे उन्होंने बैठाया तथा करीब घंटे भर बाद मैं घर में घुसा। उन दिनों मोबाइल या एसटीडी का चलन नहीं था लिहाजा यह घंटा ट्रंककाल बुक करके यह सुनिश्चित करने में लगा होगा कि मैं नंदनजी का भानजा ही हूँ। खैर ,मैंने वहां पूरे दो दिन ममता कालियाजी का बनाया खाना खाया । इस लिहाज से देखा जाय तो हमारे इंजीनियरिंग कराने में ममता कालिया जी के दाने-पानी
का भी योगदान है। मैं तब तक ममता जी का उपन्यास ‘बेघर’ पढ़ चुका था। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि बाहरवीं में पढ़ने वाला बच्चा उनका उपन्यास ‘बेघर’पढ़ चुका है। बाद में मामाजी ने हमारी इस बेवकूफी पर अपनी नाराजगी भी जाहिर की
“फिर यह शख्‍स साप्ताहिक ‘संडे मेल ‘का हेड ड्राइवर,ग्रेड वन होकर आया! तब मैं सिर्फ स्टेशन मास्टर था। गोरखपुर कवि सम्मेलन के दौरान,रेलवे गेस्ट हाउस में हुक्म फेंका- ‘संडे मेल’ का एक रेगुलर लिखो! पर तो आपके कब के गिर चुके,बेपर की उडा़ओ’ मैंने लंबे अर्से तक ‘बेपर की’ कालम लिखा! लोगों ने मजा लिया! नंदन को कैसा लगा,पूछे मेरी बला! पाठक सुलेमान तो लेखक पहलवाऩ! दो बार मिली नंदन की इस धारावाहिक मुहब्बत का मैं कायल हूँ…रहूँगा।”-के.पी.सक्सेना
किसी अजनबी के यहाँ जाने के पहले उचित परिचय ,पूछताछ कर लेनी चाहिये। उस समय मेरे शिष्टाचार के मापदण्ड दूसरे थे -मामा का दोस्त मेरा मामा। लेकिन यह आज अंदाजा होता है कि मामा के जिस दोस्त से मैं परिचित ही नहीं हूँ,पहले कभी मिला नहीं, अचानक उसके यहाँ डेरा जमाने पहुँच जाना उसके खिलाफ कितनी बड़ी ज्यादती है।
नंदनजी के बारे में उनके तमाम दोस्तों का कहना है कि नंदन बड़े यारबाश हैं। तमाम लोगों के लिये नंदनजी गुरूर वाले हैं। लेकिन बहुमत ऐसे दोस्तों का है जो यह मानते हैं कि नंदनजी दोस्ती करना तथा निबाहना जानते हैं।
अपने सम्मान से किसी भी तरह का समझौता न करने वाले नंदनजी दूसरों के सम्मान की भी कितनी परवाह करते रहे यह बात धीरेंन्द्र अस्थाना के इस संस्मरण से पता चलती है:-

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को जानने वाले जानते हैं कि वे अपनी प्रतिभा को लेकर कितने घमंडी थे। नंदनजी के संपादक बनने पर उन्होंने अपने स्तंभ ‘चरखे और चरखे’ खुला और कड़ा विरोध किया। नंदनजी ने वह स्तंभ सहर्ष छपने जाने दिया था और वह छपा भी था। सर्वेश्वरजी अचंभित रह गये थे।यही सर्वेश्वरजी महीनों तक नंदनजी से मिलने उनके केबिन में नहीं गये थे। एक दिन नंदनजी खुद सर्वेश्वरजी की टेबल पर गये और बोले- “आप मुझसे बड़े हैं मैं मानता हूँ लेकिन मेरे केबिन में आकर चाय पीने से आपका कद नहीं घट जायेगा।” सर्वेश्वरजी ने अपनी ऐंठी हुई गरदन ऊपर की और बोले-” तुम्हारे केबिन का दरवाजा मेरे कद से छोटा है और सर्वेश्वर किसी के कमरे में जाते समय अपना सिर नीचे नहीं झुका सकता।”
मित्रों नंदनजी ने अपने केबन का दरवाजा कटवाकर ऊंचा कर दिया ताकि सर्वेश्वरजी बिना सिर झुकाये केबिन में प्रवेश कर सकें।
फिर सर्वेश्वरजी के अंत तक सबसे अंतरंग दोस्त नंदन जी ही रहे।
“उनके साथ बातचीत करने में सचमुच ही ‘साहित्यशास्त्र विनोद’ का आनंद मिलता है। नंदन की बातचीत,उनका अंदाज़,उनका’ह्यूमर’बड़ा नफीस होता है। मैंने कभी उनको ‘क्रूड’ या ‘लाउड’ नहीं पाया।नंदन की शालीनता के गहरे तहों में एक कड़ा,दुर्दम्य व्यक्तित्व है। वह बहुत नमता या लचकता नहीं है और टूटता तो कतई नहीं है।”-डा गंगाधर गाडगिल
हालांकि नंदनजी अपने कवि-पत्रकार-संपादक के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं लेकिन उनकी लिये हुये साक्षात्कार पढ़ते हुये लगता है कि कैसे किसी के मन को खोला जा सकता है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि वे सामने वाले को प्रश्नों के चक्रव्यूह में नहीं घेरते,उस पर हावी नहीं होते।उसके मुखौटे को नोचकर उसे जबरन बेनकाब करने की कोशिश नहीं करते। उनका कहना है:-
नंगा करने और खोलने के बीच अंतर है।मैं आदमी को खोलने का पक्षधर हूँ।एक में आदमी के कपड़े छल-बल से उतारने पड़ते हैं,दूसरे में उसे खुलने का विश्वास देना होता है।
नंदनजी में जिजीविषा दुर्दम्य है। कुछ साल पहले कूल्हे की हड्डी टूट गयी। जितने दिन अस्पताल में रहे ,रहे । घर आते ही डाक्टर के मना करने के बावजूद दफ्तर आना-जाना शुरू कर दिया। बहुत कम लोगों को पता होगा कि पिछले करीब साल भर उनकी दोनों किडनियाँ खराब हैं। हफ्ते में दो दिन डायलिसिस पर रहना पड़ता है।बेहद तकलीफ के बावजूद कभी
भी फोन करने पर पूछेंगे -बेटे कैसे हो,बिटेऊ की तबियत कैसी है। बिटेऊ मतलब मेरी माताजी। पिछले दिनों उनके पैरालिसिस का अटैक पड़ा । अब काफी ठीक हैं लेकिन मामा का फोन अक्सर आ जाता है,बिटेऊ कैसी हैं?
उनकी जिजीविषा का नमूना उन्हीं की जबानी सुना जाय तो बेहतर होगा:-
करीब अठहत्तर प्रतिशत गुर्दे ढेर हो चुके थे। मैंने हिन्दुजा अस्पताल के फ़िजीशियन डा.एफ.डी.दस्तूर की मदद से वहां के गुर्दा विभाग के हेड डा. भरत शाह सीधा सवाल किया कि डाक्टर साहब,अगर इसी रफ्तार से मैं चलता रहा तो मुझे कितना सुरक्षित वक्त आप दे सकेंगे ? उन्होंने डाक्टर के नाते सवाल का जवाब देना गैर वाजिब माना लेकिन इसरार करने पर दोस्त के नाते बता दिया कि अठारह महीने के बाद जिंदगी को डावांडोल मानना चाहिये। डाक्टर दस्तूर अठारह महीने की बात सुनकर घबरा गये।मैं उनकी घबराहट देखकर घबरा गया। मैंने डाक्टर दस्तूर से कहा कि डाक्टर साहब,एक नियम होता है ऐकिक नियम,जिसमें हिसाब लगाया जाता है एक इकाई के आधार पर। सो आप हिसाब लगाइये कि एक आदमी की दोनों किडनियाँ अठहत्तर प्रतिशत खराब होने में सत्तर साल लगे तो बाकी बाइस प्रतिशत खराब होने में उसे कितने साल लगेंगे?
सवाल सुनना था कि डाक्टर भरत शाह सहित हम सब ठहाका लगाकर हँस पड़े।डा.शाह बोले : “डाक्टर नंदन ,आई अप्रीशियेट योर सेंस आफ ह्यूमर ऐंड विल पावर,कीप इस अप।”
“नंदनजी यारों के यार हैं,वे प्रकट सहायता भी करते हैं,गुप्त भी। कितने ही लेखकों के कृतित्व की समीक्षा बिना किसी कृपा को पोषित किये उन्होंने अपनी पत्र पत्रिकाओं में की हैं।” डा.हरीश नवल
पिछले साल जब हम किडनी खराब होने के बाद उनसे मिलने आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेस देखने गये उनको तो कमरे में मामी मिलीं। मामा कुछ दवा वगैरह लेने अस्पताल में गये थे। कुछ देर बाद टहलते हुये आये। देखकर लगा कि ये डायलिसिस कराने नहीं किसी की तीमारदारी करने आये हैं।
हालांकि वे लिखते जरूर हैं :-

जब मुशीबत पड़े और भारी पड़े
तो कोई तो एक तो चश्‍़में तर चाहिये।
लेकिन उनके पास जाने वाली हर नम आंख का आंसू अपनी जिजीविषा की ऊष्मा से सुखा देते हैं।
हफ्ते में दो दिन की डायलिसिस का दर्द असहनीय होता है। लेकिन वे इस सबसे बेखबर अपनी रचना यात्रा में लगे रहते हैं। शायद उनकी कवितायें उनके ऊपर चरितार्थ हो रही हैं:-

“टकटकी बांधकर मनोहारी इंद्रधनुष को देखने वाले तक भूल जाते हैं कि हरा,नीला,लाल, बैंगनी,केसरिया कौन सा रंग कितना गाढ़ा,कितना सघन और कितना किससे घुला-मिला था। देखते सब हैं लेकिन बखान का बयान अपना अपना हो जाता है। हिंदी काव्यमंचों पर भाई श्री कन्हैयालाल की यही स्थिति है।” -बालकवि बैरागी
पहाड़ी के चारों तरफ
जतन से बिछाई गई सुरंगों में
जब लगा दिया गया हो पलीता
तो शिखर पर तनहा चढ़ते हुये आदमी को
कुछ फरक नहीं पड़ता
कि वो हारा कि जीता।
उसे सिर्फ करना होता है
एक चुनाव
कि वह अविचल खड़ा होकर बिखर जाये
या शिखर पर चढ़ते-चढ़ते बिखरे-
टुकड़े-टुकड़े हो जाये।
“कन्हैयालाल नंदन उन एडीटरों में हैं जो मज़नून के लिये किसी अदीब का पीछा तो यों करते हैं जैसे कोई मनचला नौजवान किसी लड़की का पीछा कर रहा है।ऐसा जालिम और कठोर एडीटर मैंने किसी और जुबान में नहीं देखा। यह बात और है कि उनके मज़नून मांगने के अंदाज़ में रफ्‍़ता-रफ्‍़ता तब्‍दीली आती चली जाती है। पहले उनका प्यार भरा खत आयेगा ‘बंधुवर! आपका मज़नून फौरन चाहिये।’ फिर खट्टामिट्ठा फोन आयेगा,’राजा! मज़नून अभी तक नहीं आया,फौरन भेजो।’ तीसरी मर्तबा लहजे में सख्ती,’मुज्‍़तबा! अगर परसों तक तुम्हारा मज़नून नहीं आया तो मैं तुम्हारा लिखना-पढ़ना तो दूर चलना-फिरना तक दूभर कर दूंगा।’एक बार यहाँ तक कहा,’विश्वास करो,अगर कल तक तुम्हारा मज़नून नहीं आया तो मेरे हाथों तुम्हारा खून हो सकता है।’”-मज्‍़तबा हुसैन
बहुत सारी बातें हैं मामाजी के बारे में जो हमें हमेशा अपनी जिजीविषा,कर्मठता,मेहनत तथा लगन के बल पर बेहद विषम परिस्थितियों को झेलते हुये संघर्ष करते हुये लगभग इतने ऊँचे शिखर पर पहुंचे। आज भी वे जितनी मेहनत करते हैं वह देखकर अचंभा होता है। मैंने जितना उनके बारे में मिलकर खुद जाना है उससे ज्यादा लोगों से सुनकर जाना है।उनके बारे में धीरेंन्द्र अस्थाना ने लिखते हुये लिखा है:-
नौकुचिया ताल के बारे में किंवदंती है कि उसके नौ कोने एक साथ नहीं देखे जा सकते;नंदन जी वही नौ कोनेवाली झील हैं और उसी झील की तरह अनसमझा रह जाने को अभिशप्त हैं।वरना तो क्या कारण है कि जिस शख्स के सिखाये नौजवान पत्रकारिता की दुनिया में राज कर रहे हैं,जिसकी निष्कपट मानवीयता और तीव्र भावात्मकता के आवेग का स्पर्श पाकर कई स्थापित कवि-कथाकार-समीक्षक,कुंदन की तरह चमक रहे हों,जिसके परिचय की पहुंच में कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष,कवि, चिंतक ,चित्रकार,राजदूत हों,जिसने संपादन की दुनिया में जगह-जगह अपने ठप्पे लगाये हों,जिसने बड़ी-बड़ी लकीरों को अपनी लकीर खींचकर छोटा कर दिया हो,जो लंबी -लंबी यात्राओं के विराट अनुभवों -संस्मरणों से लबरेज़ हो,जिसकी एक समीक्षा ने अज्ञात कवि लेखक को साहित्य की मुख्य धारा का वासी बना दिया हो- ऐसा एक शख्‍़स -जो अपने जीवन काल में वैविध्यों का मिथक बन गया हो-उसके कुल कर्म का एक भी सार्थक ,जीवंत और रचनात्मक मूल्यांकन हमारे पास उपलब्ध नहीं है।
आज एक जुलाई को दिल्ली निवासी हमारे बंबई वाले मामाजी डा. कन्हैयालाल नंदन का तिहत्तरवाँ जन्मदिन है। मैं इस अवसर पर उनके स्वास्थ्य तथा कुशलता की मंगलकामना करता हूँ।
सूचना- अगली पोस्ट में देखें- कन्हैयालाल नंदन – आत्मकथ्य

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

38 responses to “कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा”

  1. विनय
    आपके ठहरे मामा और ‘पराग’ पढ़कर बड़े हुए हम जैसे बच्चों के रहे प्यारे चाचा। नंदन जी को जन्मदिवस की ढेर सारी शुभकामनाएँ। उन जैसी संपादकीय प्रतिभा बिरली होती है। और वे इतने जुझारू भी हैं ये जानकर ख़ुशी और गर्व हुआ। आपको इस लेख के लिए जितना धन्यवाद दिया जाए कम है।
  2. e-shadow
    बहुत सुंदर लिखा है। कन्हैयालाल नंदन, बचपन से ये नाम सुन सुन कर बडा हुआ हूँ। पराग में जाने कितने ही यात्रा विवरण पढें हैं। मेरे लिये उनका नाम किसी गुरूनाम की तरह ही है। आप सौभाग्यशाली हैं कि आपको उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ, पर नंदन जी भी कम भाग्यशाली नही कि उनके जीन्स उनकी आगे आने वाली पीढियों में पंहुच गये हैं। साधुवाद।
  3. भारत भूषण तिवारी
    नंदन जी को सुनने का सौभाग्य न्यूयॉर्क वाले कार्यक्रम में प्राप्त हुआ था. ‘पराग’ में ‘तुम्हारे भैया’ दस्तखत वाले अपनत्व भरे सम्पादकीय याद आ गए.
    उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में इतनी सारी बातें बताने के लिए धन्यवाद.आत्मकथ्य वाली पोस्ट का बेसब्री से इन्तज़ार रहेगा.
  4. रवि
    तो, अब पता चला कि फ़ुरसतिया के लेखन में , जेनेटिक, नंदनीय गुण यूँ ही नहीं हैं !
  5. सुनील
    अनूप, नंदन जी के बारे में इस तरह से पारिवारिक लेख से जिसमें उनके व्यक्तिगत जीवन, मित्रता, परिवार की झलक मिले, पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. बचपन से पढ़े, सुने नाम तो याद रहते हैं पर उनके पीछे छुपा मानस तो छुपा ही रह जाता अगर तुम न लिखते. उनके जन्मदिन पर मेरी भी बधाई.
  6. DesiPundit » Archives » नंदन चाचा
    [...] अगर आप भारत में ७० के दशक में बड़े हुए हों तो पराग और कन्हैया लाल नंदन आपके लिए बहुत परिचित नाम होंगे। एक अर्से से हिंदी जगत में, चाहे पत्रिकाओं का संपादन हो या कवि सम्मेलनों के मंच, वे सर्वव्यापी रहे हैं। उनके ७३वें जन्मदिन पर उनके भानजे और वरिष्ठ हिंदी चिट्ठाकार फ़ुरसतिया उन्हें शुभकामनाएँ दे रहे हैं और उनसे परिचय करा रहे हैं। [...]
  7. अनूप भार्गव
    नंदन जी हमारे राष्ट्र की निधि है । अभी दो महिनें पहले उन से पही बार मिलनें का और उन के साथ कविता पाठ का अवसर मिला था न्यूयौर्क में । बहुत ही सहज और सरल व्यक्तित्व है उन का । एक अजब सा जादू था उन की प्रभावशाली आवाज़ में जो उन की उम्र देखते हुए बड़ा सुखद आश्चर्य सा लगा । उन की कविता पाठ के समय एक बिल्कुल ‘मौन’ सा था पूरे श्रोता समुदाय में , वक्त जैसे ठहर सा गया हो ।
    चित्र छापनें के लिये धन्यवाद । सूचना के लिये बता दूं कि चित्र में बायें से दायें है :
    श्री विश्वनाथ सचदेव , रजनी , अनूप, श्री नंदन जी , डा. जयरमन (भारतीय विद्या भवन से )
  8. सृजन शिल्पी
    आपके लेखन में भी नंदनजी के आनुवंशिक गुण की झलक स्पष्ट रूप से मिलती है। मेरे बालमन और पत्रकार मन को गढ़ने में भी नंदनजी का बहुत योगदान रहा है। इधर कुछ वर्षों से उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिल पा रही थी। उनसे मेरी अंतिम मुलाकात 10 वर्ष पहले दिल्ली में पत्रकारिता पर आयोजित एक संगोष्ठी में हुई थी, जिसमें विष्णु खरे ने नंदनजी और विद्यानिवास मिश्र जी की अत्यंत तीखे शब्दों में आलोचना की थी और उनके लिए काफी अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया था। उस संगोष्ठी में दिल्ली के तमाम बड़े पत्रकार मौजूद थे। पत्रकारिता की दशा-दिशा को सुधारने के नाम पर हो रही उस बहस में जो घमासान हुआ था उससे नंदनजी काफी आहत दिखे थे। लेकिन उन्होंने कोई प्रत्युत्तर दिए बिना वहाँ से निकल जाना ठीक समझा था। उनके खराब स्वास्थ्य के संबंध में जानकर अत्यंत दु:ख हुआ। उनके 73वें जन्म दिन पर हार्दिक शुभकामनाएँ। आपने इतने आत्मीय अंदाज में उनसे एक बार फिर से परिचय कराया, इसके लिए बहुत धन्यवाद।
  9. SHUAIB
    नंदन जी के बारे मे इतना सुंदर लेख पोस्ट करने पर आपका धन्यवाद। मैं इस पहले उन्हें नही जानता था, आपके इस लेख से उनके बारे मे पता चला।
  10. Hindi Blogger
    ज़्यादातर पाठकों की तरह मेरा भी नंदन जी की लेखनी से परिचय पराग के माध्यम से ही हुआ. इतनी बढ़िया और इतनी अनछुई(कम से कम मेरे लिए) जानकारी देने के लिए धन्यवाद!
  11. प्रेमलता पांडे
    महान साहित्यकार को उनके जन्मदिन पर बधाई और स्वास्थ्य हेतु शुभकामनाएँ।
    प्रेमलता पांडे
  12. राजीव
    श्री शुक्ल जी,
    नन्दन जी का विस्तृत और निजी परिचय प्रस्तुत करने का धन्यवाद। उनके जन्म दिवस की वर्षगांठ पर बधाइयां। उनके स्वस्थ और दीर्घायु होने की शुभ कामनाओं सहित -
    -
    राजीव
  13. राजीव
    श्री शुक्ल जी,
    नन्दन जी का विस्तृत और निजी परिचय प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
    आखिरी बार तकरीबन एक वर्ष पूर्व कानपुर में हुए कवि-सम्मेलन में मुझे उनके काव्य-पाठ का लाभ हुआ था।
    उनके जन्म दिवस की वर्षगांठ पर बधाइयां। उनके स्वस्थ और दीर्घायु होने की शुभ कामनाओं सहित -
    -
    राजीव
  14. फ़ुरसतिया » बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं
    [...] [कन्हैया लाल नंदनजी के बारे में लिखे संस्मरण तथा कविताओं में साथियों की रुचि देखते हुये उनका खुद के बारे में लिखा संस्मरण पेश कर रहा हूँ। इस बीच नंदनजी ने जन्मदिन की शुभकामनाओं के लिये साथियों को धन्यवाद देते हुये सभी को शुभकामनायें प्रेषित की हैं।] [...]
  15. मनीष
    हमेशा की तरह बहुत खूब प्रस्तुति !
  16. फ़ुरसतिया » अथ कम्पू ब्लागर भेंटवार्ता
    [...] अब हम कैसे समझाते कि हमारे मामाजी ने कभी समझाया था कि लेखन में कुछ तो ऐसा होना चाहिये कि पाठक भी साथ चलकर समझने का प्रयास करे। अगर सब कुछ खुला-खुला होगा तो जिज्ञासा नहीं रहेगी पाठक को। एक बार पढ़कर दुबारा नहीं पढ़ेगा वह रचना को। [...]
  17. फ़ुरसतिया » थोड़ा कहा बहुत समझना
    [...] आलोक ,जो कि हमारे आदि चिट्ठाकार हैं,ने अपनी टिप्पणियों में कुछ बुनियादी सवाल उठाये हैं। नंदनजी जी कविताओं पर टिप्पणी करते हुये उन्होंने पूछा कि क्या इसके लिये लेखक या प्रकाशक से पूछ लिया गया है? नंदनजी की रचनाओं के बारे में तो बता दूँ कि वे हमारे मामा हैं। उन्होंने हमें कह रखा है कि जो रचना मन करे छापो। बल्कि उन्होंने तो अपनी साइट बनाने के लिये भी कहा है। [...]
  18. मितुल
    नंदन जी के परिचय का हार्दिक धन्यवाद। आपके परिचय का कुछ भाग विकीपीडिया मे उपलब्द्ध करा रहा हु। आशा है आपको आपत्ती नही होगी। अगर है, तो बताने का संकोच न करे। कडी है:
    http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8
  19. फ़ुरसतिया » फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा 2.कन्हैयालाल नंदन की कवितायें 3.बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं 4.अथ कम्पू ब्लागर भेंटवार्ता 5.थोड़ा कहा बहुत समझना 6.एक पत्रकार दो अखबार 7.देखा मैंने उसे कानपुर पथ पर- 8.अनुगूंज २१-कुछ चुटकुले 9.एक मीट ब्लागर और संभावित ब्लागर की 10.उखड़े खम्भे 11.ग़ज़ल क्या है… 12.ग़ज़ल का इतिहास 13.अनन्य उर्फ छोटू उर्फ हर्ष-जन्मदिन मुबारक 14.पहाड़ का सीना चीरता हौसला [...]
  20. फुरसतिया » जिन्दगी जिंदादिली का नाम है
    [...] यह मन की ताकत है जिसकी बदौलत हमारे मामा नंदनजी ७४ साल की उमर में हफ़्ते में दो दिन डायलिसिस करवाने के बावजूद बात करने पर दूसरे का हाल-चाल पहले पूछते हैं। विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिये न्यूयार्क तक टहल आते हैं, अक्सर खुद गाड़ी चलाते हैं। [...]
  21. Sanjeet Tripathi
    शानदार!!
    तहेदिल से शुक्रिया!! दिल खुश हो गया इसे पढ़कर!!
  22. फुरसतिया » पूना वाया दिल्ली
    [...] सो सबेरे दिल्ली पहुंचेगे नौ सितम्बर को। वहां सबसे पहले अपने मामाजी मुलाकात करेंगे। मामाजी हमारे रहते हैं कैलाश हिल्स में। पास ही में मैथिलीजी का आफ़िस है। सो वहीं विचार बनाये हैं कि जो साथी लोग आ सके उनका-उनका दर्शन कर लें। इतवार है सो ज्यादा लोगों का छुट्टिये होगा लेकिन बहुत सारा कामकाज रहता है। फिर भी टाइम निकल पाये तो आइयेगा। तमाम साथियों के फोन नम्बर हमको जीतू ने दिये हैं उनसे बतिया्ने का प्रयास करूंगा। [...]
  23. फुरसतिया » ईमानदारी की कीमत
    [...] बहरहाल, जब हम कैलाश बिहार पहुंचे तो सबेरे के नौ बज चुके थे। रास्ते में मामाजी को फोन करके पता कन्फ़र्म किया। घर पहुंचकर सरदारजी आटो वाले का टैक्सी नम्बर नोट किया। उनसे कहा कि अपना आटोग्राफ़ भी दे दें। सरदारजी ने मेरी नोटबुक में लिखा- बलबीर भाटिया DLIRK1651 9910499682 Good man for honesty. हस्ताक्षर बलबीर भाटिया ०९.०९.०७ सरदार जी इस बीच बातचीत करके बहुत प्रभावित हो चुके थे। हमने उनको १२० के अलावा तीस रुपये और दे दिये। ईमानदारी हमारे लिये पचास रुपये महंगी पड़ गयी। इसीलिये लोग ईमानदार बने रहने से बिदकते हैं। लेकिन हम यही सोचकर खुश हैं सरदारजी के दस लाख चले चले गये, हमारे तो सिर्फ़ पचास ही गये। [...]
  24. फुरसतिया » सपनो की डोर पड़ी पलकों का पालना
    [...] अम्मा ने अकसर अपने भैया के गीत गुननुनाती हैं। एक फ़ेफ़ड़ा काफ़ी समय पहले टी.बी. से खराब हो गया था। पिछले साल पैरालिसिस का हमला झेला। आजकल सांस के तकलीफ़ है। आंख का आपरेशन अभी पिछले महीन करवाया। हर दूसरे दिन कहती हैं -अनूप, अभै रोशनी सही नहीं है। हम कहते हैं -अइहै ,तुम तो परेशान हो बिना मतलब अम्मा! हमारे घर में सबसे ज्यादा ‘अवधिंग्लिस’ अगर कोई बोलता है तो वो हमारा अम्मा हैं। टेंशन न लेव, प्रोग्रामै नहीं पता चलत आय, उई लेफ़्फ़्राइट कई के चले गये। [...]
  25. फुरसतिया » सम्मान का एरियर
    [...] कलमामाजी को फोन किया तो पता चला वे मुम्बई में थे। पता यह भी चला कि उनको सन २००६ का महाराष्ट्र हिन्दी सेवा सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है। उसी सिलसिले में वे मुम्बई आये हुये थे। वहीं बान्द्रा इलाके के किसी गेस्ट हाउस में ठहरे हुये हैं। [...]
  26. प्रवीण त्रिवेदी-प्राइमरी का मास्टर
    आपके मामा हैं तो आप और नंदन जी क्या लगेंगे ? भाई फतेहपुर होने के नाते आपसे इतना तो पूछने का हक मेरा बनता ही है।
    आपने रिश्तेदारी के रूप में ही सही जो जानकारी दी वह रोचक व मजेदार थी । अच्छा हुआ की इसी बहाने हम फतेहपुर वाले उनके बारे में मामा से न सही भांजे से ही , जा तो पाए ।
    मेरा प्रणाम !
  27. वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है…
    [...] डा.कन्हैयालाल नंदन इस पोस्ट की सारी फो…फ़्लिकर से साभार [...]
  28. उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए
    [...] नन्दन संबंधित कड़ियां: १.कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा २. कन्हैयालाल नंदन की कवितायें ३. [...]
  29. सपनो की डोर पड़ी पलकों का पालना
    [...] ने अकसर अपने भैया के गीत गुननुनाती हैं। एक फ़ेफ़ड़ा काफ़ी [...]
  30. संजय बेंगाणी
    आज नंदनजी के देवलोक गमन के समाचार मिले. दुखद समाचार है. मैं अपनी संवेदनाएं व्यक्त करता हूँ.
  31. dr.anurag
    यक़ीनन एक बुकमार्क करने जैसा पन्ना है …….सच…….एक साहित्यकार से इतर इसमें कुछ ऐसे द्रश्य है जो उनका मानवीय पक्ष भी दिखाते है……हम भी पराग ओर नंदन पढ़ते बढे हुए है ओर धर्मयुग पढ़ते हुए खिडकियों से झांकना शुरू किया था …….उन्हें श्रदांजलि ……
    .इत्तेफाक से कल से कमलेश्वर की’ जो मैंने जिया ” पढनी शुरू की है ……जिसमे कई परते उस जमाने की खुलती है ओर कई चेहरे भी……..अपने अलग रूप में सामने आते है …….
  32. विवेक सिंह
    दुखद समाचार आज पढ़ा । नंदन जी को हमारी श्रद्धांजलि !
    विवेक सिंह की हालिया प्रविष्टी..कुआँ खोदकर पानी पीनाMy ComLuv Profile
  33. लावण्या
    आदरणीय नंदन जी – मामाजी से न्यू योर्क हिन्दी सम्मलेन में एक मंच से काव्य पाठ करना मेरे लिए बड़े गौरव का दिन था ! उनकी लिखी आत्मकथा रूपी छोटी पुस्तक अभी अभी पढ़ चुकी हूँ – एक बात और मेरे चचेरे मामाजी प्रबोध गोदीवाला बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे और आपके मामाजी के बंबई के दोस्त भी थे !
    उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया तब ये बात मैं जान पायी …दुनिया सच में छोटी सी गेंद जितनी ही है
    बहुत बढ़िया लिख़ा है – नंदन जी को सादर नमन !
    स स्नेह,
    - लावण्या
  34. Smart Indian - अनुराग शर्मा
    नन्दन जी को श्रद्धांजलि! यह क्षति अपूर्णनीय है। मेरी पीढी का कोई विरला ही हिन्दीभाषी होगा जो उनकी कमी महसूस नहीं करेगा।
    Smart Indian – अनुराग शर्मा की हालिया प्रविष्टी..कम्युनिस्ट सुधर रहे हैंMy ComLuv Profile
  35. ashok pandey
    चिर स्‍मरणीय स्‍व. नंदन जी को हार्दिक श्रद्धांजलि। आपके साथ हमारी पूरी संवेदना है। हमारी तो पढ़ने की आदत ही पराग से लगी थी। बचपन में गांव में हमारा एक दोस्‍त था सलिल। वह शहर से आया था और उसके पास पराग के पुराने अंकों का ढेर था, इतना अधिक कि कुछ अन्‍य पुस्‍तकों व पत्रिकाओं को जुटाकर हमने एक पुस्‍तकालय ही खोल डाला। उसके बाद पराग के वे सारे पुराने अंक मैंने पढ़ डाले और नए अंकों का बेसब्री से इंतजार रहने लगा। उसी समय से कन्‍हैया लाल नंदन हमारे लिए समकालीन साहित्‍य की दुनिया का सबसे चिर परिचित नाम हो गया। हिन्‍दी में अब वैसी पत्रिकाओं व वैसे संपादकों का दौर गुजरे जमाने की बात हो गयी है। पता नहीं लोगों को कैसे लग जाता है कि हिन्‍दी बढ़ रही है।
  36. : मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन
    [...] के अंक से साभार! संबंधित कड़ियां: १.कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा २.कन्हैयालाल नंदन जी की कवितायें [...]
  37. संतोष त्रिवेदी
    नंदन जी को मेरी ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि! एक तरह से वे मेरे भी मामा लगते थे,क्योंकि मेरा ननिहाल भी फतेहपुर में है.
    संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..राम की अयोध्या !My ComLuv Profile
  38. abha
    बंबई वाले मामा को हमारी श्रद्दाजलि ,एक संजीदा व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार को नमन।

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